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माँ माँ पर लिखने जब भी कलम उठाती हूँ भाव शून्य से और शब्द मौन से और हाथ जड़ हो जाते हैं.... कल्पनाओं को पंख नहीं मिलते विचार गौण हो जाते कागज कोरा रह जाता है. सारा हुनर धरा का धरा रहता. ज्ञान शून्य हो जाता है.. माँ के आगे सारा संसार बौना नजर आता है... अर्चना राय -Archana Rai
सारी उम्र ताप,शीत सब सहकर.. हर अभिलाषा अपनी पीकर करता रहा... सबका उधर पोषण साॅंझ बेला मे पड़ा वह निरीह... कचरे में खाली टूटे बर्तन सा... -Archana Rai
इस चराचर जगत की है, नारी धुरी कहलाती ये... शक्ति स्वरूपा फिर भी.... अस्तित्व उसका ... खतरे में पड़ा। -Archana Rai
कुछ किस्से पुराने, कुछ नये से कुछ दर्द के, कुछ सुकून के देने मन पे दस्तक सरक ही आते हैं.. . यादों की पोटली को कितनी ही कस के बाॅंध लूॅं समय की बयार से ढ़ीली पड़ ही जाती है... -Archana Rai
रास्ता जो मिल गया है तो... मंजिल को भी पा लेगें. कोई साथ दे न दे गम नहीं... अब राह के पत्थरों से हमने यारी कर ली ... -Archana Rai
मुट्ठी में बंद ख्वाब सारे, रेत की तरह फिसल गए. मन के रेगिस्तान पर अब बाकी निशां उनके रह गए. -Archana Rai
कविता- अस्तित्व कुछ मर्दों की नजरों में वे औरतें सदा ही... गॅंवार कहलातीं हैं. जो निश्चल मुस्कान और प्रेम भाव से चेहरे को तो सजाती हैं. परंतु काजल, लिपस्टिक और फाउंडेशन का प्रयोग कर चेहरे पर... छद्म आवरण चढ़ाना नहीं जानती. वे औरतें जो पति की तरक्की के लिए व्रत उपवास तो करती हैं. पर किसी महफ़िल में जाकर गैर मर्दों की बाहों में बाहें डाल थिरक नहीं पाती. वे औरतें सदा ही कुछ मर्दों की नजर में गॅंवार कहलाती है. वे औरतें... जो अपने पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाने की बात को सच मानकर आधी जिंदगी उनकी मनपसंद खाने को बनाने में रसोई घर में बिताती हैं. पर पहनकर वेस्टर्न ड्रेस बदन उघाड़ कर हाथों में हाथ डालकर चल नहीं पातीं वे औरतें कुछ मर्दों की नजरों में सदा गॅंवार कहलाती हैं. वे औरतें जो परंपरा, संस्कृति रीति और रिवाजों को निभातीं अपने बच्चों को संस्कारों से तो अवगत कराती हैं. परंतु अंग्रेजी के चार शब्द नहीं बोल पाती. वेऔरतें सदा ही.... कुछ मर्दों की नजरों में गंवार कहलाती हैं. वे औरतें जो खुद को मिटा कर एक घरौंदा सजातीं हैं. झेल कर हर दुख- दर्द बेटी, बहू, पत्नि, माँ का हर फर्ज निभातीं हैं. पर उस घरौंदे को अपना नहीं कह पातीं हैं. और न ही सम्मान पातीं हैं अपनों से कदम- कदम पर आहत होकर... एक फैसला अपने लिए लेतीं है... और जब बनाने अपनी अलग पहचान दरवाजे की रंगोली से तुलसी चौबारे से.. मंदिर के दिए से.. रसोई घर के बर्तनों से... बिस्तर की सलवटों से.. समेट अपना अस्तित्व देहरी के बाहर.... कदम बढ़ातीं हैं. तो घर की नींव भी हिल जाती है. (मौलिक) © अर्चना राय
जो तुम्हारे लिए बना है और... जिसके लिए तुम बने हो वो कभी न कभी, कहीं न कहीं मिल ही जाते हैं शायद इसे ही डेस्टिनी कहते हैं... -Archana Rai
दहका पलाश संग भांग बौराया फगुआ आया. ***** #होली की शुभकामनाएँ -Archana Rai
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