प्रिय पाठकों,
"10 ग़ज़ल - भाग 1" को मिले आपके समर्थन, स्नेह, प्रोत्साहन से मैं अविभूत हूँ. इस प्रयास पर आप सब प्रतिक्रिया ने जहाँ मेरा हौसला बढ़ाया है वहीँ मैं अब आपकी अपेक्षाओं के अनुरूप खरा उतरने का प्रयत्न करने का भी और अधिक प्रयास करूँगा.
लेखन निश्चित रूप से अपनी मन की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम है परंतु पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया एक सुखद अनुभूति तो प्रदान करती ही है वह उन्हीं भावनाओं को अधिक रसमय, लयबद्ध तथा नवीन ढंग से उसे व्यक्त करने का साहस भी प्रदान करती है. अतः यदि यह कहा जाए कि सुधि पाठकों का होना ही उत्तम लेखन का आधार है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी
"10 ग़ज़ल - भाग २" आप के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है तथा आशा है इसे भी पूर्व की भांति आपका प्रेम प्राप्त होगा.
आपकी प्रतिक्रियाओं के इंतज़ार में
अजय गुप्ता
ग़ज़ल सूची
साज़िशों की भी कुछ ख़बर रखिये
जब से हमने जीना सीखा मुस्करा कर
हरिक बूटा तेरी राहों में बिछने को मचलता है
काम चल जायेगा बाबू कह कहा कर
नई ज़मीन पे मौज इक उछल के आई है
अहसास की फुहार अगर सींचती रहे
हम यही एक नशा करते हैं
आँखों में अंगार संभाले बैठे हैं
लीडरों का फेवरिट ये क़ोट है
क्यों इतना भंगार सम्भाले बैठे हैं
ग़ज़ल (1)
साज़िशों की भी कुछ ख़बर रखिये
दोस्तों पर भी इक नज़र रखिये
ख़्वाहिशें है अगर सितारों पर
पाँव को भी तो चाँद पर रखिये
मुझको खुद से छिपाना है खुद को
कुछ कहो ये खुदी किधर रखिये
है सलीका जिन्हें निभाने का
दोस्ती उनसे ख़ासकर रखिये
तुमको जाना है उस जहां में भी
कुछ इधर तो कुछ एक उधर रखिये
क्यों हज़ारों खुदा बनाते हो
एक दर पर ही अपना सर रखिये
ज़िन्दगी रास्ते बदलती है
जानकारी में हर डगर रखिये
कोशिशें रंग खूब लाती है
कोई बाकी नहीं कसर रखिये
ये हवाई किले बनाये जो
बिन जमीं के इन्हें किधर रखिये
ग़ज़ल (2)
जब से हमने जीना सीखा मुस्करा कर
ज़िन्दगी हंसने लगी है खिलखिला कर
चार दिन की ज़िंदगी दिल खोल कर जी
छोड़ दो जीना यूँ पल पल मर-मरा कर
कुछ बताओ दिन गुजारूं किस सहारे
रात तो कट जायेगी ही पी-पिला कर
बस मुझे घर तक सलामत छोड़ देना
गर चलूँ मैं थोड़ा बहुता लड़खड़ा कर
बढ़ चली हैं आधी दुनिया हाथ थामें
बाकी आधी रह गई है तिलमिला कर
चोट है कपड़ों की, कागज़ की कलम की
गिर गईं हैं कुछ दीवारें भरभरा कर
किसमें हिम्मत है तुम्हारी राह रोके
सीख लो उठना अगर तुम गिर-गिरा कर
कब यकीं था वो हमारा नाम लेगी
इसलिए देखा था हमने अचकचा कर
वक़्त था मुश्किल मगर उसने दिखाया
लोग कैसे हैं निकलते बच-बचा कर
ग़ज़ल (3)
हरिक बूटा तेरी राहों में बिछने को मचलता है
ये दरवाज़ा तेरे स्वागत में झुकने को मचलता है
नहीं बर्दाश्त है कोई नज़र छू ले तेरा चेहरा
हिज़ाब अलमारी से बाहर निकलने को मचलता है
तेरी ऊँगली के पोरों की छुअन की चाह है ऐसी
खत अपने आप तेरे घर पहुँचने को मचलता है
न टिक पाया ये जब तेरे निगाहे-नूर के आगे
तो अँधियारा तेरे काजल में ढलने को मचलता है
तमन्ना है कि तेरा अक्स ही मुझ में समा जाए
आईना सामने तेरे ही रहने को मचलता है
न आ जाए तेरे सर पर कहीं इलज़ाम सूखे का
ये सावन बस तेरे आंगन बरसने को मचलता है
ग़ज़ल (4)
काम चल जायेगा बाबू कह कहा कर
या चलेगा कुछ न कुछ फिर दे दिला कर
जब शिकायत करने की दी मैंने धमकी
कर सके जो कर ले बोले खिल खिला कर
है ये सरकारी दीवारें रंग इनका
उड़ रहा है अफसरों की सुन सुना कर
डर नहीं इनको किसी का खुल के बोलो
बात क्या कहनी यहाँ पर फुस फुसा कर
पहिये सिक्कों के लगाये तब तो फ़ाइल
बीच मेजों के चली है हिल-हिला कर
ग़ज़ल (5)
नई ज़मीन पे मौज इक उछल के आई है
बहर की गोद से बाहर निकल के आई है
फिर आज किस की तमन्ना कुचल के आई है
अ ज़िन्दगी तू किसे फिर से छल के आई है
ख़िज़ाँ से ख़ौफ़ज़दा सी है सहमी सहमी ये
बहार आई है लेकिन सम्भल के आई है
लगे हैं कीच के छींटें लिबास पर कितने
वफ़ा की राह में उल्फ़त फिसल के आई है
मुग़ालता न मुहब्बत के नाम का रखना
क़ज़ा है शक्ल ये अपनी बदल के आई है
किया न वार मगर तूने चोट दी गहरी
कि हो के अपनी परायों में रल के आई है
बिखर गया था अबीरो-गुलाल सूरज से
उसी को सुब्ह ये चेहरे पे मल के आई है
कोई तो आके फ़ना हो थी शम्अ की चाहत
ज़रा सी चाह में शब भर ये जल के आई है
भला हो ख्वाब का तेरे मुझे बुलाया जो
वहां से खूब तबीयत बहल के आई है
उदास सी ये कली क्यों है सब्ज़-बागों में
बरस रही है घटा ये कुम्हल के आई है
ये इंकलाब है फ़ितरत है इसकी चाय सी
कभी भी आई जो रंगत उबल के आई है
ग़ज़ल (6)
अहसास की फुहार अगर सींचती रहे
रिश्तों में नौ-कशिश-ओ सदा ताज़गी रहे
इज़्ज़त का लेन-देन बराबर की बात है
पगड़ी रहे इधर तो उधर ओढ़नी रहे
कोयल की मधुर कूक से चहकी रहे फ़िज़ां
आबाद गुलिस्तां हो ये बगिया हरी रहे
जिन दो पलों का साथ था तेरा मुझे मिला
उन दो पलों में आके बसी ज़िन्दगी रहे
बदलाव चाहिए तो ज़रा खुद को ले बदल
तब्दीलियों के दौर की तू बानगी रहे
रस्ता है रोज़ का वो है बदनाम वो गली
छज्जों पे रोज़ ही तो शराफ़त चढ़ी रहे
बर्बाद कर दिया है नशे ने यूँ मुल्क को
रंगीनियों की मस्ती ही हरदम चढ़ी रहे
ग़ज़ल (7)
हम यही एक नशा करते हैं
बस तेरा नाम लिया करते हैं
आँख से आँख मिला कर हम तो
दिल का हर राज़ पता करते हैं
ख़ास लोगों की नज़र हो जिन पर
वो अहल ख़ास हुआ करते हैं
यूँ घड़ी रोक के भी क्या होगा
रात दिन फिर भी चला करते हैं
हाल-बेहाल हुआ जाता है
नींद से ख्वाब उड़ा करते हैं
ग़ज़ल (8)
आँखों में अंगार संभाले बैठे हैं
यादों में कंधार संभाले बैठे हैं
बच्चे लड़-भिड़ साथ हुए है और बड़े
अब तक भी तकरार संभाले बैठे हैं।
चढ़ कर जाना आखिर में बस कन्धों पर
लेकिन मोटर कार संभाले बैठे हैं
पैसे वाले बेघर हैं जो, उन सबको
होटल फ़ाइव स्टार सम्भाले बैठे हैं
हम मतवाले बाएं हाथ में सर रखते
और दायें में दार सम्भाले बैठे हैं।
कैसे कोई मेहमाँ उनके घर जाए
कुत्ते उनका द्वार सम्भाले बैठे हैं।
कब फिसलूं मैं और उन्हें मौका मिल जाए
अहले-जहाँ नक्कार सम्भाले बैठे हैं।
जिसको देखा वही लगा है लूटपाट में
मुल्क को बस दो-चार सम्भाले बैठे हैं
ज़ुल्म से लड़ने का क्या ढंग ये अच्छा है
सपनों में अवतार सम्भाले बैठे हैं।
ग़ज़ल (9)
लीडरों का फेवरिट ये क़ोट है
आज कॉमन मैन बस इक वोट है
फिक्स है पहले से सारे एक्शन
ये नहीं इंसान ये रोबोट है
चार लैटर पढ़ के सीखे वर्ड दो
कूल कितना मैं, तू कितनी होट है
फाल्स इस लाइफ में कुछ ओरीजिनल
बस करो बेकार का ये थोट है
क्या मिला हम को स्पेशल, कुछ नहीं
अपना बिल्कुल मिक्स टाइप लोट है
गॉड की गुगली समझ आये किसे
फेल उसके सामने हर शोट है
ग़ज़ल (10)
क्यों इतना भंगार सम्भाले बैठे हैं
टोपी और जुन्नार सम्भाले बैठे हैं।
वो जो रहते थे महलों दो-महलों में
तम्बू में घर-बार सम्भाले बैठे हैं
गुल ने जिससे जग महकाना चाहा था
वो खुश्बू अत्तार सम्भाले बैठे है
कटवाया है फोन हुए मोबाइल वो
पर जाने क्यों तार संभाले बैठे हैं
चाट गए हैं हर दाना सरकारी दीमक
कृषक खरपतवार संभाले बैठे हैं
कितने ही असरार सम्भाले बैठे हैं
मुश्किल से दस्तार सम्भाले बैठे हैं।