Dhurandhar - Movie Review in Hindi Film Reviews by Ashish books and stories PDF | Dhurandhar - Movie Review

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Dhurandhar - Movie Review

*#dhurandhar  !??*

अगर किसी फ़िल्म को देखकर आपके भीतर यह एहसास जगे कि आप अभी अभी किसी पराये, शातिर और विषैले मुल्क की गलियों से होकर लौटे हैं…. कि आपके जूते तक उस गली के कीचड़ से सने हुए महसूस हों…. और आपका मन यह सोच कर भारी हो जाए कि इसी कीचड़ में बैठकर भारत के विरुद्ध कितनी साज़िशें पकाई जाती होंगी…. तो समझिए फ़िल्म निर्देशक ने अपना लक्ष्य भेद दिया है.

#धुरंधर ऐसी ही एक फ़िल्म है…. कराची के कुख्यात “ल्यारी टाउन” को पर्दे पर उतारना अपने आप में किसी युद्ध सरीखे साहस की माँग करता है…. यह इलाक़ा पाकिस्तान की धारावी नहीं है…. बल्कि उसका वह विकृत, खतरनाक, भीतर तक सड़ चुका संस्करण है जहाँ अपराध केवल धंधा नहीं…. तंत्र है…. और वह तंत्र राजनीति, पुलिस, सेना तथा अंडरवर्ल्ड से होकर एक बड़े ढाँचे में बदल जाता है….

फ़िल्म की शुरुआत में ही निर्देशक जिस बारीकी से ल्यारी टाउन की तंग गलियों, खून से भीगी गलीच संस्कृति, बदबूदार नालों और घिनौने अपराधियों के ठिकानों को दिखाता है, उससे दर्शक तुरंत उस दुनिया में समा जाता है…. कैमरा अक्सर हैंडहेल्ड है…. हल्की झटकों वाली मूवमेंट के साथ…. ताकि आपको महसूस हो कि आप किसी अदृश्य पत्रकार की तरह उन गलियों में चुपचाप चल रहे हैं…. यहाँ फ़िल्म दृश्य नहीं दिखाती…. माहौल निगलती है.

लेकिन असली जान फ़िल्म में तब आती है जब कहानी खोलती है कि भारत पर हुए कई बड़े हमलों—कंधार हाईजैक, संसद अटैक, और बाद के वर्षों में आर्थिक अस्थिरता की तैयारी—इन सबके पीछे कैसे पाकिस्तान के अपराध जगत और उसके राजनीतिक आकाओं की मिलीभगत काम करती है…. यह फ़िल्म इन घटनाओं को ना केवल प्रत्यक्ष रूप से दिखाती है बल्कि उनके “बैक स्टेज प्रिपरेशन” का ऐसा दृश्यात्मक दस्तावेज़ बनाती है कि दर्शक के भीतर कई पुराने प्रश्नों के उत्तर स्वतः जाग उठते हैं.

कहानी का केंद्र है “हमज़ा अली मज़ारी” यानी एक भारतीय खुफ़िया एजेंट “जसकीरत सिंह रंगी” जिसे भारत में होने वाले आतंकी वित्तपोषण के स्रोतों का पीछा करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान भेजा जाता है…. वह पाकिस्तान के सबसे भयावह अपराध-गढ्ढे ल्यारी टाउन में एक नया गैंगस्टर बनकर घुसता है…. उसके लक्ष्य दो हैं—एक, उन साज़िशों की जड़ों को काटना जो भारत के भीतर बड़े हमलों की तैयारी करती हैं…. और दूसरा, पाकिस्तान के अंडरवर्ल्ड में वर्षों से बैठे हुए उन भ्रष्ट राजनीतिक और सैन्य संरक्षकों जो इन हमलों को संभव बनाते हैं उनके नेटवर्क में स्वयं को स्थापित करना ताकि उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखी जा सके.

बलोच अपराधी “रहमान डकैत” और स्थानीय नेता “जमील जमाली” पाकिस्तान के अपराध जगत का घिनौना चेहरा आपके सामने प्रस्तुत करते हैं और आपको पता चलता है कि बलूचों पर ना केवल पाकिस्तान की आर्मी अत्याचार कर रही है बल्कि उनके अंदर भीतरघाती भी बैठे हैं.

फ़िल्म की गति सधी हुई है…. यह थ्रिलर होते हुए भी हड़बड़ी नहीं करती…. अनेक दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं …. जैसे कि वह दृश्य जिसमें कट्टरपंथी आईएसआई सरगना मेजर इक़बाल मुम्बई हमले को अंजाम देता है और स्वयं आतंकियों को सैटेलाइट फ़ोन पर निर्देश देता है …. हमज़ा भी वहीं है …. सामने टीवी पर भारतीय संसद पर हो रहे हमले का लाइव प्रसारण न्यूज़ चैनलों पर चल रहा है…. उसके सामने बैठे पाकिस्तानी अपराधी ठहाके लगाते हैं…. कैमरा हमज़ा के चेहरे पर आता है…. आँखों में जली हुई आग…. और चेहरे पर तूफ़ान …. लेकिन चुप रहने की मजबूरी …. निर्देशक इन दृश्यों में किसी पर आरोप नहीं चिपकाता…. वह बस दर्पण दिखाता है…. बिना एक शब्द कहे …. और इसी चुप्पी में फ़िल्म की ताकत छुपी है.

फ़िल्म राष्ट्रवाद को चिल्लाकर नहीं कहती…. अवचेतन में रखकर चलती है.

फ़िल्म संकेत देती है कि भारत में होने वाले बड़े निर्णय—चाहे वह कंधार के बाद की राजनयिक मजबूरी हो या नोटबंदी से पहले की असामान्य गतिविधियाँ—इन सबके बैकग्राउंड में कहीं न कहीं इन अंडरग्राउंड नेटवर्क्स की धड़कनें चल रही थीं.

पाकिस्तान के व्यापारी खनानी और आईएसआई के गठजोड़ से नक़ली नोटों का कांग्रेस कनेक्शन और उनको भारत में भेजने का ईरान और नेपाल कनेक्शन सबका इतना शानदार चित्रण कि पिछले कुछ सालों में घटा हुआ सारा घटनाक्रम पूरी तरह समझ आ जाता है.

फ़िल्म का सिनेमैटोग्राफ़ी डायनेमिक है…. रीयलिस्टिक हिंसा, धुआँ, और लो-एंगल शॉट्स का भरपूर उपयोग है…. जिससे अपराधियों की दुनिया विशाल और भयावह दिखती है …. ऐक्शन के दृश्य वास्तविक हैं…. बिना स्लो-मोशन के…. बिना कोई ग्लैमर जोड़े…. यह हिंसा दिखती नहीं…. चुभती है.

संगीत क्रिएटिव है …. बैकग्राउंड म्यूजिक में बार बार अलग अलग पुरानी फ़िल्मों के गाने और उनके रीमिक्स दृश्यों की पूरी थीम के साथ ऐसे लिंक होते हैं कि कहीं गोली की आवाज़, सायरन, भौंकते कुत्ते…. यह सब मिलकर पाकिस्तान के अराजक चरित्र को गढ़ते हैं.

संवाद बेहद प्रभावी हैं…. खलनायकों के संवादों में वह “लिजलिजापन” है जो पाकिस्तान के अपराध-राजनीति रिश्ते की असलियत को उजागर करता है….

“ल्यारी टाउन गैंग” के छोटे मोटे किरदार भी बेहद विश्वसनीय हैं…. उनकी देहभाषा, लहजा, और हिंसा का सहज प्रयोग इस बात का संकेत देता है कि निर्देशक ने स्थानीय कलाकारों और असल लोगों को भी शामिल किया है.

फ़िल्म का सबसे बड़ा आकर्षण है उसका ऐतिहासिक घटनाओं से प्रतीकात्मक जुड़ाव और बीच बीच में इन सब घटनाओं की असली फुटेज का प्रयोग.

साढ़े तीन घंटे की यह फ़िल्म जब ख़त्म होती है तो एक अजीब-सी थकान और संतोष साथ लेकर जाती है…. जैसे आप वाक़ई पाकिस्तान के उस दलदल से निकलकर अपने देश की रोशनी में वापस आए हों.

और मन में एक ही वाक्य रह जाता है—

“भारत की लड़ाई केवल सीमा पर नहीं…. दिमाग़ों और अँधेरे बाज़ारों में भी लड़ी जा रही है….”

धुरंधर उन फ़िल्मों में से है जो दर्शक को मनोरंजन नहीं…. समझ देती है…. चेतना देती है…. और यह एहसास भी कि भारत की सुरक्षा और स्थिरता किसी जुमले की देन नहीं…. बल्कि दिन रात काम करने वाले अनाम योद्धाओं की बुद्धिमत्ता का परिणाम है.

फ़िल्म अपनी बारीकियत, सिनेमाई साहस और सूक्ष्म राष्ट्रवादी दृष्टि के कारण एक शानदार, गहरी, और दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली कृति बन जाती है.

आशिष