VAIDAHI in Hindi Fiction Stories by khwahishh books and stories PDF | वैदही

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वैदही

धूप का हल्का पीला रंग खेतों की मेड़ों पर फैल रहा था। कहीं दूर एक बच्ची मिट्टी से सनी किताब लेकर भागती हुई आ रही थी। उसके नंगे पाँवों से धूल उड़ रही थी, चेहरे पर मासूम पसीना, मगर आँखों में कुछ ऐसा तेज़ था जो उम्र से कहीं ज़्यादा बड़ा था। उसके हाथ में एक फटी हुई कॉपी थी, जिसमें उसने अपने बचपन के अक्षरों में लिखा था — “मैं देश के लिए कुछ करूंगी।”वो बच्ची थी — वैदही।गाँव के छोटे से घर में जन्मी, लेकिन सपने इतने बड़े कि आकाश भी छोटा लगे। चारों ओर फैले भ्रष्टाचार, अन्याय और भय को देख-देखकर उसके मन में हमेशा यही सवाल उठता —“क्यों कोई कुछ नहीं करता? अगर सब डर जाएँ, तो हालात बदलेंगे कैसे?”वैदही जब स्कूल से लौटती, तो अक्सर सड़क किनारे बैठी पुलिस चौकी की तरफ देखती। वहाँ एक वर्दी वाला सिपाही खड़ा होता — थका हुआ, मगर उसके अंदर एक गरिमा होती। उस वर्दी को देखकर वैदही की आँखों में चमक आ जाती। उसे लगता जैसे उस वर्दी में कोई जादू है — जो देश के बुरे लोगों को रोक सकती है, गरीबों की रक्षा कर सकती है। और तब वो मन-ही-मन सोचती —“काश... मैं कुछ कर पाती देश के लिए। मैं भी किसी की मदद कर पाती।”दूसरे बच्चे जहाँ खेलकूद में मस्त रहते, वहीं वैदही की दुनिया किताबों और जिम्मेदारी के बीच घूमती रहती। वह जब भी अपने पिता के साथ खेत जाती, तो उन्हें देखती — तपती धूप में झुके हुए, मिट्टी से सने हाथों से धरती को जोतते हुए।उसके पिता एक साधारण किसान थे, मगर सपनों में किसी राजा से कम नहीं। जब कभी वैदही उनसे पूछती —“बाबा, आप इतना काम क्यों करते हैं? थोड़ा भी आराम नहीं करते?”तो वो मुस्कुराकर कहते —“बेटी, एक दिन जब तू अफसर बनेगी ना... तो यही मिट्टी तेरे कदमों को सलाम करेगी। तब समझना, मेरे हाथों की मेहनत बेकार नहीं गई। और उस दिन के बाद ही मे आराम करुँगा ।”वैदही उनकी बातों पर मुस्कुरा देती थी, लेकिन शायद उस दिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि “अफसर” शब्द उसके जीवन का अर्थ बन जाएगा।वो छोटी उम्र में ही समझ चुकी थी कि उसे किसी सामान्य जीवन से संतोष नहीं। देश के हालात उसे झकझोरते थे — नेताओं की झूठी बातें, रिश्वतखोरी, और पुलिस की बेबसी देखकर वो रातों में जाग जाती थी। किताबों और अखबारों में जब भी वो किसी “आईपीएस अफसर” का नाम पढ़ती, तो जैसे उसके भीतर बिजली सी दौड़ जाती।एक दिन, जब वो केवल बारह साल की थी, और स्कूल मे उससे टीचर ने पूंछा की बो क्या बनना चाहती है। तब उसने घर आके अपने पिता से पूछा —“बाबा, अगर मैं सच में देश के लिए कुछ करना चाहूँ तो क्या बनूँ?”उसके पिता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा —“सिपाही बन जा बेटी, और फिर अफसर। तेरे जैसी लड़कियाँ अगर देश की रखवाली करेंगी तो कोई बुराई टिक नहीं पाएगी। मैं तुझे आईपीएस अफसर बनाऊंगा।”उस दिन वो बात उसके दिल में ऐसे उतर गई जैसे बीज मिट्टी में गिरकर जड़ें जमाता है।उसने तय कर लिया — चाहे दुनिया कुछ भी कहे, चाहे हालात कितने भी कठिन हों, वो आईपीएस बनेगी।समय के साथ वैदही की पढ़ाई जारी रही। गाँव के स्कूल में वो हमेशा अव्वल आती। शिक्षकों की लाडली, और बाकी बच्चों की प्रेरणा बन चुकी थी। जब कोई बच्चा गलती करता, तो मास्टर जी कहते —“वैदही को देखो, लड़की होकर भी इतनी मेहनत करती है। तुम लड़के होके भी ढंग से पढ़ नहीं सकते!”लेकिन गाँव का समाज अब भी पुराना था। लोग उसकी मेहनत को सराहने के बजाय ताने देते।“लड़की जात होकर इतनी पढ़ाई करेगी? कल को तो ससुराल ही जाना है ?”“इतना खर्चा करके पढ़ाने से क्या होगा? आखिर जाना तो किसी के घर ही है।”पर उसके पिता उन तानों को सुनकर भी चुप रहते। बस मन ही मन सोचते —“मेरी बेटी समाज का चेहरा बदलेगी।”माँ भी अक्सर कहती —“वैदही,पढ़ाई में मन लगाए रखना। दुनिया जो भी कहे, तू बस अपना रास्ता मत बदलना।”वैदही के घर में तंगी थी, लेकिन सपनों की कमी नहीं। उसके पिता मजदूरी करते, और रात में खेत की रखवाली। कई बार उसे स्कूल की फीस भरने के लिए बैलों को बेचने तक की नौबत आ गई, मगर वो मुस्कुराकर कहते —“अगर तू अफसर बन गई, तो मैं गर्व से कहूंगा कि मेरी गरीबी ने एक अफसर को जन्म दिया।”वक़्त बीतता गया। वैदही अब बड़ी हो चुकी थी — कॉलेज में पहुँच गई थी। उसके साथ अब ज़िम्मेदारियाँ भी बड़ी हो गई थीं।उसकी आँखों में वही पुराना सपना था, मगर अब मन में बेचैनी भी आने लगी थी। कॉलेज मे एडमिशन के साथ ही बो शहर के हॉस्टल मे रहने आ गई थी। दिनभर वो कोचिंग, लाइब्रेरी, और कॉलेज में पढ़ाई करती रहती। और रात में जब अकेली होती, तो सोचती —“क्या मैं सच में इतना बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाऊँगी?”मगर फिर पिता की बातें याद आतीं — “लड़ाई शुरू की है तो अंत तक लड़ना।”बस, वही शब्द उसे फिर से उठाकर खड़ा कर देते।उसका आत्मविश्वास पत्थर की तरह मजबूत था।पर जिंदगी ने जैसे उसकी परीक्षा लेने की ठान ली थी।कॉलेज का पहला साल चल रहा था। दो साल बाद ग्रेजुएशन पूरा होना था, और तैयारी भी लगभग उसी राह पर थी।मगर अब उसके अंदर कुछ और भी बदल रहा था —वो जिसे न उसने चाहा था, न समझा था — भावनाएँ।धीरे-धीरे उम्र का असर उस पर दिखने लगा था। शरीर में बदलाव, मन में बेचैनी, और विचारों का जाल।अब जब वो अपने दोस्तों को जोड़ों में देखती — हाथ थामे, हँसते हुए, बातें करते — तो उसके दिल में एक अजीब सी हलचल उठती।कभी वो खुद को डाँटती — “ये सब बेवकूफी है वैदही , तेरा लक्ष्य बड़ा है।”और कभी खुद से सवाल करती — “लेकिन आखिर मैं ऐसा क्यों महसूस कर रही हूँ?”उसके अंदर चल रही ये जंग उसे थका देती।वो सोचती — शायद ये सिर्फ थकान है, या अकेलेपन का असर।पर फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने उसके मन में और गहरी उलझन डाल दी।उसकी कुछ सहेलियाँ, जो हमेशा मस्ती में रहती थीं, एक दिन बोलीं —“वैदही , चल आज मूवी देखने चलते हैं! थोड़ा चेंज चाहिए।”वैदही ने मना किया — “मुझे पढ़ाई करनी है, परीक्षा आने वाली है।”पर सहेलियाँ ज़िद पर उतर आईं —“अरे पढ़ाई तो जिंदगी भर करनी है, आज बस थोड़ी देर के लिए चलना। देखना, मज़ा आएगा।”आख़िरकार वैदही मान गई।वो उस दिन पहली बार इंग्लिश मूवी देखने गई थी।थिएटर में जब लाइट बंद हुई, और परदे पर रोमेंटिक सीन चला — तो उसके भीतर कुछ अनजानी सी हलचल होने लगी ।दिल की धड़कन तेज़ हो गई, साँसें रुक-रुक सी गईं।वो खुद से कह रही थी — “ये क्या हो रहा है मुझे?”घर लौटते वक्त वो चुप थी। उसकी सहेलियाँ हँसती, बातें करती रहीं, मगर वैदही का मन किसी और ही दुनिया में था।उस रात उसने अपनी सबसे करीबी दोस्त कृतिका से बात की —“मुझे तुमसे कुछ कहना है…”कृतिका : “क्या हुआ वैदही , इतनी गंभीर क्यों लग रही हो?”“पता नहीं… आज मूवी में जो देखा… वो सब देखकर कुछ अलग सा महसूस हुआ… मैं खुद को समझ नहीं पा रही।”कृतिका मुस्कुराई — “अरे ये तो नार्मल है यार! इस उम्र में ये सब फील होना स्वाभाविक है। तू ओवरथिंक मत कर।”“लेकिन कृतिका… ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरा ध्यान अब पढ़ाई में नहीं लग रहा। मैं कुछ भी पढ़ती हूँ तो दिमाग कहीं और चला जाता है।”“वैदही,सुन… अगर तुझे यकीन नहीं तो इंटरनेट पर देख ले। साइंस की बुक में साफ लिखा है — इस उम्र में ऐसा होता है। हार्मोनल बदलाव हैं, ये सब नॉर्मल है।”वैदही ने उसकी बात पर यकीन तो किया, पर चैन नहीं मिला।वो रातभर जागती रही। अगले दिन कॉलेज के बाद वो सीधा लाइब्रेरी गई और बायोलॉजी की बुक उठाई — उसमें सचमुच लिखा था कि युवावस्था में मानसिक और शारीरिक बदलाव स्वाभाविक होते हैं।पर अब उसके लिए ये “साइंस” नहीं, बल्कि एक संघर्ष बन चुका था।हर शाम वो खुद से लड़ती —“मुझे ध्यान पढ़ाई में लगाना है।”“लेकिन दिल क्यों भटकता है?”धीरे-धीरे ये स्थिति और बढ़ती गई।वो जितनी कोशिश करती, उतना मन और उथल-पुथल मचाता। उसका मन साइंस और मैथ से हटकर रोमेंटिक नॉवेलस पड़ने मे ज्यादा लगने लगा था। अब वो पढ़ती तो शब्द आँखों से गुजरते, मगर दिमाग तक नहीं पहुँचते।आख़िरकार, उसने फिर से कृतिका से बात की —“कृतिका… मुझे डर लगने लगा है। मैं अपनी फिलिंग को खुद ही समझ नहीं पर रही आज कल अजीव अजीव ख्याल आते है, जो मे नहीं सोचना चाहती बो ही सोचने लगती हूं, और पता नहीं क्या क्या? तू समझ रही है ना मे क्या कहने की कोशिश कर रही हूं।”कृतिका ने हल्की हँसी में कहा “अरे इतना सोचती क्यों है? ये कोई सिर्फ तेरे साथ नहीं हो रहा सबके साथ होता है, ये तो तेरे बड़े होने के लक्षण है, तुझे अजीव इसलिए लग रहा है क्यूंकि तूने कभी किताबों से नजर हटा के बदलती दुनिया को देखा ही नहीं और इसीलिए तुझे खुद पता नहीं चला की तू कब एक छोटी बच्ची से जवान लड़की बन गई। खेर ये सब छोड़ मेरे पास ना तेरी प्रॉब्लम का सलूशन है, तू ना कोई बॉयफ्रेंड बना ले। प्यार कर, रिलेशनशिप में आ — जैसे ही तू बाहर की दुनिया को जानेगी समझेगी सब अपने आप ठीक हो जायेगा। और अगर ये नहीं करना तो शादी कर ले। वैसे भी पढ़ाई तो शादी के बाद भी हो सकती है।”वैदही जैसे बिजली के झटके से काँप उठी।“क्या? शादी? बॉयफ्रेंड? कृतिका, तू कैसी बातें कर रही है?” कृतिका -“अरे तो और क्या! अगर तू अपनी फीलिंग्स से परेशान है,तो कोई तो रास्ता निकालना पड़ेगा ना।”“नहीं! मुझे इन सब चक्करों में नहीं पड़ना। मुझे सिर्फ IPS बनना है। शादी के बाद की जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए तो मैं तैयार भी नहीं हूँ।”कृतिका ने कंधे उचकाए —“ठीक है, तो फिर दूसरा तरीका अपनाले । आजकल तो सब यही करते हैं। पहले मुझे भी नहीं पता था, मुझे ना ये मेरे बॉयफ्रेंड ने बताया। जैसी तेरी सचुएशन है तेरे लिए यही सबसे सही तरीका है। एक काम कर तू ना वन नाइट स्टैंड कर ले — दिमाग हल्का हो जाएगा, और तू फिर फोकस कर पाएगी। और तुझे बॉयफ्रेंड और सादी के चक्कर मे भी नहीं पढ़ना पड़ेगा। ”वैदही ने ये पहली बार सुना था उसने कृतिका से इसका मतलब पूंछा और जैसे ही उसने मतलब बताया बस फिर क्या बो सुनते ही वैदही के चेहरे पर खून उतर आया।वो कुर्सी से उठ खड़ी हुई, और काँपती आवाज़ में बोली —“बस! तूने जो कहा वो मेरे संस्कारों, मेरी मर्यादा के खिलाफ है। मैं ऐसी बातें सुन भी नहीं सकती।”कृतिका ने कंधे उचकाकर कहा — “तेरी मर्ज़ी, लेकिन फिर परेशान मत होना।और हाँ जो बाते तूने मुझे कहीं किसी और को मत कहना कोई समझगा तो नहीं उल्टा तेरी हंसी उड़ाएंगे। ”वैदही कुछ नहीं बोली। सीधा कमरे से निकल गई।उसका मन जल रहा था। दूसरे ही दिन वीकेंड पर बो अपने गाँव चली आई, उसे लगा माहौल बदलेगा तो मन भी बदल जायेगा।सड़क पर चलते हुए उसे लग रहा था जैसे सब लोग उसे देख रहे हैं, जैसे सब जानते हों कि उसके मन में क्या चल रहा है।घर पहुँची तो माँ ने पूछा — “क्या हुआ बेटी? चेहरा क्यों उतरा है?”वैदही बस इतना बोली — “थक गई हूँ माँ।”फिर कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया।वो पलंग पर लेटी रही देर तक, बिना कुछ कहे।उसकी आँखें छत पर टिकी थीं, मगर मन कहीं और था।कृतिका की बातें बार-बार कानों में गूंज रही थीं — “वन नाइट स्टैंड… ”उसने सिर झटक दिया, जैसे किसी बुरे ख्वाब को भगाना चाहती हो।“नहीं! मैं वैसी नहीं हूँ। मैं अपनी सोच, अपने संस्कार नहीं खो सकती।”लेकिन सच्चाई ये थी कि वो चाहे जितना इंकार करे, उसका मन अब वैसा शांत नहीं रहा था।रातें लंबी हो गई थीं, नींद गायब।कभी वो खुद से सवाल करती — “क्या मैं कमजोर पड़ रही हूँ?”कभी सोचती — “क्या सच में पढ़ाई के साथ ये सब संभालना नामुमकिन है?”धीरे-धीरे वो अंदर ही अंदर टूटने लगी थी।जिस लड़की ने बचपन में दुनिया बदलने का सपना देखा था, वो अब खुद के भीतर चल रही बदलाब की लड़ाई मे हारने लगी थी।कभी वो माता पिता की तस्वीर देखती और सोचती —“अगर माँ जानती कि उनकी बेटी के मन में ये सब चल रहा है, तो क्या कहती ?”फिर खुद ही जवाब देती —“वो कहती , वैदही , ये भी एक लड़ाई है — और इसे जीतना सबसे मुश्किल है।”वैदही की यही जंग — शरीर, मन और आत्मा के बीच — अब उसके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ बनने जा रही थी।वो जानती थी कि ये सब प्राकृतिक है, लेकिन उसके लिए ये सिर्फ शरीर का मामला नहीं था — ये उसकी आत्मा की परीक्षा थी।वो समाज से, दुनिया से, किसी से भी नहीं डरती थी —पर खुद से हारना उसे मंज़ूर नहीं था।वो आज भी सुबह खेतों की मिट्टी छूकर पढ़ाई शुरू करती, पिता की बात दोहराती —“मेरी बेटी अफसर बनेगी।”और फिर खुद से कहती —“हाँ… अफसर तो बनना ही है। चाहे इसके लिए अपने ही मन को क्यों न हराना पड़े।”उस दिन उसने तय कर लिया —वो किसी के बहकावे में नहीं आएगी।वो अपने भावनाओं से भागेगी नहीं, बल्कि उनका सामना करेगी।और शायद यही फैसला, उसकी असली परीक्षा की शुरुआत थी।गाँव की मिट्टी की खुशबू अब भी वैदही के कपड़ों में बसी हुई थी। एक हफ्ते तक वहाँ रहकर जब वह हॉस्टल लौटी, तो जैसे मन का सारा बोझ उतर गया हो। गाँव की शांत हवा, खेतों की हरियाली, और माता-पिता के स्नेह ने उसके भीतर की सारी उथल-पुथल को थाम लिया था।लौटते वक्त उसने ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा था — हर गुजरते खेत के साथ उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह अपनी परेशानियों को पीछे छोड़ रही है। अब उसका मन फिर से स्थिर था।हॉस्टल पहुंचकर उसने अपना सामान सहेजा, कमरे की दीवारों पर नज़र डाली — वही पुराना कमरा, वही मेज़, वही नोट्स। लेकिन इस बार उसके भीतर एक नई दृढ़ता थी।कुछ दिनों में उसके पहले सेमेस्टर की परीक्षाएँ शुरू हुईं। किताबों की खनक फिर कमरे में गूंजने लगी। रात-दिन उसने पढ़ाई में खुद को झोंक दिया।परीक्षा के दिन वैदही हमेशा की तरह सादगी से तैयार होकर निकलती — सफेद कुर्ता, हल्का दुपट्टा और आँखों में आत्मविश्वास की चमक।एक दिन परीक्षा के बाद कृतिका ने मुस्कुराते हुए उससे पूछा —“तो, अब ठीक है न तू? मन लग रहा है पढ़ाई में?”वैदही ने गहरी साँस ली और मुस्कुराकर कहा —“हाँ, अब सब ठीक है। और अब मैं किसी भी वजह से अपने लक्ष्य से नहीं भटकूंगी।”कृतिका ने उसकी आँखों में देखा — वो वही पुरानी वैदही थी, जो फिर से अपनी राह पर लौट आई थी।एग्ज़ाम्स खत्म हुए, और कॉलेज में धीरे-धीरे सेमेस्टर बदलने की हलचल शुरू हो गई। नए छात्रों की एंट्री का समय था — फ्रेशर्स का सीजन।कॉलेज के गलियारों में नये चेहरे, नई आवाजें, और पुरानी शरारतें लौट आई थीं।हर ग्रुप अपनी-अपनी योजना बना रहा था कि इस बार किस पर रैगिंग की जाए, कौन सबसे मजेदार सवाल पूछेगा, कौन सबसे ज्यादा नटखट अभिनय करेगा।लेकिन वैदही — उसे इन सब मे कोई दिलचस्पी नहीं थी।उसकी दुनिया बस लाइब्रेरी, नोटबुक और उसके सपनों तक सीमित थी।उस दिन दोपहर की धूप लाइब्रेरी की खिड़कियों से छनकर भीतर आ रही थी। हर टेबल पर किताबें फैली थीं, और कोने में वही परिचित चेहरा — वैदही, झुकी हुई नोट्स लिख रही थी।उसके दोस्तों ने आपस में ठानी —“इस बार रैगिंग हम नहीं करेंगे… बल्कि वैदही से करवाएंगे।”“क्या? वो? अरे वो तो किताब के सिवा किसी को देखती भी नहीं।”“तो बस, आज उसे लाइब्रेरी से बाहर निकालते हैं।”तीनों दोस्त फुसफुसाते हुए लाइब्रेरी पहुँचे।कृतिका आगे बढ़ी — “वैदही…”वो सिर उठाकर बोली — “क्या हुआ?”“आज रैगिंग का पहला दिन है। चल न, थोड़ा मज़ा लेते हैं।”वैदही ने पेन नीचे रखा और कहा — “मुझे इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं है, तुम लोग जानते हो।”“अरे बस एक बार। इस बार तू करेगी, देखना कितना मज़ा आएगा।”“नहीं, कृतिका…”“प्लीज़ यार, सबने शर्त लगाई है। आज अगर तू नहीं करेगी, तो हम हार जाएँगे।”कितनी ही देर वो मना करती रही, मगर दोस्तों की जिद के आगे झुक ही गई।“ठीक है, लेकिन बस एक बार।”“बस एक बार,” कृतिका ने हँसते हुए कहा, “और जो पहला फ्रेशर अंदर आएगा, उसकी रैगिंग तू करेगी।”कॉलेज ग्राउंड में भीड़ बढ़ रही थी। हवा में उत्साह और हल्की शरारत घुली थी। वैदही, अपने सफेद कुर्ते में, सबके बीच खड़ी थी — थोड़ी असहज, थोड़ी संकोच में।कृतिका ने उसे धीरे से धक्का दिया — “देख, अब तू सीनियर है, थोड़ा रौब दिखा।”वैदही ने हल्की मुस्कान दी और बोली — “मुझे नहीं आता ये सब।”“बस खड़ी रह, पहला फ्रेशर आए तो बात शुरू कर देना।”उसी वक्त कॉलेज गेट के पास हलचल हुई।काले शीशों वाली एक लंबी ब्लैक BMW अंदर आई।