United India
एक राष्ट्र , श्रेष्ठ राष्ट्र
Shaukat Ali Khan
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About The Author
Shaukat Ali is a young Indian writer who, after completing his education up to the intermediate level, tried to deeply understand the realities of history and society. The culture of the subcontinent and the stories of partition inspired him to think in the direction of human unity and dialogue. His writing is based on emotions, experiences, and hopes. This book is the result of that very thinking.
Shaukat Ali
"If there are any errors, oversights, or shortcomings in the ideas presented anywhere in this book, I humbly apologize to my dear readers. Your affection, your memories, and your suggestions are what make my writing meaningful.”
प्रस्तावना
(लेखक – शौकत अली)
भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास केवल तिथियों और सीमाओं का इतिहास नहीं, बल्कि मनुष्यों की भावनाओं, संबंधों और संघर्षों की एक लंबी कथा है। विभाजन ने इस भूभाग को केवल भौगोलिक रूप से नहीं बाँटा—इसने स्मृतियों को चीर दिया, रिश्तों को तोड़ दिया, और एक ऐसी पीड़ा को जन्म दिया जिसकी प्रतिध्वनि आज भी पीढ़ियों के भीतर गूंजती है।
इस पुस्तक को लिखते समय मेरे मन में एक ही विचार बार–बार उठता रहा—क्या विभाजन का इतिहास केवल दुख की कहानी है? या वह एक ऐसा दर्पण भी है जिसमें हम अपनी गलतियों और अपनी संभावनाओं—दोनों को देख सकते हैं?
मैंने पाया कि इतिहास केवल अतीत का बोझ नहीं होता; वह भविष्य की राह भी दिखाता है। उपमहाद्वीप के लोग चाहे तीन राष्ट्रों में बँट गए हों, पर उनकी भाषा, संस्कृति, विरासत, रिवायतें, गीत, मिट्टी और यादें—आज भी एक ही स्रोत से जन्म लेती हैं। इस धरती की आत्मा कभी विभाजित नहीं हुई; केवल उसके रास्ते अलग हो गए।
इस पुस्तक का उद्देश्य किसी राजनीतिक कल्पना को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि उस मानवीय भावना को पुनर्जीवित करना है जिसने सदियों तक इस भूभाग को एक सूत्र में बाँधे रखा। मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि विभाजन के घाव कितने गहरे थे, पर मानवता की डोर उनसे भी अधिक मजबूत है।
यह ग्रंथ उन स्मृतियों का संकलन है जो हमें जोड़ती हैं, उन सच्चाइयों का प्रतिबिंब है जिन्हें हमें स्वीकारना सीखना होगा, और उन संभावनाओं का वचन है जो आने वाली पीढ़ियों के हाथों में हैं। आज का युवा, जो इतिहास को दूरी से पढ़ता है पर भविष्य को निकट से देखता है, इस पुस्तक का सबसे महत्वपूर्ण पाठक है।
मेरी आशा है कि यह पुस्तक नफ़रत की जगह संवाद, अविश्वास की जगह समझ, और विभाजन की जगह सहयोग का मार्ग दिखाएगी। यदि मेरी लेखनी किसी एक दिल में भी यह विश्वास जगा सके कि सीमाएँ नक्शों के लिए होती हैं, दिलों के लिए नहीं—तो मेरा उद्देश्य सफल होगा।
मैं, शौकत अली, इस कृति को उपमहाद्वीप ( पुराना भारत ) की उस साझा आत्मा को समर्पित करता हूँ
जो सदियों से जीवित है,
जो विभाजन के बाद भी नहीं मरी,
और जो आज भी एकता की दिशा में
धीमे, पर दृढ़ कदमों से चल रही है।
( एक भारत, श्रेष्ठ भारत )
बचपन में जब मैं अपने दादा की गोद में बैठा करता था, तो वे एक किस्सा सुनाया करते थे —
“बेटा, कभी ऐसा भारत था जहाँ लाहौर से कलकत्ता तक लोग एक ही मिट्टी को अपना घर कहते थे, जहाँ न कोई सीमाशुल्क था, न पासपोर्ट, बस रिश्तों की डोर थी जो सबको बाँधे रखती थी।”
उनकी आँखों में वह भारत आज भी बसा था, जो रेखाओं में बँट तो गया, पर स्मृतियों से कभी मिटा नहीं।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मुझे समझ आया कि विभाजन केवल भूमि का नहीं था — वह हृदयों का विभाजन था। लाखों लोग बेघर हुए, करोड़ों की पहचान बदल गई, और हमारे समाज में जो साझा संस्कृति थी, वह अचानक अलग-अलग खेमों में बाँट दी गई। इतिहास के अभिलेख बताते हैं कि उस त्रासदी में असंख्य जन अपने घर-आँगन, संपत्ति और परिजनों से वंचित हुए — यह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि मानवीय पीड़ा की सबसे बड़ी कथा थी।
फिर भी, मेरे दादा के शब्दों में हमेशा एक आशा झलकती थी — “एक दिन वह भारत फिर से एक होगा, शायद सीमाओं के बिना, पर दिलों के मेल से।”
वहीं से मेरे भीतर यह विचार अंकुरित हुआ कि सीमाएँ मिटाना असंभव नहीं, बस कठिन है।
वर्षों बाद जब मैंने इतिहास पढ़ा, तो जाना कि यह केवल मेरा स्वप्न नहीं — दुनिया ने इसे साकार होते देखा है। जर्मनी, जो दीवारों में बँट गया था, पुनः एक हुआ। यूरोप के देशों ने शेंगेन समझौते के माध्यम से सीमाओं को लगभग अर्थहीन बना दिया। वहाँ लोग एक देश से दूसरे देश में बिना रुकावट यात्रा करते हैं, अध्ययन करते हैं, व्यापार करते हैं, और इससे शांति व समृद्धि दोनों बढ़ीं।
तब मैंने सोचा — जब अन्य राष्ट्र सीमाएँ नरम कर सकते हैं, तो क्या भारतीय उपमहाद्वीप ऐसा नहीं कर सकता?
हमारा साझा इतिहास, भाषाएँ, खान-पान, साहित्य, संगीत सब एक ही धारा के प्रतीक हैं। हमारे रागों में कोई सीमा नहीं, हमारी मिट्टी में कोई विभाजन नहीं।
पर यह सपना भावनाओं से नहीं, विवेक और तैयारी से पूरा होगा।
मैं यह नहीं कहता कि हमें राजनीतिक रूप से तत्काल एक होना चाहिए। मैं केवल यह कहता हूँ कि हमें उन दीवारों को गिराना चाहिए जो भय और अविश्वास से बनी हैं। हमें ऐसा उपमहाद्वीप चाहिए जहाँ नागरिकों को एक-दूसरे के देश में जाने से डर न लगे, जहाँ व्यापारी सीमा-पार व्यापार कर सकें, छात्र संयुक्त विश्वविद्यालयों में पढ़ सकें, और कलाकार एक ही मंच पर प्रस्तुति दे सकें।
यह यात्रा जन-जन के संवाद से आरम्भ होगी —
विभाजन के साक्षियों की स्मृतियाँ संकलित करनी होंगी, नई पीढ़ी को उन कथाओं से जोड़ना होगा। जब कोई युवक अपने दादा-दादी की कहानी सुनकर समझेगा कि सीमाएँ कैसे बनीं, तब वह उनके मिटने की दिशा में पहला कदम उठाएगा। यही भावनात्मक शिक्षण परिवर्तन की नींव बनेगा।
इसके साथ कला और संस्कृति की शक्ति को भी पुनः जाग्रत करना होगा। एक साझा सांस्कृतिक मंच, जहाँ भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, के कलाकार मिलें — यही नया सेतु बनेगा। जब संगीत एक होगा, तो दिल अपने आप पास आएँगे।
किन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि हर स्वप्न के साथ जोखिम भी जुड़ा होता है। सीमाएँ मिटाने से पहले हमें सुरक्षा, प्रशासनिक व्यवस्था, आर्थिक असमानता और सामुदायिक संवेदनशीलता जैसे सभी पक्षों पर गंभीर विचार करना होगा। बिना तैयारी का कोई भी कदम समाज में असंतुलन ला सकता है। इसलिए यह यात्रा धीमी, सुविचारित और पूर्णतः अहिंसक होनी चाहिए।
लाभ स्पष्ट हैं —
जब सीमाएँ नरम होती हैं, तो व्यापार बढ़ता है, रोजगार के अवसर विस्तृत होते हैं, और पारस्परिक सहयोग से क्षेत्रीय स्थिरता आती है। सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान से जनमानस में सौहार्द का भाव प्रबल होता है। सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि मानवता पुनः अपने स्वाभाविक रूप में लौटती है।
हानियाँ भी हैं —
सुरक्षा के प्रश्न, राजनीतिक अस्थिरता, या ऐतिहासिक घावों का पुनः खुलना — इन सबका प्रबंधन आवश्यक है। लेकिन इनसे डरकर यदि हम सपने ही न देखें, तो इतिहास हमें कभी क्षमा नहीं करेगा।
मेरा विश्वास है कि सीमाएँ मिटाना भूगोल नहीं, मानसिकता का कार्य है। जब हम मन से मान लें कि हम एक ही सांस्कृतिक परिवार के सदस्य हैं, तब सीमाएँ अपने आप बेमानी हो जाएँगी।
मेरे दादा के शब्द आज भी मेरे भीतर गूंजते हैं — “बेटा, रेखाएँ मिट जाएँगी, जब दिल मिलेंगे।”
इस पुस्तक के माध्यम से मैं वही भावना जन-जन तक पहुँचाना चाहता हूँ। यह कोई राजनीतिक घोषणा नहीं, यह आत्मा की पुकार है —
हमारी भूमि का, हमारी सभ्यता का, हमारी स्मृतियों का।
मैं, शौकत अली ख़ान, इस विचार के साथ अपनी लेखनी समर्पित करता हूँ कि एक दिन ऐसा उपमहाद्वीप बनेगा जहाँ सीमाएँ केवल नक़्शों में होंगी,
पर इंसानों के हृदय में नहीं।
जर्मन पुनःएकीकरण (1990)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिम और पूर्व जर्मनी अलग हुए थे; 3 अक्टूबर 1990 को दोनों मिलकर एक ही फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी बने — यह कानूनी और कूटनीतिक प्रक्रियाओं के जरिए हुआ।
कैसे हुआ: पश्चिम और पूर्व जर्मनी की सरकारों ने बातचीत की, और चार महान शक्तियों (US, UK, USSR/Russia, France) के साथ “Two-Plus-Four” वार्ता और ट्रिटी ने अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दी। यह शांति-और-कानूनी प्रक्रिया थी, सैन्य विजय की नहीं।
सबक: बड़े राजनीतिक/सैन्य संघर्ष के बाद भी सहमति और अंतरराष्ट्रीय समझौते मिलकर देश फिर से एक हो सकते हैं — पर वह व्यापक कूटनीति, घरेलू राजनैतिक सहमति और विदेशी शक्तियों की मंज़ूरी पर निर्भर था।
2) यमन का एकीकरण (1990)
क्या हुआ: 22 मई 1990 को उत्तर (North Yemen) और दक्षिण (South Yemen) में राजनीतिक/आर्थिक और नेतृत्व-सहमति के आधार पर संयुक्त गणराज्य यमन बना। यह अलग-थलग युद्धाश्रित पुनर्संरचना नहीं, बल्कि दोनों तरफ़ के शासकों की सहमति पर बनी इकाई थी।
सबक: राजनैतिक इच्छाशक्ति और नेताओं के बीच समझौता (और कभी-कभी आर्थिक/सुरक्षा-कारक) ऐसे विलय के मुख्य चालक होते हैं — लेकिन बाद में भी अस्थिरता/विवाद लौट सकते हैं (यमन में बाद में अस्थिरताएँ हुईं)।
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3) वियतनाम का पुनर्मिलन (1975–1976)
क्या हुआ: दक्षिण और उत्तर वियतनाम का 1975 में युद्ध के बाद एकीकरण हुआ; औपचारिक रूप से 2 जुलाई 1976 को “Socialist Republic of Vietnam” घोषित हुई। यह सैन्य-आधारित विजय के बाद हुई एकीकरण प्रक्रिया थी।
सबक: कुछ मामलों में एकीकरण युद्ध/विजय के परिणामस्वरूप आता है — यह कानूनी सहमति और अंतरराष्ट्रीय मान्यता के बावजूद भी लोगों के जीवन में गहरा और अक्सर दर्दनाक परिवर्तन लाता है l
4) तंज़ानिया — तांज़ानिया का गठन 1964 (Tanganyika + Zanzibar)
क्या हुआ: 1964 में स्वतंत्र Tanganyika और Zanzibar ने मिलकर United Republic of Tanzania बनाया — यह शान्तिपूर्ण राजनीतिक संघ का नमूना था, और अलग संवैधानिक प्रावधानों के साथ लागू किया गया।
सबक: छोटे राज्यों/क्षेत्रों का आपसी राजनैतिक समझौता और संवैधानिक व्यवस्था भी इकाई बना सकती है — अक्सर परस्पर हित और नेतृत्व समझौते मायने रखते हैं।
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क्या ये उदाहरण भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश पर लागू होते हैं?
संक्षेप में — नाज़ुक हाँ/नहीं। इतिहास और सूरत-ए-हाल बहुत अलग है:
ऊपर के उदाहरण या तो दो पक्षों की सहमति, अंतरराष्ट्रीय समझौता, या सैन्य विजय के नतीजे थे।
भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश का मामला लाखों लोगों का विस्थापन, जटिल सुरक्षा-सीमाएँ, अलग राष्ट्रीय पहचान और आज के जनमत/राजनीतिक वास्तविकताओं से जुड़ा है। इसलिए किसी भी तरह का “फिर जोड़ना” केवल विचार-स्तर पर ही सम्भव/नैतिक है — और वास्तविकता में इसके लिए व्यापक जन-सहमति, दोनों देशों की सरकारों का सहमति और अंतरराष्ट्रीय कानून की लंबी प्रक्रियाएँ चाहिए होंगी।
यानी: ऐतिहासिक उदाहरण ज़रूर हैं कि अलग देशों ने फिर एक होने के रास्ते अपनाए — पर हर मामला अलग है, और चाहे वह शांतिपूर्ण समझौता हो (जर्मनी, तंज़ानिया, यमन) या युद्ध के बाद का एकीकरण (वियतनाम), उसका आधार कूटनीति, संविधान/कानून और व्यापक सहमति रहा।
जरूरत हैं.... विचार करने की
विभाजन ने केवल भूमि नहीं, बल्कि दिलों को भी बाँट दिया था।
अब समय है कि हम सीमाओं के बजाय विश्वास और संवाद की दीवारें खड़ी करें।
कला, संस्कृति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से उपमहाद्वीप को फिर से जोड़ सकते हैं।
दूसरे देशों के उदाहरण दिखाते हैं कि एकीकरण शांति, सहमति और विवेक से संभव है।
सीमाएँ मिटाना भूगोल नहीं, मानसिकता बदलने का कार्य है।
विभाजन केवल नक़्शे पर खींची गई रेखा नहीं थी, वह हमारे दिलों पर पड़ा एक ऐसा ज़ख्म था जो आज भी पूरी तरह नहीं भरा। हमारे पुरखों से जो गलती हुई, उसका दर्द पीढ़ियाँ महसूस करती रहीं। हमने अपने ही घर को दो हिस्सों में बाँट दिया, और उस बँटवारे की राख से आतंकवाद की चिंगारियाँ उठीं, जिन्होंने दोनों ओर की मासूमियत को जलाया। यह वह दौर था जब भाई-भाई से डरने लगा, जब इंसानियत धर्म और सरहदों के बोझ तले दब गई।
जिन वीरों ने इस धरती को अपने तप, त्याग और सत्यनिष्ठा से सिंचित किया, उनकी गाथाएँ आज भी हमारे भीतर एक नई शक्ति का संचार करती हैं। वे क्रांतिकारी, जिन्होंने विभाजनकारी भय और अन्याय के विरुद्ध खड़े होकर मनुष्यता की लौ प्रज्वलित रखी—उनकी स्मृतियाँ हमें याद दिलाती हैं कि उपमहाद्वीप की आत्मा सदैव साहस, करुणा और सहअस्तित्व के प्रकाश से आलोकित रही है।
यही वे आदर्श हैं जिन्हें आज की युवा पीढ़ी आगे बढ़ा सकती है।
युवा मन जब इतिहास की धूल झाड़कर इन वीरों की विरासत को समझता है, तो उसमें यह विश्वास जाग्रत होता है कि सीमाएँ भले ही खिंच गई हों, पर दिलों के रास्ते आज भी खुले हैं।
यदि युवक-युवतियाँ उन क्रांतिकारियों की निर्भीकता, उनकी व्यापक दृष्टि और मनुष्यता के प्रति अटूट समर्पण को अपने आचरण में उतारें—तो वे उपमहाद्वीप में ऐसा वातावरण रच सकते हैं, जहाँ वैमनस्य की छाया धीरे-धीरे मिटे और सहयोग की रोशनी फैलती चली जाए।
युवाओं में वह साहस है जो गलतफ़हमियों की दीवारों को गिरा सकता है;
वह संवेदना है जो लोगों के बीच सेतु बन सकती है;
और वह कल्पनाशक्ति है जो एक ऐसे भविष्य की रूपरेखा तैयार कर सकती है, जहाँ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग परिचय से पहले इंसानियत को देखें और भिन्नता से पहले आत्मीयता को पहचानें।
यदि युवा पीढ़ी अपने हृदय में यह संकल्प ले कि
“हम अतीत की कटुता नहीं, भविष्य की मित्रता को आगे बढ़ाएँगे,”
तो उपमहाद्वीप का कल निश्चय ही अधिक शांत, अधिक सृजनशील और अधिक मानवीय हो सकता है।
लेकिन हर पीड़ा एक सबक होती है, और हर गलती एक सुधार का अवसर। अब समय है कि हम अतीत की राख में से भविष्य की लौ जलाएँ। अगर हम फिर से एक हो सकें — चाहे दिलों में, विचारों में या सीमाओं से परे — तो वह एकीकरण न केवल इतिहास की गलती को सुधार देगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को शांति और स्थिरता का उपहार देगा। एकजुट भारत में संसाधनों का साझा उपयोग होगा, व्यापार और शिक्षा का विस्तार होगा, और सीमाओं पर बहने वाला खून अब खेतों को सींचने वाला पसीना बन सकेगा।
हाँ, एकीकरण आसान नहीं होगा। राजनीतिक मतभेद, धार्मिक असहिष्णुता और पुराने घाव फिर से हिल सकते हैं। असमानताएँ और संदेह रास्ता रोक सकते हैं। लेकिन क्या कोई भी महान काम बिना कठिनाइयों के पूरा हुआ है? अगर इच्छाशक्ति सच्ची हो, तो दीवारें भी दरवाज़े बन जाती हैं।
विभाजन ने हमें सिखाया कि नफ़रत बाँटती है, और एकीकरण हमें याद दिलाता है कि प्रेम जोड़ता है। आतंकवाद ने हमें डराया, पर एकता हमें ताकत देगी। अब समय है कि हम अपने पुरखों की गलती को इतिहास नहीं, बल्कि शिक्षा बनाकर आगे बढ़ें —
ताकि आने वाली पीढ़ियाँ कह सकें:
“हमने अपने अतीत से सीखा, और अपने भविष्य को एक किया।”
विभाजन ने केवल भूमि नहीं, बल्कि दिलों को भी बाँट दिया था।
अब समय है कि हम सीमाओं के बजाय विश्वास और संवाद की दीवारें खड़ी करें।
कला, संस्कृति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से उपमहाद्वीप को फिर से जोड़ सकते हैं।
दूसरे देशों के उदाहरण दिखाते हैं कि एकीकरण शांति, सहमति और विवेक से संभव है।
सीमाएँ मिटाना भूगोल नहीं, मानसिकता बदलने का कार्य है।
भारतीय उपमहाद्वीप की स्मृतियों और वास्तविकताओं का विस्तार ऐसा है कि उसे शब्दों में पिरोना जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं। फिर भी, यह आवश्यक है, क्योंकि कोई भी नई शुरुआत बिना पुराने घावों और उनके कारणों को समझे संभव नहीं होती। विभाजन के बाद की पीढ़ियाँ उस पीड़ा को केवल इतिहास की पंक्तियों में पढ़ती हैं, पर जिन्होंने इसे जिया है—उनके लिए यह आज भी एक सतत कंपन की तरह मौजूद है, जैसे कोई धड़कन जो भले ही दर्द देती हो, पर जीवित होने का प्रमाण भी होती है।
विभाजन की त्रासदी में सबसे अधिक टूटने वाली चीज़ थी — विश्वास। पड़ोसी, जो कल तक चूल्हा-चौका साझा करते थे, आज अचानक अलग हो गए। एक ओर भय की लपटें थीं, दूसरी ओर पहचान की अनिश्चितता। परंतु इस अराजकता के बीच भी मानवता के अनगिनत उदाहरण जन्मे। कई लोग अपनी जान जोखिम में डालकर अपने पड़ोसियों को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा रहे थे। यही वह धागा है जो बताता है कि उपमहाद्वीप की आत्मा विभाजन के शोर में भी बिछड़ी नहीं थी—वह बस खो गई थी, पर जीवित थी।
समय बीतने के साथ राज्यों ने अपनी-अपनी राष्ट्रीय पहचान विकसित कर ली। स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबें अलग दिशाओं में चल पड़ीं। भाषाएँ, जो कभी एक-दूसरे के घरों और गलियों में बेझिझक बहती थीं, अब राष्ट्रीय गौरव और भाषायी सीमाओं में बाँध दी गईं। पर प्रश्न यह है—क्या भाषा कभी बाँटी जा सकती है? क्या राग-रागिनियाँ कभी सीमाओं की मोहताज होती हैं? क्या मिट्टी कभी विदेशी हो सकती है, जब उसमें पीढ़ियों की साँसें मिली हों?
उपमहाद्वीप का साझा सांस्कृतिक प्रवाह इस सच का सबसे बड़ा प्रमाण है कि हम आज अलग ज़रूर हैं, पर पराये नहीं।
एक परिवार की तरह, भले ही सदस्यों के रास्ते अलग हो जाएँ, पर रक्त का संबंध कभी टूटता नहीं—उसी तरह इस भूभाग का भावनात्मक-सांस्कृतिक संबंध भी अमर है।
संगीत इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। चाहे पाकिस्तान की सूफियाना काफ़ियाँ हों, भारत का शास्त्रीय संगीत हो, या बांग्लादेश की लोकधारा — हर कहीं सुर एक ही मिट्टी से जन्म लेते हैं। जब कोई गायक "अलाप" लेता है, तो यह सोचकर नहीं लेता कि वह किस राष्ट्र का नागरिक है—वह केवल मनुष्य की अंतरतम गहराई से उठी ध्वनि को अभिव्यक्त करता है। यही कला की शक्ति है—सीमाएँ जहाँ शत्रु बनाती हैं, कला वहाँ सेतु बनाती है।
भोजन भी इसी तरह एक अद्भुत सांस्कृतिक धरोहर है। यह सच है कि राजनीतिक सीमाएँ नक़्शों में अलग-अलग रंगों से बनीं, पर रसोई में वह विभाजन कभी उतर नहीं पाया। दाल, मसाले, रोटियाँ, मिठाइयाँ—सबका स्वाद आज भी वही है। लाहौर की कड़ाही दिल्ली की कड़ाही से अलग नहीं। बंगाल का रसगुल्ला और ढाका का रसमलाई एक ही मीठी परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। यह भोजन नहीं—यह विरासत है।
और फिर एक बड़ा सत्य—हमारी भाषाएँ। हिंदी, उर्दू, पंजाबी, बंगाली, सिंधी—ये भाषाएँ अलग-अलग झंडों के नीचे आ खड़ी हुईं, पर उनकी आत्मा आज भी संयुक्त है। यदि कोई कवि ग़ज़ल लिखता है, तो उसकी पंक्तियाँ पूरे उपमहाद्वीप में गूँज उठती हैं। जब कोई लोकगायक प्रेम का गीत गाता है, तो वह पूरे क्षेत्र की स्मृतियों में घर कर लेता है। यही भाषायी एकता उस संभावित भविष्य का आधार बन सकती है जहाँ सीमाएँ हों, पर दिल अलग न हों।
लेकिन भावनाओं के साथ-साथ यथार्थ को देखना भी उतना ही ज़रूरी है। सीमाएँ मिटाने की बात केवल प्रेम और उम्मीद का विषय नहीं—यह प्रशासन, सुरक्षा, कूटनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक मनोविज्ञान का भी प्रश्न है। किसी भी परिवर्तन की आधारशिला समझदारी ही होती है—और समझदारी का अर्थ है कि हम कठिनाइयों से मुँह न मोड़ें, बल्कि स्वीकारें कि वे मौजूद हैं और उनका समाधान आवश्यक है।
आज उपमहाद्वीप के तीन बड़े राष्ट्र—भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश—अपनी-अपनी प्राथमिकताओं, राजनीतिक सोच और राष्ट्रीय संवेदनाओं के साथ आगे बढ़ रहे हैं। इन तीनों देशों की आकांक्षाएँ भले ही अलग हों, पर आवश्यकता एक ही है—स्थिरता, सुरक्षा और समृद्धि। यदि कभी उपमहाद्वीपीय सहयोग के द्वार खुलते हैं, तो सबसे बड़ा लाभ भी इन्हीं तीन चीज़ों का होगा।
यात्रा तभी सम्भव होगी जब संवाद शुरू होगा। संवाद तभी सफल होगा जब लोग—विशेषकर युवा—अतीत की कहानियों से सीखते हुए भविष्य की ओर नई दृष्टि से देखेंगे। हम वह पीढ़ी हैं जो दर्द को समझ सकती है, पर बाँटने की ज़िम्मेदारी भी उठा सकती है। हमारी स्मृतियाँ भले विभाजन से जन्मी हों, पर हमारा भविष्य एकता की ओर बढ़ सकता है—
मानव सभ्यता के इतिहास में कुछ ऐसे स्वप्न होते हैं जो समय, सीमाओं और पीढ़ियों की दीवारें पार करके भी जीवित रहते हैं। वे स्वप्न केवल विचार नहीं होते, बल्कि किसी गहरे अनुभव, किसी अनकहे दर्द, किसी असम्पूर्ण आकांक्षा की परिणति होते हैं। “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” का भाव भी ऐसा ही एक स्वप्न है—एक ऐसा स्वप्न जो उन हृदयों में जन्मा जिनकी आँखों ने वह उपमहाद्वीप देखा था जहाँ मिट्टी का रंग एक था, जहाँ नदियों का संगीत साझा था, जहाँ भाषा विभाजन नहीं, परिचय का माध्यम थी, और जहाँ मनुष्य, मनुष्य होकर जीता था—धर्म, राज्य, जाति और राष्ट्रवाद की दीवारों के बोझ से मुक्त।
इस विश्वास ने ही मेरे भीतर उस बड़े विचार का अंकुर बोया—यह कि सीमाएँ स्थायी सत्य नहीं, बल्कि समय के बनाए हुए अस्थायी चिह्न हैं। मनुष्य जब चाहे, उन्हें पार कर सकता है। मनुष्य जब चाहे, उन्हें बदल सकता है। और मनुष्य जब चाहे, उन्हें मिटा भी सकता है।
इतिहास का अध्ययन करते हुए मैंने जाना कि दुनिया ने अनेक बार असम्भव-से लगने वाले पुनर्मिलनों को साकार होते देखा है—जर्मनी, वियतनाम, यमन, तंज़ानिया जैसे उदाहरणों ने यह सिद्ध किया कि विभाजन अंतिम सत्य नहीं होता। यदि मन, समाज और नेतृत्व सहमत हों—तो टूटे हुए भूभाग भी, टूटे हुए रिश्तों की तरह, फिर से जुड़ सकते हैं।
परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप का प्रश्न भिन्न है। यह केवल राजनीति का प्रश्न नहीं—यह स्मृतियों का प्रश्न है, पीड़ा का प्रश्न है, पहचान का प्रश्न है। इसलिए यह पुस्तक किसी राजनीतिक घोषणा का पाठ नहीं, बल्कि आत्मा की वह पुकार है जो मानती है कि मनुष्य की मानवता सीमाओं से कहीं बड़ी है।
इस विस्तृत ग्रंथ में, बिना अध्यायों के, एक सतत प्रवाह में, मैं उसी भावना को उकेरूँगा—भावनाओं की, इतिहास की, दर्द की, आशा की, और उस सम्भावना की जो आज भी जीवित है कि भारतीय उपमहाद्वीप में कोई दिन ऐसा आएगा जब सीमाएँ नक्शों में होंगी, दिलों में नहीं।
यह रचना एक यात्रा है—अतीत से वर्तमान तक, वर्तमान से भविष्य तक। एक ऐसी यात्रा जहाँ स्मृतियाँ मार्गदर्शक हैं और आशाएँ मंज़िल।
विभाजन का इतिहास केवल काग़ज़ पर खिंची कुछ रेखाएँ नहीं था; वह एक ऐसा क्षण था जिसने उपमहाद्वीप की आत्मा को दो दिशाओं में बाँट दिया। उन दिनों की हवाओं में करुणा की चीखें घुली थीं, और धरती पर ऐसे आँसू बहे थे जिनकी नमी आज भी स्मृतियों में महसूस होती है। लाखों लोग अपने ही गाँवों, गलियों और मकानों को पीछे छोड़ते हुए ऐसे आगे बढ़े थे मानो उनके पैरों की मिट्टी उनसे कोई अंतिम विदा माँग रही हो।
हमारे पूर्वजों के कंधों पर उस समय एक असहनीय बोझ था—बिखरते परिवारों का, टूटी पहचान का, और उन सपनों का जो अचानक अपने ही घरों में पराये हो गये थे। पीढ़ियाँ बीत गईं., लेकिन उस कालखंड का दर्द अब भी हमारी चेतना की तहों में धड़कता है। इतिहास का यह अध्याय केवल पढ़ा नहीं जाता, बल्कि महसूस किया जाता है—हर बार जब हम उस दौर की तस्वीरों पर नज़र डालते हैं या बुज़ुर्गों की आँखों में एक गहरी चुप्पी को जन्म लेते देखते हैं।किन्तु हर टूटन के भीतर ही किसी नव-निर्माण का बीज छिपा होता है। मानव समाज की यह अद्भुत विशेषता है कि वह जितना बिखरता है, उतना ही अपने भीतर एक नई आकांक्षा, एक नई ज्योति को जन्म देता है। हमारे उपमहाद्वीप की धरती आज भी उन हजारों वर्षों की एकता की साक्षी है, जब भाषाएँ भिन्न थीं पर हृदय एक थे; जब पूजा-पद्धतियाँ अलग थीं पर आस्था एक ही स्त्रोत से फूटती थी; जब नदियाँ सीमाएँ नहीं, संस्कृतियों का संगीत थीं।
युवा पीढ़ी के लिए यह इतिहास केवल दुख का वृत्तांत नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का एक दर्पण है। हमारी मिट्टी हमें सिखाती है कि विभाजन से अधिक स्थायी वह बंधन है जो मनुष्यों के बीच करुणा, सम्मान और सांस्कृतिक निकटता से बनता है। आज का युवा, जो आधुनिक विचारों, विस्तृत दृष्टि और वैश्विक समझ से सम्पन्न है, इस क्षेत्र में एक नया अध्याय लिख सकता है—एक ऐसा अध्याय जिसमें नफ़रत की जगह संवाद हो, भय की जगह विश्वास हो, और विभाजन की जगह सहभागिता का उजाला हो।
युवाओं की ऊर्जा केवल संघर्ष में नहीं, रचनात्मकता में अपनी चरम अवस्था तक पहुँचती है। यदि वही शक्ति सहयोग, अध्ययन, सांस्कृतिक आदान–प्रदान, और सामुदायिक उन्नति में लगे, तो यह भूभाग फिर से उस स्वर्णिम युग की ओर बढ़ सकता है जब विचारों की परिधियाँ सीमाओं से नहीं, बल्कि नैतिकता और ज्ञान से निर्धारित होती थीं।
यह पुनर्जागरण किसी राजनीतिक आग्रह की ओर नहीं, बल्कि मानवता और शांति के साझा लक्ष्य की ओर ले जाता है—एक ऐसी दिशा, जहाँ इतिहास के घाव बोझ नहीं, बल्कि समझ के शिक्षक बन जाते हैं।
युवाओं से यही अपेक्षा है कि वे अतीत को बोझ की तरह नहीं, बल्कि चेतावनी की तरह पढ़ें; और भविष्य को भय की तरह नहीं, बल्कि एक अवसर की तरह गढ़ें। उनके भीतर वह शक्ति है जो टूटे विश्वासों को जोड़ सकती है, और वह दृष्टि है जो इस भूभाग को संघर्ष की भूमि से सहयोग की धरती में बदल सकती है।
अगर नई पीढ़ी इस पुरातन धरा की विरासत को समझकर आगे बढ़े, तो आने वाली सदियों में उपमहाद्वीप के लोग गर्व से कह सकेंगे—
“हमने इतिहास को दोहराया नहीं, हमने उससे आगे बढ़ना सीखा।”
उपमहाद्वीप के अतीत ने हमें यह सिखाया कि विभाजन केवल सीमाओं का नहीं, भावनाओं का भी होता है। किन्तु उसी इतिहास ने यह भी प्रमाणित किया कि मनुष्य का हृदय किसी भी रेखा से बड़ा होता है। इस सत्य को स्वीकार करते हुए, आज की पीढ़ी को यह संकल्प लेना होगा कि संवाद ही संघर्ष का विकल्प है, और सहयोग ही स्थिरता का मार्ग।
निवारण यही है कि हम अपने अतीत के घावों को समझें, पर उन्हें भविष्य की बेड़ियों में न बदलें। हम अपने रिश्तों, संस्कृतियों और साझा अनुभवों को नई दृष्टि से देखें—एक ऐसी दृष्टि, जो विभाजन से नहीं, संबंध से जन्म लेती हो।
अंततः इतिहास ने हमें एक कठिन सत्य सिखाया है—नफ़रत से केवल अंधकार जन्म लेता है, और एकता से प्रकाश। यह उजाला तभी फैलेगा जब नई पीढ़ी आगे बढ़कर इस क्षेत्र के लिए शांति, सम्मान और परस्पर विश्वास की नींव रखेगी। हमारी साझा मिट्टी, हमारे साझा स्वप्न और हमारी साझा विरासत इस उपमहाद्वीप को उस दिशा में ले जा सकते हैं जहाँ मानवता सीमा नहीं, बल्कि आधार बन जाती है।
यदि पीढ़ियाँ मिलकर आगे बढ़ें, तो भविष्य ऐसी भूमि का निर्माण कर सकता है जहाँ संघर्ष इतिहास की स्मृति हो और एकता आने वाले कल का वास्तविक स्वरूप।
यही वह संदेश है, जिसे सँभालकर आगे बढ़ना ही आने वाली सदियों के लिए दीप बनेगा, जो अंधकार के बीच भी दिशा दिखाता है। और इसी विश्वास के साथ मैं (शौकत अली) इस विनम्र प्रयास को आगे बढ़ाता हूँ, क्योंकि किसी लेखनी की सार्थकता तभी है जब वह समय के घावों पर मरहम बने, और भविष्य की राह पर प्रकाश डाले।
हमारे उपमहाद्वीप की कहानी अधूरी नहीं, बल्कि निरंतर चलने वाली यात्रा है—एक ऐसी यात्रा जिसमें पीड़ा है, पर आशा भी है; बिछड़न है, पर मिलन की संभावना भी। मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि वह हर टूटन के बाद स्वयं को फिर से रच लेता है। इतिहास चाहे कितनी ही गहरी रेखाएँ खींच दे, पर मानवता के हाथों में हमेशा रंग होते हैं—ऐसे रंग जो उन रेखाओं को धुंधला कर सकते हैं, और पुनः एक नई तस्वीर बना सकते हैं।
आज जब मैं इस विस्तृत ग्रंथ में आगे बढ़ता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि शब्द केवल शब्द नहीं होते—वे स्मृतियों के दीपक होते हैं। वे उन चेहरों को उजाला देते हैं जो इतिहास की अराजकता में ओझल हो गए थे। वे उन आवाज़ों को जीवन देते हैं जिन्हें नफरत के शोर ने कभी दबा दिया था। वे उन कदमों को पहचान देते हैं जिन्होंने भय, भूख, और बेघर होने की पीड़ा झेली, पर फिर भी मानवता का दामन नहीं छोड़ा।
और यही वह सत्य है जिसे आज की पीढ़ी को समझना होगा—
कि इतिहास को बदलना संभव नहीं, पर भविष्य को गढ़ना हमेशा संभव होता है।
भविष्य किसी एक राष्ट्र का नहीं, किसी एक विचारधारा का नहीं—वह उन सभी का है जो शांति को संघर्ष पर, संवाद को विभाजन पर, और मानवता को सत्ता पर प्राथमिकता देते हैं।
जब नए विचार जन्म लेते हैं, तो पुराने भय धुंध की तरह छँटने लगते हैं। जब युवा, ज्ञान और संवेदना के साथ आगे आते हैं, तो समाज की दिशा बदलने लगती है। उपमहाद्वीप का भविष्य भी ऐसी ही नई सोच की प्रतीक्षा में है—एक ऐसी सोच जो कहे:
"हम इतिहास में जो खोया, उसे वापस नहीं पा सकते;
पर जो बचा है—उसे सँवारकर एक नया कल बना सकते हैं।"
हमारी भूमि ने युद्ध भी देखे हैं, और शांति के फूल भी।
इसने आँसू भी देखे हैं, और उत्सव की हँसी भी।
इसने विस्थापन की पीड़ा महसूस की है, पर पुनर्मिलन की करुणा भी।
यही द्वंद्व इस भूभाग की आत्मा है—और इसी आत्मा में एक महान संभावना छुपी है।
यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर दुनिया देना चाहते हैं,
तो हमें उन पुलों को फिर से बनाना होगा
जो समय, राजनीति और अविश्वास ने तोड़े थे।
हमें फिर से उस भावना को जागृत करना होगा
जो कहती थी कि इंसान पहले इंसान है—
उसके बाद कोई भी पहचान।आज जब मैं उपमहाद्वीप के बिखरे नक्शों को देखता हूँ, तो हृदय में एक शांत किंतु गहरी आकांक्षा जागृत होती है—क्या कभी वह दिन आएगा जब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश पुनः उसी आत्मीयता से जुड़ सकेंगे, जिस आत्मीयता ने सदियों तक उन्हें एक ही सांस्कृतिक परिवार बनाए रखा? यह अभिलाषा किसी राजनीतिक आग्रह की नहीं, बल्कि उन लोकमतों की धड़कन है जो आज भी इस धरती की स्मृतियों में जीवित हैं।
हमारे पूर्वजों ने इस उपमहाद्वीप को केवल एक भूभाग के रूप में नहीं देखा था; उन्होंने इसे एक ऐसे विशाल परिवार की तरह जिया था जहाँ सीमाएँ नहीं, संबंध बोलते थे; जहाँ धर्म नहीं, दिलों की पहचान महत्वपूर्ण थी; और जहाँ भाषा अलग हो सकती थी, पर संस्कार एक ही स्रोत से उपजते थे।
आज की युवा पीढ़ी, जो दोनों ओर की कहानियों को सुनती है और भविष्य को बिना कटुता के देखना चाहती है, सबसे अधिक सक्षम है इस स्वप्न को समझने की। यदि युवा मनसीमा की राजनीति से ऊपर उठकर साझा इतिहास, साझा संस्कृति और साझा इंसानियत को अपनाए, तो उपमहाद्वीप में एक ऐसा वातावरण जन्म ले सकता है जो किसी भी विभाजन से बहुत बड़ा हो।
मैं यह नहीं कहता कि हमें राजनैतिक रूप से एक होना आवश्यक है; पर यह अवश्य कहता हूँ कि यदि कभी पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत फिर एक परिवार की भाँति—सम्मान, विश्वास और सहयोग के सूत्र में बंध जाएँ—तो यह हमारी भावनात्मक विरासत का स्वाभाविक पुनर्जागरण होगा।
युवा पीढ़ी ही वह शक्ति है जो घृणा के बीते अध्यायों को पीछे छोड़कर नई समझ, नई मित्रता और नई निकटता का मार्ग बना सकती है। यही वह पीढ़ी है जो उपमहाद्वीप को फिर से उस बंधुत्व की ओर ले जा सकती है जहाँ हम थे—जहाँ हम सांस्कृतिक रूप से एक थे, और जहाँ एकता विभाजन से अधिक प्रबल थी। भारत की सुंदरता केवल उसकी नदियों, पहाड़ों और मैदानों में ही नहीं बसती, बल्कि उसके लोगों की आत्मा में भी रची-बसी है। यह वह भूमि है जहाँ सदियों से विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों ने एक–दूसरे को अपनाते हुए एक साझा पहचान गढ़ी है। हिमालय की धवल चोटियों से लेकर केरल के हरे-भरे तटों तक, थार के सुनहरे मरुस्थल से लेकर पूर्वोत्तर की नीली पहाड़ियों तक—भारत का भूगोल अपने भीतर अनगिनत रंग समेटे हुए है, और हर रंग इस देश की जीवंतता की कहानी कहता है।
आज हम भले ही इसे ‘भारत’ कहकर पुकारते हों, पर विभाजन से पहले यह पूरा उपमहाद्वीप एक ही सांस्कृतिक धड़कन पर धड़कता था। बाज़ारों की गहमागहमी, मेलों की रौनक, क़िस्सागोई की परंपरा, मिट्टी की खुशबू, क़व्वालियों की तान, भजन की मधुरता, उर्दू–हिंदी की ग़ुलगुली ज़ुबान—ये सभी किसी एक राष्ट्र की निजी पहचान नहीं थे, बल्कि इस पूरी धरती की साझा धरोहर थे।
1947 से पहले यह भूभाग एक ऐसा उपवन था जहाँ विविधता विभाजन नहीं, बल्कि सौंदर्य का आधार थी। चाहे बंगाल की प्रतिध्वनि हो या पंजाब की सुरमई सरगम, सिंध की सूफ़ियाना रूह हो या दक्कन की तहज़ीब—हर क्षेत्र दूसरे को समृद्ध करता था। यही वह शक्ति थी जिसने उपमहाद्वीप को एक सूत्र में बाँधे रखा। यही वह भावना थी जिसने “एक राष्ट्र” की अवधारणा को केवल राजनीतिक ढाँचे से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मा से जन्म दिया।
भारत की खूबसूरती उसके अतीत में ही नहीं, उसके भविष्य में भी है—क्योंकि यह देश हमेशा टूटी हुई चीज़ों को जोड़ने का साहस रखता है। यहाँ घाव गहरे होते हैं, पर मानवता उनसे भी गहरी होती है। यही कारण है कि विभाजन की पीड़ा सहने के बाद भी भारत ने प्रेम, समरसता और संवाद की राह नहीं छोड़ी।
यदि 1947 ने सीमाएँ खींचीं, तो इस भूमि की सांस्कृतिक स्मृतियों ने उन सीमाओं को बार–बार पार करते हुए यह सिद्ध किया कि दिलों की सरहदें किसी नक्शे की रेखाओं से बड़ी होती हैं। इस पुस्तक में जब मैं भारत की सुंदरता की बात करता हूँ, तो मेरा तात्पर्य केवल उसके भूभाग से नहीं, बल्कि उस आत्मा से है जिसने सदियों से लोगों को जोड़े रखा है—और आज भी एकता की लौ को बुझने नहीं देती।
भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि एक अनुभूति है—एक ऐसा एहसास जो बताता है कि हम अलग-अलग होते हुए भी एक ही मिट्टी की सुगंध से बने हैं। यदि कभी यह उपमहाद्वीप एक राष्ट्र था, तो वह शक्ति किसी साम्राज्य ने नहीं, बल्कि उसके लोगों ने दी थी—उन लोगों ने जो प्रेम को धर्म से ऊपर और मानवता को सीमा से आगे समझते थे।
यदि यह पुस्तक किसी एक युवा मन में भी यह विश्वास जगा दे कि उपमहाद्वीप का भविष्य संघर्ष में नहीं, बल्कि सहयोग में है; दूरी में नहीं, बल्कि निकटता में है; और विभाजन में नहीं, बल्कि एकता की आकांक्षा में है—तो यही इस कृति की सच्ची सार्थकता होगी।
और इस यात्रा में मेरी लेखनी केवल एक विनम्र प्रयास है—
एक छोटी-सी रोशनी,
एक सौम्य पुकार,
एक शांत विश्वास,
कि शायद एक दिन
उपमहाद्वीप के लोग फिर से एक-दूसरे की आँखों में
पराया नहीं,
अपनापन खोज पाएँगे।
यही मेरा स्वप्न है,
यही मेरी आशा,
और यही मेरा योगदान—
शौकत अली,
एक ऐसा युवा बनाने की आकांक्षा के साथ
जो दिलों को जोड़े,
न कि बाँटे।
इतिहास के कुछ क्षण ऐसे होते हैं जिनमें समय थम जाता है, और मनुष्य अपनी ही छाया से डरने लगता है। 1947 ऐसा ही क्षण था—
एक ऐसा क्षण जहाँ आँसू ने धरती को भिगोया,
और आग ने आसमान को लाल कर दिया।
लेकिन इस पूरे अंधकार में, मानवीयता की छोटी–सी लौ भी जलती रही—
कभी किसी अजनबी की मदद में,
कभी किसी दुश्मन माने जाने वाले इंसान की करुणा में,
कभी किसी माँ की सिसकियों में,
और कभी किसी बच्चे की हाथ पकड़ने की मासूम कोशिश में।
विभाजन केवल इतिहास की घटना नहीं था—
यह मनुष्यता की सबसे कठिन परीक्षा थी।
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1. जब घर नगर बन गए और नगर शरणार्थी शिविर
विभाजन की घोषणा के साथ ही लोगों की दुनिया पलटी। एक रात में घरों के दरवाज़े बंद हो गए, और नई सुबह उन दरवाज़ों के सामने भगदड़ के पदचिह्न दिखने लगे।
जो गलियाँ कभी हँसी और क़िस्सों से भरी रहती थीं,
उनमें अचानक चीखें और बेबसी की लहरें दौड़ने लगीं।
कितने लोग थे जो सोचते थे—
“हम कहीं नहीं जाएँगे, यह हमारा घर है…”
लेकिन समय ने उनका यह विश्वास भी छीन लिय
हज़ारों परिवार अपने ही आंगन से इस तरह निकले
मानो कोई अचानक अपनी धड़कन से दूर चला गया हो।
वो लोग सामान नहीं ले जा पाए,
पर अपनी पीड़ा अवश्य उठा ले गए।
पीड़ा हल्की लगती है,
पर सबसे भारी होती है।
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2. क़ाफ़िले — जो चलते हुए भी स्थिर थे
अखंड भारत से निकले लाखों क़ाफ़िले
सिर्फ़ पैरों की यात्रा नहीं थे—
वे इतिहास का सबसे बड़ा मौन मार्च थे।
ये क़ाफ़िले सीमा की ओर बढ़ते थे,
लेकिन उनका हर कदम
अपनों से दूर ले जाता था।
इन क़ाफ़िलों में
• माँ के पास बच्चों को ढाँढस देने के शब्द नहीं थे,
• बूढ़े पिता के पास सहारा देने की ताकत नहीं थी,
• और युवा के पास दिशा नहीं थी।
हर क़ाफ़िले में कोई न कोई पीछे छूट जाता था।
कभी कोई बुज़ुर्ग,
कभी कोई भाई,
कभी कोई याद,
कभी कोई पहचान।
विभाजन ने लोगों से उनका भविष्य ही नहीं छीना—
उसने उनका अतीत भी छीन लिया।
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3. खून से भी गहरी चोट — विस्थापन की चोट
जब कोई इंसान अपना घर छोड़ता है,
तो वह दीवारें नहीं छोड़ता,
वह अपनी यादें छोड़ता है।
विस्थापन केवल एक घटना नहीं,
एक आजीवन बीमारी है।
• यह हर रात सपने में लौट आता है।
• यह हर त्योहार की ख़ुशी को चुप करा देता है।
• यह हर बार किसी पुरानी गली का नाम सुनते ही दिल को चीर देता है।
विभाजन ने लाखों लोगों को बेघर नहीं किया—
यह भी सच है कि
विभाजन ने लाखों लोगों के भीतर एक ऐसा घर बना दिया
जिसमें केवल दर्द रहते हैं।
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4. पीड़ाएँ भी पक्षपात नहीं करतीं
विभाजन की आग किसी धर्म, किसी भाषा, किसी जाति को नहीं बचाती यह सबको बराबर जलाती है।
हर तरफ़ से एक ही आवाज़ उठती थी—
“हमारे अपने जा रहे हैं…”
और “हमारे अपने मर रहे हैं…”
उधर के लोग इधर को दोष देते थे,
और इधर के लोग उधर को।
लेकिन पीड़ा दोनों ओर समान थी।
घाव दोनों ओर एक समान बह रहा था।
इतिहास में कभी भी आँसू
दो अलग राष्ट्रों के नहीं होते—
आँसू हमेशा इंसानियत के होते हैं l
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5. इसी अंधकार में मनुष्यता के दीपक
विभाजन की त्रासदी बहुत बड़ी थी,
पर इस त्रासदी में भी ऐसे लोग मिले
जिन्होंने मानवता की ज्योति बुझने नहीं दी—
किसी हिंदू परिवार को
एक मुस्लिम किसान ने अपने घर में छुपा लिया;
किसी मुस्लिम बच्चे को
एक सिख महिला ने अपनी गोद में उठा लिया;
किसी हिंसा से भागते क़ाफ़िले को
दूसरे धर्म के गवई-मजदूरों ने पानी पिलाया;
किसी अनाथ लड़की की रक्षा
बिल्कुल अजनबी लोगों ने की।
इन कहानियों में किसी धर्म का नारा नहीं था,
इन कहानियों में सिर्फ़ एक ही शब्द था—
इंसान।
और यही इंसान वह प्रकाश था
जिसने विभाजन के अंधेरे को पूरी तरह अनियंत्रित होने से बचाया।
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6. मनुष्यता की यह परीक्षा क्यों थी ?
क्योंकि मनुष्यता तभी परीक्षित होती है
जब भय अपने चरम पर होता है।
जब चारों ओर हिंसा हो,
तब किसी को बचाना
वीरता नहीं—
मानवीय कर्तव्य होता है।
विभाजन की सबसे बड़ी असफलता यह थी कि हम एक साथ रहने का तरीका भूल गए।
और विभाजन की सबसे बड़ी सफलता यह थी
कि उस अराजकता में भी
इंसान इंसान को पहचान लेता था।
यह परीक्षा थी—
• भय बनाम करुणा
• नफ़रत बनाम इंसानियत
• और क्रूरता बनाम साहस
इस परीक्षा में
कुछ लोग हार गए—
लेकिन बहुत लोग जीत भी गए।
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7. बच्चे — जो इतिहास को समझ नहीं सके
विभाजन में सबसे ज़्यादा पीड़ा
उन बच्चों ने झेली
जो घर का अर्थ भूल गए,
और देश का अर्थ समझ ही नहीं पाए।
वे बस पूछते थे—
“अम्मी, हम कहाँ जा रहे हैं?”
“बाबा, हमारा घर पीछे क्यों रह गया?”
उनके लिए
घर वह था जहाँ उनकी चोटी बंधी थी,
जहाँ उनकी मिट्टी में खेला था,
जहाँ उनकी माँ की रसोई महकती थी।
जब उन्हें उस घर से दूर ले जाया गया—
वह पल उनके जीवन का सबसे बड़ा शून्य बन गया।
ये बच्चे बड़े हुए लेकिन उनकी आँखों में वह प्रश्न हमेशा रहा—
“हमारा कसूर क्या था?”
उनकी पीढ़ी ने विभाजन को इतिहास में पढ़ा,
लेकिन उनकी आत्मा ने उसे बचपन में जिया।
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8. दर्द की वही लहर आज भी कायम
विभाजन की आग तो बुझ चुकी,
लेकिन उसकी राख आज भी जीवित है।
हर बार जब भारत–पाकिस्तान का तनाव बढ़ता है,
तो कहीं दूर किसी बूढ़े के भीतर
पुरानी चीखें फिर जाग जाती हैं।
हर बार जब सीमाएँ बंद होती हैं,
तो किसी माँ के भीतर
वह पुराना भय कुलबुला उठता है
कि कहीं फिर वह अपने बच्चों से न बिछड़ जाए।
विभाजन बीत गया, लेकिन विभाजन की पीड़ा कभी नहीं बीती। क्योंकि
विभाजन घटना थी, पर उसका प्रभाव हमारी स्मृति बन गया…
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9. पीड़ा का उत्तर—संवाद
विभाजन की पीड़ा को समाप्त नहीं किया जा सकता,
लेकिन उसे बदला जा सकता है।
यह पीड़ा दुश्मनी का कारण बने—
यह इतिहास की सबसे बड़ी गलती होगी।
पर यही पीड़ा
समझ का कारण बने—
तो यह इतिहास का सबसे बड़ा उपहार बन सकती है।
संवाद ही वह मार्ग है
जो पुराने घाव भर सकता है।
जब आज का भारतीय युवा
आज के पाकिस्तानी युवा से बात करेगा—
धर्म नहीं, नौकरी, शिक्षा, सपने, संगीत, संस्कृति पर—
तब विभाजन की पीड़ा
एक नई दिशा पाएगी।
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10. मनुष्यता की परीक्षा आज भी जारी है
विभाजन केवल 1947 में नहीं हुआ था।
वह हर दिन होता है—
हर बार जब हम
किसी इंसान को ‘दूसरा’ कह देते हैं।
मनुष्यता की परीक्षा आज भी वही है—
क्या हम सीमाओं से ऊपर उठ सकते हैं?
क्या हम अपनी स्मृतियों को केवल दर्द नहीं,
बल्कि करुणा और चेतावनी की तरह देख सकते हैं?
क्या हम नई पीढ़ी को
एक शुद्ध, समझदार, और मानवीय भविष्य दे सकते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर हमारे भीतर ही छिपा है। और यही उत्तर पूरे उपमहाइतिहास कभी केवल उन घटनाओं का वृतांत नहीं होता जिन्हें पुस्तकालयों की अलमारियाँ सहेजती हैं; इतिहास वह भी होता है जो लोगों की स्मृतियों में सांस लेता है, जो बीते हुए समय की धूल से उठकर वर्तमान की आँखों में शांत, पर दृढ़, छवि की तरह टहलता रहता है। उपमहाद्वीप का इतिहास तो विशेष रूप से ऐसा इतिहास है—जहाँ हर मोड़ पर कोई अनकही करुणा है, हर मोड़ पर किसी बिछड़न की थरथराहट है, और हर मोड़ पर किसी ऐसी आशा की लौ है जो कितनी ही आँधियों में भी बुझी नहीं।
विभाजन ने जिस क्षण इस भूमि को दो हिस्सों में बाँटा, उसी क्षण हमारी स्मृति ने एक तीसरा हिस्सा जन्म दिया—मौन का।
वह मौन, जिसमें लाखों घरों की करवटें दबी हुई हैं।
वह मौन, जिसमें सैकड़ों वर्षों की साझा धड़कनें आज भी एक दूसरे को ढूँढ़ती हैं।
वह मौन, जिसमें इतिहास अपने जख्म खुद छुपाकर भी आने वाली पीढ़ियों को संकेत देता रहता है।
उपमहाद्वीप की स्मृतियों का यही मौन इस अध्याय का विषय है।
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1. स्मृतियों की वह सरहद, जो कभी खिंची ही नहीं थी
अगर हम अपनी सामूहिक चेतना की परतें खोलें, तो पाएँगे कि यह भूमि कभी राष्ट्रों की तरह नहीं चलती थी—यह परिवारों की तरह चलती थी।
लाहौर में होने वाला त्योहार दिल्ली में मनाया जाता था, ढाका की मिठास बनारस के घाटों तक बहती थी, और कश्मीर के गीत बंबई के गलियारों में गूंजते थे।
यहाँ कोई भौगोलिक विभाजन नहीं था;
यहाँ विभाजन केवल परंपराओं के रंगों से होता था—
और वे रंग भी एक-दूसरे को संवारते थे, मिटाते नहीं थे।
विभाजन ने पहली बार वह रेखा खींची जो हमारी कल्पना में कभी मौजूद नहीं थी।
और इसलिए स्मृति आज भी उसे स्वीकार नहीं कर पाती।
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2. दादा–दादी की आँखों में अनकहा इतिहास
जिन बुज़ुर्गों ने विभाजन को जिया, उनके शब्द कभी इतने सरल नहीं होते।
वे घटना को नहीं बताते — वे दर्द बताते हैं।
वे आँकड़े नहीं गिनाते — वे आहें गिनाते हैं।
कई बार वे चुप हो जाते हैं।
क्योंकि कुछ अनुभव आँसू नहीं बनते, बस मौन बनकर भीतर रह जाते हैं।
उनकी स्मृतियों में बचपन के घर की दीवारों पर उकेरी गई रेखाएँ अभी भी ताज़ा हैं;
उन गलियों की धूल आज भी उनके पैरों में चिपकी है;
उन पड़ोसियों की हँसी आज भी उनकी बेचैनी में गूंजती है।
इन स्मृतियों का बोझ हम नहीं उठा सकते—
पर इन स्मृतियों का अर्थ हम समझ सकते हैं।
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3. स्मृति और पीड़ा का संबंध
स्मृति जितनी मीठी होती है, पीड़ा उतनी अधिक गहरी होती है।
उपमहाद्वीप की स्मृति तो बिल्कुल नदी की तरह है—
ऊपर से शांत, और भीतर से अंतहीन।
जो लोग इस नदी को अपने भीतर लिए चलते हैं,
उनके चेहरे पर अजीब-सी धूप और अजीब-सी छाँव बसी रहती है।
विभाजन ने भूगोल को बाँटा,
पर स्मृति ने उसके विरोध में खड़े होकर इतिहास को एक स्वर दिया—
एक मौन स्वर, जो कहता है:
“हम टूटे नहीं थे… हमें तोड़ दिया गया था।”
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4. स्मृति की मिट्टी और विरासत की भाषा
जब हम कहते हैं कि उपमहाद्वीप की मिट्टी एक है,
तो यह केवल सांस्कृतिक कथन नहीं — यह मनोवैज्ञानिक सत्य है।
क्योंकि स्मृति की मिट्टी भूगोल से नहीं बनती,
वह संबंधों से बनती है।
• यही कारण है कि पंजाब दोनों ओर एक जैसा महकता है।
• बंगाल दोनों ओर एक जैसी बरसात सुनता है।
• सिंध की हवा दोनों ओर एक जैसी कहानियाँ फुसफुसाती है।
• और कश्मीर की बर्फ दोनों ओर एक जैसी उदासी ओढ़ती है।
यह भूभाग भले तीन हिस्सों में बँट गया हो,
पर इसकी यादें आज भी एक ही भाषा बोलती हैं।
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5. स्मृति बनाम इतिहास
इतिहास कभी-कभी स्मृति की तुलना में छोटा पड़ जाता है।
किताबें विभाजन को एक राजनीतिक घटना लिखती हैं,
पर स्मृतियाँ उसे मनुष्यता की त्रासदी लिखती हैं।
इतिहास कहता है—
“1947 में भारत और पाकिस्तान बने।”
पर स्मृति कहती है—
“1947 में हमने अपने पड़ोसी खो दिए।”
इतिहास कहता है कि
“पूर्वी पाकिस्तान 1971 में बांग्लादेश बना।”
पर स्मृतियाँ कहती हैं—
“1971 में एक और भाई घर से दूर चला गया।”
इसीलिए स्मृति हमेशा अधिक सच्ची होती है—
क्योंकि वह आँकड़ों में नहीं, अनुभवों में दर्ज होती है।
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6. स्मृतियों का पुल: कला, संगीत और भाषा
जब भी कोई उस्ताद राग देश में आलाप लेता है,
सीमाएँ खुद-ब-खुद पिघलने लगती हैं। जब कोई कव्वाल “बहार-ए-सुन्नत” गाता है,
धर्म के नाम पर खड़ी की गई दीवारें ढहने लगती हैं।
जब कोई माँ अपने बच्चे को लोकगीत सुनाती है—
चाहे वह ढाका की हो या जयपुर की—
उसकी आवाज़ में एक ही संस्कार बहता है।
क्योंकि कला स्मृति की सबसे शुद्ध संतति है।
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7. नया प्रश्न — नई पीढ़ी स्मृति को कैसे देखे?
युवा पीढ़ी उस दर्द की साक्षी नहीं,
पर उस भविष्य की निर्माता है जिसमें
वह दर्द दोबारा नहीं दोहराया जाना चाहिए।
सवाल यह नहीं कि हमने क्या खोया—
सवाल यह है कि अब हम क्या पा सकते हैं।
स्मृति हमें दो शिकवे देती है, पर तीन संकल्प भी देती है:
1. समझने का संकल्प
2. जोड़ने का संकल्प
3. सहयोग का संकल्प
भविष्य इन्हीं तीन संकल्पों से बनेगा—
अतीत की रोशनी में,
पर अतीत के बोझ तले नहीं।
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8. स्मृति का नया अर्थ: उपमहाद्वीप की नई आत्मा
आज स्मृति बदली नहीं है,
लेकिन उसकी भूमिका बदल सकती है—
• पहले स्मृति हमें बाँधती थी,
अब वही स्मृति हमें जोड़ सकती है।
• पहले स्मृति हमारे घाव थी,
अब वही स्मृति हमारा उपचार बन सकती है।
• पहले स्मृति बीता हुआ समय थी,
अब वही स्मृति हमारा भविष्य गढ़ सकती है।
स्मृति तभी बोझ बनती है,
जब हम उसे जीना बंद कर देते हैं।
पर स्मृति शक्ति बन जाती है,
जब हम उसे समझकर आगे बढ़ते हैं।
द्वीप का भविष्य तय करेगा।
विभाजन के बाद जब सीमाएँ खिंच गईं,
तो लगा जैसे एक तेज़ चीख अचानक ख़ामोशी में बदल गई हो।
लेकिन यह ख़ामोशी शांति नहीं थी—
यह वह सन्नाटा था
जो घरों की दीवारों में दर्ज़ कराहों की तरह ठहर गया था।
सीमा बन गई थी—
पर यादें बिना पासपोर्ट के दोनों ओर आती–जाती रहीं।
गाँव तो बदल गए,
पर दिलों के भीतर बसा अपना गाँव
किसी नक्शे का मोहताज नहीं था।
1. दो ओर बँटी एक ही धड़कन
सीमा के इधर बैठा कोई बुज़ुर्ग
जैसे ही दूर किसी ढोल की थाप सुनता,
तो कह उठता—
“अरे, हमारे उधर भी ऐसे ही ढोल बजते थे…”
उधर बैठी कोई बूढ़ी अम्मा
किसी त्यौहार की खुशबू को सूँघकर
बुदबुदा देती—
“हम्म… यह तो हमारे पंजाब जैसी खुशबू है।”
लोग नए देश में थे,
पर आदतें पुराने देश की थीं।
लहजा बदल गया था,
पर बोलचाल में पुरखों की मिट्टी घुली रहती थी।
वे लोग दो राष्ट्रों में बँट गए,
पर उनकी भावनाएँ कभी नहीं बँटीं।
2. लौटने की इच्छा और न लौट पाने का डर
बहुतों ने यह सपना देखा कि
“एक दिन हम अपने छोड़े हुए घर को फिर देखेंगे…”
पर हर सपना सीमा पर लगे काँटों में उलझकर टूट जाता था।
कई बार किसी माँ ने कहा—
“बस एक बार मेरी जन्म-गली दिखा दो…
फिर मैं मर भी जाऊँ तो कोई दुख नहीं।”
कई बार किसी बाबा ने सोचा—
“चलो, मरने से पहले अपनी ज़मीन को नमस्कार कर आऊँ…”
पर फिर डर आ घिरता—
क्या लौटना सच में लौटना होगा
या यादों की मौत देखना?
इसलिए लोगों ने अपने मन में ही
एक अदृश्य यात्रा बना ली—
जहाँ वे बिना टिकट
अपने खोए गाँव की तंग गलियों में
धीरे–धीरे घूम आते थे।
3. जिन घरों में लोग बदल गए, पर दीवारें नहीं
जो घर छोड़ दिए गए थे,
वे आज भी चुपचाप खड़े हैं—
नई पीढ़ियाँ उनमें हँसती–खेलती हैं,
पर उन दीवारों में कहीं
पुरानी आवाज़ें आज भी गूँजती हैं।
कौन जानता है, कि पाकिस्तान में किसी घर की कोठरी
आज भी किसी हिंदू लड़की के गाए भजन को याद रखती हो?
कौन जानता है
कि भारत में किसी आँगन की ईंटें
आज भी किसी मुस्लिम दादा की अज़ान जैसी ऊँची हँसी को सँजोए हों?
इंसान बदल गए,
पर दीवारें कभी नहीं भूलीं।
4. सन्नाटे का असली अर्थ
हर समाज युद्ध के बाद शांत होता है,
पर विभाजन के बाद
लोग शांत नहीं हुए—
वे बस बोलना बंद कर गए।
किताबें लिखी गईं,
पर निजी दर्द अत्यंत निजी ही बना रहा।
पीढ़ियाँ बीतती रहीं,
पर हर घर में कोई न कोई
एक अधूरी कहानी दबाकर जीता रहा—
• कोई बहन खो गई थी,
• कोई घर पीछे रह गया था,
• कोई दोस्त कभी मिला ही नहीं,
• और कोई पुरानी धुन कभी पूरी नहीं हुई।
सन्नाटा इसलिए था, क्योंकि कोई नहीं जानता था
कि अपनी पीड़ा किससे कहे।
5. सन्नाटा टूटने का पहला संकेत
जब नई पीढ़ी ने
पुरानी पीढ़ी से यह पूछना शुरू किया—
“दादी, आपका गाँव कैसा था?”
“अब्बा, जब आप यहाँ आए, तब क्या महसूस हुआ?”
तभी पहली बार सन्नाटा थोड़ा पिघला।
बुज़ुर्गों की आँखों में वह पुराना दर्द चमक उठा,
पर उसी के साथ एक हल्की-सी राहत भी—
कि शायद उनकी कहानी अब दबकर नहीं मरेगी।
यह छोटा-सा संवाद
एक बड़ी शुरुआत थी—
शायद उसी राह की जो भविष्य को बीते हुए की राख से मुक्त कर सकती है। जो खो गया, वह केवल जगह नहीं था विभाजन ने लोगों से केवल उनका देश नहीं छीना,
उसने उनके भीतर बसे उन अनकहे अनमोल टुकड़ों को भी तोड़ दिया
जो उनकी पहचान, उनकी संस्कृति, उनकी आत्मा का हिस्सा थे !
जो खो गया, वह सिर्फ़ एक घर नहीं था —
वह पूरा जीवन था, जिसे कोई नक्शा या सरकार कभी वापस नहीं दे सकती।
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1. खोए हुए घर की अदृश्य परछाईं
हर इंसान जिसने अपना घर छोड़ा,
अपने साथ घर की एक परछाईं लेकर आया।
वह परछाईं कभी दिखाई नहीं देती,
पर हर रात पलंग के कोने पर बैठी रहती है।
कभी किसी दादी के दबे हुए आँसू बनकर,
कभी किसी बुज़ुर्ग के गुमसुम होने में,
कभी किसी माँ के अचानक चुप हो जाने में,
और कभी किसी पिता के गहरे साँस छोड़ने में।
नए घर में रहते हुए भी पुराने घर की हवा सांसों में घुली रहती थी।
रसोई में मसालों की खुशबू बदल गई थी, पर पुराने घर की मिट्टी की खुशबू जीवनभर नहीं बदली।
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2. जो चीज़ें लोग साथ नहीं ला सके :
जब लोग भाग रहे थे, तो उनके पास वक़्त नहीं था कि क्या ले जाएँ और क्या छोड़ दें।
इसलिए पीछे छूट गई—
• दादी की पीतल की हँडिया
• बाबा की चौपाल पर रखी पुरानी हुक्का-चिलम
• वो चटाई जिस पर बच्चे खेला करते थे
• बगीचे की नीम के नीचे रखा लकड़ी का झूला
• दीवारों पर लिखे बच्चों के नाम
• और उन पर उकेरा हुआ पूरा बचपन
कितनी माताएँ अपनी बेटी का मायका यूँ ही पीछे छोड़ आईं,
कितने पिता अपने पिता की कब्र को
छू भी न सके।
कुछ चीज़ों की कीमत सिर्फ़ बाज़ार में नहीं होती,
कुछ चीज़ें दिल के सबसे नरम हिस्से में गुढ़ी रहती हैं।
और विभाजन ने उसी हिस्से को चीर दिया था।
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3. टूटी हुई सांस्कृतिक डोरें
पहले बाज़ार एक थे, पहले मेलों में भीड़ एक साथ जुटती थी, पहले गीत एकसाथ गाए जाते थे, पहले त्यौहारों की खुशियाँ सीमा नहीं देखती थीं। एक ही शहर में रहने वाले
हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई —
सबकी रोटियाँ एक-दूसरे के घरों में पकती थीं।
पर विभाजन ने सिर्फ़ लोगों को नहीं बाँटा —
उसने संस्कृति की वह बड़ी सी रस्सी काट दी
जिसे सब मिलकर थामे हुए थे।
मेले वैसे ही लगे, पर वहाँ जाने वाले लोग बदल गए। लोकगीत वैसे ही गूँजे, पर उनकी आवाज़ का दर्द बदल गया। त्यौहार वैसे ही आए, पर उनमें अधूरापन घुल गया। विभाजन ने यह सिखा दिया कि किसी संस्कृति को तोड़ना कभी केवल दीवारें गिराने से नहीं होता—
यह तब होता है जब दिलों के रास्ते बंद हो जाएँ।
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4. बिछड़े परिवार — जो आज भी अधूरे हैं विभाजन का एक सबसे गहरा घाव परिवारों का बिछड़ना था। कोई बहन पाकिस्तान में रह गई, भाई भारत में पहुँच गया। कोई माँ बच गई, बेटा कहीं रास्ते में खो गया। कोई पिता सरहद पार कर गया, बेटी अपने ही घर की देहरी पर छूट गई।
किसी माँ ने अपनी गोद में अपने बेटे का नाम आखिरी बार फुसफुसाया, किसी पति ने अपनी पत्नी का दुपट्टा मीलों तक हवा में उड़ते देखा और उसे पकड़ नहीं पाया।
ये बिछड़नें
इतिहास की किताबों में
सिर्फ़ आँकड़े बनकर रह गईं—
पर हर खोई हुई जान
किसी की दुनिया थी।
आज भी भारत और पाकिस्तान की सीमाओं पर
कई बूढ़े लोग
पत्र लिखते हैं,
नाम खोजते हैं,
और बीते सालों की धूल में
अपनों की कोई तस्वीर ढूँढते हैं।
वो तस्वीर
कभी मिलती नहीं—
पर उम्मीद आज भी जिन्दा है।
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5. खोई हुई पहचान — एक चुप्पा संघर्ष
जो लोग अपनी जन्मभूमि छोड़कर आए थे, वे नए स्थानों पर अजनबी बन गए। उनके नामों की ध्वनि बदल गई, बोली बदल गई, खाना-पीना बदल गया, रिवाज़ बदल गए। धीरे-धीरे लोग अपने ही घर में थोड़े असहज हो गए। कईयों ने अपना लहजा बदल लिया ताकि लोग उन्हें “बाहरी” न कहें। कुछ ने अपने खानदान के नाम छुटकारे की तरह उतार फेंके। कुछ ने पुराने गाने स्मृतियों में दबा दिए। विभाजन ने यह सिखाया कि विस्थापन केवल शरीर का नहीं होता— वह पहचान का भी होता है। कभी-कभी किसी दर्द का सबसे नग्न रूप यह होता है कि आपको अपने ही अतीत को छिपाना पड़े।
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6. प्यार — जो सीमाओं से भी बड़ा था
पर सब कुछ टूटा नहीं। कुछ चीज़ें इतनी मज़बूत थीं कि विभाजन भी उन्हें नहीं बाँट सका। किसी हिन्दू लड़के ने
सीमा के इस पार से पाकिस्तान में रह गई अपनी मुस्लिम दोस्त के लिए
एक गीत लिखकर रखा—जिसे वह कभी सुना नहीं पाई। किसी मुस्लिम लड़की के गले में एक सिख पड़ोसी द्वारा दिया गया तावीज़ आज भी लटका है—
जो उसके बचपन की आखिरी निशानी है।
किसी वृद्ध दंपत्ति ने अपने पुराने घर का नाम अपनी बेटियों में बाँट दिया—
ताकि घर भले खो गया हो, पर उसका निशान न खोए।
प्यार कभी किसी धर्म, राजनीति या सीमा का मोहताज नहीं रहा। वह वहीं रहता है जहाँ उसकी यादें बोई जाती हैं।
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7. खोने के बाद जो रह गया
विभाजन के बाद लोगों ने अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू की… पर यह नई शुरुआत पुराने अंत से कभी मुक्त नहीं हो सकी। कोई कितना ही आगे बढ़ जाए, उसके भीतर एक छोटा-सा कोना हमेशा खाली रहता है।वह कोना घर की दहलीज़ जैसा, माँ की पुकार जैसा, बचपन के गीत जैसा, और मिट्टी की खुशबू जैसा— जो अब केवल स्मृतियों में है। जो खो गया — वह जगह नहीं थी, वह जीवन था।लेकिन जो बच गया—वह मानव आत्मा की हिम्मत थी।और कभी-कभी यही हिम्मत एक पूरी सभ्यता को टूटने से बचा लेती है।
भारतीय सभ्यता की ऐतिहासिक सुंदरता
1. सिंधु घाटी की प्राचीन उज्ज्वलता :
भारत की ऐतिहासिक खूबसूरती की शुरुआत होती है सिंधु घाटी सभ्यता से—जहाँ नगर योजनाएँ, सुरक्षा व्यवस्था, स्वच्छता और कलात्मक कौशल अपने उत्कर्ष पर थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सड़कों की नियमितता, विशाल स्नानागार, भव्य सभागार और नाजुक मुहरें दुनिया को यह बताती हैं कि भारत विज्ञान और संस्कृति का केंद्र रहा है।
2. वैदिक युग का बौद्धिक वैभव
यह वह समय था जब:
ऋषियों ने वेद और उपनिषदों की रचना की।
धर्म, दर्शन, चिकित्सा, खगोल शास्त्र और गणित—सबका विकास हुआ।
मनुष्य को कर्म, धर्म और जीवन के उद्देश्य का मार्ग मिला।
3. मौर्य और गुप्त—भारत का स्वर्णकाल
चंद्रगुप्त मौर्य का शासन और उत्तर में सम्राट अशोक की करुणा-सिक्त नीतियाँ भारतीय इतिहास के अनुपम अध्याय हैं। उनके शिलालेख आज भी उनके विचारों की गूंज सुनाते हैं।
इसके बाद आता है गुप्तकाल, जिसे “भारत का स्वर्ण युग” कहा गया। इस युग में:
आर्यभट ने शून्य का सिद्धांत दिया वराहमिहिर ने खगोल और ज्योतिष में महान कार्य किए
कालिदास की साहित्यिक कृतियाँ अमर हो उठीं कला, विज्ञान, व्यापार और संस्कृति अपने उच्चतम शिखर पर थीं
4. मध्यकाल की स्थापत्य भव्यता
मध्यकाल में भारत ने:
खूबसूरत किलों विशाल मंदिरों, भव्य मस्जिदों, बेमिसाल महलों, अत्युत्कृष्ट बाग़ों का सौन्दर्य देखा।
कश्मीर का शंकराचार्य, राजस्थान के मेहरानगढ़ और कुम्भलगढ़ किले, दक्षिण के सूर्य-मंदिर और ब्रहदीश्वर मंदिर—ये सब भारत की स्थापत्य सुंदरता के जीवित प्रमाण हैं।
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भारत के वीरों और क्रांतिकारियों की अदम्य गाथाएँ
भारत का इतिहास वीरों की ललकारों और क्रांतिकारियों की देशप्रेम से भरी ज्वालाओं से चमकता है।
1. महाराणा प्रताप—स्वाभिमान की प्रतिमूर्तिl
हल्दीघाटी की धरती इस बात की साक्षी है कि प्रताप सिंह ने स्वाभिमान के लिए सबकुछ न्यौछावर कर दिया। उनका घोड़ा चित्तौड़ा चेतक भी इतिहास के अमर पात्रों में शामिल है।
2. शिवाजी महाराज—स्वराज के निर्माता
छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वराज का स्वप्न साकार किया। उनकी संगठनशक्ति, गुरिल्ला युद्धनीति और न्यायप्रियता आज भी प्रेरणा देती है।
3. झाँसी की रानी—अदम्य साहस की देवी
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों को दिखा दिया कि भारत की नारियाँ मात्र गृहिणी नहीं, बल्कि रणभूमि की रणचंडी भी हैं।
"मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी!"
यह वाक्य आज भी हर भारतीय को जोश से भर देता है।
4. 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम :
मंगल पांडे की गोली ने जो चिंगारी जगाई, वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली लौ बनी।
नाना साहेब, कुंवर सिंह, बेगम हज़रत महल, तांत्या टोपे—सभी ने अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती दी।
5. क्रांतिकारी आन्दोलन का ज्वालामुखी -
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भारत में अनेक क्रांतिकारी हुए जिनकी गाथाएँ असाधारण हैं:
भगत सिंह :
जवानी में ही उन्होंने देश के लिए हँसते-हँसते प्राण न्यौछावर कर दिए।
उनका कहना था—
"क्रांति की तलवार विचारों से तेज होती है।"
चन्द्रशेखर आज़ाद
वह अपने नाम की तरह स्वतंत्र थे। उन्होंने कहा—
"मैं आज़ाद हूँ और आज़ाद ही रहूँगा!"
और अंत तक आज़ादी नहीं छोड़ी।
सुभाष चन्द्र बोस :
"तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा!"
यह केवल नारा नहीं, बल्कि एक युग की पुकार थी। उनकी आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेज़ी शासन की नींद उड़ा दी।
6. अहिंसा के पुजारी—महात्मा गांधी
गांधीजी ने पूरी दुनिया को दिखाया कि सत्य और अहिंसा केवल शब्द नहीं, बल्कि शक्तियाँ हैं।
दांडी मार्च, भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग का मार्ग भारत की स्वतंत्रता की नींव बने।
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भारत की ऐतिहासिक खूबसूरती केवल स्मारकों में नहीं, बल्कि उसके विचारों, संस्कारों, संघर्षों और वीरों की गौरवगाथाओं में बसती है।
यह वह भूमि है जहाँ:
बुद्ध की करुणा है
अशोक की शिलालेख हैं
शिवाजी का स्वराज्य है
प्रताप का त्याग है
रानी लक्ष्मीबाई की तलवार है
भगत सिंह की क्रांति है
भारत केवल देश नहीं—एक जीवंत इतिहास, चिरंतन संस्कृति और अमर वीरता का प्रतीक है।
एक भारत—श्रेष्ठ भारत : इसकी अहमियत
1. संस्कृति का संगम
भारत की धरती पर आर्य, द्रविड़, मंगोल, यूनानी, शक, कुषाण, मुगल और कई अन्य जातियाँ आईं, पर भारत ने सबको आत्मसात कर लिया।
यह वह देश है जहाँ काशी की आरती भी है और अजमेर शरीफ की महक भी; मदुरै के मंदिर भी हैं और अमृतसर का स्वर्ण मंदिर भी; लद्दाख के बौद्ध स्तूप भी हैं और नागालैंड के जनजातीय नृत्य भी।
2. भाषाओं का मधुर विस्तार
भारत में 19,500 से अधिक बोलियाँ और लगभग 22 राजभाषाएँ हैं।
फिर भी एक भारतीय दूसरे भारतीय से सहजता से जुड़ जाता है।
क्योंकि हमारा हृदय एक है—भारतीयता।
3. भौगोलिक विविधता.
हिमालय की बर्फ़, राजस्थान के रेगिस्तान, गंगा की पवित्र धारा, पश्चिमी घाट के घने वन, सुंदरबन की जैव विविधता
गोवा और केरल के तट यह सब मिलकर भारत को प्राकृतिक सौंदर्य का मुकुट पहनाते हैं।
4. आध्यात्मिक धरोहर
भारत वह भूमि है जहाँ: बुद्ध का बोध महावीर का अहिंसा मार्ग गुरुनानक का प्रेम राम और कृष्ण की लीला शंकराचार्य का ज्ञान सब एक साथ मिलकर मानव जीवन को ऊँचाई देते हैं।
5. समरसता और सहअस्तित्व
भारत की असली खूबसूरती उसकी सहिष्णुता और सबको साथ लेकर चलने की भावना में है।
यही भावना ‘एक भारत–श्रेष्ठ भारत’ की आत्मा है।
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भारत–पाकिस्तान–बांग्लादेश: इतिहास, संस्कृति और सौंदर्य भले ही राजनीति ने भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को अलग देशों में बाँट दिया हो, लेकिन इन तीनों के दिलों में अब भी एक जैसी संस्कृति, संगीत, भाषा और परंपराओं की धड़कन आज भी सुनाई देती है।
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भारत की अनोखी सुंदरता
1. ऐतिहासिक धरोहरें
ताजमहल की कोमल चमक
लाल किले और कुतुब मीनार की भव्यता
दक्षिण के विशाल द्रविड़ मंदिर
कोणार्क का सूर्य मंदिर
ये सब भारत की महानता का संगीत हैं।
2. उत्सवों का रंग
भारत में हर महीने कोई न कोई त्योहार है—होली, दिवाली, ईद, गुरुपर्व, पोंगल, बिहू, ओणम, नवरात्रि।
इस विविधता में भी खुशियों की नदियाँ एक ही समुद्र में जाकर मिलती हैं—मानवता के समुद्र में।
3. खानपान का स्वाद
भारत का भोजन केवल भोजन नहीं, भावनाओं का उत्सव है। उत्तर का पराँठा, दक्षिण की इडली, पश्चिम की ढोकला-थाली, पूर्व का रसगुल्ला—ये सब भारत की स्वादिष्ट तस्वीर बनाते हैं।
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पाकिस्तान की सांस्कृतिक और प्राकृतिक खूबसूरती
हालाँकि राजनीतिक मतभेद हैं, पर पाकिस्तान की भूमि भी कला, संगीत और संस्कृति से भरी है।
1. ऐतिहासिक स्थान
मोहनजोदड़ो और तक्षशिला
बादशाही मस्जिद
लाहौर किला
ये सब भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासत हैं।
2. प्राकृतिक सौंदर्य नंदी पर्वत की घाटियाँ स्कर्दू की बर्फ़ीली चोटियाँ सैफ-उल-मलूक झील का स्वर्गिक सौंदर्य ये क्षेत्र दुनिया के सबसे खूबसूरत स्थानों में गिने जाते हैं।
3. कला और संगीत
पाकिस्तान में कव्वाली, सूफी संगीत और शायरी की गहरी परंपराएँ हैं।
इक़बाल, फैज़, नुसरत—ये सब भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एकता के प्रतीक हैं
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बांग्लादेश की सांस्कृतिक गरिमा और प्राकृतिक सुंदरता
बांग्लादेश एक ऐसा देश है जहाँ प्रकृति हर पल नई रंगत बिखेरती है।
1. प्राकृतिक आश्चर्य
सुंदरबन के मैंग्रोव वन कॉक्स बाज़ार का लम्बा समुद्र तट चिटगाँग की पर्वत श्रृंखलाएँ ये सब प्रकृति की अनुपम देन हैं।
2. साहित्य और गीत
बांग्लादेश की संस्कृति पर रविन्द्रनाथ टैगोर, kazi nazrul islam और लोकगीतों की गहरी छाप है।
3. भाषा की अद्भुत यात्रा
बांग्ला भाषा की मधुरता और साहित्य की समृद्धि बांग्लादेश की ज्ञानपरंपरा को विशेष सम्मान देती है।
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इन तीनों देशों की साझा विरासत
भले ही आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश राजनीतिक रूप से अलग-अलग हों, लेकिन:हमारा खाना, हमारा संगीत, हमारा पहनावा, हमारे त्योहार, कहानियाँ हमारी बोलिया हमारा इतिहास
सब एक ही सांस्कृतिक वृक्ष की शाखाएँ हैं।
हमारी संस्कृति हमें जोड़ती है, हमारी मिट्टी में एक सी खुशबू है, और हमारे दिलों में एक सी मानवता है।
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निष्कर्ष —
एकता, शांति और प्रगति का संदेश
भारत की ऐतिहासिक खूबसूरती, समृद्ध संस्कृति और वीर गाथाएँ हमें गर्व देती हैं।
साथ ही, पाकिस्तान और बांग्लादेश की खूबसूरती हमें यह याद दिलाती है कि सीमाएँ भले बदल जाएँ, पर हृदय में बसे संस्कार, संस्कृति और मानवता कभी नहीं बदलती। एक भारत–श्रेष्ठ भारत केवल नारा नहीं
बल्कि यह भविष्य का संकल्प है—
जहाँ हर भारतीय, हर भाषा, हर परंपरा और हर संस्कृति सम्मानित हो। भारतीय उपमहाद्वीप का सांस्कृतिक ब्रह्मांड : परंपरा, कला, साहित्य और मानवीय मूल्यों का संगम
भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास केवल युद्धों या राजाओं का इतिहास नहीं, बल्कि यह मनुष्यों के हृदय, भावनाओं और संस्कारों का इतिहास है। यह वह भूभाग है जिसने सहस्राब्दियों से ज्ञान, सामंजस्य और सह-अस्तित्व की धारा को निरंतर बहाया है।
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश—तीनों मिलकर एक ऐसे सांस्कृतिक लोक की रचना करते हैं, जिसमें संगीत रस बरसाता है, साहित्य जीवन को दिशा देता है और कला मनुष्य की आत्मा को प्रकाशित करती है।
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भारतीय उपमहाद्वीप की कला और सांस्कृतिक महिमा
1. नृत्य और संगीत का अनंत वैभव
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश—तीनों ही देशों के सांस्कृतिक मूल में संगीत और नृत्य का दिव्य संयोग है।
भारत में भरतनाट्यम, कथकली, ओडिसी, कुचिपुड़ी, मणिपुरी और कथक जैसी नृत्य शैलियाँ हैं, जो भाव, राग और ताल की त्रिवेणी हैं।
पाकिस्तान का सूफियाना संगीत, कव्वाली और ग़ज़ल का मधुर प्रवाह हो या बांग्लादेश का बाउल संगीत—हर जगह आत्मा को छू लेने वाली कला सुनाई देती है।
2. चित्रकला और स्थापत्य की चमक
भारत के अजंता-एलोरा की गुफाएँ
राजस्थान की शिल्पकला
दक्षिण भारतीय मंदिरों का नक्काशी सौंदर्य
पाकिस्तान में बादशाही मस्जिद और शाहजहाँ मस्जिद
बांग्लादेश के लालबाग किले और पुराने धाकेश्वरी मंदिर
ये सब तस्दीक करते हैं कि उपमहाद्वीप संसार का सांस्कृतिक खजाना है।
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साहित्य की गंगा–जमुनी परंपरा
3. साहित्य—हमारी आत्मा की आवाज़
भारत के तुलसी, कबीर, सूर, प्रेमचंद, निराला, शिवानी
पाकिस्तान के इक़बाल, फैज़, मंज़ूर एहतेशाम
बांग्लादेश के टैगोर, नज़्रूल, जिब्रान, जानानन्द
ये सब एक ही सांस्कृतिक नदी के किनारे खड़े युग-पुरुष हैं।
उनके शब्द इंसान को बांधते नहीं—बल्कि जोड़ते हैं, जगाते हैं, और मानवता की राह दिखाते हैं।
4. भाषा—जिससे हम सभी जुड़े हैं
हमारी कई भाषाएँ अलग-अलग हैं, पर उनके स्वर समान हैं।
हिंदी और उर्दू
बंगला और संस्कृत
पंजाबी और सिंधी
सब एक ही स्रोत से निकली जीवनधाराएँ हैं
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सामान्य जीवन, मेहनत और मिट्टी की महक
उपमहाद्वीप की असली सुंदरता उसके किसानों, मजदूरों, नाविकों, बुनकरों, लोहारों और कलाकारों में है। गंगा किनारे की हलचल हो या सिंधु नदी की पुरानी धड़कन, ब्रह्मपुत्र की विशाल लहरें हों या सतलुज के किनारे बजता ढोल—हर जगह मेहनत और आशा की कहानियाँ बहती हैं।
इस धरती पर गाँव गाँव में बसती है—
चूल्हे की चटख ध्वनि,
लोकगीतों का मधुर स्वर,
खेतों की लहराती हरियाली,
और त्योहारों की उजली आभा।
ये तीनों देश एक-दूसरे के दुःख–सुख, जल–वायु, फसल–त्योहार और परंपराओं के सहयात्री रहे हैं।
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एकता की आवश्यकता : शांति, प्रगति और भाईचारे की ओर आज के समय में विश्व परिवर्तनशील है।
ऐसे में भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एकता, सहयोग और सामंजस्य सबसे आवश्यक है।
1. आर्थिक और सामाजिक शक्ति
यदि ये तीनों देश शिक्षा, विज्ञान, कृषि, व्यापार और स्वास्थ्य में सहयोग करें, तो यह क्षेत्र संसार में एक सबसे बड़ी शक्ति बन सकता है।
2. सांस्कृतिक संबंधों का पुनर्जागरण
कला, साहित्य, खेल, संगीत और शिक्षा के माध्यम से तीनों देशों के बीच संवाद बढ़े—तो उपमहाद्वीप में विश्वास, सौहार्द और मित्रता की नई सुबह आएगी।
3. युवा पीढ़ी की भूमिका
नया भारत, नया पाकिस्तान और नया बांग्लादेश—तीनों का भविष्य युवा पीढ़ी की सोच पर निर्भर है।
युवा यदि कटुता छोड़कर सहयोग की राह पर चलें, तो उपमहाद्वीप एक बार फिर ज्ञान और शांति का केंद्र बन सकता है।
—
अंतिम भाव—एकता में ही श्रेष्ठता
भारत कहना, पाकिस्तान कहना, बांग्लादेश कहना—ये तीन नाम हैं, पर इनका हृदय एक साझा संस्कृति, साझा इतिहास और साझा मानवता से बंधा है।
एक भारत—श्रेष्ठ भारत का अर्थ केवल भारत की मजबूती नहीं, बल्कि यह विचार भी है कि पूरी मानवता में एकता, शांति और प्रेम का प्रकाश फैले। जब हम एक-दूसरे की संस्कृति को समझते हैं, सम्मान देते हैं और अपनाते हैं, तब उपमहाद्वीप एक विशाल परिवार बन जाता है—
जहाँ घृणा की जगह प्रेम,और अंधकार की जगह प्रकाश खिल उठता है।
अध्याय का समापन : एकता, शांति और मानवता का संदेश भारतीय उपमहाद्वीप की यह यात्रा—भारत की ऐतिहासिक भव्यता से शुरू होकर, उसके वीरों के स्वाभिमान, संस्कृति की दिव्यता, प्रकृति की मनोहरता और तीनों देशों की साझा विरासत तक पहुँचते हुए—अंततः हमें एक ही सत्य का दर्शन कराती है:
मानवता ही सर्वोच्च शक्ति है।
हमारी सभ्यता हजारों वर्षों तक इसलिए जीवित रही क्योंकि हमने प्रेम में विश्वास किया, विविधता को अपनाया, और जीवन को सौंदर्य, सत्य एवं करुणा की दृष्टि से देखा।
भारत की आत्मा अपने भीतर यह संदेश सहेजे बैठी है कि—
> “जहाँ प्रेम है, वहाँ ईश्वर है;
जहाँ एकता है, वहाँ समृद्धि है;
जहाँ सद्भाव है, वहाँ श्रेष्ठता है।”
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच सांस्कृतिक धड़कनें आज भी एक समान हैं।
भाषाएँ अलग हो सकती हैं, सीमाएँ बदल सकती हैं, पर मनुष्य का दिल—उसकी भावनाएँ—अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलता। हम सब एक ही इतिहास से निकले हैं, एक ही मिट्टी से बने हैं, और एक ही आकाश के नीचे साँस लेते हैं।
इस अध्याय के अंत में यही स्मरण रहे—
जब हम अतीत की भव्यता को समझते हैं,
वर्तमान की सच्चाइयों को स्वीकारते हैं
और भविष्य की शांति की राह पर आगे बढ़ते हैं,
तभी उपमहाद्वीप का वास्तविक प्रकाश प्रकट होता है।
एक भारत—श्रेष्ठ भारत केवल एक संकल्प नहीं,
बल्कि यह एक युग-चिंतन है—
जिसमें प्रेम, सौहार्द, संस्कृति और प्रगति का संयुक्त स्वप्न समाया है। इसी संदेश के साथ यह अध्याय पूर्ण होता है। आपकी पुस्तक के अगले पृष्ठ पर एक नई यात्रा, एक नया विचार और एक नई आशा आपका स्वागत करेगी।
---अध्याय समाप्त
समर्पण पृष्ठ
(Dedication Page)
समर्पित
इस पुस्तक को मैं समर्पित करता हूँ—
मैंने (शौकत अली खान) सभी वीरों, संतों, कवियों, क्रांतिकारियों और साधारण मनुष्यों को,
जिन्होंने अपनी निस्वार्थ तपस्या, संघर्ष और प्रेम से
भारतवर्ष और सम्पूर्ण उपमहाद्वीप की आत्मा को
अमिट उजास से प्रकाशित किया।
समर्पित—
उस माँ भारती को, जिसकी पवित्र मिट्टी में अनगिनत सभ्यताओं का इतिहास,संस्कृति का सुगंधित संदेश,
और मानवता का अविनाशी प्रकाश धड़कता है।
समर्पित—उन माताओं की आँखों के आँसुओं को,
जो अपने पुत्रों को राष्ट्र के लिए बलिदान होते देख कर
गर्व और पीड़ा के अद्भुत संगम को सहती रहीं। समर्पित—उस नई पीढ़ी को, जो एकता, शांति, ज्ञान और प्रेम के मार्ग पर आगे बढ़कर उपमहाद्वीप के भविष्य को उज्ज्वल करेगी।और सबसे बढ़कर—समर्पित उन सभी पाठकों को जो इस पुस्तक को पढ़कर अपने हृदय में भारत की आत्मा का स्पंदन महसूस करेंगे,और मानवता, भाईचारे तथा एकता के पथ को अपनाएँगे।
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शौकत अली ख़ान
“यदि इस पुस्तक में कहीं भी त्रुटि, असावधानी या विचारों में कोई कमी रह गई हो, तो मैं अपने प्रिय पाठकों से विनम्रतापूर्वक क्षमा प्रार्थी हूँ। आपका स्नेह, आपकी सुधियाँ और आपके सुझाव ही मेरी लेखनी को सार्थक बनाते हैं।”
धन्यवाद