डिग्री के बाद भी बेरोज़गारी
(भारतीय शिक्षा व्यवस्था की एक सच्ची कहानी)
रमेश एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ, जहाँ सपने बड़े थे लेकिन साधन बहुत छोटे। पिता दिहाड़ी मज़दूर थे और माँ दूसरों के कपड़े सिलकर घर चलाती थीं। कई रातें भूखे पेट गुज़रती थीं, मगर एक उम्मीद हमेशा ज़िंदा रहती थी—
बेटा पढ़ लिख ले, पढ़ाई ही तुझे इस गरीबी से बाहर निकालेगी।
रमेश ने इस बात को सच मान लिया।
वह रोज़ कई किलोमीटर पैदल स्कूल जाता। किताबें पुरानी थीं, जूते फटे हुए थे, लेकिन हौसला नया था। स्कूल के बाद वह चाय की दुकान पर काम करता और रात को सड़क की लाइट के नीचे बैठकर पढ़ाई करता, क्योंकि घर में बिजली नहीं थी।
कड़ी मेहनत के बाद रमेश ने 12वीं अच्छे अंकों से पास कर ली।
गाँव में मिठाइयाँ बँटीं। सबने कहा—
“अब रमेश की ज़िंदगी बदल जाएगी।”
लेकिन हकीकत बिल्कुल अलग थी।
12वीं के बाद न कोई नौकरी थी,
न कोई सही मार्गदर्शन।
सिर्फ़ एक सर्टिफिकेट था—
जिससे पेट नहीं भरता।
फिर भी रमेश ने हार नहीं मानी। उसने सोचा, *“शायद डिग्री से नौकरी मिल जाएगी।”*
उसने ग्रेजुएशन में दाख़िला ले लिया।
कॉलेज में उसे किताबों की भाषा तो पढ़ाई गई,
लेकिन ज़िंदगी की भाषा नहीं।
क्लास में थ्योरी थी,
लेकिन प्रैक्टिकल स्किल नहीं।
तीन साल तक रमेश दिन में काम करता रहा और रात में पढ़ता रहा। कई बार फीस भरने के लिए उसने अपने सपने गिरवी रख दिए।
तीन साल बाद—
रमेश ग्रेजुएट बन गया।
अब उसके पास दो डिग्रियाँ थीं,
लेकिन नौकरी फिर भी नहीं थी।
वह हर रोज़ अख़बार में नौकरी के विज्ञापन देखता। जहाँ भी आवेदन करता, वही जवाब मिलता—
> “अनुभव चाहिए।”
> “इंडस्ट्री-रेडी स्किल नहीं है।”
> “आप हमारे मापदंडों पर फिट नहीं बैठते।”
रमेश सोचता—
> “अगर पढ़ाई के बाद भी अनुभव चाहिए,
> तो पढ़ाई का मतलब क्या था?”
यही है भारतीय शिक्षा व्यवस्था की सच्चाई।
यहाँ छात्र सालों तक पढ़ता है,
लाखों रुपये फीस में देता है,
लेकिन अंत में उसे बताया जाता है कि
वह नौकरी के लायक नहीं है।
यहाँ डिग्री बाँटी जाती है,
लेकिन रोज़गार नहीं।
यहाँ छात्रों को सपने दिखाए जाते हैं,
लेकिन उन्हें पूरा करने का रास्ता नहीं दिया जाता।
रात को रमेश छत की ओर देखता और सोचता—
माँ-बाप बूढ़े हो रहे हैं,
घर का खर्च बढ़ रहा है,
और उसके हाथ अब भी खाली हैं।
रमेश नालायक नहीं था।
उसने मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी।
कमी थी तो उस व्यवस्था में,
जो पढ़ाई को रोज़गार से नहीं जोड़ती।
रमेश अकेला नहीं है।
भारत में लाखों छात्र
डिग्री लेकर बेरोज़गार घूम रहे हैं।
और जब तक हमारी शिक्षा
नौकरी देने वाली नहीं,
बल्कि सिर्फ़ परीक्षा पास कराने वाली बनी रहेगी,
तब तक रमेश जैसे सपने
हर साल टूटते रहेंगे।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा सच यह है कि
पढ़ाई पूरी होने के बाद भी नौकरी की कोई गारंटी नहीं होती।
भारत में बचपन से ही बच्चों को सिखाया जाता है—
“पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे बड़े आदमी।”
लेकिन हकीकत यह है कि
यह सिस्टम बच्चों को डिग्री तो देता है,
पर रोज़गार के लिए तैयार नहीं करता।
1. डिग्री है, स्किल नहीं
स्कूल और कॉलेज में ज़्यादातर पढ़ाई रटने पर आधारित होती है।
थ्योरी पढ़ा दी जाती है, लेकिन
प्रैक्टिकल स्किल, इंडस्ट्री एक्सपोज़र और रियल-वर्ल्ड ट्रेनिंग नहीं मिलती।
2. 12वीं के बाद भी दिशा नहीं
12वीं पास करने के बाद
ज़्यादातर छात्रों को यह नहीं पता होता कि—
* कौन-सा करियर चुनें
* कौन-सी स्किल सीखें
* नौकरी कैसे मिले
कोई सही करियर गाइडेंस सिस्टम नहीं है।
3. ग्रेजुएशन के बाद बेरोज़गारी
हर साल लाखों छात्र ग्रेजुएट बनते हैं,
लेकिन नौकरियाँ उतनी नहीं होतीं।
कंपनियाँ कहती हैं—
> “अनुभव चाहिए”
लेकिन सवाल यह है—
> “अनुभव आएगा कहाँ से,
> अगर पहली नौकरी ही न मिले?”
4. शिक्षा और उद्योग में दूरी
कॉलेज का सिलेबस
इंडस्ट्री की ज़रूरतों से मेल नहीं खाता।
छात्र पास तो हो जाते हैं,
लेकिन जॉब-रेडी नहीं बन पाते।
5. महंगी शिक्षा, सस्ता भविष्य
आज पढ़ाई बहुत महंगी है।
मिडिल क्लास और गरीब परिवार
लोन लेकर बच्चों को पढ़ाते हैं।
डिग्री के बाद
बेरोज़गारी और कम सैलरी
परिवार पर बोझ बढ़ा देती है।
6. प्रतियोगिता बहुत, अवसर कम
भारत में छात्र बहुत हैं,
लेकिन अच्छी नौकरियाँ कम।
एक नौकरी के लिए
हज़ारों आवेदन आते हैं।
#सच्चाई यही है
भारतीय शिक्षा व्यवस्था
छात्रों को
जीवन के लिए नहीं,
सिर्फ़ परीक्षा के लिए तैयार करती है।
# समाधान क्या हो सकता है?
* स्किल-बेस्ड एजुकेशन
* इंटर्नशिप और अप्रेंटिसशिप
* करियर गाइडेंस स्कूल से ही
* इंडस्ट्री से जुड़ा सिलेबस