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🌾परवरिश🌴 दमकता हो भाल आत्मबल से, हृदय कचोटे किये छल से, आ सको किसी के काम तुम, बिना चाहे कोई परिणाम तुम, तो परवरिश सही है तुम्हारी। निडर खड़े हो सको अन्याय के, संतुष्ट रहते हो अपनी आय से, ईर्ष्या ना हो किसी की वृद्धि से डोले नहीं मन किसी के समृद्धि से, तो परवरिश सही है तुम्हारी। क्षमा मांगने की शक्ति हो, न्याय के लिए मन में भक्ति हो, पश्चाताप हो गलत व्यवहार का, हिम्मत हो आत्म- परिष्कार का, तो सही परवरिश है तुम्हारी। गर्व हो अपने संस्कारों का, स्थान नहीं हो विकारों का जीवन का हो कोई उद्देश्य, हो ना मन में किसी से द्वेष, तो सही परवरिश है तुम्हारी। - मेधा झा
करो बातें खुशी की कि हमें रहना है अभी। बजाओ वाद्य यंत्र, छेड़ों जिंदगी का धुन, कि मृत्यु के बढ़ते पाश को क्षीण कर सकें हम। पांवों में पहन घुंघरूं नाचो आज कि गूंजें सब दिशाएं। खिलखिलाएं चलो आज फिर पुराने मित्र की बातों पर हम, सजाएं फिर से जीवन का नया एक राग हम। चलो जीते हैं हर क्षण क्योंकि अभी जिंदा है हम।
सिलबट्टे पर पिसी मसाले वाली सब्जी नासिका से प्रवेश कर अंदर तक उतर आती है खुशबू, सिमट जाती है सारी ज्ञानेंद्रियां जिह्वा पर, जब दोपहर में आती है कहीं से सुगंध, सिलबट्टे पर पिसी सरसों - लहसुन वाली तरकारी और भात की, सूखते गले में उभरता है घर के खाने का स्वाद। पिज़्ज़ा - बर्गर कहां मिटा पाता है भूख तब, न ही मिटा पाता है पानी की तलब उस समय कोई भी पेप्सी- कोक।
उसकी होली हर चक्र कर जाता उसे लाल, रग रग में चटकता है गुलाल, थकन, तमस, व्याकुलता, तन में पसरती आकुलता, झटक कर पुनः खड़ी होती है हर माह मनाती होली है।
🌺 रंग सौंदर्य का कितना सुंदर है ना उसका घर, उसके खिलौने, उसका कमरा, और गोरी भी तो खूब है वह। सौंदर्य की परिभाषा गढ़ती हुई पांच वर्षीय सांवली सलोनी बालिका को निहारती हूं मैं, जो अभिभूत है गोरेपन से, और जानती है उसका संबंध सुंदरता से, छनाक से कुछ टूटता है मन में मेरे, और दिखती है मुस्कुराती हुई तारिका छह से आठ हफ्ते में गोरा बनाने के विज्ञापन में।
वो नहीं पहचानते अरमान भरे नयनों से बारिश के बूंदों को बूंद बूंद पीती है नीलांजना, प्रेम भरे मौसम में डूब कर गाती है नीलांजना, तालियों के गड़गड़ाहट से मंच से सबके हृदय में उतरती है नीलांजना; स्वप्निल आंखों से उकेरती है तस्वीर अंधेरी रातों में विरह के गीत गाते हुए अपने प्रेमी का; पर्दा गिरता है और आंखें खुलती है, विस्मृत होते हैं दृश्य, और बचता है आबनूसी यथार्थ, जो नहीं जानता संगीत को, मंच को, उच्च शिक्षिता नायिका को, उसके धवल हृदय को और कविता को; दिखता मात्र हैं उन्हें, बरसती रात सी गीली श्यामल वर्णी नीलांजना, जिसकी सौंधी खुशबू वो नहीं पहचानते।
जब भी कदम बढ़ता है एक स्त्री का, कई स्त्रियां कदम बढ़ाती हैं, जब भी खड़ी होती है एक स्त्री, खड़ी होने लगती हैं धीमे धीमे अन्य स्त्रियां भी, धरती प्रतीक्षारत है सिर्फ उस एक स्त्री के लिए।
जैसे चाहता है एक नवजात शिशु अपनी मां को, मेरी मातृभाषा मैं चाहती हूं तुम्हें वैसे ही।
स्त्री ही स्त्री की आत्मीय सखी तुम स्नेहमयी, तुम संजीवनी, सखा तुम ही, क्षमा तुम ही, तुम उदारता, तुम प्रचंडता, तेरा है हर रूप नवीन तुझसे ही है जीवन रंगीन, वसुधा को दिया है सुन्दरता, तुझ से ही इसकी निरंतरता, हौसला बनी कभी तुम, कभी अभेद्य ढाल बनी, हर पथ, हर पल में तुम सहयात्री औ' राजदार बनी। दिया है तूने धरा को जीवन के सुंदर ढंग, सहयोगिनी बनकर तुमने भरा अनेकों विविध रंग। स्त्री तेरे कितने रूप, है कितना निस्वार्थ स्वरूप, जाना तुमसे हर बार यही स्त्री ही स्त्री की आत्मीय सखि।
नए भोर का आगमन नहीं, उन्हें पता नहीं होता कि उनका समूचा व्यक्तित्व एक कुपोषित ढांचा मात्र है जिनमें अभाव है भावनाओं का, क्योंकि उनका पूरा जीवन बीता है भय के साये में; ये साये अनेकों रूप धर कर बंधक बनाए रहे उन्हें नियमों और परम्परा के नाम पर, बताते रहे कि सुरक्षित है वो उनके घेरे में बाहर के थपेड़ों से, घेरे से बाहर रौंध डालेगी दुनिया उन्हें, इसलिए उन्हें अनभिज्ञ रखा गया बाहरी दुनिया से, ज्ञान से, जीवन के मूल सिद्धांत से; हरेक शोषक ने स्वांग रचा रक्षक का आंख मूंदे शोषितों ने विश्वास किया क्योंकि वे तैयार थे शोषण के लिए; जिसने आवाज उठाया शोषकों ने भिड़ा दिया शोषितों को उनके रहनुमाओं के खिलाफ और लेते रहे मजा ; और यूंही चलता रहा चक्र शोषक शोषितों का - हर तरफ शोषक चालाकियों पर खुश होता रहा शोषित अपनी बेचारगी पर तरस खाता रहा, फिर चखा उसने स्वाद खुशी का, फिर हंस कर वरण किया मृत्यु का, फिर एक और, फिर एक और, इनके रक्त ने लिखा नवीन कहानी नए भोर का, नई शुरुआत का।
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