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संस्कार की विरासत कुछ मुँहफट सी लड़कियाँ, कैसे कह देती है कुछ भी, किसी से भी, कहीं भी। नहीं करती वो लिहाज किसी का। मैं अक्सर सोचती हूँ, कैसे कह देती है वो सच, लड़खड़ाते नहीं उनके होंठ, सूखता नहीं उनका गला, धड़कता नहीं उनका दिल, पसीना आता नहीं उनकी पेशानी में, न गीली होती हैं उनकी हथेलियाँ, किसने सिखाया उन्हें सच कहना! निश्चय ही माँ ने, नहीं दिए संस्कार उन्हें। संस्कार जो हमें सीखाता है चुप रहना। आँखें झुकाकर, होंठों को सिलकर, सच-झूठ के फर्क को समझकर भी, वफ़ा- बेवफाई को परखकर भी, सिखाता है समर्पण। संस्कार की विरासत न देकर मुक्त कर दिया है उनको; उनकी माँओं ने। इन्हें देखकर, चेहरा सिकोड़ने वाली, मुँह बनाने वाली, जिव्हा में कसैलापन महसूस करने वाली, उन औरतों की आँखों में अक्सर एक 'काश' देखा है मैंने। काश! कि मुझे भी नहीं मिलती कोई विरासत। काश! कि मेरे शरीर से न लिपटी होती पिता, पति की इज्जत। काश! की मैं भी होती ज़रा सी मुँहफट!! कभी सोचती हूँ, अगर होती मैं एक बेटी की माँ, क्या मैं भी रोकती उसे हँसने बोलने से? क्या सीखाती उसे भावनाओं को छुपाने की कला? खुद को नजरअंदाज करने का हुनर। अफसोस की ज़वाब होता 'हाँ'! क्योंकि ये संस्कार नहीं ये बबूल की जड़ें हैं, हमारे अंदर गहरी पैठ बनाएं हुए, जकड़ चुकी है हमारी आत्मा को, गुलाम बना चुकी है हमारी सोच को, फिर सोचती हूँ क्या बदला कल और आज में? नानी की दहलीज को माँ ने लांघना सीखा, आंगन के चौबारे से स्कूल तक का रास्ता, आसान तो नहीं रहा होगा। थोड़ा सा मुँह फट बनी होगी नानी! माँ को अक्षर से मेल करवाने के लिए, थोड़ा सा मुँहफट माँ भी बनी होंगी, मुझे अपने पैरों में खड़ा करने के लिए, बबूल की जड़ों को थोड़ा-थोड़ा काटा होगा नाज़ुक हाथों से, मौन से मुखर सदियों का सफर पार करने में लगेंगी सदियाँ। लेकिन धीरे-धीरे ही सही अब माँएं गढ़ने लगी है मुँहफट लड़कियाँ। सोमा सुर #kavyotsav -2
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