वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानी
सुबह के ठीक नौ बज रहे थे। महेश अग्रवाल दफ्तर जाने की तैयारी में था। टाई का फंदा गर्दन में डाल ही रहा था कि उसकी पत्नी दीपा कमरे में आई। धीमे लेकिन गंभीर स्वर में बोली -"तुम्हारा फोन है।"
महेश के माथे पर हल्की त्योरियां चढ़ गई। ''इस वक्त कौन फोन कर सकता है?" दफ्तर जाने का उसका साढ़े नौ का तयशुदा नियम था। घर से निकलने से पहले आए फोन उसे हहमेशा आसहज कर देते थे।
दीपा बोली - "वह कह रही है कि तुम्हारे साथ यूनिवर्सिटी में पढ़ी है।"
महेश चौका। "यूनिवर्सिटी? नाम बताया?"
कहती है - माधुरी नाम सुनते ही पहचान जाएगा।
यूनिवर्सिटी छोड़े उसे कई साल बीत चुके थे। उसके क्लास में चालिस लड़के-लड़कियां रही होंगी। अगर वह ध्यान से सोचे भी तो ज़्यादा से ज़्यादा बीस साथियों के नाम याद कर सकता है और उसके साथ उनका चेहरा भी। पर वह नाम उसके मन की किसी बंद खिड़की पर अचानक दस्तक दे गया।
लंबा कद, गोरा नाज़ुक सा चेहरा। पढ़ाई में तेज़, स्वभाव में सरल और घर की तंगहाल स्थितियां उसके आत्मविश्वास को कहीं भी कम नहीं करती थी। वह कभी-कभी महेश से नोट्स साझा करती - और अनजाने में महेश के दिल की धड़कनों में हल्का-सा रिसाव भी।
महेश की उंगलियां फोन पर ठिठक गईं।
"हेलो..."उसने कहा। "माधुरी?"
उधर से टूटी हुई सिसकियों की आवाज़ आई। "महेश..."मैं माधुरी... तुम्हारी यूनिवर्सिटी वाली..."
महेश का दिल ज़ोर से धड़का। "सब ठीक है ? तुम रो क्यों रही हो?"
थोड़ी देर रुक कर वह बोली -"शेखर का एक्सीडेंट हो गया है। हालत बहुत क्रिटिकल है। वहीं शेखर... जो तुम्हारे साथ फुटबॉल खेलता था। नौकरी मिली तो उसने मुझसे शादी कर ली थी..."
महेश स्तब्ध था। शेखर... उसका यूनिवर्सइटी का सबसे करीबी दोस्त।
माधुरी की आवाज़ फिर आई- "महेश, तुम्हें याद होगा... एम.एस.सी के समय मेरे पापा परीक्षा फीस जमा नहीं कर पाए थे। मैंने तुमसे उधार मांगा था, पर तुमने असमर्थता जताई थी। मैं रोती हुई घर गई... फीस भी जमा नहीं हुई... मगर अगले दिन मेरा एडमिशन कार्ड मिल गया। मैं आज तक नहीं समझ पाई कि मेरी फीस किसने जमा की थी।"
महेश की सास जैसे एक पल को रुक गई। वह उस सच को जानता था -एक ऐसा सच जिसे उसने वर्षों से मन में दफन कर रखा था।
माधुरी धीमे से बोली- "शादी के बाद मैंने देखा कि शेखर का इंटर- स्टेट वाद-विवाद प्रतियोगिता वाला मेडल घर पर नहीं है। जब भी पूछती, वह टाल जाता। आज... बहुत दर्द में... उसने बताया कि मेरी परीक्षा फीस जमा करने के लिए वह मेडल महेश को गिरवीं रख आया था।
महेश के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
माधुरी की आवाज कांप रही थी -डॉक्टर कह रहे हैं कि कोई भावनात्मक झटका उसे होश में ला सकता है। उसकी आंखें बार-बार उसे मेडल को खोज रही है... महेश... मैं हाथ जोड़कर कहती हूं... कृपया वह मेडल लौटा दो। मैं दाम देने को तैयार हूं। मैं अभी पता भेजती हूं।"
फोन कटते ही महेश वहीं बैठ गया। उसके भीतर पछतावे का तूफान उठ गया। उसे याद आया...मैं तो पैसे होने के बावजूद अपनी जेब बचाता रहा था। उधर शेख़र... उस गरीब लड़के ने अपनी सबसे क़ीमती चीज़, "अपनी जीत की निशानी" अपने सपनों का स्वर्ण- चिन्ह... बस इसीलिए गिरवीं रख दिया की माधुरी की पढ़ाई बच सके।" ...मैं इतना छोटा कैसे हो गया था?"
उसकी आंखें भर आईं। दीपा ने पूछा- "ऑफिस नहीं जाओगे?" महेश ने सिर झुका लिया- "नहीं... आज बहुत कुछ ठीक करना है।"
पुराने लोहे के ट्रक को उसने धूल झाड़ कर खोला। सालों से बंद बड़े सामान में वह मेडल चमक रहा था - वैसे ही, जैसे शेखर ने जीत के बाद उसे गर्व से सबके सामने उठाया था।
मेडल हाथ में लेते ही उसकी उंगलियां कांपने लगीं।
वह बिना देर किए कार स्टार्ट कर माधुरी के भेजें पते की और निकल पड़ा।
शहर के पुराने इलाके में बनी एक साधारण-सी कॉलोनी के सामने पहुंचकर वह रुक गया। घर छोटा था, पर साफ- सुथरा। दरवाज़े पर एक बूढी औरत, शायद शेखर की मां, टकटकी लगाए बैठी थी- जैसे किसी चमत्कार का इंतज़ार हो।
माधुरी दरवाज़े पर आई- चेहरा पीला, आंखें सूजी हुई, लेकिन उम्मीद अभी जीवित।
महेश ने बिना बोले मेडल आगे बढ़ा दिया।
माधुरी की आंखें अचानक चमक उठीं।
उसने मेडल को ऐसे थामा जैसे वह कोई धड़कता दिल हो।
"यही है... यही शेखर की जान..."
"शेखर कहां है?"महेश ने धीरे से पूछा।
"आईसीयू में... चलो।"
तीनों तेज़ी से अस्पताल पहुंचे।
"चलो..."उसने कहा, "उसे दिखाते हैं।"
आई.सी.यू में शेखर मशीनों के बीच पड़ा था। चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क, और आंखें बंद।
माधुरी ने मेडल उसके हाथ में रखा।
"शेखर... देखो... तुम्हारा मेडल वापस मिल गया है। तुमने जो गिरवीं रखा था... आज लौट आया है।"
महेश कुछ क़दम दूर खड़ा रहा। उसकी सांसे तेज़ हो रही थी।
अचानक शेखर की उंगली ज़रा सी हिली। फिर उसके होठों पर एक हल्की, बहुत हल्की मुस्कान उभरी।
डॉक्टर तुरंत अंदर आए- "यह अच्छा संकेत है! मरीज़ ने रिस्पॉन्ड किया है!"
माधुरी की आंखों में से आंसू बह निकले-पर इस बार वह उम्मीद के थे।
महेश ने अपने भीतर वर्षों पुरानी एक गांठ टूटती हुई महसूस की।
कुछ दिन बाद... शेखर बैठा हुआ था, अभी कमज़ोर, पर मुस्कुराता हुआ।
महेश उसके सामने बैठा था। धीमी आवाज़ में बोला- "मैंने सोचा था तुम मुझसे नफरत करोगे। मगर इस मेडल ने मुझे मेरी असलियत दिखा दी। मैं बहुत छोटा साबित हुआ... शेखर..."
शेखर मुस्कुराया- " महेश, वह इंसानियत का मेडल था। और इंसानियत में कमी, किसी में भी आ सकती है। पर जब इंसान उसे पहचान ले - बस वही असली जीत है।"
माधुरी ने दोनों को देखा- "असली गोल्ड तो यही है... दो दोस्त, जो सालों पहले एक गलतफहमी से दूर हो गए थे... आज एक मेडल ने उन्हें फिर जोड़ दिया।"
तीनों हंस पड़े- एक साथ, एक ही पल में।
और वह मेडल -अब किसी अलमारी में नहीं था- वह उनके दिलों के बीच एक पुल बनाकर हमेशा के लिए चमक गया।
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