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Bhanupratap Upadhyay

Bhanupratap Upadhyay

@bhanupratapupadhyay8789


लोग खड़े हैं इंतज़ार में
अपनी अपनी बारी के
कोई लौटाकर आया है
बिल्ले मंसबदारी के

घर घर जागे मंतर जादू
कमरू और कमच्छा के
बिन पानी बिरखे हरियाए
कल्ले फूटे इच्छा के
रस्सी पर चलने वालों ने
पाए हुनर मदारी के

भूख जगाते रहे फ़रिश्ते
वर्जित फल को चखने की
होड़ लगी है यहाँ -
रीढ़ से अलग देह को रखने की
लात और दुत्कार देखिए
चर्चे गाय दुधारी के

ओहदेदारों की बस्ती में
ऐंठ अकड़ वाले चेहरे
आपस में मिलते हैं लेकिन
आँखों आँखों में पहरे
भेद ले रहे एक दूसरे पर -
अपनी ऐय्यारी के

मंदिर के आगे मठ ठहरे
मठ के आगे राजभवन
पीछे छूट गई संझवाती
उससे आगे भाव भजन
छुप छुप कर कौपीन कमंडल
देखें रंग सफ़ारी के

- लोग खड़े हैं इंतज़ार में / अमरनाथ श्रीवास्तव

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मंज़िल-दर-मंज़िल पुण्य फलीभूत हुआ
कल्प है नया
सोने की जीभ मिली स्वाद तो गया।

छाया के आदी हैं
गमलों के पौधे
जीवन के मंत्र हुए
सुलह और सौदे
अपनी जड़ भूल गई द्वार की जया

हवा और पानी का
अनुकूल इतना
बन्द खिड़कियां
बाहर की सोचें कितना
अपनी सुविधा से है आंख में दया

मंज़िल-दर-मंज़िल
है एक ज़हर धीमा
सीढ़ियां बताती हैं
घुटनों की सीमा
हमसे तो ऊंचे हैं डाल पर बया।

- मंज़िल-दर-मंज़िल / अमरनाथ श्रीवास्तव

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इस तरह मौसम बदलता है बताओ क्या करें
शाम को सूरज निकलता है बताओ क्या करें
यह शहर वो है कि जिसमें आदमी को देखकर
आइना चेहरे बदलता है बताओ क्या करें
आदतें मेरी किसी के होंठ कि मुस्कान थीं
अब इन्हीं से जी दहलता है बताओ क्या करें
दिल जिसे हर बात में हँसने कि आदत थी कभी
अब वो मुश्किल से बहलता है बताओ क्या करें
इस तरह पथरा गयीं आँखें कि इनको देखकर
एक पत्थर भी पिघलता है है बताओ क्या करें
ले रहा है एक नन्हा दिया मेरा इम्तहान
हवा के रुख पर सफलता है बताओ क्या करें
दोस्त मुझको देखकर विगलित हुए तो सह्य था
दुश्मनों का दिल बदलता है बताओ क्या करें

- बताओ क्या करें / अमरनाथ श्रीवास्तव

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कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्राँति को सफल बना नसीब का न नाम ले
भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चाँदनी
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

- गरीब का सलाम ले / गोपाल सिंह नेपाली

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रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया,
जी में वसंत था, एक फूल ही दिया।
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है,
कैसे बडे युग में कैसा छोटा जीवन जिया।

- समाधि लेख / भारत भूषण अग्रवाल

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जब दिल ने तड़पना छोड़ दिया
जलवों ने मचलना छोड़ दिया

पोशाक बहारों ने बदली
फूलों ने महकना छोड़ दिया

पिंजरे की सम्त चले पंछी
शाख़ों ने लचकना छोड़ दिया

कुछ अबके हुई बरसात ऐसी
खेतों ने लहकना छोड़ दिया

जब से वो समन्दर पार गया
गोरी ने सँवरना छोड़ दिया

बाहर की कमाई ने बेकल
अब गाँव में बसना छोड़ दिया

- जब दिल ने तड़पना छोड़ दिया / बेकल उत्साही

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