जब सृष्टि के आदिकाल में ऋषियों ने वेदों का प्रथम निनाद सुना, तभी यह भी घोषित हुआ कि धर्म ही विश्व की धुरी है। युगों के प्रवाह में जब सत्य दुर्बल हुआ और अधर्म ने अपना विष फैलाना आरम्भ किया, तब आरम्भ हुई वह कथा, जिसे मानव इतिहास महाभारत नाम से जानता है। यह एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें देव, दानव, ऋषि, योद्धा, श्राप, वरदान, कूटनीति, मैत्री, विश्वासघात, प्रेम, पराक्रम और अंततः धर्म का अंतिम निर्णय समाहित है। यह वही गाथा है जिसमें भीष्म की अचल प्रतिज्ञा है, गांधारी का शाप है, द्रौपदी की अग्नि-घोषणा है, कर्ण की दानशीलता है, अर्जुन का संदेह और कृष्ण का गीता-उपदेश है। यही वह युद्ध है जहाँ भ्रातृ वैर ने वंशों को जला दिया, जहाँ वनवास ने पांडवों को तपाया, जहाँ चक्रव्यूह ने अभिमन्यु का भविष्य छीन लिया और जहाँ कर्तव्य ने कृष्ण को स्वयं सारथी बनकर धर्मरथ हांकने पर विवश किया। कुरुक्षेत्र केवल भूमि का युद्ध नहीं था, यह मानव मन का शाश्वत संघर्ष था। सत्य बनाम असत्य, संयम बनाम लोभ, कर्तव्य बनाम मोह। वह महागाथा आज भी यही कहती है कि जिस क्षण मनुष्य अपने भीतर के अंधकार से लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है, वहीं से धर्मयुद्ध का आरंभ होता है।
अध्याय 1 - गंगा पुत्र देवव्रत का जन्म
“धर्मो विजयते नित्यं, नाधर्मो विजयी भवेत्। लोभ, क्रोध, मद, मत्सर, रूपाः शत्रवोऽन्तरशत्रवः। भ्रातॄणां कलहः शोकं, मित्रद्रोहः कुलक्षयम्। अहंकारो हि विनाशाय, सत्यं सौहार्दमेव जीवनम्। कर्मभूमौ मनुष्येन्द्रैः, धर्ममार्गः सदा वरणीयः। कुरुक्षेत्रे यथा युद्धं, मनःक्षेत्रे तथा सदा। यत्र संयमा, क्षमा प्रज्ञा, तत्रैव जय उदीयते।”
अर्थात; धर्म ही सदैव विजय देता है, अधर्म कभी विजयी नहीं होता। लोभ, क्रोध, घमंड और ईर्ष्या जैसे शत्रु मन के भीतर छिपे वास्तविक दानव हैं। भाइयों का कलह और मिथ्या द्वेष पूरे कुल को नष्ट कर देता है।
अहंकार विनाश का मार्ग है, जबकि सत्य, प्रेम और सौहार्द ही वास्तविक जीवन हैं।
मनुष्य के जीवन रूपी रणभूमि में सदैव धर्म का मार्ग चुनना चाहिए। जैसा कुरुक्षेत्र में बाहरी युद्ध हुआ था, वैसा ही हर क्षण भीतर मन में युद्ध चलता है। जहाँ संयम, क्षमा और प्रज्ञा होती है वहीं सच्ची विजय उदित होती है।
इस समय एक नदी के शांत जल पर मंथर लहरें उठ रही थी, जैसे किसी अनदेखे समय की स्मृतियाँ सतह पर आकर फिर विलीन हो जाती हो। सन्ध्या की लालिमा धीरे धीरे नीली छाया में बदल रही थी, और हस्तिनापुर के तट पर खड़े राजा शांतनु ने गहराई से सांस ली।
यह तट उनके लिए केवल नदी का किनारा नहीं था, बल्कि यह उन प्रश्नों का जन्मस्थान था जिनके उत्तर आने वाले युगों की दिशा तय करने वाले थे।
तभी अचानक एक ठंडी हवा के झोंके ने उन्हें हल्का सा चौंका दिया। आसपास का वातावरण काफी अजीब होने लगा और उस नदी में ढेर सारी लहरें उठने लगी। यह सब होते देख शांतनु आँखें सिकोड़ते हुए तट की ओर देखकर पूछने लगे, “कौन… कौन है वहाँ?”
मगर उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। वातावरण जब और भी अधिक अजीब होने लगा, तब अगले ही क्षण उस नदी का जल जैसे थरथरा उठा।
जिस बीच तरंगों के मध्य से एक स्त्री प्रकट हुई, जो अलौकिक, शांत, परंतु विचित्र रूप से उदास लग रही थी। उसके चरण जैसे जल पर नहीं, समय पर पड़ रहे थे।
उसे देखते ही शांतनु अपनी जगह पर ही जम गया। फिर खुद को मुश्किल से संभालते हुए उन्होंने विस्मय से आगे बढ़कर पूछा, “देवी, आप कौन है?”
ये सुनकर वो स्त्री बस मुस्कुरा दी, जिसकी मुस्कान सौम्य भी थी और अनन्त भी। उसने धीरे से सिर झुकाया और कहा, “राजन, मैं गंगा हूँ, धरती और स्वर्ग की संधि सूत्र।”
ये जान कर एक पल को शांतनु निशब्द रह गया। उसके हृदय में मानो किसी अदृश्य शक्ति ने तरंगों की तरह विस्तार कर दिया हो। उसका मन विचलित भी हुआ और आकृष्ट भी।
थोड़ी हिचक के साथ शांतनु बोले, “देवी गंगा! आपका यह रूप… यह उपस्थिति… ना जाने क्यों मेरे मन को बाँध रही है।”
गंगा ने उन्हें केवल देखा, मानो उनकी आत्मा को पढ़ रही हों।
फिर धीरे से बोली, “राजन, यदि आपका मन कहे कि इस संगम में सत्य है, तो मुझे एक वचन दीजिए।”
शांतनु की भौंहें तन गईं।
उन्होंने कुछ असमंजस के साथ पूछा “कैसा वचन देवी?”
तभी गंगा ने तट पर कदम रखा। जल उसके पीछे पथ की तरह खुलता गया। गंगा की आँखों में अनोखी दीप्ति थी, वो बोली, “यदि आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकारना चाहें, तो शर्त यह है कि आप कभी भी मुझ पर प्रश्न नहीं करेंगे, मेरे किसी भी कर्म का कारण नहीं पूछेंगे और मेरी इच्छा के मार्ग में बाधा भी नहीं बनेंगे। कहिए, क्या यह शर्त आपको स्वीकार है?”
ये सुनकर शांतनु का मन डोल उठा। उनके भीतर राजा भी था, मनुष्य भी। लेकिन उस क्षण वे केवल एक पुरुष थे, एक ऐसे सौंदर्य और शक्ति के सम्मुख, जो मानवीय नहीं था।
वे शांत स्वर में बोले, “यदि यही आपकी इच्छा है… तो मैं वचन देता हूँ।”
ये जान कर गंगा ने उनके चरण स्पर्श किए, मगर उस स्पर्श में एक कंपन था, जिसमें भविष्य और भाग्य का परिवर्तन झलक रहा था।
इसके बाद दिन बीतते गए। गंगा उनके महल में आईं, परंतु महल गंगा के लिए बना ही नहीं था, इसलिए वो अधिक समय नदी के तटों पर, वृक्षों की छाया में, और हवा की नमी में बिताती थी। शांतनु भी उनके साथ थे, और उनके जीवन में पहले कभी न महसूस हुई शांति उतर रही थी।
कुछ महीनों बाद गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिससे महल में उत्साह छा गया, पर शांतनु का हृदय धड़कने लगा क्योंकि गंगा ने उस बालक को अपनी बाहों में लेकर शांत भाव से पूछा, “राजन, वचन स्मरण है न?”
शांतनु ने सिर हिलाया, पर मन में बेचैनी उमड़ आई।
वे कुछ कह पाते उससे पहले ही गंगा उस बालक को लेकर नदी की ओर बढ़ीं।
शांतनु घबराकर कदम बढ़ाते हुए बोले, “देवी गंगा! रुकिए... यह क्या करने जा रही हैं आप?”
लेकिन गंगा ने पलटकर नहीं देखा। अगले ही क्षण उसने उस बालक को नदी में प्रवाहित कर दिया।
ये देखते ही शांतनु की देह जम गई। वह चीखना चाहते थे, पर वचन का बंधन उनकी आत्मा को जकड़े हुए था।
बाद में वो नदी फिर शांत हो गई मानो कुछ हुआ ही न हो।
उस रात शांतनु सो नहीं सके। उनके मन में तूफान मचा था, राजधर्म, पितृधर्म और वचन के बीच का वह संघर्ष, जिसने उनकी आत्मा को दो भागों में बाँट दिया था।
समय ऐसे ही बीतता रहा। एक दिन फिर गंगा पुत्र लाई मगर इस बार एक नहीं 6 पुत्र थे।
उन 6 पुत्रों को उसी शांति, उसी निष्ठुर कृपा और उसी अविचल भाव से गंगा ने उन्हें नदी में समर्पित कर दिया।
इससे शांतनु अंदर से पूरी तरह टूट गए, पर वचन बाँध था, जो टूट नहीं सकता था।
एक रात, जब अंधकार नदी पर गिरा था और चंद्रमा धुंध से घिरा था, तब शांतनु तट पर खड़े थे।
उनकी मुट्ठियाँ कसी थी, वे बोले, “आखिर और कितना…? मैं एक राजा हूँ, परंतु अपने ही पुत्रों का पिता तक नहीं बन पा रहा… देवी गंगा, यह धर्म है या अधर्म…?”
मगर उनके शब्द हवा में ही रह गए। वे कुछ और कहते उससे पहले ही गंगा उनके पीछे प्रकट हुईं, जैसे धुंध ही उसका रूप हो।
गंगा शांत, पर भीतर तूफान लिए बोली, “राजन… आपकी पीड़ा मुझे पता है। परंतु अभी समय नहीं है कि मैं सत्य उजागर करूँ।”
शांतनु ने पहली बार उसकी आँखों में प्रश्नों का महासागर लेकर देखा।
उन्होंने कंपित स्वर में कहा “देवी गंगा… मैं अब और नहीं सह सकता। यदि यह पुत्र भी नदी में गया… तो मैं अपने वचन को भंग कर दूँगा।”
ये सुन कर गंगा ने गहरी साँस ली। उसकी आँखें पहली बार नम दिखी मानो सात जन्मों का भार उनमें हो।
फिर धीरे से बोली, “तो अब समय आ गया है… इस आठवें पुत्र के साथ सत्य भी जन्म लेगा।”
शांतनु चौंक उठे। गंगा ने नवजात को उनकी बाँहों में रख दिया।
सौम्य पर गंभीर स्वर में कहा, “यह देवव्रत है वह बालक जिसे जगत भीष्म के रूप में जानेगा। इस बालक के माध्यम से धर्म का सबसे बड़ा युद्ध अपने पथ पर बढ़ेगा।”
उस नवजात शिशु को देख कर शांतनु के भीतर जैसे सैकड़ों दीपक जल उठे।
वे सत्य, भविष्य और नियति के संगम पर खड़े थे और उन्हें पता भी नहीं था कि यह आठवाँ पुत्र आगे चलकर युगों का इतिहास बदल देगा।
गंगा ने धीरे से कहा, “अब मैं जा रही हूँ, राजन… पर यह पुत्र आपके साथ रहेगा लेकिन अभी नहीं। और जब समय आएगा, तब आप समझेंगे कि धर्म क्यों सहता है, और क्यों जलता है।”
ये कहने के बाद, गंगा ने उस बच्चे को अपनी बाहों में लिया और जल ने उन्हें पुनः अपने भीतर समाहित कर लिया। जिसके बाद अब शांतनु अकेले रह गए।
गंगा के जल की अंतिम झिलमिलाहट क्षितिज के पार विलीन होते ही समूचा वातावरण शांत हो गया पर वह शांति ऐसी थी, जो दिल के भीतर तूफ़ान पैदा कर दे।
राजा शांतनु बहुत देर तक वहीं खड़े रहे उस तट पर, जहाँ कुछ क्षण पहले गंगा ही नहीं, उनका हृदय भी उनसे दूर चला गया था। हवा स्थिर थी, पर उनके भीतर एक अजीब बिखराव दौड़ रहा था जैसे समय ने उन्हें अचानक खाली कर दिया हो।
थोड़ी देर बाद उन्होंने धीरे धीरे कदम बढ़ाए। उनके कदमों के नीचे गीली मिट्टी दबी, पर मन के भीतर उमड़ा दर्द नहीं दबा। वे नदी के किनारे की ओर झुके, अपनी हथेली में वह स्थान समेटते हुए जहाँ गंगा अपने पुत्रों को जल में समाती रही थी। शांतनु के मुख से कोई आवाज़ नहीं निकली, बस सांसें भारी हो गईं।
वहीं, हस्तिनापुर का राजमार्ग शांत था। महाराज शांतनु के चेहरे पर थकान नहीं, बल्कि मौन का बोझ था। महल के द्वार पर पहुँचते ही द्वारपालों ने झुककर उनके आगे प्रणाम किया, पर राजा की दृष्टि किसी पर नहीं पड़ी।
राजमहल के भीतर प्रवेश करते ही सभागार के परिचारक उनके पास आए।
एक परिचारक झिझकते हुए बोले, "महाराज… देवी गंगा..."
तभी शांतनु ने झट से हाथ उठाकर संकेत दिया कि आगे न बोलें। उनकी आँखों में वह पीड़ा थी, जिसने शब्दों को अनावश्यक बना दिया था।
वे धीरे धीरे अपने कक्ष की ओर बढ़े। दीवारों पर लगी चित्रावलियाँ, दीपों की हल्की रोशनी, धूप और चंदन की सुगंध सब पहले जैसा था, पर आज सब कुछ बदला हुआ लग रहा था।
कक्ष में पहुँचकर वे सिंहासन पर नहीं बैठे, बल्कि खिड़की के पास आकर खड़े हो गए। गंगा की दिशा में देखते हुए वे स्वयं से बोले, "हे देवी गंगा… मेरे एकमात्र आश्रय, तुमने ऐसा क्यों किया?"
उनकी आवाज़ खिड़की की चौखट से टकराकर लौट आई, पर उत्तर कोई नहीं मिला।
कुछ क्षण बाद, जब शांतनु के भीतर का तूफ़ान थोड़ा थमा, वे उस अंतिम पुत्र को याद करने लगे। वह नवजात जिसे गंगा अपने साथ ले गई, पर डुबोया नहीं।
उनकी भौंहें सिकुड़ गईं। वह दृश्य उनके मन में फिर से जीवित हो उठा। गंगा का ठहर जाना, नवजात की मधुर रोदन, उस समय उसका शरीर प्रकाश में चमक रहा था जैसे वह साधारण मानव नहीं था।
शांतनु याद करने लगे गंगा के गंभीर स्वर को, उसने कहा था, “यह महापुरुष है, एक दिन लौटेगा… तुम्हारे वंश का दीप्ति बनकर।”
ये याद करके शांतनु के हाथ फड़क उठे जैसे किसी ने ये अभी अभी ही कहा हो।
वे तुरंत चलते हुए केंद्रीय आँगन में पहुँचे। वहाँ विद्वान, राजपुरोहित और मंत्री मौजूद थे। सभी ने राजा की अवस्था को पहचानते हुए सावधानी से उन्हें प्रणाम किया।
इतने में राजपुरोहित सोमदेव आगे बढ़े। वे गंभीर, पर विनम्र स्वर में बोले, "महाराज, क्या देवी गंगा कुछ कह गईं? क्या कोई संकेत…?"
ये सुनकर शांतनु ने गहरी सांस ली। फिर उनकी आँखों में पहली बार हल्का तेज़ उभरा।
वे बोले, "हाँ… देवी गंगा ने कहा, वह लौटेगा। मेरे द्वारा जन्मा पुत्र। उन्होंने उसे अपने साथ इसलिए लिया क्योंकि उसका भविष्य साधारण नहीं होगा।"
ये जान कर सभी विद्वान एक दूसरे की तरफ देखने लगे। किसी की आँखों में आश्चर्य, किसी में श्रद्धा भरी थी।
सोमदेव ने धीमे स्वर में कहा, "निश्चित ही वह दिव्यव्रती होगा, महापुरुष… किंतु वह कब लौटेगा?"
राजा शांतनु के चेहरे पर क्षणभर का मौन फैल गया। क्योंकि इसका जवाब तो खुद उनके पास भी नहीं था।
फिर भी वे बोले, "हह, देवी गंगा ने समय नहीं बताया हैं। परंतु… मैं प्रतीक्षा करूँगा।"
इस समय महारानी की अनुपस्थिति महल के हर कोने में महसूस की जाने लगी। राजमाताएँ, दासियाँ, परिचारिकाएँ। सब एक दूसरे से धीमे धीमे बातें कर रहें थे।
राजमहल की एक वृद्ध दासी देवीचित्रा, जो बचपन से शांतनु को जानती थी, धीरे धीरे राजा के पास आई। फिर गहरी करुणा से बोली, "राजन… देवी गंगा का वियोग सहना कठिन है। परंतु धैर्य रखिए। देवियाँ यूँ ही नहीं जाती। जो भी हुआ है, किसी बड़े कारण से हुआ है।"
राजा ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में माँ के जैसी चिंता थी और उसी से एक हल्की शांति राजा के भीतर उतरी।
इसके बाद शांतनु अकेले थे, रात लंबी थी। दीयों की लौ झिलमिला रही थी। शांतनु अपने कक्ष में बैठे थे। सामने गंगा से प्राप्त दिव्य आभूषण पड़े थे, वो उपहार जो उन्होंने विवाह के समय दिया था।
वे एक एक आभूषण को हाथ में लेकर निहारते, जैसे उसमें गंगा की मुस्कान अभी भी छिपी हो।
उनकी बंद पलकों में वह दृश्य चमक उठा, जब गंगा का जलरूप से मानव रूप में बदलना, उनका सौम्य स्वर, उनकी नीली आँखें, और अंतिम क्षण में वह अद्भुत तेजस्विता…
शांतनु के गाल भीग उठे पर उन्होंने आँसू पोंछे नहीं जैसे अब उन्हें बह जाने देना ही चाहिए था।
अचानक उन्होंने एक निर्णय लिया। वे खड़े हुए, अपने कक्ष से बाहर निकले और राजमहल के ऊपर वाले विशाल प्रांगण में पहुँचे जहाँ से दूर तक जंगल और नदी का मार्ग दिखता था।
शांतनु आकाश की ओर देखते हुए बोले, "देवी गंगा… जब तक तुम लौटकर न आओ, मैं तुम्हारी स्मृति में अपने जीवन का हर पल धारण करूँगा। और हमारे पुत्र की प्रतीक्षा करूँगा।"
उनकी आवाज़ रात की निस्तब्धता में गूँज उठी।
उसी रात भाग्य की पहली हलचल हुई रात के अंतिम पहर में, दूर उत्तर दिशा के पहाड़ों में तेज़ प्रकाश फैला। वह प्रकाश किसी साधारण घटना का संकेत नहीं था।
हिमालय की ऊँचाइयों पर खड़े एक दिव्य ऋषि वशिष्ठ ने उस प्रकाश को देखा और अपनी आँखें बंद कर दी।
वशिष्ठ ने कुछ समय तक कुछ समझने के ऊपर ध्यान केंद्रित किया फिर आंखें खोलकर गंभीर स्वर में बोले, "समय का चक्र घूम रहा है। एक अत्यंत दिव्य घटना के घटने का मार्ग आरंभ हो चुका है।"
उनकी इस बात से हवा में अग्नि की गर्माहट सी फैल गई और वातावरण एकदम शांत हो गया।