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अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग त्यक्त्वा कर्मफलसङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: | कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: || 4.20|| - Rαᴠɪna_____
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग यस्य सर्वे समारंभ: कामसंकल्पवर्जिता: | ज्ञानाग्निघकर्माणं तमहुः पण्डितं बुधः || 4.19||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: | स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् || 4.18|| - Rαᴠɪna_____
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: | अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: || 4.17||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: | तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्व मोक्ष्यसेऽशुभात् ||4.16||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: | कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् || 4.15||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफल सृहा | इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते || 4.14||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: | तस्य कर्तारामपि मां विद्ध्यकर्तारामव्ययम् || 4.13||
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग काङ् क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: | क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा || 4.12|| - Rαᴠɪna_____
अध्याय ४:- ज्ञान कर्म संन्यास योग ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 4.11||
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