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कल यूँही चलते चलते इक चेहरा मिला सादगी में शरारत का पहरा मिला
मेरी फ़ितरत में नहींं अपना ग़म बयॉं करना, अपना वजूद भी इक रोज़ से गवा बैठा हूँ मैं
बगैर उसको बताए निभाना पड़ता है ये इश्क़ राज़ है इसे छुपाना पड़ता है
किस क़दर है मंज़र नज़र के सामने वो ला रहा शय शीशे में भर के सामने
ये बिकती हुई खोखली सी गलियाँ, ये मसली हुई अध खिली ज़र्द कलियाँ वो उझले दरिचों में पायल की छन छन ये बेरूह कमरों में खॉंसी की ठन ठन... ये आवाज़े खिंचते हुए आँचलों पर ये गूँजे हुए क़हक़हे रास्तों पर
मुझें वहां से पढ़ जहां से ख़ामोश हूँ मैं, हम वहां है जहां से हमकों भी हमारी खबर नहीं आती ..
अभी तेरे मिज़ाज-ए-रंग से वाकिफ कहाँ है इश्क़ तु जिस तरफ निगाह कर गया सब तबाह कर गया
हमें ले डूबी वो सुन्हेरी ज़ुल्फ़ें काली आँखे, ज़माना समझा मुझें शराब ने बरबाद किया
जो भी कहना है कहो साफ़ शिकायत ही सही इन इशारात से अब ज़ी घबराता है ..
किसी को मिलते ही फैसला ना किया करो, इंसान परतों में खुलता है
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