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Rohit Gupta

Rohit Gupta

@rohitgupta140119


चतुर की चतुराई ??।
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एक गाँव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता था। उसके पास 19 ऊंट थे। एक दिन उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गयी। जिसमें लिखा था कि:

मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को, उसका एक चौथाई मेरी बेटी को, और उसका पांचवाँ हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएँ।

सब लोग चक्कर में पड़ गए कि ये बँटवारा कैसे हो ?

19 ऊंटों का आधा अर्थात एक ऊँट काटना पड़ेगा, फिर तो ऊँट ही मर जायेगा। चलो एक को काट दिया तो बचे 18 उनका एक चौथाई साढ़े चार- साढ़े चार फिर??

सब बड़ी उलझन में थे। फिर पड़ोस के गांव से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया

वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़ कर आया, समस्या सुनी, थोडा दिमाग लगाया, फिर बोला इन 19 ऊंटों में मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो।

सबने पहले तो सोचा कि एक वो पागल था, जो ऐसी वसीयत कर के चला गया, और अब ये दूसरा पागल आ गया जो बोलता है कि उनमें मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो। फिर भी सब ने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है।

19+1=20 हुए।

20 का आधा 10 बेटे को दे दिए।

20 का चौथाई 5 बेटी को दे दिए।

20 का पांचवाँ हिस्सा 4 नौकर को दे दिए।

10+5+4=19 बच गया एक ऊँट जो बुद्धिमान व्यक्ति का था वो उसे लेकर अपने गॉंव लौट गया।

सो हम सब के जीवन में 5 ज्ञानेंद्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, और 4 अंतःकरण चतुष्टय( मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार) कुल 19 ऊँट होते हैं। सारा जीवन मनुष्य इन्हीं के बँटवारे में उलझा रहता है और जब तक उसमें आत्मा रूपी ऊँट नहीं मिलाया जाता यानी के आध्यात्मिक जीवन (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) नहीं जिया जाता, तब तक सुख, शांति, संतोष व आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।

*राधे राधे जी*

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एक बार एक व्यक्ति शहर में रास्ते पर चलते हुए जा रहा था। अचानक ही वह एक सर्कस के बाहर रुक गया और वहां रस्सी से बंधे हुए एक हाथी को देकने लगा और सोचने लगा । वह सोच रहा था कि जो हाथी जाली, मोटे चैन या कड़ी को भी तोड़ देने की शक्ति रखता है वह एक साधारण रस्सी से बंधे होने पर भी कुछ नहीं कर रहा है ।
उस व्यक्ति नें तभी देखा कि हाथी के पास में एक ट्रेनर(trainer) खड़ा था । यह देखकर उस व्यक्ति ने ट्रेनर से पुछा ! यह हाथी अपनी जगह से इधर उधर क्यों नहीं भागता या रस्सी क्यों नहीं तोड़ता है ? उसने जवाब दिया ! जब यह हाथी छोटा था तब भी हम इसी रस्सी से इसे बांधते थे । जब यह हाथी छोटा था तब यह बार बार इस रस्सी को तोड़ने की कोशिश करता था पर कभी तोड़ नहीं पाया और बार बार कोशिश करने के कारण हाथी को यह विश्वास हो गया कि रस्सी को तोडना असंभव है । जबकी आज वह रस्सी को तोड़ने की ताकत रखता फिर भी वह या सोच कर कोशिश भी नहीं कर रहा है कि पूरा जीवन में इस रस्सी को तोड़ नहीं पाया तो आब क्या तोड़ पाउँगा ।



यह सुनकर वह व्यक्ति दंग रह गया ।

उस हाथी की तरह हममे से भी कई लोग ऐसे हैं जो अपने जिंदगी में कोशिश करना छोड़ चुके हैं क्योंकि बस वह पहले से ही बार बार कोशिश करने पर असफलता प्राप्त कर चुके होते हैं। उन्हें बार बार कोशिश करते रहना चाहिए ।`

जीवन में बार बार असफल होने से ही सफलता का रास्ता दिखता है ।

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शिप्रा का रिजर्वेशन जिस बोगी में था, उसमें लगभग सभी लड़के ही थे ।
टॉयलेट जाने के बहाने शिप्रा पूरी बोगी घूम आई थी, मुश्किल से दो या तीन औरतें होंगी । मन अनजाने भय से काँप सा गया ।
पहली बार अकेली सफर कर रही थी, इसलिये पहले से ही घबराई हुई थी। अतः खुद को सहज रखने के लिए चुपचाप अपनी सीट पर मैगज़ीन निकाल कर पढ़ने लगी ।
नवयुवकों का झुंड जो शायद किसी कैम्प जा रहे थे, के हँसी - मजाक , चुटकुले उसके हिम्मत को और भी तोड़ रहे थे ।
शिप्रा के भय और घबराहट के बीच अनचाही सी रात धीरे - धीरे उतरने लगी ।
सहसा सामने के सीट पर बैठे लड़के ने कहा --
" हेलो , मैं साकेत और आप ? "
भय से पीली पड़ चुकी शिप्रा ने कहा --" जी मैं ........."
"कोई बात नहीं , नाम मत बताइये । वैसे कहाँ जा रहीं हैं आप ?"
शिप्रा ने धीरे से कहा--"इलाहबाद"
"क्या इलाहाबाद... ?
वो तो मेरा नानी -घर है। इस रिश्ते से तो आप मेरी बहन लगीं ।" खुश होते हुए साकेत ने कहा ।और फिर इलाहाबाद की अनगिनत बातें बताता रहा कि उसके नाना जी काफी नामी व्यक्ति हैं , उसके दोनों मामा सेना के उच्च अधिकारी हैं और ढेरों नई - पुरानी बातें ।
शिप्रा भी धीरे - धीरे सामान्य हो उसके बातों में रूचि लेती रही । शिप्रा रात भर साकेत का हाथ पकड़ के सोती रही
रात जैसे कुँवारी आई थी , वैसे ही पवित्र कुँवारी गुजर गई ।
सुबह शिप्रा ने कहा - " लीजिये मेरा पता रख लीजिए , कभी नानी घर आइये तो जरुर मिलने आइयेगा ।"
" कौन सा नानीघर बहन ? वो तो मैंने आपको डरते देखा तो झूठ - मूठ के रिश्ते गढ़ता रहा । मैं तो पहले कभी इलाहबाद आया ही नहीं ।"
"क्या..... ?" -- चौंक उठी शिप्रा ।
"बहन ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं, कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें । हम में ही तो पिता और भाई भी होते हैं ।"
कह कर प्यार से उसके सर पर हाथ रख मुस्कुरा उठा साकेत ।
शिप्रा साकेत को देखती रही जैसे कि कोई अपना भाई उससे विदा ले रहा हो शिप्रा की आँखें गीली हो चुकी थी
काश इस संसार मे सब ऐसे हो जाये
न कोई अत्याचार ,न व्यभिचार ,भय मुक्त समाज का स्वरूप हमारा देश,हमारा प्रदेश, हमारा शहर,हमारा गांव
जहाँ सभी बहन ,बेटियों,खुली हवा में सांस ले सकें
निर्भय होकर कहीं भी कभी भी आ जा सके जहाँ जर कोई एक दूसरे का मददगार हो ?
तब रिक्से वाले ने आवाज लगाई बहन कहा चलना है
कॉलेज तक चलना है भाई ले चलोगे आज वो डरी नहीं ।
भाई जो साथ मे था...

#प्रेरणादायक ?

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#भारतीय #पुलिसिया #जिन्दावाद

नमस्कार दोस्तों आज में आपके सामने पुलिस वालो की बात करने जा रहा हूँ जिन पुलिस वालों पर आप और हम पैसे लेनदेन या फिर आम लोगो से बर्तमीजी का आरोप बहुत जल्दी लगा देते हैं कि यार ये पुलिस वाले किसी के नहीं होते इनके दिल में कोई रहम की चीज नहीं होती , मगर दोस्तों आज मैंने पुलिस के कुछ जवानों को एक ऐसे स्थान पर खड़े देखा था जहाँ एक परिवार के दो छोटे छोटे बच्चे बेठ कर मिट्टी के दिए बेच रहे थे और पुलिस वाले उनके सामने खड़े हुए बात चित कर रहें थे जिनको देखकर एक बार तो मुझें भी लगा की ये पुलिस वाले इन ग़रीब बच्चो को परेशान करेंगे और ये कहेंगे कि यहाँ से हटो लेकिन वहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ मेने कुछ समय खड़ा होकर उन पुलिस वालों को देखा की ये अब क्या करते हैं मैंने देखा की बच्चो के सामने खड़े ये पुलिस वाले दिए खरीद रहे थें जब मैने ये जानने की कोशिस की कि ये लोग दिए क्यों खरीद रहे हैं दीपावली पर , ये लोग भी चाइनीज़ झालरों को खरीदकर भी लगा सकते है लेकिन उन्होंने ऐसा नही् किया , जिसके बाद ये मालूम हुआ की ये बच्चे काफी समय से दिए बेच रहे थे मगर कोई खरीदने नही आया जिधर देखो उधर बस हर कोई चाइनीज़ झालर और लाइट ख़रीद रहा था और ये बच्चे ऐसे ही बैठे थे लेकिन बाजार में भीड़ भाड़ की वज़ह से अमरोहा जनपद के थाना सैदनगली थानाध्यक्ष नीरज कुमार पैदल गश्त पर थे और उन्होंने इन बच्चो को दिए बेचते हुए देखा तो वो उनके पास गये और बोले बेटा तुम्हारे मम्मी पापा कहाँ हैं और तुम दिए कब से बेच रहे हों बच्चो ने कहाँ की अंकल काफी समय हो गया और अभी तक दिए नहीं बीक पाए अंकल हम गरीब है हम दीपावलीकैसे मनाएंगे , बच्चो की ये बात सुन थानाध्यक्ष भाबुक हो गए , लेक़िन इस बात को सुनने के बाद थानाध्यक्ष ने अपने सभी साथियों के साथ मिलकर बच्चो से पहले तो दिए ख़रीदे और उनके पैसे दिए यही नही उन्होंने उन बच्चो को दीपावली मनाने के लिये अपने पास से और पैसे दिए और कहाँ की बेटा अच्छे से दीपावली मनाओ लेक़िन थानाध्यक्ष यही नही रुके उन्होंने आमजन लोगों को रोक रोक कर इन बच्चो के दिए खरीदने के लिए कहाँ और ये मैसेज दिया की आप लोग चाइनीज़ लाईट न ख़रीदकर मिट्टी के दिए ख़रीदे जिससे उन ग़रीब परिवारों की भी दीपावलीअच्छे से मन सके जो परिवार मिट्टी के बर्तन बनाकर अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। जिस बात को मेने खुद सुना और फ़िर मेने ये मैसेज़ आप लोगो तक भेजने का मन बनाया की ऐसे भी पुलिस वाले होते है हैप्पी दीपावली??????

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Plzzz puraa pdhlo

बड़े गुस्से से मैं घर से चला आया ..
इतना गुस्सा था की गलती से पापा के ही जूते पहन के निकल गया
मैं आज बस घर छोड़ दूंगा, और तभी लौटूंगा जब बहुत बड़ा आदमी बन जाऊंगा ...
जब मोटर साइकिल नहीं दिलवा सकते थे, तो क्यूँ इंजीनियर बनाने के सपने देखतें है .....
आज मैं पापा का पर्स भी उठा लाया था .... जिसे किसी को हाथ तक न लगाने देते थे ...
मुझे पता है इस पर्स मैं जरुर पैसो के हिसाब की डायरी होगी ....
पता तो चले कितना माल छुपाया है .....
माँ से भी ...
इसीलिए हाथ नहीं लगाने देते किसी को..
जैसे ही मैं कच्चे रास्ते से सड़क पर आया, मुझे लगा जूतों में कुछ चुभ रहा है ....
मैंने जूता निकाल कर देखा .....
मेरी एडी से थोडा सा खून रिस आया था ...
जूते की कोई कील निकली हुयी थी, दर्द तो हुआ पर गुस्सा बहुत था ..
और मुझे जाना ही था घर छोड़कर ...
जैसे ही कुछ दूर चला ....
मुझे पांवो में गिला गिला लगा, सड़क पर पानी बिखरा पड़ा था ....
पाँव उठा के देखा तो जूते का तला टुटा था .....
जैसे तेसे लंगडाकर बस स्टॉप पहुंचा, पता चला एक घंटे तक कोई बस नहीं थी .....
मैंने सोचा क्यों न पर्स की तलाशी ली जाये ....
मैंने पर्स खोला, एक पर्ची दिखाई दी, लिखा था..
लैपटॉप के लिए 40 हजार उधार लिए
पर लैपटॉप तो घर मैं मेरे पास है ?
दूसरा एक मुड़ा हुआ पन्ना देखा, उसमे उनके ऑफिस की किसी हॉबी डे का लिखा था
उन्होंने हॉबी लिखी अच्छे जूते पहनना ......
ओह....अच्छे जुते पहनना ???
पर उनके जुते तो ...........!!!!
माँ पिछले चार महीने से हर पहली को कहती है नए जुते ले लो ...
और वे हर बार कहते "अभी तो 6 महीने जूते और चलेंगे .."
मैं अब समझा कितने चलेंगे
......तीसरी पर्ची ..........
पुराना स्कूटर दीजिये एक्सचेंज में नयी मोटर साइकिल ले जाइये ...
पढ़ते ही दिमाग घूम गया.....
पापा का स्कूटर .............
ओह्ह्ह्ह
मैं घर की और भागा........
अब पांवो में वो कील नही चुभ रही थी ....
मैं घर पहुंचा .....
न पापा थे न स्कूटर ..............
ओह्ह्ह नही
मैं समझ गया कहाँ गए ....
मैं दौड़ा .....
और
एजेंसी पर पहुंचा......
पापा वहीँ थे ...............
मैंने उनको गले से लगा लिया, और आंसुओ से उनका कन्धा भिगो दिया ..
.....नहीं...पापा नहीं........ मुझे नहीं चाहिए मोटर साइकिल...
बस आप नए जुते ले लो और मुझे अब बड़ा आदमी बनना है..
वो भी आपके तरीके से ...।।

"माँ" एक ऐसी बैंक है जहाँ आप हर भावना और दुख जमा कर सकते है...
और
"पापा" एक ऐसा क्रेडिट कार्ड है जिनके पास बैलेंस न होते हुए भी हमारे सपने पूरे करने की कोशिश करते है...मेरा पूरा पोस्ट पढ़ने के लिए शुक्रिया ????

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*किराये की साइकिल* . .
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पहले (1980-90) हम लोग गर्मियों में किराए की छोटी साईकिल लेते थे, अधिकांस लाल रंग की होती थी जिसमें पीछे कैरियर नहीं होता। जिससे आप किसी को डबल न बैठाकर घूमे। किराया शायद 25-50 पैसे प्रति घंटा होता था किराया पहले लगता था ओर दुकानदार नाम पता नोट कर लेता थाा

किराये के नियम कड़े होते थे .. जैसे की पंचर होने पर सुधारने के पैसे, टूट फूट होने पर आप की जिम्मेदारी, खैर ! हम खटारा छोटी सी किराए की साईकिल पर सवार उन गलियों के युवराज होते थे, पूरी ताकत से पैड़ल मारते, कभी हाथ छोड़कर चलाते और बैलेंस करते, तो कभी गिरकर उठते और फिर चल देते।

अपनी गली में आकर सारे दोस्त, बारी बारी से, साईकिल चलाने मांगते किराये की टाइम की लिमिट न निकल जाए, इसलिए तीन-चार बार साइकिल लेकर दूकान के सामने से निकलते।

तब किराए पर साइकिल लेना ही अपनी रईसी होती। खुद की अपनी छोटी साइकिल रखने वाले तब रईसी झाड़ते।

वैसे हमारे घरों में बड़ी काली साइकिलें ही होती थी। जिसे स्टैंड से उतारने और लगाने में पसीने छूट जाते। जिसे हाथ में लेकर दौड़ते, तो एक पैड़ल पर पैर जमाकर बैलेंस करते।

ऐसा करके फिर कैंची चलाना सीखें। बाद में डंडे को पार करने का कीर्तिमान बनाया, इसके बाद सीट तक पहुंचने का सफर एक नई ऊंचाई था। फिर सिंगल, डबल, हाथ छोड़कर, कैरियर पर बैठकर साइकिल के खेल किए।

*ख़ैर जिंदगी की साइकिल अभी भी चल रही है। बस वो दौर वो आनंद नही है*

क्योंकि कोई माने न माने पर जवानी से कहीं अच्छा वो खूबसूरत बचपन ही हुआ करता था .. जिसमें दुश्मनी की जगह सिर्फ एक कट्टी हुआ करती थी और सिर्फ दो उंगलिया जुडने से दोस्ती फिर शुरू हो जाया करती थी। अंततः बचपन एक बार निकल जाने पर सिर्फ यादें ही शेष रह जाती है और रह रह कर याद आकर सताती है।

*पर आज के बच्चो का बचपन एक मोबाईल चुराकर ले गया है*

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उठो द्रौपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोविन्द न आयेंगे।
कब तक आस लगाओगी तुम
बिके हुए अखबारों से।
कैसी रक्षा मांग रही हो
दु:शासन दरवारों से।
स्वंय जो लज्जाहीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोबिन्द न आयेंगे।
कल तक केवल अंधा राजा
अब गूंगा बहरा भी है।
होंठ सिल दिये हैं जनता के
कानों पर पहरा भी है।
तुम्ही कहो ये अश्रु तुम्हारे
किसको क्या समझायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोबिन्द न आयेंगे।
छोड़ो मेंहदी भुजा संम्भालो
खुद ही अपना चीर बचा लो।
द्यूत बिठाये बैठे शकुनि
मस्तक सब बिक जायेंगे।
उठो द्रोपदी वस्त्र संम्भालो
अब गोविद न आयेंगे।?
रिहित गुप्ता

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