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उधर अमीरों की हो रही दीवाली इधर गरीबों की है रिक्त थाली उधर खज़ानों की हैं बहारें इधर गरीबों की जेब खाली उधर डी•जे पे है धूम जमके इधर न गीत है, न है कव्वाली उधर सज रहे हैं महल दुमहले इधर अंधेरों की है दुनिया निराली उधर जगमगाती हैं मुंडरें घर की इधर है सर पे बस इक रात काली उधर पैमानों से छलक रहे हैं जाम उनके इधर ख्वाबों की हमने है अर्थी निकाली...।
ऐ दिल भला तेरे यूं धड़कने का सबब क्या है... अगर आशिकी भी यहां बेहयाई है, तो अदब क्या है...!
इस समाज के दामन में, आ मैं मोहब्बत का एक नया सबक गढ़ दूं... कि मेरी गीता तू समझ ले, और तेरी क़ुरआन मैं पढ़ लूं...!
उत्पीड़न के घूंट पिए हों मैने जिस राजा की नगरी में, मैं उस राजा को कैसे राजा कह दूं उसी राजा की नगरी में।
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