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साक़ी की आँखों में जाम मिला, जब दर्द को हमने नाम दिया, हर घूँट में बहकी रात मिली, जब होश को हमने थाम लिया। इस जाम का कोई दोष नहीं, यह रंग नहीं, यह स्वाद नहीं, यह तो बस मीठा ज़हर सा है, जो साँसों में फैल जाए कहीं। बिखरी हैं मेहफिल की परछाइयाँ, हर मयकश यहाँ ग़मगीन खड़ा, नशा तो नहीं, पर बेहोशी है, हर जाम से रिश्ता बना पड़ा। चहकती हैं रातें, बहकती हैं घड़ियाँ, कोई पूछे, तो क्या कहिएगा? यह मधुशाला बस नाम ही काफी, जो आया, वो लौट न जाएगा। हाथों में लेकर प्यासे होंठों से, जब कोई जाम सज़ा लेता है, वो भूल जाता है दुनिया की हद, और खुद में ही खो जाता है। ग़म का है दरिया, हँसने का किनारा, दोनों के बीच खड़ी मधुशाला, कभी जो गिरा तो दर्द भी पी लिया, और खुद को भी दे दी ढाल मधुशाला। शराबी नहीं, हम इश्क़ के बंदे, पर दर्द से रिश्ता गहरा है, हर एक घूँट में छलकती हैं यादें, हर घूँट में बसा यह सहरा है। कब तक बचोगे, कब तक छुपोगे, आना ही होगा किसी रोज़ यहाँ, हर राही का ठिकाना यह है, हर जख़्म का मरहम यहाँ। [अगले भाग में जारी...]
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