Quotes by MIHIR in Bitesapp read free

MIHIR

MIHIR

@mihir9791


शरद संक्रांति

जीवन के तार फिर एक बार झंकृत हो उठे हैं। यह प्रकृति के परिवर्तन गति की सृजन लीला है। बारिशों में भीगकर नम हो चुकी धरा कल एक बार फिर असूज के महीने के खुले आसमान के तले सूरज का ताप लेगी। फिर वही नील पर्वत शिखर,फिर वही धुली धुली हवाएं, फिर वह विराट और वैविध्य रंगों वाला सूरज कण कण में भासमान होगा।

सर्दियों का मौसम हवाओं में दशहरे की खुशबू लिए आयेगा। नवरात्रों की धूम होगी। प्रकृति के परावर्तन काल का प्रतीक - हरियाली, घर घर उगाई जाएगी। अगले नौ दिन सृष्टि की अदिरूपा, ज्योतिर्मय, शक्ति स्वरूपा, सृजन शक्ति का आह्वान होगा। उस विराट ईश्वरीय शक्ति के सृजन कर्म का उत्सव मनाया जायेगा।
इस पर्व में मिट्टी से जुड़ी हमारी ग्राम्य-संस्कृति सजीव हो उठेगी। बैलों के सींग ओंगाये जायेंगे और दशहरे का पर्व होगा - सृष्टि की नकारात्मक शक्तियों पर सृजनात्मक शक्तियों की विजय का प्रतीक। ऋतुओं का आवागमन यहां श्रद्धा से देखा जाता है। आखिर 'ऋत' ही तो धर्म का मूल है।

मौसम की यही खुमारी मेरे उत्सवधर्मी देश के आनन्द की वस्तु है। इसकी रग रग में त्यौहार बसे हैं।यहां प्रकृति के हर रंग में उत्सव का बहाना होता है।जीवन के पल पल को पूरी आत्मीयता के साथ जीना और प्रकृति के साथ सामंजस्य रखना ही हमारा जीवन दर्शन है जो इन पर्वों में झलकता है। जो बताता है कि कृषि, मिट्टी और मानव ही तो सभ्यता के आदि हैं, सूत्रधार हैं।इनकी पूजा ही धर्म है। और इस पर्याय में भी यदि #राम हों तो कहना ही क्या! राम - जो प्रकृति की विनाशक शक्ति के आगे मानवीय साहस और गरिमा की विजय का प्रतीक हैं। जो प्रकृति की अराजकतामूलक कदाचार के बरअक्स मानवीय मूल्यों की स्थापना करें। अर्थात सृष्टि की अराजकता में 'ऋत' अर्थात धर्म की स्थापना का यत्न करे और फिर उसे सम्पोषित भी करे। राम - मेरे देश की सूक्ष्म सांकेतिक भाषा है। राम - वह प्रतीक शब्द है जिसमे मेरे देश का जनमानस खुद को व्यक्त करता है। इसीलिए यह करोड़ों लोगों की जनवाणी है। इसीलिए तो राम इस कृषिधर्मी संस्कृति के उत्स हैं और सीता (खेती) उनकी सहधर्मिणी। दोनों एक दूसरे के पूरक।

कल एक बार फिर पूरा वातावरण राममय हो जाएगा। जगह जगह भगतों की टोलियां और कीर्तन मंडलियां रातभर गाएंगीं और ऐसा लगेगा मानो उत्सवधर्मी देश अपने सांस्कृतिक अतीत में पुनः जीवित हो उठा हो। आक्रमणों, सन्धियों और लूटपाट ने केवल उसका बाह्य कलेवर दूषित किया है, आत्मा का हनन नहीं कर सका। तभी तो आज भी जन जन के मन मे राम हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक पुरूष।

दशहरे की महक में हमारे जीवन और हमारी संस्कृति से जुड़ी भौतिकतायें पूरी आध्यात्मिकता के साथ निखर आएंगी। जन जन के राम होंगे और उनकी लीलाएँ होंगी। जनमानस की वाणी एक स्वर में बोलेगी -'राम, मेरे राम!' हवाएं गीत गाएंगीं। दिशाएँ पर्व मनायेंगीं। आकाश निथर जाएगा। पर्वत निखर जाएंगे। धानों की फसलें खिलखिला जायेंगीं।मिट्टी का कोष पूरे ठाठ पर हँस देगा। गेंदे के फूल राहों को महकाएँगे।

और पूरा मानस मण्डल बोल उठेगा - 'जय!जय!

Read More

#kavyotsav

गान्धार की गुरुपद धरा


यह एक लंबे-से दिवस की, एक सुरमय शाम थी
आकाश पर अंतिम किरण थी गुनगुनाती
द्राक्ष* के फल चुन लिए थे, साँझ का आलस घिरा
खेत में ही वहीं लंबे पैर कर वह गिर पड़ा
यह गमकती शाम, सौंधी-सी महक महसूस करता।
दूर के पर्वत-शिखर भी डूबते-से
ज्यों धरा पर एक कोना ढूंढते-से।

ढल चुका था सूर्य, ऊष्मा का झकोरा चुक गया था
और कार्तिक का अँधेरा, पास आकर झुक गया था
बाज़ुओं से ढलककर हल्का पसीना सूखता
कँपकँपाने के लिए वह एक झौंका रुक गया था।
एक मीठी तान पर कोई सहज गाता हुआ
दूर चितवन, गांव के पथ, दूर होता जा रहा था।

गुनगुनाता हुआ वह स्वर -
कुछ कहानी कह रहा था
दोपहर के बाद इतनी शुभमयी यह शाम
विश्व मे शायद कहीं भी, इस तरह ढलती नहीं।
गान्धार की गुरुपद धरा पर यह महीना क्वार का था!

क्रमशः
--------------------------------------------------------------------
#टिप्पणियाँ

दिनभर खेतों में अंगूरों की फसल चुनने के बाद कुछ घड़ी सुस्ताते हुए जय। ढलती हुई शाम।ईसा पूर्व 330, कार्तिक मास।

#गान्धारपर्व , #जयमालव #महाकाव्य

आसपास के खेतों में बाजरे और ज्वार की फसलें तोड़ी जा रही हैं और जय अपने खेत से अंगूरों की फसल चुन रहा है। सुवास्तु घाटियों (स्वात घाटी, वर्तमान पाकिस्तान) में शाम हो रही है और लोग धीरे धीरे घरों को जा रहे हैं।

*द्राक्ष - काले अंगूर
--------------------------------------------------------------------
#जयमालव (ऐतिहासिक महाकाव्य)
©®#मिहिर

Read More

#kavyotsav

कविताओं की उच्चभूमियाँ

कविताओं की उच्चभूमियाँ -
मेरे शिखरों के अनजाने देस,
वहाँ की उभरन, सिकुड़न।
कुदरत का विस्तार पार वह
नील अचल नग दिखे जहाँ तक।


कई दिवस के बाद आज फिर
हवा बाट की धुली, नहाई
दिशा दिशा में फैली सुघरन
चलती हल्की पुरवाई।
यही ताज़गी मौसम की
वह धुली हुई तस्वीर सामने
एक एक रंगीन नज़ारा
जैसे लगता हृदय थामने।

मेरे सहचर - नील, पयोधर
फूल, पत्तियाँ, और सुधाधर
सब कुछ इतने पास हृदय के
जैसे हो तस्वीर तुम्हारी।

Read More