Athashri Media Katha (Vyang Book) in Hindi Comedy stories by Vinod Viplav books and stories PDF | Athashri Media Katha (Vyang Book)

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Athashri Media Katha (Vyang Book)

अथश्री मीडिया कथा

(व्यंग्य संग्रह)

— विनोद विप्लव

विशय सूची

1ण्मीडिया में मंदी की कथा — एक (खबर बेचने वाली बेच रही है सेब)

2ण्मीडिया में मंदी की कथा — दो (देखने और जलाने का अखबार)

3ण्खबरिया पार्टी

4ण्सत्यवादी क्र्रांति

5ण्लोकतंत्र अभ्युत्थानम

6ण्भूत चैनल

7ण्सच की नगरी

8ण्टीआरपी का आसान नुस्खा

9ण्जरा फेमसिया तो लें

10ण्फिल्मों पर मंदी की मार

मीडिया में मंदी की कथा — एक

खबर बेचने वाली एंकर बेच रही है सेब

इस बार सब्जी मंडी में नजारा बदला—बदला सा था। जब मैं मंडी पहुंचने वाला ही था कि कानों में दूर से आवाज पडने लगी — ‘‘ब्रेकिंग न्यूज। कष्मीर का ताजा सेब 30 रूपये किलो।'' पहले तो मुझे लगा कि यह आवाज आसपास के किसी घर में चल रहे किसी टेलीविजन से आ रही होगी। यह आवाज सुनते ही एक बार फिर मुझे खबरिया चैनलों पर कोफ्‌त होने लगी। इन चैनलों ने ‘‘बे्रकिंग न्यूज'' का यह हाल कर दिया है। चैनलों के लिये या तो बेक्रिंग न्यूज का भयानक अकाल पड़ गया है या चैनल वालों का दिमाग पहले से भी ज्यादा खराब हो गया है। किसी भी चीज की हद होती है। मैं ऐसा कुछ सोच ही रहा था कि अगले ही पल मुझे लगा कि खबरिया चैनलों पर दिन रात चलने वाले बकवास ब्रेकिंग न्यूज से तो यह ब्रेकिंग न्यूज लाख गुना अच्छा है। कम से ऐसे न्यूज से दर्षकों को ‘‘दाल—रोटी'' का भाव तो पता चल जाता है। अगर वाकई ऐसा है तो यह परिवर्तन स्वागतयोग्य है। कम से कम टेलीविजन चैनल आम लोगों के जीवन और उनकी जरूरतों से जुड़ तो रहे हैें। कानों में आवाज अब भी पड़ रही थी, बल्कि आवाज और अधिक साफ होती जा रही थी — ‘‘ताजा सेब, कष्मीर से लाइव सप्लाई। ..............‘‘

खबरिया चैनलों में आये इस बदलाव के लिये मैं मन ही मन खुष हो रहा था कि चलो अब बेसिर—पैर और उटपटांग ब्रेकिंग न्यूज सुनने से मुक्ति मिलेगी और अब काम लायक बे्रकिंग न्यूज देखने—सुनने को मिलेगें जिनका जीवन में कहीं न कहीं और किसी न किसी हद तक उपयोग हो सकेगा। ऐसा कुछ सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था, लेकिन थोड़ा आगे बढ़ने पर जो दष्ष्य मेरे सामने उपस्थित था उसे देखकर मैं बिल्कुल चौंक गया। संतुलित एवं बेहतरीन खबरें देने का दावा करने वाले एक खबरिया चैनल की नामी एंकर उस सब्जी मंडी में ताजे सेब से भरे एक ठेले के पीछे खड़ी होकर चिल्ला रही थी — ‘‘कष्मीर का असली सेब 30 रूपये किलो।''

आखिर माजरा क्या है। या तो मैं पागल हो गया हूं या चैनल के लोग पागल हो गये। चैनल वालों को यह क्या नया सूझा है। अब सब्जी मंडी को ही स्टूडियो बना लिया है क्या। हे भगवान, आखिर चैनल वालों को हुआ क्या है। अब तक सेलिब्रिटीज की पार्टियों, डांस क्लबो, जिमखानों, राखी सावंत के ड्राइंगरूम, मल्लिका सेरावत के ड्रेसिंग रूम, और किसी और हिरोइन के बेडरूम, फाइव स्टार होटल के बाथरूम और सलमान खान के घर के पिछवाड़े से सीधा प्रसारण करने वाले इन चैनलों के दिन इतने फिर गये कि अब लाइव प्रसारण के लिये सब्जी मंडी को चुनना पड़ा। लेकिन मुझे तो यह परिवर्तन भी स्वागत योग्य लगा। कम से कम ये चैनल वाले अब आम लोगों के जिंदगी के बीच तो आये। हालांकि मुझे चैनल वालों की सोच पर पूरा भरोसा था और मुझे विष्वास था कि इतना जल्दी चैनल के लोग बदलने वाले नहीं हैं। जरूर कुछ गड़बड़ है। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ायी लेकिन मुझे आसपास न तो कोई ओ वी वैन दिखी और न ही कैमरे और न ही कैमरामैन दिखे।

थोड़ा और पास पहुंचने पर देखा कि कि भारत के सर्वश्रेश्ठ होने का दावा करने वाले उस चैनल की नामी एंकर बे्रकिंग न्यूज पढ़ नहीं रही थी बल्कि वह ब्रेकिंग न्यूज पढ़ने की अपनी पुरानी स्टाइल के साथ ग्राहकों को अपनी ओर आकर्शित कर रही थी ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहक उसकी तरफ आयें और ज्यादा से ज्यादा सेब की ब्रिकी हो। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आया कि खबर बेचने वाली एंकर अब सेब क्यों बेच रही है। लेकिन यह सोचकर खुषी हुयी कि बकवास खबरों के बजाय वह अब कुछ अच्छी चीजें तो बेच रही है। उस एंकर से थोड़ा परिचय था, सो उसने मुझे पहचान लिया और वैसे भी मंदी के इस दौर में ग्राहक को कौन नहीं पहचानता है।

मैंने पूछ लिया, ‘‘ये सब माजरा क्या है। आखिर आप सेब क्यों बेच रहीं हैं। कोई रियलिटी षो का रिर्हसल तो नहीं कर रही हैं।''

उस समय वह एंकर एक ग्राहक के लिये दो किलो सेब तौल रही थी। सेब तौलते हुये उसने कहा, ‘‘अब नौकरी कहां रही कि कोई रियलिटी षो करूंगी। अब तो सेब बेच कर ही गुजारा करने को सोचा है। आप भी सेब घर ले जाइये। कष्मीर का सेब है। इस बार मै लोगों को मुर्ख नहीं बना रही हूं। सच्ची कह रही हूं। यह कष्मीरी सेब ही है। अब तो असली दुनिया में आ गई हूं,। खबरिया चैनलों की दुनिया में भले ही झूठ बिकता हो, असली दुनिया में झूठ बेचकर धंधे नहीं कर सकते। कहिये तो पांच किलो आपके थैले में डाल दूं।''

‘‘पहले आपने कितनी झूठी और बकवास चीजें बेची हैं और हमने उन्हें भी खरीदा हैं और आप अब जब सेब जैसी उपयोगी चीज बेच रही हैं तो हम क्यों नहीं खरीदेंगे।'' मैंने मन ही मन कहा।

कोई जवाब नहीं पाकर एंकर ने कहा, ‘‘अरे व्यंग्यकार साहब। कोई व्यंग्य तो नहीं सोचने लगे। हम चैनल वालों का आपने खूब मजाक उड़ाया है। अब तो मैं चैनल वाली नहीं हूं। अब मुझसे क्या दुष्मनी है। अगर आप पांच किलो सेब खरीदेगें तो आपको एक एक्सक्लूसिव स्टोरी की यह सीडी मुफ्‌त दुंगी। मैने बहुत मेहनत करके एक स्टोरी बनायी थी किसानों की आत्महत्या को लेकर, लेकिन चैनल वालों ने इसे कूड़े में फेक दिया था। इसे मैंने सहेज कर रख लिया कि कभी मौका मिला तो इसे प्रसारित करवाउंगी। लेकिन अब तो मुझे ही चैनल से बाहर फेंक दिया गया। बताइये तो कितना सेब तौल दूं। अब चलिये, अगर आपको पांच किलो सेब नहीं लेना है तो कम से कम एक किलो तो ले जाइये। अगर एक किलो सेब भी लेंगे तो आपको एक दूसरी स्टोरी की सीडी मुफ्‌त में दूंगी। आप इसे देखकर कुछ लिखेंगे तो बात लोगों तक तो पहुंचेगी। जिसने देखा है खूब तारीफ की है। पहली बार मैंने अपनी स्टोरी के लिये तारीफ सुनी है। यह स्टोरी गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की भयानक कमी को लेकर है। लेकिन यह स्टोरी भी नहीं चलायी। जब अमिताभ बच्चन के मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती होने के बारे में दिन—रात प्रसारण हो रहा था तब देहात में सैकड़ों—हजारों लोग मामूली बीमारियों से लोग किस तरह से मौत के षिकार बन रहे थे, इसे दिखाने में हमारे चैनल को कोई दिलचस्पी नहीं थी।''

एंकर की बात सुनकर मुझे अपनी सोच पर पछतावा हुआ कि चैनल में दिखायी जाने वाली उटपटांग चीजों के लिये एंकरों को बेकार ही दोशी मानता रहा। मेरे जैसे लोग तो यही मानते रहे हैं कि एंकरों के पास सुंदर चेहरे के अलावा कुछ और नहीं होते हैं, लेकिन अब पता चला कि कुछ एंकरों के पास दिमाग भी होते हैं और समाज के लिये कुछ करने की चाहत भी। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि सर्वश्रेश्ठ माने जाने वाले उस चैनल ने दूर से ही मंद बौद्धिकता की आभा बिखेरने वाले अपने तुतलाते रिपोर्टरों एवं इठलाते एंकरों को मंदी के नाम पर निकालने के बजाय कानों में अमष्त घोलने वाली इस एंकर को निकाल दिया।

मैंने पूछ लिया, ‘‘अब आगे क्या करने का इरादा है। आखिर घर—परिवार चलाने के लिये नौकरी तो चाहिये ही। सेब बेचकर कितना दिन गुजारा करेंगीं। जीवन कैसे चलेगा।''

एंकर ने जबाव दिया, ‘‘सच कहूं तो जीवन अब ही चल रहा है, पहले तो केवल नौकरी चल रही थी, जीवन नहीं। ''

‘‘लेकिन लाख रूपये की सैलरी, ग्लैमर और षोहरत सेब बेचने से मिल नहीं सकती। आपने मीडिया में एक मुकाम हासिल किया। ‘‘ मैंने कहा।

‘‘काहे का मुकाम, ग्लैमर और षोहरत और काहे की सैलरी। सच कहूं तो पहले जितने लोग मुझे एंकरिंग के कारण जानते थे, उससे कम से कम दो गुना लोग मुझे सेब बेचने के कारण जानने लगे हैं। रोज बीसियों लोगों से मिलती हूं। सच कहूं तो पहले मेरा जीवन तो मेकअप रूम और स्टूडियो में ही सिमट कर दम तोड़ रहा था। एंकर की नौकरी में कहने को तो एक लाख रूपये पाती थी लेकिन आधे पैसे तो पाउडर—लिपिस्टिक में और एंकरिंग की नौकरी में मिले स्पाइन दर्द और माइग्रेन का इलाज कराने में खर्च हो जाता था। ऐसी लाख रूपयों की सैलरी का क्या करना है जो घर—परिवार और जीवन की खुषियां ही छीन ले। जब से नौकरी छुटी है तब से स्पाइन दर्द और माइग्रेन भी धीरे—धीरे खत्म हो गया। अब अपने लिये, बच्चों और घर परिवार के लिये जीती हूं। समय मिलेगा तो समाज के लिये कुछ न कुछ करूंगी। चैनल की नौकरी में किसके लिये जी रही थी और किसके लिये क्या कर रही थी, अब तक मुझे कुछ समझ नहीं आया।''

‘‘वह सब तो ठीक है, लेकिन सेब बेचकर कितना मिलेगा।'' मैंने सवाल किया।

''चेहरा दिखाकर लाख रूपये की सैलरी पाने से तो अच्छा है मेहनत से हजार रूपये कमाना। चेहरा दिखाकर पैसे कमाने से तो तो अच्छा तो सेब बेचना है। मुझे सेब बेचकर जितना भी मिलता है वह जीवन और घर—परिवार चलाने के लिये काफी है। ज्यादा तो नहीं लेकिन रोज एक हजार रूपये की कमाई तो हो ही जाती है। अरे मैं भी कहां की बात ले बैठी। मैं तो वह सब भूल कर नया जीवन षुरू करना चाहती हूं। कृकृकृ अरे आपने तो बताया नहीं कि कितना सेब तौल दूंं। आपने पढ़ा नहीं है कि सेब खाने से दिल और दिमाग दोनों ठीक रहता है। बच्चों को तो रोज चार—पांच सेब खिलाइये। मैं भी अब रोज सेब खाती हूं और बच्चों को भी खिलाती हूं। टेलीविन की नौकरी में तो याद ही नहीं कि कब सेब खाया था। ''

‘‘अगर आप कहती हैं तो पांच किलो सेब तो दे ही दीजिये।

देखिये भाव ठीक से लगाइये। यह समझ लिजिये कि मैं आपका स्थायी ग्राहक बनने वाला हूं।'' मैंने अपना थैला आगे बढ़ाते हुये कहा।''

थैले में पांच किलो सेब भरवाकर आगे बढ़ा, इस बात से अनजान कि थोड़ा आगे एक इससे भी बड़ा आष्चर्य मेरा इंतजार कर रहा था।

मीडिया में मंदी की कथा : दो

देखने और जलाने का अखबार

एंकर से सेब खरीद कर आगे बढ़ गया। मंडी की आपाधापी, पैर पर चढ़ आने को उतावले रिक्षों और ठेलों से बचते हुये आगे बढ़ रहा था। उत्पात मचा रहे एक बेलगाम सांड से बचने के लिये मैं तेजी से लपक रहा था कि कानों में पीछे से आती आवाज को सुन कर अचानक रूक गया, मरखंडे सांड़ की परवाह किये बगैर। सांड़ लोगों को दौड़ता हुआ आगे निकल गया और मैं इत्मीनान की सांस लेते हुये पीछे मुड़ गया। आवाज अब भी आ रही थी — ''ताजा खबर। पांच किलो पहाड़ी आलू के साथ एक किलो अखबार फ्री।‘‘

आखिर आज माजरा क्या है। कहीं सेब के साथ एक्सक्लुसिव स्टोरी की सीडी मिल रही है तो कहीं आलू के साथ अखबार मिल रहे हैं। लगता है मीडिया ने मंडी में डेरा जमा लिया है। जिस तरफ से आवाज आ रही थी, उधर ही मुड़ गया। वहां का दष्ष्य देखकर भौचक्का रह गया। यह क्या। एक ठेला आलू से भरा था। ठेले के नीचे आलू की कई बोरियां रखी थीं और ठेले के पीछे अखबार का एक छोटा सा पहाड़ खडा था। वहां ग्राहकों का अच्छा—खासा जमावड़ा लगा था। कई ग्राहक आलू और मुफ्‌त में अखबार लेने के लिये लाइन लगाये खड़े थे। एक लड़का आलू तौल रहा था और एक दूसरा लड़का आलू लेने वाले ग्राहक से पैसे लेकर उन्हें एक—एक किलो अखबार तौल कर दे रहा था। तीन चार ग्राहक तो सब्र तोड़कर वहीं खड़े होकर अखबार में छपी हीरोइनों और मॉडलों की नंगी और अधनंगी तस्बीरों का आनंद ले रहे थे। आलू तुलवा रहे दो लोग कनखियों से जिस्मानी सौंदर्य का विस्फोट करने वाली तस्बीरों को देख रहे थे। अखबार के पहाड़ के पास खडे एक सज्जन ग्राहकों को आकर्षित करने के लिये चिल्ला रहे थे — ‘‘पांच किलो आलू पर एक किलो अखबार फ्री। देखने और जलाने के लिये सर्वथा उपयुक्त।‘‘

देखेते ही मैं उन्हें पहचान गया। नहीं पहचाने का सवाल ही नहीं था। मैं कई बार उनके साथ विज्ञान विशयों की रिपोर्टिंग के लिये साथ गया था। वह अपनी लेखनी के जरिये समाज में वैज्ञानिक चेतना कायम करने के लिये कष्तसंकल्प थे। वह अपने प्रतिबद्ध लेखन के साथ—साथ अपनी ईमानदारी और निश्ठा के लिये जाने जाते थे। वह पत्रकारिता को व्यवसाय अथवा पेषा नहीं बल्कि समाज को बदलने का एक कारगर जरिया समझते थे।

यह सब देखकर मुझे यह समझ में नहीं आया कि उन्हें यह क्या नया करने की सूझी है। हो सकता है कि अखबार में वैज्ञानिक जागरूकता पैदा करने वाला उनका कोई लेख छापा हो और उस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने यह युक्ति निकाली हो। यह भी हो सकता है कि मंहगाई के इस दौर में घर का खर्च चलाने के लिये अतिरिक्त पैसे का जुगाड़ करने के लिये उन्होंने छुट्‌टी के दिन आलू बेचने का काम षुरू कर दिया हो। यह सही है कि कुछ अखबारों ने पत्रकारों की सैलरी बढ़ा दी है लेकिन दिल्ली जैसे महानगरों में रहने और घर—परिवार चलाने का खर्च जिस तेजी से बढ़ा है उसे देखते हुये पत्रकारों को नौकरी के अलावा अलग से कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। कुछ लोग अनुवाद करते है, तो कुछ लोग कहीं पार्ट टाइम काम भी कर लेते हैं और कुछ लोग पत्नी के नाम से या किसी छदम्‌ नाम से लिखते रहते हैं। हालांकि इन उपायों से ज्यादा कुछ नहीं मिलता है और इसलिये अगर हमारे वरिश्ठ पत्रकार महोदय ने यह तरीका आजमाना षुरू किया हो तो कोई आष्चर्य नही।

मैंने आगे बढ़कर उनसे नमस्ते करने के बाद पूछ बैठा, ''यह क्या भाई साहब। विज्ञान पत्रकारिता के बाद अब किस तरह की पत्रकारिता करने को सोची है।‘‘

''नौकरी छूटने के बाद खर्च चलाने के लिये कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसे में आलू बेचने का यह धंधा क्या बुरा है।‘‘

''लेकिन आलू के साथ अखबार फ्री देने का तर्जुबा मुझे कुछ समझ नहीं आया। फिर इतना अखबार आप कहां से लाते हैं। ऐसा लगता है कि रद्‌दी अखबारों का ठेका आपने ले रखा है।'' मैंने पूछा।

''दरअसल यह लंबी कहानी है। कभी घर आयें तो विस्तार से बताउंगा और अपनी आंखों से आप खुद देख सकते हैं। लेकिन घर में आपको मैं बिठा नहीं पाउंगा, क्योंकि मेरे घर में बैठने की जगह भी नहीं बची है। पूरे घर में अखबार भरा है। पिछले कुछ दिनों से हम लोग अपने पड़ोस के यहां रह रहे हैं। उन्होंने हम पर दया करके एक कमरा हमें रहने के लिये दे दिया है।''

''लेकिन आपके यहां इतना अखबार आया कहां से।‘‘

उन्होंने अपने दुखड़े का बयान करते हुये कहा, ''बड़ी दर्द भरी कहानी है। नौकरी से निकाले जाने का नोटिस लेने के लिये संपादक ने मुझे जब अपने चैम्बर में बुलाया तो मुझसे कहा कि आपको दो महीने की सैलरी देकर नौकरी से हटाया जा रहा है। लेकिन कंपनी के पास सैलरी देने के पैसे नहीं है। अखबार बिक नहीं रहे हैं। इसका कारण यह है कि आप जैसे पत्रकारों के लेखों एवं रिपोर्टों को अखबारों में छपने के कारण अखबार का सर्कुलेषन बिल्कुल डाउन हो गया है। पिछले कई महीनों से वापस होकर गोदामों में जमा हो रहे हैं। अब गोदामों में इतनी जगह नहीं बची है कि और अखबार रखे जा सकें। इसलिये प्रबंधन ने फैसला किया है कि नौकरी से हटाये जाने वाले कर्मचारियों को जितना भुगतान करना है उसके बराबर का अखबार उन्हें दे दिया जाये। इसलिये आपको जितने का भुगतान किया जाना है उसके बदले का अखबार ट्रक में भरकर आपके घर भिजवा दिया जायेगा। आपको करना कुछ नहीं है। अखबार भिजवाने और ट्रक से अखबार उतरवा कर आपके घर में रखने की सारी व्यवस्था कंपनी की ओर से की जायेगी। आप तो आराम से घर जायें और अखबार घर में अखबार रखवाने के लिये जगह निकाल लें। ऐसा नहीं हो कि आपके घर पर ट्रक पहुंच जाये और आप घर में अखबार रखने की जगह ही ढूंढते रहें क्योंकि इसी ट्रक से आपके किसी अन्य सहयोगी के यहां अखबार भिजवाया जायेगा। आप केवल इतना कोषिष किजिएगा ताकि ट्रक को आपके घर पर अधिक समय तक नहीं रहना पड़े। इसके दो दिन बाद ही पुराने अखबार एक ट्रक में भरकर मेरे घर पर भिजवा दिया गया और दो कमरे के मेरे मकान में पुराने अखबार ढूंस—ढूंस कर भर दिये गये। कंपनी को इतने से भी मन नहीं भरा।‘‘

‘‘यह तो वाकई बहुत ज्यादती है। लेकिन इसका विरोध क्यों नहीं किया।'' मैंने पूछा।

''मैंने इस बारे में कंपनी के मालिक से बात करनी चाही, उनसे बात नहीं हुयी। कंपनी के सीईओ को फोन करके इस बात पर आपत्ति जतायी और इस मामले को कोर्ट में ले जाने की धमकी दी। लेकिन इसके दो दिन के बाद कंपनी ने रजिस्टर्ड पोस्ट से पांच हजार रूपये का ट्रक का बिल भेज दिया।‘‘ उनकी आवास में हताषा झलक रही थी।

‘‘लेकिन इतने अखबार का आप करेंगे क्या। फिर अगर घर में अखबार ही भरा होगा तो आप और आपके परिवार के लोग रहेंगे कहां।'' मैंने पूछा।

‘‘फिलहाल तो हम लोग अपने पडोस के घर में रह रहे हैं। वैसे अब तो काफी अखबार हट चुका है। हमने कई क्विंटल अखबार तो कबाडी वालों को पांच—पांच रूपये किलो के हिसाब से बेच दिया। कई क्विंटल अखबार तो संब्जी मंडी में निकल गया। इसके अलावा हमने पिछले कुछ दिनों से खाना भी अखबार जलाकर ही बनाना षुरू कर दिया है। मेरा तो लोगों से यही कहना है कि हमारा यह अखबार देखने और जलाने के लिये बेहतरीन है। इन दोनों कामों के लिये दुनिया भर में इससे बेहतर अखबार नहीं होगा।‘‘ उन्होंने बताया।

‘‘मैं कुछ समझा नहीं। अखबार पढ़ने के लिये होते हैं, देखने और जलाने के लिये नहीं।‘‘ मैं आष्चर्य में पड़ गया।

‘‘आप किस दुनिया में हैं। अखबार पढ़ने के लिये होते थे। ऐसा वर्शों पहले होता था जब अखबारों को गंभीरता के साथ पढ़ा जाता था। अब अखबार पढ़ने की चीज नहीं होती, देखने की चीज होती है। अब अखबारों के पाठक नहीं दर्शक होते हैं। अब अखबारों में हीरोइनों और मॉडलों की नंगी—अधनंगी तस्बीरें और जांघिया—बनियान, कंडोम, क्रीम—लिपिस्टिक, और ब्रेस्ट इनहैसमेंट पिल्स एवं सर्जरी आदि के उत्तेजक विज्ञापन छपने के बाद जो थोड़ी जगह बच जाती है उसमें खबरें और लेख छाप दिये जाते हैं। अगर खबरें जानने के लिये कोई व्यक्ति अखबार पढ़ रहा है तो वह पैसा, समय और अपना दिमाग तीनों बर्बाद कर रहा है। मेरा तो मानना है कि मंदी के नाम पर अखबारों से इतने बड़े पैमाने पर पत्रकारों को निकाले जाने का कारण मंदी या अखबारों के मुनाफे में कमी आना नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि अब अखबारों में रिपोर्टरों और उपसंपादकों की जरूरत ही नहीं है। कुछ दिनों में अखबारों में केवल पेज डिजाइनर और फोटोग्राफर ही रह जायेंगे।''

अखबारों में विकसित हुये इस नये ट्रेंड से बेखबर होने पर मुझे अपने आप पर कोफ्‌त भी हुयी और थोड़ी षर्मिंदगी भी महसूस हुयी। अखबारों में इतना परिवर्तन आ गया और मैंने कभी महसूस ही नहीं किया।

मुझे सोच में पड़ा देखकर पत्रकार महोदय ने कहा, ''अब चिंता करने की जरूरत नहीं है। अखबारों में आये इस परिवर्तन के बाद अब यह अखबार सभी के लिये बहुत उपयोगी बन गये हैं। खासकर हमारे इस अखबार में छपी तस्बीरें में इतनी उर्जा एवं उत्तेजना भरी होती हैं कि इन तस्बीरों को छूकर आग की लपटें भी पागल हो उठती है। मैंने यह खास तौर पर गौर किया है कि जब आग की लपटें इन तस्बीरों के उपर से गुजरती है तो तेजी से भभक उठती है, लेकिन जब ये लपटें अखबार की संपादक के लेख को स्पर्ष किये बगैर ही गुजर जाती है, ठीक उसी तरह से जैसे अखबार के दर्षक रविवार को छपने वाले इस लेख को देखे बगैर ही आगे निकल जाते हैं।''

पत्रकार महोदय के मुंह से अखबार की इतनी विषेशतायें सुनकर मैं अनायास बोल उठा, ''भाई, मुझे तो पांच किलो आलू तौल दीजिये, लेकिन मुझे दस किलो अखबार चाहिये। इसके लिये आप अलग से जो भी पैसे चाहें, लगा लें।''

यह कहते हुये मैं आलू के साथ लेने वालों की लाइन में लग गया, जो तेजी से लंबी होती जा रही थी।

खबरिया पार्टी

कुछ पार्टी सत्ता में रहती है और कुछ पार्टी खबरों में। या यूं कहें कि कुछ पार्टी सत्ता में बने रहना जानती है और कुछ पार्टी खबरों में बने रहना जानती है जबकि कुछ पार्टी न सत्ता में बने रहना जानती है और न ही खबरों में।

पहली तरह की पार्टी का जन्म सत्ता में रहने के लिये ही हुआ है। जब वह सत्ता में नहीं रहती है तब जल बिन मछली की तरह तड़पने लगती है। लेकिन दूसरी तरह की पार्टी का जन्म खबरों में बने रहने के लिये हुआ है। सत्ता से बाहर रहने पर उसे कोई संकट नहीं होता है। उसे दिक्कत तब होती है जब वह खबरों से बाहर हो जाती है। वह अगर किसी तरह सत्ता में आ भी जाये लेकिन किसी कारण से खबरों से बाहर हो जाये तो उसे बेचैनी होने लगती है और खबरों में वापसी के लिये उसे अपनी सरकार गिराने में भी कोई गुरेज नहीं होता है। जब यह पार्टी सत्ता से बाहर हो और वैसे समय में वह खबरों से भी बाहर हो जाये तो उसके लिये जीना मुहाल हो जाता है और ऐसे में खबरों में बने रहने के लिये पार्टी नेताओं को पार्टी तोड़ने में भी कोई संकोच नहीं होता है।

दरअसल सत्ता में रहते रहने के कारण पहली वाली पार्टी को सत्ता में रहने का और दूसरी वाली पार्टी को खबरों में बने रहने के कारण खबरों में रहने का महारत हासिल हो गया है। दूसरी वाली पार्टी सत्ता में हो या नहीं हो, खबरों में केवल वही होती है। ऐसा लगता है कि भारत में उसके अलावा कोई और पार्टी है ही नहीं। मेरा तो विष्वास है कि जब यह यह पार्टी नहीं होगी तब भी खबरों में वही होगी। इसके नेताओं को भी पार्टी को हमेषा खबरों में बनाये रखने की चिंता होती है और इसकारण वे पार्टी तथा एक दूसरे की ऐसी—तैसी करने में लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि पार्टी की जितनी भद्‌द पिटेगी, जितनी अधिक टूटेगी और उसकी जितनी फजीहत होगी वह उतनी ही अधिक खबरों में रहेगी जो कि पार्टी और उसके नेताओं की मूल जरूरत है। इस पार्टी के नेताओं को यह भले ही पता नहीं हो कि पार्टी को सत्ता में कैसे लाया जाता है और सत्ता में कैसे बनाये रखा जाता है लेकिन उन्हें यह भली—भांति पता है कि पार्टी को खबरों में कैसे लाया जाता है और खबरों में कैसे बनाये रखा जाता है। उन्हें पता होता है कि खबरों में बने रहने के लिये किस महापुरुश पर लिखना चाहिये और किस पर नहीं लिखना चाहिये, किस पर चिंतन करना चाहिये और किस पर मंथन करना चाहिये, कब बैठक और कब उठक—बैठक करनी चाहिये, कब किसके घर जाना चाहिये और कब किसके घर नहीं जाना चाहिये तथा कब किसको घर से निकालना चाहिये और कब किसके घर से निकलना चाहिये।

इस पार्टी का देष के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। इसी पार्टी के कारण ही लोग कंधार, स्विस बैंक और जिन्ना से लेकर पीएसी जैसे नीरस एवं गंभीर विशयों के बारे में जागरुक होते रहे हैं। इस पार्टी के कारण ही कई चैनल और कई अखबार चल रहे हैं। अगर यह पार्टी नही होती तो न जाने कितने चैनल और अखबार बंद हो गये होते, न जाने कितने पत्रकार बेरोजगार हो गये होते और न जाने कितने पत्रकारों को खबरों के लिये फिर से भुतहा हवेलियों, ष्मषान घाटों, कब्रिस्तानों, गड्‌ढों, और नाग—नागिनों के बिलों में चक्कर लगाने पड़ते।

सत्यवादी क्रांति

भारत इन दिनों एक महान क्रांति के दौर से गुजर रहा है। वैसे तो हमारे देष और दुनिया में कई क्रांतियां हुयी हैं। मसलन औद्योगिक क्रांति, साम्यवादी क्रांति, समाजवादी क्रांति, पूंजीवादी क्रांति, और ष्वेत एवं हरित जैसी रंगवादी क्रांतियां। लेकिन भारत में आज जिस क्रांति की लहर चल रही है उसकी तुलना में बाकी क्रांतियां पसांग भर भी नहीं हैं।

इसी महान क्रांति का असर है कि आज हर आदमी सच बोलने के लिये छटपटा रहा है। ऐसा लग रहा है कि मानो उन्होंने अगर सच नहीं बोला तो उनका दम घुट जायेगा, देष का बंटाधार हो जायेगा, धरती फट जायेगी और दुनिया रसातल में चली जायेगी। यही कारण है हर भारतीय सच बोलने का एक मौका देने की गुजारिष कर रहा है। लोग दिन—रात फोन करके गुहार लगा रहे हैं, ‘‘प्लीज, एक बार मुझे भी सच बोलने के लिये बुला लो।'' लोग फोन करने के लिये इस कदर उमड़ पड़े हैं कि फोन लाइनें ठप्प पड़ गयी हैं। लोग रात में जाग—जाग कर फोन कर रहे हैं।

सच बोलने के प्रति लोगों में ऐसा भयानक जज्बा इतिहास में षायद ही कभी देखा गया। वैसे भी हमारे देष में सच बोलने की परम्परा नहीं रही है। हमारे इतिहास में सच बोलने वाले केवल एक ही व्यक्ति का जिक्र आता है — राजा हरिश्रचन्द्र का। लेकिन उनके बारे में भी ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि उन्होंने कभी अपनी निजी जिंदगी के बारे में सच बोला हो। उन्होंने कभी भी खुलासा नहीं किया कि उनके अपनी पत्नी के अलावा कितनी महिलाओं से संबंध थे, उन्होंने अपनी पुत्री से कम उम्र की कितनी लड़कियों से संबंध बनाये थे, उन्होंने पांच सितारा सरायों से कितनी सफेद या अन्य रंगों की चादरें चुरायी थी। लेकिन इसके वाबजूद उन्हें सत्यवादी का खिताब दे दिया गया जो दरअसल इस बात का सबूत है कि उनके जमाने में सच बोलने वालों का कैसा भयानक अकाल था। वाकई हमारा देष सच बोलने के मामले में पूरी तरह कंगाल रहा है। यहां सच उगलवाने के लिये हमारी बहादुर पुलिस को लोगों को बर्फ की सिल्लियों पर लिटाना पड़ता रहा है और मार—मार कर उनकी चमड़ी उधेड़नी पड़ती रही है। यहां गीता और ईष्वर से लेकर मां—बहन की कसमें खाकर, सत्यनिश्ठा की षपथ लेकर और अदालत में एफिडेविट देकर झूठ बोले जाते रहे हैं। लेकिन अब झूठ का यह अंधकार युग गुजर चुका है। अब सच और सत्यवादियों का बोलवाला हो चुका है। आज लोग वैसे—वैसे सच बोल रहे हैं जिसके कारण उनकी जिंदगी नर्क बन सकती हैं, उनका दाम्पत्य जीवन नर्क बन सकता है, समाज में उनकी इज्जत मिट्‌टी में मिल सकती है। लेकिन इन्हें इन सबकी परवाह नहीं है, उन्हें तो सच बोलना है — इसकी कीमत चाहे जो भी चुकानी पड़े या जो भी कीमत पानी पड़े। ऐसे सत्यवादियों को षत्‌—षत्‌ नमन।

आष्चर्य तो यह है इतनी महान क्रांति एक टेलीविजन कार्यक्रम ने कर दी। लेकिन कुछ समाज विरोधियों की साजिष तो देखिये। वे इस क्रांति का सूत्रपात करने वाले कार्यक्रम पर ही प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। यह तो हम सबका सौभाग्य है कि हमें बहुत ही समझदार सरकार मिली है जिसे पता है कि ऐसी मांग करने वाले लोगों की क्या मंषा है। सरकार जानती है कि ऐसे लोग देष को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते। वे जनता को दाल, रोटी, पानी, बिजली, पानी, पेट्रोल, रसोई गैस और सड़क जैसे पुरातन और बेकार मुद्‌दों में ही उलझाये रखना चाहते हैं, लोगों को पिछड़ा बनाये रखना चाहते हैं। आज जब लोग ऐसे टेलीविजन कार्यक्रमों की बदौलत सच बोल रहे हैं, जमीन से उपर उठकर समलैंगिकता, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स, राखी सावंत, मल्लिका षेरावत, माइकल जैक्सन, सरकोजी और बू्रनी के बीच के संबंध उच्च स्तरीय मुद्‌दों के बारे में सोच रहे हैं तो देष और समाज को पीछे ले जाने वाले कुछ मुट्‌ठी भर लोगों को यह पच नहीं पा रहा है। सरकार को चाहिये कि देष में सच बोलने की क्रांति पैदा करने वाले एंकर को भारत रत्न से सम्मानित करे। उसे ऐसी योजनायें बनानी चाहिये ताकि देष के हर टेलीजिवन चैनल ऐसे ही बल्कि इससे भी आगे के कार्यक्रम प्रसारित करें ताकि यह क्रांति देष के दूरदराज के इलाकों में भी फैले। मुझे तो पूरा विष्वास है कि ऐसा जरूर होगा। सत्य की विजय होगी। कहा भी तो गया है — सत्यमेव जयते।

लोकतंत्र अभ्युत्थानम्‌

मतदाताओं की चिरपरिचित मूर्खता और अपरिपक्वता के कारण कई चुनावों की तरह पिछले चुनाव में भी लोकतांंत्रिक भावना का धक्का पहुंचा है। हालांंकि पिछले दो तीन चुनावों के बाद से जो नतीजे आ रहे थे उसे देखते हुये इस बार उम्मीद बनी थी कि इस बार पहले से और बेहतर नतीजे आयेंगे हमारे देष में लोकतंत्र और मजबूत होगा, लेकिन दुर्भाग्य से मतदाताओं ने वह गलती दोहरा दी जिसे लोकतंत्र प्रेमी कभी माफ नहीं करेंगे। इस चुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि लोग खुद नहीं चाहते कि उनका भला हो। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देष में लोकतंत्र का ऐसा हश्र और वह भी लोक के हाथों — विष्वास नहीं होता। पिछले कुछ चुनाव के बाद कितना अच्छा लोकतांत्रिक वातावरण उत्पन्न हुआ था। यह सोचते ही मन अह्‌लादित हो जाता है, लेकिन इस चुनाव नतीजों ने लोकतंत्र की स्थापना के लिये किये गये सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया।

प्रधानमंत्री बनने की आस केवल लाल कष्श्ण आडवाणी, मायावती या षरद पवार ही नहीं लगाये बैठे कई और लोग लगाये बैठे थे लेकिन लोगों की मूर्खता के कारण सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। सोचिये अगर कांग्रेस एवं उनकी सहयोगी दलों को सरकार बनाने लायक पर्याप्त बहुमत मिलने के बजाय सभी पाटियों को केवल पांच—पांच, दस—दस सीटें ही मिलती तो देष में लोकतंत्र का कितना विकास हो सकता था। अगर ऐसा होता तो सबको फायदा होता — समाज के सबसे निचले स्तर के आदमी तक को फायदा होता। अखबार और चैनलवालों को तो मनचाही मुराद मिल जाती।

आप खुद सोचिये कि तब कितना मजेदार दष्ष्य होता जब पांच—पांच, दस—दस सीटें जीतने वाली पचास पार्टियों के नेता रात—रात भर बैठकें करते। कई कई दिनों ही नहीं कई—कई सप्ताह तक बैठकें चलतीं। बैठकों में लत्तम—जुत्तम से लेकर को वे सब चीजें चलती जो लोकतांत्रिक मानी जाती हैं। प्रधानमंत्री को लेकर महीनों तक सस्पेंस बना रहता। चैनलों पर दिन रात ‘‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री'', ‘‘7 रेस कोर्स की रेस'', ‘‘कुर्सी का विष्व युद्ध'' जैसे षीर्शकों से कार्यक्रम पेष करके महीनों तक अपनी कमाई और लोगों का मनोरंजन करते। चैनलों की टीआरपी और अखबारों का सर्कुलेषन हिमालय की चोटी को भी मात देता।

हलवाइयों से लेकर नाइयों की दुकानों तक लोग राजनीति और लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं पर चलने वाले राश्ट्रीय बहस में हिस्सा लेते और इस तरह देष में लोकतंत्र में जनता की भागीदारी बढ़ती। सबसे दिमाग में यही सवाल होता कौन बनेगा प्रधानमंत्री। अचानक एक दिन रात तीन बजे मेराथन बैठक के बाद मीडियाकर्मियों के भारी हुजूम के बीच घोशणा होती कि प्रधानमंत्री पद के संसद भवन के गेट से 20 फलार्ंग की दूरी पर बैठने वाले चायवाले को चुना गया है क्योंकि सभी नेताओं के बीच केवल उसी के नाम पर सहमति बन पायी है। आप सोच सकते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो हमारे देष का लोकतंत्र किस उंचाई पर पहुंच जाता। इस घोशणा के बाद जब तमाम चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामैन अपने कैमरे और घुटने तुडवाते हुये वहां पहुंचते तबतक चायवाले की दुकान के आगे एक तरफ नगदी से भरे ब्रीफकेस लिये हुये सांसदों की लंबी लाइन होती तो दूसरे तरफ उद्योगपतियों की। एक दूसरी लाइन उनसे बाइट लेने वाले चैनल मालिकों और संपादकों की होती।

एक — दो घंटे के भीतर जब वह चायवाल अरबपति बन चुका होता तभी अखबार या चैनल का कोई रिपोर्टर या कैमरामैन बदहवाष दौड़ता हुआ वहां पहुंचता और जब बताता कि असल में सुनने में गलती हुयी है। दरअसल प्रधानमंत्री के लिये दरअसल जिसके नाम पर सहमति हुयी है वह चायवाला नहीं बल्कि पानवाला है। इसके बाद मीडियाकर्मियों के बीच एक और मैराथन दौड़ होती और अगले घंटे के भीतर एक और व्यक्ति अरबपतियों की सूची में षुमार हो जाता।

इस बीच घोशणा होती कि बैठक में पानवाले के नाम पर असमति कायम हो गयी और अब किसी और के नाम पर चर्चा हो रही है। देष में एक बार फिर संस्पेंस का माहौल कायम होता और क्या पता कि बैठक के बाद जिस नाम की घोशणा होती वह नाम इस खाकसार का होता। महीनों तक कई बैठकों का दौर चलने और तमाम उठापटक के बाद प्रधानमंत्री के रूप में किसी का चयन होता है और फिर मंत्रियों के चयन पर सिर फुटौव्वल का दौर चलता और अंत में पता चलता कि मंत्रियों के लिये भी सांसदों के नामों पर सहमति नहीं बन पायी बल्कि किसी मोची, किसी पनवाडी, किसी पंसारी, किसी जुआड़ी और किसी अनाड़ी के नाम पर सहमति बनी है। सोचिये कितने आम लोगों एवं उनके नाते—रिष्तेदारों का भला होता और तब सही अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना होती क्योंकि लोकतंत्र वह तंत्र होता है जो जनता का, जनता के लिये और जनता के द्वारा हो।

भूत चैनल

हमारे देष की जनसंख्या एक अरब से भी अधिक हो गयी है। हमारे देष में हर साल तकरीबन एक करोड़ लोगों की मौत होती है। हिन्दी के टेलीविजन चैनलों ने अपने षोधों से पता लगाया है कि मरने वाले षर्तिया तौर पर भूत बनते हैं और इस तरह से कहा जा सकता है कि हर दिन करीब 27 हजार भूत जन्म लेते हैं। इन चैनलों ने गहन अनुसंधान से यह भी निश्कर्श निकाला है कि भूत कभी मरते नहीं हैं और इस तरह से धरती पर मानव सभ्यता के आविर्भाव से लेकर अब तक जितने लोगों ने मृत्यु को प्राप्त करके भूत योनि में जन्म लिया है उनकी गणना के आधार पर कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में भूतों की आबादी कई अरब महाषंख से भी अधिक हो गयी है। लेकिन यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि महान संचार क्रांति के इस युग में भी भारत में ऐसा एक भी टेलीविजन चैनल नहीं है जो ‘‘भूतों का, भूतों के लिये और भूतों के द्वारा'' हो, जबकि हमारे देष में ‘‘अभूतों'' के लिये दो सौ से अधिक चैनल हैं और कुछ दिनों या महीनों में इससे भी अधिक चैनलों के षुरू होने की आषंका है। हमारे लिये अगर कोई संतोश की बात है तो बस यही है कि आज कुछ गिनती के ऐसे चैनल हैं भूतों एवं उनसे जुडे मुद्‌दों को ‘‘अभूतों'' की खबरों और उनकी समस्याओं की तुलना में कई गुुणा अधिक प्राथमिकता देते हैं। केवल यही दो—चार चैनल हैं जो सही मायने में भूत प्रेमी कहे जा सकते हैं। एक—दो बकवास चैनल तो ऐसे घनघोर भूत विरोघी हैं कि वे भूतों की इतनी बड़ी आबादी की बिल्कुल ही चिंता नहीं करते। यह बड़ी बेइंसाफी है।

इतने विषाल भूत समुदाय को टेलीविजन क्रांति के लाभों से वंचित रखा जाना भूतों के खिलाफ अभूतों की साजिष है। यह वाकई गंभीर चिंता का विशय है और इस दिषा में सरकार, मंत्रियो, नेताओं, उद्योगपतियों, चैनल मालिकों, मीडियाकर्मियों और समाजिक संगठनों को गंभीरता से सोचना चाहिये तथा भूतों पर केन्द्रित टेलीविजन चैनल षुरू करने की दिषा में पूरी षिद्‌त के साथ पहल करनी चाहिये। ऐसा टेलीविजन चैनल न केवल व्यापक भूत समुदाय के हित में होगा बल्कि टी आर पी, विज्ञापन बटोरने और व्यवसाय की दृश्टि से भी बहुत अधिक लाभदायक होगा जो हर टेलीविजन चैनल का एकमात्र उद्‌देष्य होता है।

मैंने यह प्रस्ताव उन चैनल मालिकों और उद्योगपतियों के लाभ के लिये तैयार किया है जो कोई टेलीविजन चैनल खोलने के लिये भारी निवेष करने का इरादा तो रखते हैं लेकिन यह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि किस तरह का चैनल षुरू करना व्यावसायिक एवं राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहेगा। भूत चैनलों के स्वरूप और लाभ—खर्च का विस्तृत ब्यौरा मैंने तैयार कर लिया है, केवल फिनांसरों का इंतजार है।

मैंने व्यापक अध्ययन एवं षोध के आधार पर यह निश्कर्श निकाला है कि अगर भूतों पर केन्द्रित कोई चैनल षुरू किया जाये तो उसकी टी आर पी और उससे प्राप्त होने वाली आमदनी ‘‘अभूतों'' पर केन्द्रित चैनलों की तुलना में कई करोड़ गुना अधिक होगी। इसके अलावा ऐसे चैनल बहुत कम निवेष में ही षुरू किये जा सकते हैं। इस चैनल के लिये चैनल प्रमुख से लेकर बाईट क्लक्टर जैसे पदों पर नियुक्ति में उन मीडियाकर्मियों को प्राथमिकता दी जाये जो या तो भूत हो चुके हैं या जो जीते जी ही ‘‘भूत सदृष'' हैं। ‘‘भूत सदृष'' मीडियाकर्मी ‘‘भूत प्रेमी'' चैनलों में काफी संख्या में मिल सकते हैं।

भूतों पर केन्द्रित चैनलों को बढ़ावा देने के लिये सरकार

एक नया मंत्रालय बना सकती है। भूत समुदाय के विकास में मौजूदा हिन्दी टेलीविजन चैनलों के योगदान तथा भारत में भूत चैनलों की संभावनाओं एवं उनके स्वरूप आदि के बारे में अध्ययन करने के लिये सरकार भूत चैनल आयोग का गठन कर सकती है। सरकार भूतों पर चैनलों की स्थापना को प्रोत्साहित करने के लिये विषेश भूत पैकेज की घोशणा कर सकती है।

यह स्वीकार करते हुये कि इस दिषा में चाहे जितनी तेजी से काम किया जाये, भूतों के लिये सम्पूर्ण टेलीविजन चैनल के षुरू होने में एक—दो साल तो लग ही सकते हैं और ऐसे में सरकार मौजूदा भूत प्रेमी चैनलों को ही सम्पूर्ण भूत टी वी बनने के लिये प्रोत्साहित कर सकती है। इसके लिये सरकार उन्हें विषेश सहायता भी दे सकती है। मेरी जानकारी में हमारे देष में एक या दो चैनल तो ऐसे हैं ही जिनके नाम से इंडिया, आज और न्यूज जैसे षब्द या षब्दों को हटाकर उनके स्थान पर अगर भूत या भुतहा षब्द लगा दिया जाये तो वे सम्पूर्ण भूत चैनल बन जायेंगे और हमारा लक्ष्य काफी हद तक पूरा हो जायेगा।

सच की नगरी

एक जमाने में एक मुल्क हुआ करता था जिसकी सरहदें हिमालय की गगनचुंबी चोटी से लेकर हिन्द महासागर की अतल गहराई तक फैली हुई थीं। यह आजाद देष था और लिहाजा यहां के नागरिकों को और उनसे अधिक विदेषियों को अपनी मर्जी के अनुसार कुछ भी करने, कुछ भी बोलने, कुछ भी देखने और कुछ भी दिखाने की पूरी आजादी थी। इस देष में चोरों का ही जलवा था। चोर ही सरकार, मंत्रिपरिशद, संसद, बड़े—बड़े उद्योग और अरबों—खरबों का मुनाफा कमाने वाली कंपनियां, स्कूल—कालेज, अखबार और टेलीविजन चैनल चलाते थे। लोकतंत्र के चारों खंभे इन चोरों के कंघे पर ही टिके थे।

एक बार की बात है कि इस देष में चोरों का आतंक इस कदर बढ़ गया कि आम लोग ही नहीं कुछ खास लोग भी चोरों की कारगुजारियों से दुखी हो गये थे। ये चोर पूरी तरह से बेलगाम हो गयेे। इन पर किसी का नियंत्रण नहीं रह गया — न राजा का, न मंत्री का, न संसद का और न अदालत का। लोगों की फरियाद सुनने वाला कोई नहीं था। आखिरकार जनता के चुने हुये कुछ प्रतिनिधियों ने देष की सर्वोच्च सभा मानी जाने वाली उस संसद में इस मामले को उठाने का दुस्साहस किया जहां चोरों के पैसों और उनकी मेहरबानियों की बदौलत चुने गये लोग का ही बोलवाला था। जैसे हर चीज का अपवाद होता है यहां भी कुछ प्रतिनिध अपवादस्वरूप थे। इनमें से एक ने हिम्मत जुटा कर कहना षुरू किया — ‘‘मैं महामहिम अध्यक्ष महोदय के माध्यम से आदरणीय प्रधानमंत्री, माननीय मंत्रियों और जनप्रिय सरकार का ध्यान चोरों की बढ़ रही कारगुजारी और उसके कारण जनता को हो रही परेषानियों की तरफ दिलाना चाहता हूं। ये चोर इतने बेखौफ हो गये हैं कि इन्हें सरकार, कानून और पुलिस का कोई डर नहीं रहा। सरकार ने इन्हें जिन षर्तों और मानदंडों के आधार पर चोरी करने के लाइसेंस दिये थे उनकी ये खुलेआम धज्जियां उडा रहे हैं। ये चोर अपने अपने संगठनों के नियमों का भी पालन नहीं कर रहे हैं। इन्होंने सरकार को आष्वासन दिया था कि ये आत्म नियममन के मानदंड बनायेंगे लेकिन ये अपने ही मानदंडों का उल्लंघन कर रहे हैं। अब तो माननीय अध्यक्ष महोदय हद हो गयी है। ये चोर लोगों के घरों में घुस कर केवल चोरी ही नहीं करते बल्कि लोगों के बेडरूम में घुस जाते हैं और पति — पत्नी को वैसे काम करने के लिये मजबूर करते हैं जो नितांत निजी क्षणों में किया जाता है और फिर बेडरूम के दृष्यों को षूट करके अपने टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित कर देते हैं। इस काम में इन्हें चौतरफा कमाई हो रही है।''

षोर—गुल और टोका—टोकी के बीच एक दूसरे प्रतिनिधि ने इस मुद्‌दे को आगे बढ़ाते हुये जोर—जोर से कहना षुरू किया, महोदय। यह बहुत गंभीर मुद्‌दा है। सरकार की ओर से चोरों को चोरी करने के एवज में कई तरह की सुविधायें दी जाती है। यही नहीं चोरी से होने वाली कमाई को आयकर से छूट प्रदान की गयी है। लेकिन चोरों ने अधिक कमाई के लिये चोरी करने के बजाय दूसरे रास्तों को अपना लिया है जबकि लाइसेंस उन्हें चोरी करने के लिये मिला है। इन चोरों ने अब टेलीविजन चैनल चलाना षुरू कर लिया है और सरकार ने टेलीविजन चैनल चलाने के लिये भी कई तरह की छूट और सहुलियतें प्रदान की है। सरकार इन चैनलों को आर्थिक मदद भी देती है और भरपूर विज्ञापन देती है ताकि इन्हें खूब कमाई हो। लेकिन ये चैनल राजनीतिक दलों, मंत्रियों और नेताओं से भी पैसे वसूलने लगे हैं। जो इन्हें पैसे देते हैं उनकी ये वाहवाही करते हैं जबकि हम जैसे नेता जो इन्हें पैसे नहीं देते हैं उन्हें बदनाम करते हैं। मैं सरकार से यह मांग करता हूं कि इन्हें कमाई के लिये अन्य रास्तों को अपनाने से रोका जाये।''

इस समय तक संसद में षोर—षराबा बढ़ गया तभी पहले वाले प्रतिनिधि ने अपनी बात बढ़ाने की कोषिष की — ‘‘माननीय महोदय, मैं सरकार के ध्यान में यह बात लाना चाहता हूं कि इन चोरों ने पति—पत्नियों के बीच के नितांत निजी क्षणों को भी इन चोरों और उनके चैनलों ने कमाई का जरिया बना लिया है। ऐसी फिल्मों को टेलीविजन पर दिखाने के कारण इन्हें भरपूर टीआरपी मिलती है और फिर धुंआधार विज्ञापन मिलते हैं। चोरों को अब इस ध्ांधे में इन्हें इतना मुनाफा होने लगा है कि इनमें से कई चोरी करने के अपने मूल काम को छोड़ कर टेलीविजन चैनल चलाने और अष्लील वीडियो को दिखाने का काम करना षुरू कर दिया है क्योंकि इसमें न तो किसी तरह की मेहनत, न दिमाग और न पैसे की जरूरत पड़ती है। मैं सरकार से कहना चाहता हूं कि जब इन्हें लाइसेंस चोरी करने के लिये मिली है तो ये चोरी का छोड़कर अन्य काम क्यों कर रहे हैं। अब तो माननीय महोदय इन्होंने हद ही कर दी है। इन्होंने कमाई का और नया तरीका इजाद कर लिया है। अब तो ये चोर मोहल्ले की पुलिस को यह कहकर किसी के घर में घुसने की इजाजत पाते हैं कि वे उस घर में चोरी करने के लिये जा रहे हैं, लेकिन वे घर में घुस कर चोरी नहीं करते बल्कि पति—पत्नी को उनके मासूम बच्चों और बूढे मां बाप के सामने बिठाकर नितांत निजी सवाल पूछते हैं। उनसे यह पूछा जाता है कि उन्होंने अपनी बेटी से कम उम्र की कितनी लड़कियों से कितनी बार संबंध बनाया है, होटलों से कितनी सफेद चादरें चुराई हैं, उनकी कितनी नाजायज संतानें हैं, उनके मन में पत्नी या मां—बाप की हत्या का ख्याल कितनी बार आया है। ऐसे ऐसे सवाल पूछ कर उन्हें अपने बेटे—बेटियों और बूढ़े माता—पिता के सामने जलील किया जाता है। यही नहीं ऐसे सवाल—जबाव की फिल्मे बनाकर इन्हें टेलीविजन चैनल पर प्रसारित करके लोगों की इज्जत—आबरू को लूटा जा रहा है। पहले तो ये चोर लोगों की धन—सम्पत्ति लूटते लेकिन अब इनकी इज्जत लूट रहे हैं। ऐसी घटनायें तेजी से बढ़ ही है जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं, पति—पत्नी का एक दूसरे पर से भरोसा उठ रहा है, लोग अपने बहु—बेटियों की नजर से गिर गये हैं। कई लोग आत्महत्या करने को विवष हो गये। क्या सरकार इस बारे में कोई कार्रवाई करेगी।

संसद में हंगामे को देखते हुये मंत्री ने आष्वासन दिया कि इस बारे में जांच करायी जायेगी और जांच के निश्कर्श से संसद को अवगत कराया जायेगा।

सरकार ने इस बारे में जांच के लिये जांच आयोग बिठाया

और आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कुछ चोरों को कारण बताओ नोटिस भेजा गया जिसमें कहा गया था कि यह पता चला है कि वे चोरी करने के अपने मूल कर्तव्य से भटक गये हैं और वे लोगों की सम्पत्ति लूटने के बजाय लोगों की इज्जत लूट रहे हैं और इस कारण क्यों नहीं चोरी करने के लिये मिली उनकी लाइसेंस रद्‌द कर दी जाये।

इस नोटिस का जवाब देने के लिये चोरों को एक भव्य पांच सितारा होटल में हाजिर होने तथा अपने साथ उन फिल्मों की बिना संपादित सीडी और जरूरी कागजात लाने को कहा गया। सभी चोर निधार्रित जगह पर निधार्रित समय पर पहुंच गये। हर चोर के पीछे—पीछे उनके निजी सहायक अटैची लेकर चल रहे थे जिनमें वे जरूरी कागज थे जिन्हें लेने के लिये मंत्रियों और अधिकारियों की पूरी टीम वहां उमड पडी थी। मीटिंग में सबने खाया—पिया और लार टपकाते हुये बिना संपादित सीडी देखी। चोरों ने अपने कागजों और जवाब से सरकार को संतुश्ट कर दिया। उस बैठक में सरकार ने ऐसी फिल्में बनाने वाले और उन्हें टेलीविजन पर प्रसारित करने वाले चोरों को पुरस्कष्त करने का फैसला किया तथा संसद में फालतू सवाल उठाने वाले प्रतिनिधियों को लोकतंत्र और विकास विरोधी करार देते हुये उनके खिलाफ जांच कराने का फैसला किया कि वे किन लोगों से मिले हुये हैं और उन्हें कौन भड़का रहा है।

सरकार ने संसद में वक्तव्य दिया कि जांच से पता चला है कि ये चोर दरअसल किसी तरह के मानदंड का उल्लंघन नहीं कर रहे हैं बल्कि चोरी करने के ही अपने मूल कर्तव्य को ही अंजाम दे रहे है। पहले ये चोर लोगों के घरों से उनकी धन—सम्पत्ति लूटते थे और अब भी वे ऐसा ही करना चाहते हैं, लेकिन इन चोरों के महत्वपूर्ण योगदान के कारण गरीबी मिटाने करने के सरकार के अभियान को जो भारी सफलता मिली है उसके कारण अब लोगों के पास धन—सम्पत्ति जैसी वैसी चीजें रहीं नहीं जिन्हें लूटा जा सके इस कारण अब मजबूरी में ये चोर उनकी इज्जत को लूट रहे हैं क्योंकि उनका काम ही कुछ न कुछ लूटना है ओर इसके लिये ही उन्हें लाइसेंस मिला है अब अगर किसी सांसद को इस पर भी कोई आपत्ति हो तो वे सुझाव दें कि चोर अब क्या लूटें। जहां तक धन—सम्पत्ति और इज्जत—आबरू गंवाने लोगों के आत्महत्या करने का सवाल है तो इस संबंध में सरकार का कहना है कि यह गरीबी मिटाओ अभियान की प्रगति का ही प्रमाण है। सरकार के इस जबाव से सभी सांसद लाजवाब हो गये। उनके पास पूछने और बोलने के लिये कुछ रह नहीं गया था।

टी आर पी का आसान नुस्खा

टेलीविजन चैनल खास कर खबरिया चैनलों में लोग टॉप से बॉटम तक हमेषा बदहवाष रहते हैं। टी आर पी बढ़ने—घटने के साथ इनका रक्त चार घटता—बढ़ता रहता है। हमेषा इसी जुगाड़ में रहते हैं कि क्या दिखायें कि टी आर पी बढ़ जाये।

इधर कई दिनों से कोई बच्चा गड्ढे में गिरा नहीं और ऐसे में चैनलों को टी आर पी बढ़ाने के लिये तरह—तरह के जतन करने पड़ जाते हैं। जब बच्चा गड्‌ढे में गिरता है तो काम आसान हो जाता है। बच्चों को तो टेलीविजन वालों पर तरस खाते हर सप्ताह कहीं न कहीं गड्ढे में गिरते रहना चाहिये। केन्द्र सरकार चाहे तो चैनल वालों की सहुलियत एवं उनके फायदे के लिये नियम बना दे कि हर राज्य सरकार को हर महीने कम से कम एक बच्चे के गड्ढे में गिरने को सुनिष्चित करना होगा। जिस राज्य में ज्यादा गड्ढे या बोर खुले छोड़े जायेंगे उसे केन्द्र से विषेश ‘‘खुला गड्ढा अनुदान'' मिलेगा तथा उसे ‘‘सर्वाधिक बच्चा गिरावक राज्य'' का दर्जा दिया जायेगा। ज्यादा से ज्यादा बोर होल खुला छोड़ने वाले कैंट्रक्टर को ‘‘टी आर पी रत्न'' की उपाधि दी जायेगी। गड्ढे को खुला छोड़ने की प्रवष्ति को प्रोत्साहित करने के लिये सरकार को पदम पुरस्कारों में ‘‘गड्ढा विभूशण'', ‘‘गड्ढा भूशण'' और ‘‘गड्ढा श्री'' जैसे पुरस्कारों को भी षामिल करना चाहिये।

अब जब तक सरकार इस दिषा में कुछ नहीं करती तब तक चैनल वालों को चाहिये कि वे खुद प्रयत्न करें और इस तरह की कुछ पहल करे। पिछले दिनों एक खबरिया चैनल में काम करने वाले मेरे एक दोस्त बता रहे थे कि आजकल बच्चे टेलीविजन चैनलों के ‘‘ओ बी वैन'' को देखकर ही भाग खड़े होते हैं कि पता नहीं कब चैनल वाले उसे पकड़ कर किसी में गड्ढे में डाल दें और इसके बाद वहीं से सीधा प्रसारण षुरू करें दें — ‘‘बच्चा फिर गड्ढे में, सिर्फ ‘‘परसों तक'' चैनल पर।'' गड्ढे में दो दिन तक भूखा प्यास वह पड़ा रहे और टी आर पी चैनल की बढ़े। ऐसे में कोई बच्चा क्यों गड्ढे में गिरे। इन चैनल वालों से यह तक नहीं होता कि किसी बच्चे को बिस्किट, चाकलेट, बर्गर, जूस, कोल्ड ड्रिंक्स आदि के पैकेट पकडायें और कहें कि बच्चा चल गड्ढे में उतर जा। जब तक इन सब आइटमों को खा—पीकर खत्म करेगा तब तक हम अपनी टी आर पी बढ़ा लेंगे और दो चार घंटे में दमकल और सेना वाले आकर तुम्हें निकाल लेंगे। बाद में ईनाम भी मिलेंगे और चैनलों पर इंटरव्यू आयेंगे, स्वयं सेवी संगठनों की गोरी मैडमें और चैनलों की खूबसूरत बालायें गोद में उठायेंगी सो अलग। लेकिन चैनल वाले इतना भी नहीं करना चाहते। अब सोचिये किसी बच्चे के अपने आप किसी बोर या गड्ढे में गिरने के लिये कितना बड़ा संयोग बैठना चाहिये। बेमेल षादी कराने के लिये जन्मपत्री बनाने में किसी पंडित जी को जो मषक्कत करनी पड़ती है उससे कई गुना अधिक मषक्कत ब्रह्‌मा जी को किसी बच्चे को बोर या गड्ढे गिराने के लिये करनी पडती है।

चलिये यह तो मान लेते हैं कि कैंट्रक्टर बोर को खुला छोड़ देंगे क्योंकि यह तो उनका धर्म और जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन इसके आगे कितना बड़ा संयोग चाहिये क्योंकि केवल बोर या गड्ढे के खुला छोड़ देने भर से काम नहीं बनता। काम तब बनता है जब उसमें कोई बच्चा गिरे और चैनल वालों को इसकी भनक लगे। उस बोर या गड्ढे के आसपास बिल्कुल बेपरवाह परिवारों और माता—पिताओं का भी होना जरूरी है जिन्हें इस बात कि फ्रिक ही नहीं रहती है कि उनका बच्चा खेलते—खेलते कहां निकल गया और कहां गिर गया। इसके अलावा वैसे परिवारों में ऐसे बच्चे का भी होना जरूरी है जो खेलने के लिये कहीं और नहीं उस बोर के पास ही जाये और सीधे उसमें गिर जाये।

अब इतने सारे संयोग के लिये इंतजार करने से अच्छा है कि अपने चैनल वाले अपने स्टूडियो में ही कोई बोर या गड्ढा खोद लें और हर सप्ताह किसी न किसी बच्चे को गिरने के लिये आमंत्रित करें। इसके अलावा स्टूडियो में लाइव डिस्कषन के लिये बच्चे के मां—बाप, पूर्व में गड्ढे में गिरने वाले किसी बच्चे, उसके माता—पित, बोर को खुला देने में माहिर कंटैक्टर आदि को पहले से बुला कर रखें। इससे ओ वी वैन को कहीं मूव नहीं करना पड़ेगा। सब कुछ स्टूडियो में ही हो जायेगा।

बोर इस तरह की हो कि बच्चा एक तरफ से बोर में घूसकर दूसरी तरफ से निकल सके। साथ बोर में बच्चे के बैठने, खाने—पीने, सोने आदि की व्यवस्था होनी चाहिये। एसेा होने से बच्चे में ज्यादा से ज्यादा दिन रहेंगे और ज्यादा से ज्यादा समय तक टी आर पी बटोरी जा सकती है। बोर से बच्चे को निकालने के नाटक को किसी कंपनी से प्रयोजित कराया जा सकता है। इसमें कंपनी का मुफ्‌त प्रचार होगा और वाहवाही भी खूब मिलेगी। यह नुस्खा सुपरहिट हो सकता है। अगर इस नुस्खे को आजमाया जाये तो सबका फायदा हो सकता है — चैनल वालों को, बच्चे और उसके मां बाप को, प्रायोजक कंपनियों को और ‘‘सास—बहू'' टाइप के दर्षकों को जो अपने चहते धारावाहिकों के बंद हो जाने के कारण डिप्रेषन में चले गये हैं। सरकार और नेताओं को तो सबसे ज्यादा फायदा होगा क्योंकि आम लोग मंहगाई और अन्य समस्याओं को भूल कर बच्चों को गड्ढे से निकालने जाने की चिंता में ही डूबे रहेंगे और सरकार, मंत्री और नेता देष को गड्ढे में गिराने के मिषन को तसल्ली के साथ अंजाम दे सकेंगे।

जरा फेमसिया तो लें

आजकल जिसे देखिये वही फेमस हुआ जा रहा है। कब कौन, कहां और कैसे, फेमसिया जायेगा, कोई नहीं जानता। रात को सही सलामत सोये और सुबह उठते ही पाते कि आप फेमसिया गये। दफ्तर गये खाली हाथ और घर लौटे सिर पर फेमस का पंख लगा कर। राह चलते किसी गड्ढे में गिर गये, किसी पुल से लटक गये या मूड हुआ तो पानी टंकी अथवा टीवी टावर पर चढ़ गये और फेमस हो गये। किसी की बीबी को लेकर भाग गये और लगे हाथ आपके साथ दो दम्पति फेमस हो गये। किसी के घर में इनकम टैक्स का छापा पड़ गया और वह फेमस हो गया। कोई चुनाव जीत कर फेमस हो रहा है तो कोई नीलामी जीत कर। कोई राह चलते किसी लड़की को छेड़ कर और उसके कोमल हाथों से दो—चार तमाचे या चप्पलें खाकर फेमस हो रहा है। कोई अपनी महबूबा के पास भाग कर फेमस हो रहा है तो कोई महबूबा के पास से भाग कर। कोई प्यार के लिये नौकरी को तिलांजलि देकर फेमस हो रहा है तो कोई नौकरी के लिये अपने प्यार को धत्ता बताकर। कोई अपनी प्रेमिका को अपनी बीबी के हाथों पिटवाकर फेमस हो रहा है तो कोई खुद ही अपनी प्रेमिका या बीबी के हाथों पिटकर। कोई पब में या सड़कों पर महिलाओं की पिटाई करके फेमस हो रहा है तो कोई पिटाई खाकर। कोई किसी को चड्डी भेजकर फेमस हो रहा है तो कोई किसी को साड़ी भेजकर। कहने का मतलब यह है कि फेमस नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। हर किसी के लिये हर समय और हर जगह सुविधा, क्षमता और स्थिति के अनुसार फेमस होने के मौके और विकल्प उपलब्ध हैं।

संचार क्रांति के वर्तमान युग में पैदा होने वाली नयी पीढ़ी को यह जानकर घोर आष्चर्य होगा कि हमारे देष में एक ऐसा भयानक दौर गुजरा है जब अच्छे—खासे लोगों को फेमस होने के लाले पड़े रहते थे। यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि उस समय फेमस होने के लिये कितने जतन करने पड़ते थे। उस समय आदमी महान हो सकता था, ईमानदार हो सकता था, प्रतिभाषाली हो सकता था, मेहनती हो सकता था, दयावान हो सकता था, देष प्रेमी हो सकता था, समाजसेवी हो सकता था, अमीर हो सकता था, गरीब हो सकता था लेकिन फेमस नहीं हो सकता था। लाखों—करोड़ों में एकाध को ही फेमस होने का सौभाग्य मिल पाता था। लोग सालों तक समाजसेवा में जुटे रहते थे, मोटे—मोटे ग्रंथ लिख डालते थे, दर्जन—दो दर्जन फिल्मों में एक्टिंग कर लेते थे, सैकड़ों फिल्मों में गीत गा लेते थे, सीमा पर अकेले ही दुष्मनों के दांत खट्‌टे कर देते थे और बहादुरी के कारनामे दिखाकर दस—बीस लोगों की जान बचा लेते थे — तब भी लोग फेमस होने की हसरत लिये ही इस दुनिया से कूच कर जाते थे।

लेकिन आज फेमस होने के लिये कुछ करने की जरूरत नहीं है। आज तो लोग किसी क्षेत्र में पर्दापण करने से पहले ही फेमस होेने का जुगाड़ कर लेते है। गायन और अभिनय की कई प्रतिभायें अपना फिल्मी कैरियर षुरू करने से पहले ही फेमस हो लेती हैं, कि फिल्म रिलीज होने के बाद फेमस होने के मौके मिले या नहीं। कई लेखक बिना लिखे ही फेमस हो लेते हैं। कई लोग कुछ बनकर, कई लोग कुछ नहीं बनकर और कई लोग कुछ बनने की प्रतीक्षा करते रहने के कारण फेमस हो जाते हैं। कई पैदा होकर फेमस हो जाते हैं और कई पैदा हुये बगैर ही। कई ऐसे भी हैं जो फेमस होकर भी पैदा नहीं होते। कई लोग जो किसी कारण से जीते जी फेमस नहीं हो पाते वे मरने के बाद भूत बनते ही फेमस हो जाते हैं और साथ में वे वीरान हवेलियां भी फेमस हो जाती है जिनमें वे पनाह लेते हैं।

आज संचार क्रांति की मेहरबानी से फेमस होने के मामले में सभी भेदभाव समाप्त हो गये हैं, तमाम सामाजिक विसंगतियां दूर हो गयी है। आज फेमस होने के लिये कुछ होना, कुछ करना जरूरी नहीं है। किसी अन्य मामले में हमारे देष में समानता आयी हो या नहीं, फेमस बनाये जाने के मामले में पूरी समानता है। आज हर काई फेमस बन सकता है — अमीर और गरीब, ईमानदार और बेइमान, समाज सुधारक और समाज बिगाड़क, नायक और खलनायक, पुजारी और जुआरी। यही तो है रियल डेमोक्रेसी। जय हो !

फिल्मों पर मंदी का असर

मुंबइया फिल्मों पर मंदी की मार साफ नजर आती है। हीरोइनों और आइटम बालाओं के षरीर पर से चर्बी और कपड़ों के घटते रफ्‌तार को देखकर मंदी के आगमन का पता चल जाता है। आज ज्यादातर हीरोइनों को बिकनी में ही गुजारा करना पड़ रहा है। फिल्मों पर मंदी के असर का आलम यह है कि अब अभिनेताओं के भी कपड़े कम होने लगे हैं। पहले केवल सलमान खान ही मंदी की मार को झेल रहे थे लेकिन अब अन्य खानों को भी यह मार झेलनी पड़ रही है।

मंदी और अन्य कारणों से फिल्म निर्माताओं की हल्की होती जेब का संकेत वैसे तो उसी समय से मिल रहा था जब उन्होंने षोध, पटकथा, संवाद और गीत—संगीत के लिये खर्च करना लगभग बंद कर दिया था और वे केवल अनुवादकों से ही काम चला रहे थे। किसी अनुवादक को हालीबुड या टालीबुड की किसी फिल्म की सीडी थमा दी जाती थी और दो—चार दिन में नयी हिन्दी फिल्म बनने को तैयार हो जाती थी। जिस काम के लिये पहले दो—चार—दस लाख रूपये खर्च करने पड़ते थे अब यह काम दस—बीस हजार रूपये में ही हो जाता है। अक्सर यह पैसा देना भी जरूरी नहीं होता है। मन हुआ तो पांच—पांच सौ रूपये करके दो—चार साल में दे दो। ज्यादातर मामलों में होता यह है कि स्क्रिप्ट राइटर से अनुवादक बन जाने वाला लेखक माया नगरी को गाली देता हुआ कुछ महीने में अपने गांव—घर वापस आ जाता है और फिल्म निर्माताओं को यह पैसा भी बच जाता है। जिनका बजट और भी अधिक टाइट होता है वे किसी पुरानी हिन्दी फिल्म को ही हू—ब—हू ट्रांसक्राइब करवा लेते हैं। एक—दो हजार रूपये में ही काम चल जाता है।

मंदी के इस दौर में आज के हिन्दी के फिल्म निर्माता पैसे का अधिकाधिक सदुपयोग करना सीख गये हैं। वे जानते हैं कि फिल्म बनाने के लिये किस मद में कितना खर्च करना चाहिये। आज सभी सफल फिल्म निर्मात—निर्देषकों एवं उनके फिनांसरों को पता है कि किसी फिल्म के हिट होने में कहानी, पटकथा, संवाद और गीत—संगीत की कोई भूमिका नहीं है और इसलिये मंदी के इस दौर में इन सब पर कुछ भी खर्च करना मूर्खता के अलावा कुछ और नहीं। यही कारण है कि आज फिल्म निर्माता—निर्देषक फिल्म की स्टोरी, स्क्रिप्ट और गीत—संगीत पर जितना खर्च करते हैं उससे कम से कम सौ गुना अधिक हीरोइनों के मेकअप पर खर्च करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि किसी फिल्म के हिट होने के लिये सबसे जरूरी हीरोइनों एवं आइटम लड़कियों का मेकअप है। यही वह चीज है जिससे हीरोइनों की षारीरिक प्रतिभा उभरती है और फिल्में हिट होती है। सबसे कुषल मेकअपमैन वह है जो हीरोइनों के हर अंग—प्रत्यंग की प्रतिभा दर्षकों के सामने लाये। मेकअपमैन फिल्म निर्माण का सबसे अहम्‌ किरदार है और इसलिये कुषल मेकअपमैन को मुंहमांगी कीमत मिलती है। आज हीरोइनों के मेकअप का पर आज कई गुना खर्च इस कारण से भी करना पड़ता है कि एक समय जहां केवल चेहरे का ही मेकअप होता था आज पूरे षरीर का मेकअप करना पड़ता है। कह सकते हैं कि एक तरफ कपड़े पर जितना गुना खर्च घटा है उतना खर्च मेकअप पर बढ़ गया है। पुराने समय में मेकअप पर नहीं के बराबर खर्च होता थ और इसका कारण यह था कि हीरोइनों के षरीर का षायद ही कोई भाग दर्षकों को दिखता था। अक्सर चेहरा भी कपड़े से ढका रहता था और अगर फिल्म के द इंड होने से पहले जब चेहरा दिखता भी था, लेकिन उससे पहले आधे से अधिक दर्षक हॉल से बाहर जा चुके होते थे। आज बिल्कुल उल्टा हो गया है।

बालीवुड में मंदी की गाज जिन लोगों पर गिरने वाली है उनमें स्क्रिप्ट राइटरों के अलावा ड्रेस डिजाइनर भी षामिल हैं। अगर मंदी आगे भी इसी तरह से हाबी रही तो हो सकता है कि कुछ समय बाद स्क्रिप्ट राइटरों की तरह ड्रेस डिजाइनरों का आस्तित्व बालीवुड से खत्म हो जाये। वैसे भी से दो पेषे ऐसे हैं जिनसे फिल्म निर्माता एवं फिनांसर सबसे अधिक नफरत करते हैं क्योंकि इन दोनों पेषों खास तौर पर ड्रेस डिजाइनिंग से जुड़े लोग न केवल फिल्म के बजट को बढ़ाते हैं बल्कि फिल्म को फ्‌लाप भी कराते हैं। कुछ फिल्मकारों का तो मानना है कि फिल्मों से तो ड्रेस को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिये क्योंकि नामुराद ड्रेस अर्थात वस्त्र के कारण हीरो—हीरोइनों की षारीरिक प्रतिभा को दर्षकों के सामने पूरी तरह नहीं आ पाती और दर्षक फिल्म का पूरी तरह आनंद नहीं ले पाते।

कपड़ों के जरिये कलाकारों की प्रतिभा को छिपाना भयानक अपराध है। पुरानी फिल्मों में यह अपराध खूब हुआ है। पुराने समय में हीरोइनों की प्रतिभा दर्षकों के सामने आ नहीं पाती थी और इसका मुख्य कारण वस्त्र सज्जा को अतिरिक्त महत्व दिया जाना था। उस जमाने में जितना वजन हीरोइनों का होता था उससे अधिक वजन उनके परिधान का होता था। कई हीरोइनें तो भारी परिधानों का बोझ उठाते—उठाते ही स्वर्ग सिधार गयी। वे इतनी भोली—भाली एवं डरपोक थीं कि अपने उपर होते जुल्म और अपनी प्रतिभा के दमन के खिलाफ एक षब्द भी नहीं बोलती थी। दूसरी तरफ आज की हीरोइनेंं इतनी जागरूक एवं बिंदास हो गयी हैं कि वे कपड़ों के जरिये अपनी प्रतिभा को दबाये—छिपाये जाने की मूर्खता को कतई बर्दाष्त नहीं करती। निर्माता—निर्देषक भी उनकी प्रतिभा को अधिक से अधिक उजागर करने के पक्ष में हैं। इसके अलावा मंदी के कारण भी ऐसा करना अपरिहार्य हो गया है। इन सबका मिलजुला असर यह हुआ कि पर्दे पर हीरोइनों की षारीरिक प्रतिभा का विस्फोट इस कदर होता है जिसे देखकर पिछड़े एवं पोंगापंडित टाइप के दर्षकों का रक्तचाप बढ़ जाता है। इससे दोहरे फायदे होते हैं। फिल्में भी चलती है और डाक्टरों का धंधा भी। ये मंदी के पोजिटिव साइड इफेक्ट्‌स हैं।

मंदी के मौजूदा दौर में फिल्म निर्माता जान गये हैं कि न केवल कम खर्च में बल्कि कम से कम समय में फिल्में कैसे बनायी जाती है। कम समय में फिल्में बन जाने से खर्च कई गुना घट जाता है। एक समय था जब निर्माता—निर्देषक गीतकारों, संगीतकारों और पटकथा लेखकों के साथ सालों की माथापच्ची करते रहते थे। पटकथा तैयार होने में ही साल लग जाते थे। एक—एक गीत तैयार करने में महीनों लगते थे। ऐसे जाहिल और प्रतिभाहीन लोग थे कि एक फिल्म तैयार करने में 16—17 साल बर्बाद कर देते थे। और आज निर्माता—निर्देषकों की प्रतिभा देखकर हमें फख्र होता था। रात को किसी फिल्म का आइडिया आता है, दूसरे दिन फिल्म की कहानी, तैयार हो जाती, गानों की रिकार्डिंग हो जाती है, तीसरे दिन खचाखर्च भरे संवाददाता सम्मेलन में फिल्म और उसके कलाकारों की घोशणा कर दी जाती है और दो चार दिन की षुटिंग और एडिटिंग के बाद फिल्म मुक्कमल होकर तैयार हो जाती है। अगले ही दिन देष—विदेष के सैकड़ों सिनेमा घरों में लगती है और करोडों का बिजनेस करके निर्माता, निर्देषक तिजोरियां भरकर अगले फिल्म की तैयारी करने लगते हैं। चार दिन बाद ये फिर एक नयी फिल्म का आइडिया लेकर मैदान में आ जाते हैं और फिर तिजोरियां भर लेते हैं। फिल्में कब बनती है, कब आती हैं और कब चली जाती है किसी को कुछ पता नहीं चलता, लेकिन फिल्म निर्माता, निर्देषकों, हीरों, हीरोइनों की तिजोरियां ढसाढस भर जाती है। यह हमारे फिल्मकारों में प्रतिभा के विस्फोट का उदाहरण है। इन प्रतिभाषाली, बुद्धिमान और मेहनती फिल्मकारों की बदौलत अब ‘‘चट मंगनी, पट विवाह और खट तलाक'' की तर्ज पर इस तेजी से फिल्में बनने लगी हैं कि पता हीं नहीं चलता कि फिल्में कब बनींं, कब आईं और कब गयीं। यह आज के फिल्मकारों की काबलियत का ही चमत्कार है कि मंदी के इस दौर में भी वे दिन—रात रुपये पीट रहे हैं और दर्षक अपने सिर।