दोहे
सुशील यादव
तिनका-तिनका तोड़ के ,रख देता है आज
है कहीं अकड की बस्ती ,फिजूल कहीं समाज
परिभाषा देशहित की, पूछा करता कौन
बहुत खरा एक बोलता, दूजा रहता मौन
भव-सागर की सोचते, करने अब की पार
गए निकल चुकाने तभी, गिन-गिन कर्ज-उधार
गया उधर एक मालया, हथिया के सब माल
किये हिफाजत लोग वे, नेता, चोर, चंडाल
देश कभी तू देख गति, है इतनी विकराल
यथा शीघ्र सब जीम के, खाली करो पंडाल
मुह क्यों अब है फाड़ता, कमर तोड़ है दाम
किसको कहते आदमी, चुसा हुआ है आम
***
दृष्टिकोण ......दोहे
लगता है सबको बुरा, गिनती के दिन चार
इभन-आड के फेर में, ताक रहे इतवार
कहते जो कहते रहें, पानी बिन सब सून
सर्किट हाउस ले मजे, तन्दूर मुर्गा भून
आई पी एल खेल मे, देश सहे ये मार
मिनट करोड़ों मिटा रहे, सींचय खेत न खार
माङ्ग किये जो आरक्षण, ठूसे उनको जेल
इस सरकार की इंजन, डाले जिनने तेल
देशद्रोह के जुर्म का, लगना है अब आम
किसकी चलती देश में, किसके हाथ लगाम
दोहे
बन में सूखी लकड़ियाँ ,घर में सुलगे देह
धुँआ -धुँआ होता रहे ,मन उपजा संदेह
मौन जुलाहा कह रहा,ले धागा औ सूत
ताने से तन ढांक ले,बाने से मन भूत
***
अस्पताल में देखिये ,मरीज रह चिल्लाय
मरहम पट्टी छोड़ के ,नर्स रही बतियाय
***
तीरथ कर लौटा अभी ,देखा चारो धाम
मन भीतर क्या झांकना ,जहाँ मचा कुहराम
जिससे भी जैसे बने ,ले झोली भर ज्ञान
चार-दिवस सब पाहुने ,सुख के चार-पुराण
मिल जाए जो राह में, साधू -संत -फकीर
चरण धूलि माथे लगा, चन्दन , ज्ञान-अबीर
मंजिल तेरी पास है , ताक रहा है दूर
चुपड़ी की चाहत करे , जला ज्ञान-तंदूर
पर्वत देख उचाइयाँ, मन चकराता जाय
काश इतना ही उंचा,ध्वज भाग फहिराय
पर्वत देख उचाइयाँ,नेता करे विचार
कुछ इत्ती उंचाई के ,बंगले हो दो-चार
आस्था के अंगद अड़े ,बातों में दे जोर
तब तब हिलते पांव भी ,नीव जहाँ कमजोर
***
कालिज के लडके यहाँ ,फूकन बस को आए
कुछ जुगाड़ की रोटियां ,इस विधि ही मिल जाए
लड़का है प्रदेश में,करता क्या करतूत
रेशम का कीड़ा बना, चढा पेड़ शहतूत
***
कल आया था बाटने, सुख -दुःख का संदेश
फोन ,कबूतर, डाकिया, उड़ता गया विदेश
पता भूलकर डाकिया,मन ही मन पछताय
बिन पते, चिठ्ठियाँ बहुत ,निश-दिन कौन पठाय
***
संयम दामन में लगे, दुविधाओं के दाग
मन आंधी फैला गई, तन जंगल में आग
अक्षर-अक्षर बस छोड़ता, व्यापक विष का बाण
बात कभी मत वो लिखो, व्याकुल कर दे प्राण
मुझको अब भाता नहीं, फूल बगीचा बाग़
रह-रह के डस जाए है, काली रातें नाग
रिश्ते-नाते हैं कहाँ, छूट गया घर-बार
वीराने में रोए मन, ऐसा क्यूँ है प्यार
तुमको रंज है फूल से, खुशबू से परहेज
कैसे ब्याही बेटियां, दिए बिन दान-दहेज
पाँव पड़े हैं कब्र पर, बातें अफलातून
गिनती के बस दन्त हैं, मांग रहे दातून
***
दोहे ........सुशील यादव
महुआ झरता पेड़ से, मादक हुआ पलाश
लेकर मन पछता रहा, यौवन में सन्यास
लेकर आया डाकिया, ख़त इक मेरे नाम
बिन खोले मै जानता, भीतर का पैगाम
दुःख की चादर समेट के, सुख की जोहे बाट
अच्छे दिन की आस ने, सबकी उलटी खाट
कौन- कहाँ पीछे रहा, चलते चलते साथ
घर -घरौंदा गया बिखर, किसका छूटा हाथ
पसरी केवल सादगी, छूट गया सब मोह
एक जंगल के रास्ते, दूजा खुलता खोह
दोहे
उजड़ी हो मन बस्तियां ,बिखरा हो सुनसान
ऐसे में तुमसे मिलें ,मुश्किल है पहचान
पात टूटा टहनी से ,गिरा शाख से फूल
पतझर मौसम भी लगे ,नेता का ऊसूल
कथनी औ करनी कहीं , अंतर इतना जान
मुँह चले नेतागिरी,सांस चले तो प्राण
जग की घर की बात है ,भीतर-बाहर चोर
कोई लूटे शाम को ,कोई लूटे भोर
***
कितना लगता है बुरा ,गिनती के दिन चार
इभन-आड के फेर में ,ताक रहे इतवार
पत्ते विहीन टहनियां ,शाख फूल विहीन
कुर्सी दावेदार ही ,स्टूल रहे अब छीन
***
डोर न ढीला छोड़ना ,प्रीत पतंग उडाय
बिन मागे कुछ तो मिले,मांग के कछु न पाय
उलझे मन की बात ये ,कभी न सुलझी डोर
रात करवटें ले कटी ,झपकी आती भोर
जनता की दरबार है ,जनादेश सब होय
राज-रंक पल में करे ,आप न समझे कोय
मोदी तेरे राज में ,दीन -दुखी हैं लोग
अच्छे दिन बुखार चढ़य,बुरे दिनो के रोग
***
बन में सूखी लकड़ियाँ ,घर में सुलगे देह
धुँआ -धुँआ होता रहे ,मन उपजा संदेह
मन जुलाहा कहा किया ,ले धागा औ सूत
ताने से तन ढांक ले,बाने से मन भूत
सांई कभी करो जतन ,दे दो राख भभूत
पीढी को जो तार दे ,जनमे वही सपूत
लकड़ी में कब घुन लगे ,लोहे में कब जंग
यश-अपयश सब साथ है ,भले -बुरे के संग
तू भी बन के देख ले ,पंडित, पीर-फकीर
राम -रहीम दुवार में ,कौन गरीब-अमीर
***
अस्पताल में देखिये ,मरीज रह चिल्लाय
मरहम पट्टी छोड़ के ,नर्स रही बतियाय
***
सुशील यादव ...
मंजिल तेरी पास है ,ताके क्यूँ है दूर
चुपड़ी की चाहत अगर , ज्ञान जला तंदूर
जिससे भी जैसे बने ,ले झोली भर ज्ञान
चार दिवस सब पाहुने ,सुख के चार पुराण
तीरथ करके लौट आ,देख ले चार धाम
मन भीतर क्या झांकता ,उधर मचा कुहराम
मिल जाये जो राह में, साधू -संत -फकीर
चरण धूलि माथे लगा ,चन्दन , ज्ञान-अबीर
आस्था के अंगद अड़े ,बातों में दे जोर
हिलते तभी पांव-नियम ,नीव जहाँ कमजोर
कालिज के लडके यहाँ ,फूकन बस को आए
कुछ जुगाड़ की रोटियां ,इस विधि ही मिल जाए
लड़का है परदेश में,करता क्या करतूत
रेशम का कीड़ा बना, पेड़ चढ़ा शहतूत
जिससे भी जैसे बने, ले झोली भर ज्ञान
आलोकित जग जो करे ,मगज रखा सामान
कल आया था बाटने, सुख -दुःख का संदेश
फोन ,कबूतर, डाकिया, उड़ता गया विदेश
भूल पता 'मन' डाकिया,मन ही मन पछताय
'इधर' पते बिन चिठ्ठियाँ ,निश-दिन कौन पठाय
***
पर्वत देख उचाइयाँ, मन चकराता जाय
काश इतना ही उंचा,ध्वज भाग फहिराय
पर्वत देख उचाइयाँ,नेता करे विचार
इस उंचाई के यहीं ,बंगले हो दो चार
***
एक जुलाहा हुआ चकित ,देख सूत कपास
तन से क्या ताना बुने,मन बाना विश्वास
जिसको हम समझा किये ,अपने बहुत करीब
वो ही आखिर बन गया , आड़े प्यार रकीब
मन भंवरा मंडरा रहा , तुझे समझ के फूल
यही अक्ल की खामियां ,बचपन मानो भूल
मन भी कुछ बौरा गया ,देख आम में बौर
बिन तुझसे मिल-भेंट के ,हलक न उतरे कौर
किस तपसी ने तप किया ,मल के राख भभूत
आत्मचिंतन सुई पकड़,ज्ञानी डाले सूत
देख जुलाहा हाथ की , तिरछी-खड़ी लकीर
ऊपर से बुन क्या दिया,विरासत कि तकदीर
लोह ताप से भूलता ,अपनी खुद तासीर
खुद बिरादरी से पिटे,कभी न बोले पीर
***
दोहे .....सुशील यादव
नफरत के इस कुम्भ में,खोज प्रेम लेवाल
जिसके भीतर 'मै' घुसा,उतरे तो वह खाल
जड़ गया वो माथे में ,मुझसे जुडा सवाल
ले हाथो में उस्तरा , बजा गया जो गाल
गली-गली में जीत का, सिक्का तभी उछाल
अगर खजांची बाप हो ,घर में हो टकसाल
माथे को क्यों पीटना ,होता किसे मलाल
देने वाला देखता ,है छप्पर किस हाल
दिन-रात कौन पूछता ,एक सरीखा सवाल
ले हाथो में उस्तरा , बजा रहे क्यूँ गाल
***
संगवारी अइसन मिलय,जेमे अटके जान
लईकुशहा मन के रहय ,ज्ञान में हो सियान
क्रोध अपन निकाल कभू , बेचव हाट बजार
दू कौड़ी मिल जाय तो ,खुशी मनाव हजार
***
कुण्डली....
कभू रुखनडा पेड़ ले, आमा पाये चार
दू के चटनी बाँट ले ,दू के डार अचार
दू के डार अचार ,समझय कोनो गवइहां
पडत समय के मार ,ढूढे मिलय न छईहाँ
बीती ताहि बिसार ,सुमर तनिक नाम परभू
रखव 'सुशील' विचार ,फलत मिलही पेड़ कभू
सुशील यादब
खिसलत हवय भाग हमर,बिन पानी बिन तेल
होली के हुडदंग हम ,होगेन जी डढ़ेल
अमृत जस आमा रहय ,अमली रहय खट़ास
खिलखिलात जोडी रहय ,आनन रहय उजास
***
सुशील यादव
दोहे - वर्तमान परिवेश में साहित्यकारों की भूमिका
लिखिए कुछ ऐसा मनुज,सज उठे वर्तमान
हो टक्कर की लेखनी ,रख आत्मसम्मान
कोलाहल हो 'जग' अगर,बनो शान्ति के दूत
ले चरखा फिर हाथ में ,सुख के कातो सूत
वाणी में अमृत घुले, रहे मधुर आवाज
परिपाटी हो स्थापना , जिसको कहें रिवाज
तुमसे क्या-क्या मांगता ,व्याकुल आज समाज
स्वर्ण नोक बना कलम ,पहना दो फिर ताज
स्वारथ सभी छोड़ दो ,त्याग दो अहंकार
परमार्थ में जी लगा ,जानो तुम संसार
***
उल्लाला ..... सुशील यादव .....१३ +१३, हर 11वे लघु
नुन्छुर कस मोला लगय , व्यवहार अउ बात-वचन
कस बिताबो पांच बछर , आगी लगे तुहर शरन
लिख लिख ले अरजी घुमन, चालीस-घर, चार-डहर
कोनो तीर कहाँ मिलय, आश्वासन अमरित -जहर
बिहिनिया कुकरा बासत, भूकत हे हजार कुकुर
कान रुइ गोजाय तुंहर, लालच दिखय लुहुर-टुपुर
आम आदमी बस कहव, आमा चुहकते रहिबे
संगी मया - पीरा हमर,कोन भाखा कब कहिबे
तीर के हमर आदमी , मुह लुकौना होवत हे
खेत-किसानी छोड़ के ,बीज अपजस बोवत हे
***
दोहे
नुन्छुर कस मोला लगय ,बात-बानी व्यवहार
कस बिताबो पांच बछर , असकट में सरकार
लिख-लिख ले अरजी घुमन,काखर-काखर द्वार
कोनो तीर कहाँ मिलय,सुनय हमर गोहार
बिहिनिया ले कुकरा बासत,भूकय कुकुर हजार
कान रुइ गोजाय तुंहर , निभय तुहार- हमार
आम आदमी बस कहव ,आमा चुहके दारि
फिर बाद बेहाल करव,मारे-मार तुतारि
सुख के संगवारी हमर ,काबर रहव लुकाय ,
जउन मिले मिल-बाँट के ,देवी भोग-चढ़ाय
***
दोहे - वर्तमान परिवेश में साहित्यकारों की भूमिका
लिखिए कुछ ऐसा मनुज,सज उठे वर्तमान
हो टक्कर की लेखनी ,रख आत्मसम्मान
कोलाहल हो 'जग' अगर,बनो शान्ति के दूत
ले चरखा फिर हाथ में ,सुख के कातो सूत
वाणी में अमृत घुले, रहे मधुर आवाज
परिपाटी हो स्थापना , जिसको कहें रिवाज
तुमसे क्या-क्या मांगता ,व्याकुल आज समाज
स्वर्ण नोक बना कलम ,पहना दो फिर ताज
स्वारथ सभी छोड़ दो ,त्याग दो अहंकार
परमार्थ में जी लगा ,जानो तुम संसार
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