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indu verma

indu verma

@indu.rinki15gmail.com223540


"अब साफ़ आया???
नहीं झर झर आ रहा है...
थोड़ा सा और टेढ़ा कर
हाँ हाँ अब ठीक है
आजा अब नीचे...."
हर घर की छत की "एंटीने वाली कहानी" है ये
सारे HD चैनल एक तरफ और कान मरोड़-मरोड़ के चलने वाले शटर वाले डब्बे का बेरंग सा दूरदर्शन एक तरफ.... 😀 😗
बांध के रखता था सबको... न भांति भांति के चैनल न भांति भांति के सीरियल 😀 कम होकर भी दम था एक- एक शो में... 🙂
आज के मुख्य समाचार.. अब समाचार विस्तार से...
और "अब कुछ खेल समाचार" साड़ी वाली आंटी के बस इतना कहते ही कुछ सुकून सा मिलता था.. 9 बजे वाले शो का इंतज़ार जो होता था 😀
"चंद्रकांता की कहानी ये माना थी पुरानी
ये पुरानी होकर भी बड़ी लगती थी सुहानी"
"यकक्कु......" सबसे ख़ास लगता था वो 😉
देख भाई देख... फिलिप्स टॉप टेन के दो भाई और दस गाने 😀
और वो चटक रंगों वाली रंगोली जो सुबह-सुबह मन रंगीन कर देता था... और "चित्रहार" शाम 🙂 (4-5 ब्लैक एन्ड वाइट गाने के बाद आने वाला एक नया गाना "शो स्टॉपर" का काम करता था) 🙂
छुट्टियों में आने वाला "छुट्टी-छुट्टी" छुट्टियां होने का पूरा अहसास करवाता था...
"सी आई ई टी" ले कर आता था "तरंग-तरंग"
और "टर्रम-टू-टर्रम-टू-टर्रम-टू" 😀
"सुरभि" और उसकी इनामी प्रतियोगिया का "पोस्टगार्ड" वाला पहाड़... (हम भी भेजा करते थे जवाब पर हाय री किस्मत....) 😞 💌
और सबसे ज्यादा यादगार "मिले सुर मेरा तुम्हारा" के साथ साथ सुर मिलाना.... 🎶🎼🎷
और "एक चिड़िया अनेक चिड़िया" के साथ फुर्रर्रर्रर्रर्रर.... हो जाना 🐦🐦
हर सन्डे 4 बजे वाली फ़िल्म को फर्स्ट डे फर्स्ट शो वाले फील के साथ ही देखते थे...लेकिन वो रात की फ़िल्म में हर दो मिनिट में आने वाले ऐड कसम से सारा मजा किरकिरा कर देते थे 😕📺
शक्तिमान की तरह रात दिन घूमने से मना करते करते बेचारी माँ का सर ही घूम जाता था.. (पर हम न मानते थे सुपर हीरो जो था हमारा) 🙂
"चड्डी पहन के खिला वो फूल" कूद फांद कर सबको महका ही देता था... 🌼(मोगली तुम बहुत याद आते हो) 😞
हर रविवार सुबह 9 बजे "श्री कृष्णा.............." का वो राग जब गूंजता था पूरा मौहल्ला "द्वारका" हो जाता था... 🙂 और रामायण देखते हुए अम्मा का हाथ जोड़ के यूं बैठती थी ज्यूँ साक्षात् राम दर्शन दे रहे हो...😀
तहकीकात के गोपी और सेमडीसील्वा की जासूसी,
व्योमकेश बख्शी,डक टेल्स,अल्लाह दीन,अलिफ़ लैला, मालगुडी डेज,तेनालीराम,विक्रम-बेताल हर शो कितना "शांति" से देखते थे "हम लोग"....👫👫
अब हो कर भी खो गया वो दूरदर्शन
सोच रहा हूँ रपट लिखवा दूँ....
पता है....
"गुमशुदा तलाश केंद्र
नयी कोतवाली
दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
दूरभाष-3276200"

"इंदु रिंकी वर्मा"✍️

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मैं पुरुष हूँ
और मैं भी प्रताड़ित होता हूँ
मैं भी घुटता हूँ पिसता हूँ
टूटता हूँ,बिखरता हूँ
भीतर ही भीतर
रो नहीं पाता,कह नहीं पाता
पत्थर हो चुका,
तरस जाता हूँ पिघलने को,
क्योंकि मैं पुरुष हूँ....

मैं भी सताया जाता हूँ
जला दिया जाता हूँ
उस "दहेज" की आग में
जो कभी मांगा ही नहीं था,
स्वाह कर दिया जाता है
मेरे उस मान सम्मान
को तिनका तिनका
कमाया था जिसे मैंने
मगर आह भी नहीं भर सकता
क्योंकि पुरुष हूँ...

मैं भी देता हूँ आहुति
"विवाह" की अग्नि में
अपने रिश्तों की
हमेशा धकेल दिया जाता हूँ
रिश्तों का वज़न बांध कर
ज़िम्मेदारियों के उस कुँए में
जिसे भरा नहीं जा सकता
मेरे अंत तक भी
कभी दर्द अपना बता नहीं सकता
किसी भी तरह जता नहीं सकता
बहुत मजबूत होने का
ठप्पा लगाए जीता हूँ
क्योंकि मैं पुरुष हूँ....

हाँ मेरा भी होता है "बलात्कार"
कर दी जाती है
इज़्ज़त तार तार
रिश्तों में,रोज़गार में
महज़ एक बेबुनियाद आरोप से
कर दिया जाता है तबाह
मेरे आत्मसम्मान को
बस उठते ही
एक औरत की उंगली
उठा दिये जाते हैं
मुझ पर कई हाथ
बिना वजह जाने,
बिना बात की तह नापे
बहा दिया जाता है
सलाखों के पीछे कई धाराओं में
क्योंकि मैं पुरुष हूँ...

सुना है जब मन भरता है
तब वो आंखों से बहता है
"मर्द होकर रोता है"
"मर्द को दर्द कब होता है"
टूट जाता है मन से
आंखों का वो रिश्ता
ये जुमले
जब हर कोई कहता है
तो सुनो सही गलत को
एक ही पलड़े में रखने वालों
हर स्त्री श्वेत वर्ण नहीं
और न ही
हर पुरुष स्याह "कालिख"
क्यों सिक्के के अंक छपे
पहलू से ही
उसकी कीमत हो आंकते
मुझे सही गलत कहने से पहले
मेरे हालात नहीं जांचते ???
जिस तरह हर बात का दोष
हमें हो दे देते
"मैं क्यूँ पुरुष हूँ???"
हम खुद से कह कर
अब खुद को हैं कोसते

इंदु रिंकी वर्मा"

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#अभियंता दिवस की शुभकामनाएं💐

मेरी प्रिय "हिंदी"
कैसी हो??
जानती हूं मेरा ये सवाल गलत है,क्योंकि इन दिनों तुम किस स्थिति से गुजर रही हो उससे भली भांति परिचित हूं मैं... मगर फिर भी तुम्हारी कुशल कामना की हमेशा हर "जन" से प्रार्थना है क्योंकि ईश्वर तो इसमें हमारी मदद कर नहीं सकते,कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनका शुभ अशुभ सब इंसान के हाथों में होता है,तुम्हारे बारे सोचती हूं तो "गर्व" और "दुःख" दोनो की अनुभूति होती है, गर्व इसलिए की तुम हमारी भाषा हो,और दुःख इसलिए की अब भी लोग तुम्हें पूरी तरह से अपनाने में शर्म महसूस करते हैं,कहने को तो सब तुम्हे "मां" कहते हैं लेकिन तुम्हारे साथ व्यवहार "पराई बेटी" जैसा है,कितना दुःखद है ना अपने ही घर में पराया सा महसूस करना☹️,अपनी संस्कृति से अलगाव को सब "आधुनिक" होने का नाम दे रहे हैं,आज तुम्हें "माथे की बिंदी" बता कर सब तुम्हारी सुंदरता का बखान कर रहे हैं लेकिन फिर भी, "सिर का ताज" बना कर "गर्वित" नहीं होना चाहता,जब देखती हूं की आज सिर्फ तुम्हें अपने शब्दों भाषा में प्रयोग ने करने से बच्चे अपने दादा दादी,नाना नानी,अपने घर के बड़े बूढ़ों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे तो साफ नजर आता है स्थिति बहुत खराब है "बच्चे,बुजुर्ग और तुम्हारी",
हमारी पहचान बताए जाने वाले "हस्ताक्षर" अगर तुम्हारा हाथ पकड़ लें तो लोग ऐसी नजर से देखते हैं जैसे तुम दोनो में कोई "नाजायज" रिश्ता हो,लेकिन तुम परेशान न होना जिन लोगों को ये नहीं पता कि कहां कितनी मात्रा में बोलना है वो तुम्हारी "मात्राओं" की अहमियत कहां समझेंगे,अर्थ का अनर्थ करने वालों में इतने समर्थ नहीं की तुम्हे अपना सकें,
हां मेरे लिए तुम नहीं हो "माथे की बिंदी" तुम मेरे लिए चेहरे का वो "तिल" हो जो कभी न मिटने वाली खुबसूरती देता है, चाहे हमारे देश में हर दफ्तर,विद्यालय,संस्थान में जो जगह तुम्हारी होनी चाहिए वो दूसरी भाषा को मिली हुई है लेकिन फिर भी हम कुछ "हिंदी प्रेमी" अब भी ऐसे हैं जो दूसरी भाषा की जम रही महफिल में एक "खास प्रस्तुति" तुम्हारी दे ही देते हैं और यकीन मानो महफिल तुम ही लुटती हो😊,तुम एक ऐसा सच हो जिसे कोई भी नहीं नकार सकता,कभी भी नहीं,हम बस इतना कर सकते हैं की आने वाली पीढ़ी को तुम्हारा हाथ थमा कर चलना सिखाएं...और कर रहे हैं😊
और हमें यकीन है ये पीढ़ी ही एक दिन तुम्हारी धीमी होती रफ्तार को तेज कर के तुम्हे मंजिल तक जरूर पहुंचाएगी😊
आज तुम्हारा दिन है और तुम्हारे इस दिन की हम सब को बहुत बधाई💐
तुम बहुत "धनी"
आज तुम्हें क्या दूं
मैं तुम्हारी "ऋणी" 😊
तुम्हें अपने मन की बात लिखने में कोई गलती हुई हो तो क्षमा 🙏
सब तुम्हें लिखते रहें,पढ़ते रहें,कहते रहें,सुनते रहें इसी कमाना के साथ.......
तुम्हारी "हिंदी प्रेमी"
"इंदु"

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कभी कभी जी लेना चाहिए
ये भूलकर कर की उम्र बढ़ रही है
जिम्मेदारियां रफ्तार पकड़ रही है,
ये भूल कर की कपड़े अभी सिमटे नहीं
और सिंक में अभी बर्तन अभी हटे नहीं,
ये भूलकर की "इन्होंने" कहा था
घर आने पर घर में ही मिलना
और जितने भी काम कहे है
उन्हें करना मत भूलना,
ये भूल कर की खुद से पहले है "घर बार"
"दोस्त-दोस्ती" सब है बेकार,
कभी कभी जी लेना चाहिए.....
ये भूल कर की बचकाना हरकतों का वक़्त
बस बचपन ही नहीं होता है
दिल की खुशी के लिए उम्र "पंद्रह"
और "पचपन" सब सही होता है
और कभी कभी जी लेना चाहिए ये याद कर के
की कब किसी सहेली कंधे पर सिर रख कर आखिरी बार
ये कहा था
"यार अब बरदाश्त नहीं होता,
जो हो रहा है काश कभी नही होता"
तुम बताओ
कब तुमने ,खुद को,खुद के लिए सजाया था
कब किसी हैंडसम को देख कर
दिल आखरी बार गुदगुदाया था,
कब,कहीं,इस तरह से नाचे थे
की कोई देख नहीं रहा हो
कब सड़क पर यारों संग आवारा से घूमे थे
और कब बारिश में मदमस्त होकर झूमे थे
कब मन का वजन शरीर से हल्का लगा था
और खुद को आईने में खिलखिला कर देखा था
सुबह 5 बजे उठने से लेकर
रात का बिस्तर लगाने तक
कब तुम खुद खुद के साथ थी
तुम्हारी होने वाली किसी बात में
खुद की भी कोई बात थी...

इसलिए ऐ मेरे यारों......
कभी कभी बिन पिये भी नशा चढ़ा लेना
खुद के लिये कुछ कदम बढ़ा लेना
बंद पिंजरे के "पंछी" हैं माना हम सभी
फिर भी आसमां को देख पंख तो फड़फड़ा लेना.....

"इंदु रिंकी वर्मा"

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माना की बह जाता है कहीं भी कैसे भी
ढल जाता है किसी भी रूप में
मिल जाता है किसी भी रंग में
कभी मीठा तो कभी तीखा
घुल जाता है किसी भी स्वाद में
फिर भी किसी धुलकते हुए
अश्रु बूंद से पूछना
"तरल" होना इतना "सरल" भी नहीं...
स्वरचित
इंदु रिंकी वर्मा

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मां मुझे डर लगता है . .
बहुत डर लगता है..
सूरज की रौशनी आग सी लगती है . .
पानी की बुँदे भी तेजाब सी लगती हैं ....
मां हवा में भी जहर सा घुला लगता है...
मां मुझे छुपा ले बहुत डर लगता है..☹️
माँ...
याद है वो काँच की गुड़िया,जो बचपन में टूटी थी . . . .
कुछ ऐसे ही आज में टूट गई हूँ...
मेरी गलती कुछ भी ना थी माँ...
फिरभी खुद से रूठ गई हूँ....☹️
माँ...
बचपन में स्कूल टीचर की गन्दी नजरों से डर लगता था पड़ोस के चाचा के नापाक इरादों से डर लगता था...
अब नुक्कड़ के उन लड़कों की बेवकूफ बातों से डर लगता है...
और कभी बॉस के वहशी इशारों से डर लगता है..
मां मुझे छुपा ले, बहुत डर लगता है…..☹️
माँ....
तुझे याद है मैं आँगन में चिड़िया सी फुदक रही थी...
और ठोकर खा कर जब मैं जमीन पर गिर पड़ी थी...
दो बूंद खून की देख के माँ तू भी तो रो पड़ी थी...☹️
माँ...
तूने तो मुझे फूलों की तरह पाला था....
उन दरिंदों का आखिर मैंने क्या बिगाड़ा था????
क्यूँ वो मुझे इस तरह मसल के चले गए है.....
बेदर्द मेरी रूह को कुचल के चले गए ......
माँ...
तू तो कहती थी अपनी गुड़िया को दुल्हन बनाएगी..
मेरे इस जीवन को खुशियों से सजाएगी ......
माँ क्या वो दिन जिंदगी कभी ना लाएगी???
क्या तेरे घर अब कभी बारात ना आएगी?????
माँ...
खोया है जो मैने क्या फिर से कभी ना पाउंगी ????
माँ सांस तो ले रही हूँ क्या जिंदगी जी पाउंगी?????
माँ घूरते है सब अलग ही नज़रों से . . . .
माँ मुझे उन नज़रों से छूपा ले . .. .
माँ बहुत डर लगता है
मुझे आंचल में छुपा ले.....
:'(

स्वरचित
इंदु रिंकी वर्मा(सर्वाधिकार सुरक्षित)

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