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इतबार की तलाश महानगरीय संस्कृति की इस आपा - धापी ने जीवन को यांत्रिक बनाने वाली इस शैली ने बहुत कुछ छिन्न - भिन्न कर दिया है मेरा तो चैन सूकून से भरा इतवार ही छीन लिया है। मुझे भी सबकी तरह एक अदद इतवार की तलाश है भीड़ में खंड- खंड बँट गए 'स्व' की तलाश है यूँ तो इतवार को सार्वजनिक अवकाश है पर औद्योगिक सभ्यता की इस पर गहरी छाप है। छह दिन के बाद आने वाला चिर प्रतिक्षित इतवार सैंकडों सरकारी और गैर सरकारी आयोजनों का शिकार उद्घाटन , भाषण , मीटिंग , प्रीतिभोज स्नेह मिलन सामाजिक और पारिवारिक उत्सवों का जशन। भीड़ में खंड- खंड बँट गए 'स्व' की तलाश है यूँ तो इतवार को सार्वजनिक अवकाश है पर औद्योगिक सभ्यता की इस पर गहरी छाप है। वह हर बार कसौटी बन कर लेता है परीक्षा कभी तो वास्तविक अवकाश बनकर आओ कालचक्र के मलबे से इतवार को ढूँढ लाओ। --डॉ. निर्मला शर्मा दौसा,( राजस्थान)
बादल बादलों को देखते ही , मन मयूर नाचने लगता है। नन्ही- बूदों के धरा पर आगमन से , संगीत का झरना बहने लगता है। प्रकृति , वर्षा की फुहारों में , नवोढा नायिका सी मदमस्त होने लगती है। हृदय में उपजी नव तरंगे अँगडाइयाँ लेने लगती है सर्वत्र प्रेम , राग , मल्हार छाने लगता है वर्षा का मौसम मन को दीवाना बनाने लगता है। बादलों को देखते ही , मन मयूर नाचने लगता है। नन्ही- बूदों के धरा पर आगमन से , संगीत का झरना बहने लगता है। ये धरा प्यारी महकने लगती है वन उपवनों अरण्य मे , छटा बिखरने लगती है रंग बिरंगे रंग वसुधा का, श्रृंगार करते हैं भवरे फूलों पर मधुर-मधुर गुंजार करते हैं। बादलों को देखते ही , मन मयूर नाचने लगता है। नन्ही- बूदों के धरा पर आगमन से , संगीत का झरना बहने लगता है। कोयल , मोर , दादुरों की ये बोलियाँ नित नवीन जीवन में अनुराग भरती है कल-कल करती नदियाँ सरगम सी सुनाती है झर-झर बहते झरनों से वो राग मिलाती है। बादलों को देखते ही , मन मयूर नाचने लगता है। नन्ही- बूदों के धरा पर आगमन से , संगीत का झरना बहने लगता है। --डॉ. निर्मला शर्मा दौसा,( राजस्थान)
#Kavyotsav2 चुनावी कोलाहल शहर में चारों ओर बढता, ये कैसा कोलाहल है। अन्तस् को बेधता न जाने, ये कैसा हलाहल है। सर्वत्र बिगुल बजा हैं, चुनावी रणभेरी का। बगुला भगत जैसे नेताओ की ,अठखेली का। वाणी इनकी सदैव ही, जनता से खेली है। जोश , आक्रोश और वायदे, तो इनकी चेली है। आजादी के बाद की लिखी, ये कैसी इबारत है। लोकतन्त्र के नाम पर खडी ,ये कैसी इमारत है। न मुद्दा है कोई, न समाज हित की नीति है। स्वार्थ , हिंसा, बडबोलापन , अपमान ही इनकी रीति है। सीटों का गणित, समाजहित पर भारी है। नित नये समीकरणों में फँसना, जनता की लाचारी है। अब समाज गौण और आदमी प्रमुख है। मुद्दा तो है साहब , समाज का न सही नाम ही सम्मुख है। समय के साथ जनादेश की ,परिभाषा बदल रही है। जनता जनतंत्र का मूल्यांकन कर, विचार बदल रही है। हो चाहे मानवीय समाज के चारों ओर,कितना भी कोलाहल। अब न अन्तस् को,--------------- बेध पाएगा ये हलाहल। अब जनता ने ,मन्थन करने की ठानी हैं। अपना मत विवेक से देने को, भृकुटी तानी है।
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