Nakal se Kahi Kranti nahi Hui - 2 in Hindi Biography by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | नकल से कहीं क्रान्ति नहीं हुई - 2

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नकल से कहीं क्रान्ति नहीं हुई - 2

जीतेशकान्त पाण्डेय- आप बचपन की तीन महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र करते रहे हैं। वह घटनाएं कौन सी थी?

डॉ0 सूर्यपाल सिंह- पहली घटना माँ के देहान्त की है। 1943 में जब उनका देहान्त हुआ तब मैं पाँच वर्ष का था। मेरी माँ बहुत शक्तिशाली थी। उनका शरीर गठा और लंबा था। वे भरी हुई बैलगाड़ी का पहिया हाथ लगाकर आगे कर देती थी। विवाह के चार-पाँच साल बाद तक कोई संतान न होने पर उन्हें प्रताड़ना भी सहनी पड़ी होगी। महावीर बापी ने उन्हें सूर्य का व्रत रखने की सलाह दी। उन्होंने पूरी निष्ठा से वर्ष भर सूर्य-व्रत का निर्वाह किया। उसके बाद मेरा जन्म हुआ, मेरे नाम में ‘सूर्य’ लगाने का यही कारण बना। मेरे बाद एक छोटी बहन ‘इंद्रावती’ पैदा हुई और तीसरी संतान के उत्पन्न होने पर ही उनका देहान्त हो गया और वह तीसरी संतान भी चल बसी। मेरी माँ की जब अर्थी उठी तो काका शिवशरण सिंह मुझे चौपाल में लेकर चले गए जिससे मैं अर्थी को उठते हुए न देख सकूँ। 
      दूसरी घटना 1946 में पिता और चचेरे भाई रणछोर सिंह की शादी की है। ये दोनों शादियाँ पसका के निकट नायबपुरवा में हुई थी। एक ही बारात में दोनों शादियाँ संपन्न हुईं। मेरी सहभागिता भाई रणछोर सिंह की शादी में रही। उस समय बारात में बैलगाड़ियाँ भी जाती थीं। वृद्ध लोग उस पर बैठ लेते थे। अन्य बाराती पैदल ही निर्धारित स्थल पर पहुँचते थे। बारात बाग में टिकती थी। तीन दिनी बारात में भोजन और जलपान की व्यवस्था प्रायः महिलाएं ही एकाध पुरुषों की सहायता से कर लेती थी। चाहे पूड़ी, सब्जी, गलका बनाना हो या उर्द-भात-बरिया, सारा काम महिलाएँ लाँग कसकर पूरा कर लेती थीं। यह मेरा सौभाग्य था कि दूसरी माँ जो मुझे मिली वे बहुत संवेदनशील थीं। मैं उन्हें अम्मा कहता था और उन्होंने अपने बड़े बेटे के समान मेरा पालन-पोषण किया। अम्मा शरफराज कुँवरि बहुत मेहनती, प्रबुद्ध पर अपने आत्मसम्मान के प्रति अत्यंत सजग थीं। उन्होंने घर को बड़ी कुशलता से संचालित किया। अभी 2021 में रक्षाबंधन के दिन अम्मा का देहान्त हुआ है। 
        तीसरी घटना घर के बँटवारे से संबंधित है। 1949 में मैंने कक्षा पाँच उत्तीर्ण किया और उसी वर्ष घर में बँटवारा हो गया। मेरे पिताजी तीन भाई थे बड़े चंद्रिका सिंह उर्फ बड़कऊ सिंह, उसके बाद पिताजी रामशरण सिंह उर्फ छोटकऊ सिंह तथा सबसे छोटे शिवशरण सिंह थे। हमारा संयुक्त परिवार था। बड़े पिता चंद्रिका सिंह गाँव के मुखिया थे। उन्हें पद-पंचायत में अक्सर जाना पड़ता था। पिताजी मिडिल पास थे और श्यामसुंदर सेठ की जमलदीपुर (बहराइच) की कोल्हू की ठेकी का कार्यभार देखते थे। खेती की जिम्मेदारी काका शिवशरण सिंह सँभाल रहे थे। वे अत्यन्त मेहनती थे। उन्हें घर का आधारस्तम्भ कहा जा सकता है। उनका अपना परिवार नहीं था, पर पूरे परिवार के विकास में उनका योगदान अप्रतिम है। 1946 में पिता और भाई की शादी हो जाने के बाद 23 मार्च, 1947 को दादी का देहान्त हो गया। उस समय तक माता-पिता के रहते प्रायः लोग बँटवारा नहीं करते थे। चचेरे भाई रणछोर सिंह की भी नौकरी लग गई थी। इसलिए बँटवारा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। इस बँटवारे में पिता और काका शिवशरण सिंह एक साथ हो गए और बड़े पिता जिन्हें हम लोग दादू कहते थे उनका परिवार अलग हो गया। बखरी एक ही थी और बँटवारे के बाद भी सभी लोग पूर्ववत् रहते रहे। केवल भोजन दो जगह बनता था। कोई तनाव नहीं, सभी लोग एक दूसरे से मिल जुलकर ही रहते। बहुत बाद में भाई रणछोर सिंह ने घर भी अलग किया। 


जीतेशकान्त पाण्डेय- आपके बचपन में आपका गाँव कैसा था?

डॉ0 सूर्यपाल सिंह- मेरा गाँव बनवरियॉं टेढ़ी नदी के किनारे बसा है। इसमें पहले बाइस पुरवे थे। अब इनकी संख्या कुछ बढ़ गई है। यह गाँव गोण्डा शहर से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बचपन में गाँव और शहर के बीच का रास्ता कच्चा ही था। गाँव में अधिकांश घर मिट्टी की दीवाल पर फूस के छप्परों से बनाए जाते थे। कुछ घर मिट्टी की दीवाल पर खपडै़ल की छाजन के भी थे। जिनके घर खपडै़ल के होते थे उनके भी दरवाजे पर दो एक मड़हा रखना पड़ता था जिसमें पुरुष लोग उठते-बैठते थे और जानवर भी मड़हे में ही खिलाए-पिलाए जाते थे। उस समय खेती बैलों से होती थी। प्रायः सभी घरों में बैल और दूध वाले जानवर होते थे। कुछ लोगों के पास भैंस भी होती थी पर अधिकांश घरों में लोग गाय पालते थे। जिन घरों में किसी समय दूध-दही नहीं होता तो किसी पड़ोसी के घर से एक लोटा दही आ जाता। उसमें किसी को संकोच नहीं होता। अधिकांश घरों में दही मथा जाता। उसका मक्खन और करौनी बच्चों को जरूर मिल जाता। भोजन लकड़ी से बनता था और महिलाएँ नहा धोकर ही भोजन बनातीं। आज की तरह सुबह-सुबह नाश्ता और भोजन नहीं मिल पाता था। बच्चे बासी रोटी के साथ मसका चट कर जाते। लोग सुबह-शाम देर तक जानवरों के लिए चारा काटते। चारा काटने का काम गड़ासा से ही होता। जानवरों को चराने का काम भी मुस्तैदी से होता। अधिकांश यादव परिवार भैंस पालकर दूध या दही बेचने का काम करते। कई मौर्य परिवार सब्जी की खेती करते थे। कुछ भेड़ पालने वाले परिवार भी थे जो भेड़ पालते थे। गाँव में पानी कुएँ से ही निकाला जाता। पुरुष लोग कुएँ के आसपास ही स्नान करते। उस समय गाँव में कुआँ खुदवाना एक पुण्य कार्य समझा जाता था। जो भी आर्थिक रूप से थोड़ा समर्थ होते थे, कुआँ खुदवाकर पुण्य लाभ प्राप्त करते। कुएँ से पानी निकालने के लिए बाल्टी और गगरे का प्रयोग होता। मिट्टी के घड़े से पानी निकालने में बहुत सावधानी बरतनी पड़ती क्योंकि कुएँ की दीवार से मिट्टी का घड़ा अगर टकरा जाता तो घड़ा फूट जाता। घरों में मिट्टी के घड़ों में ही पानी रखा जाता। मिट्टी की कुँडनी कुम्हार बनाते। कुँडनी में पाँच-सात बाल्टी पानी आ जाता। कई सब्जी उगाने वाले मौर्य परिवार खेत में ही कच्चा कुआँ खोद लेते, जिसे चोंड़ा कहा जाता, उससे सब्जी की सिंचाई करते। लोग मड़हे के किनारे अक्सर लौकी और कद्दू थाला बनाकर बो देते। उसकी पौध को छप्पर पर ही चढ़ा देते। लौकी और कद्दू सब्जी के काम आते। कद्दू का फूल सब्जी के काम आता। तरोई और भिंडी जैसी सब्जी भी लोग कुछ न कुछ उगा लेते। आलू, प्याज भी उगाने की लोग कोशिश करते। उस समय बाजार से केवल मिर्च, मसाले, कपड़े आदि ही खरीदे जाते। भोजन-पानी का सारा काम गाँव में उगाये अन्न से ही चल जाता। जाड़े भर बथुआ और सरसो का साग प्रायः हर घर में बनता। जलपान के लिए भूजा, चबैना, गुड़ और शरबत का ही उपयोग होता। किसी भी घर में चाय और बिस्कुट का कोई इंतजाम नहीं होता। लोग चाय बनाना जानते भी नहीं थे। चाय की कंपनियाँ गोण्डा शहर में प्रचार के लिए चौराहे पर चाय बनाकर मुफ़्त पिलातीं और लोगों को एक पुड़िया चाय देकर चाय बनाने की तरकीब भी बतातीं। गाँव में न कोई घड़ी थी न कोई साइकिल। सभी को प्रायः पैदल ही आना-जाना होता। कहीं-कहीं लोग इक्के पर भी चलते। कुछ लोगों के पास घोड़ी या घोड़ा होता और वे उनकी सवारी करते। गाँव में यदि कोई महामारी आदि फैल जाती तो सरकारी कर्मचारी कुएँ में पोटाश डालकर छुट्टी पा लेते। 
    1945 में गाँव में भयंकर महामारी फैली। गाँव के कई लोगों की मौत उस महामारी में हुई। हमारे छोटे बाबा बाबू सिंह की मौत भी महामारी में हुई थी। हैजा फैलने पर लोग प्रायः प्याज़ का रस निकाल कर पीते। उस समय कोई डाक्टरी सहायता भी सरकार के माध्यम से नहीं मिल पाती। कुछ लोग हक़ीम-वैद्य की शरण भी लेते। प्रायः हम लोग धूप घड़ी बनाते और उससे समय का अनुमान करने की कोशिश करते। गाँव में कोई प्राथमिक विद्यालय भी नहीं था जो थोड़े बहुत बच्चे पढ़ने का प्रयास करते उन्हें शहर जाना पड़ता। सभी बच्चे पढ़ने का प्रयास भी नहीं करते थे, जो बच्चे स्कूल जाते उसमें से भी ज्यादातर बीच में ही छोड़कर खेती या अन्य धंधों में लग जाते। आज़ादी के पहले गाँव के कई लोग करांची में नौकरी करते। वे साल दो साल में गाँव लौटते। कुछ दिन रहकर फिर करांची लौट जाते। हमारे गाँव के लक्ष्मण तेली बहुत दिनों तक रंगून में रहे। जब ब्रह्मा (आधुनिक म्यांमार) भारत से अलग हुआ तो भागकर किसी तरह गाँव लौटे। उस समय गाँव में मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ तथा गेहूँ की मिलवा खेती अधिक होती। उसी में लोग मटर भी डाल देते। उसे प्रायः बेझर कहा जाता। गेहूँ और जौ को मिलाकर जो खेत में बोया जाता था उसे गोजई कहते थे। गेहूँ प्रायः पलिहर में ही बोया जाता था। वह खेत चौमासे में परती रखकर खूब जोता जाता था। उसी में गेहूँ बोया जाता। घरों में भी गेहूँ की रोटी बहुत कम ही बनती। अधिकांशतः बेझर, गोजई, मक्का या लहड़रा की ही रोटी बनती। चावल में भी मक्का का चावल अधिक बनता। धान की खेती कम होती थी और धान का चावल भी कभी-कभार बनता। इस समय डाक्टर मोटे अनाज की संस्तुति करते हैं पर उस समय मोटे अनाज का ही सेवन अधिक होता था। बरसात में लोग साँवा की खेती करते। साँवा जल्दी तैयार हो जाता और उसका चावल खाया जाता। आटा पीसने वाली चक्की प्रायः हर घर में होती। महिलाएँ आटा घर पर ही पीसकर बना लेती। शादी विवाह में भी गेहूँ गाँव के घरों में बँट जाता और लोग उसे समय से पहले शादी के घरों में पहुँचा देते। 
       प्रायः घरों में सींक और मूँज से वड़िया-वड़वा, चंगेरी-चंगेरा आदि बीना जाता। मूँज को रंग कर अलग-अलग डिजाइन की चंगेरी-चंगेरा बनाए जाते। अब यह काम भी गाँव में बंद हो चुका है। चंगेरी, डोलची आदि अत्यंत कलात्मक ढंग से महिलाएँ बनातीं। लड़कियाँ सिलाई के साथ कढ़ाई भी करतीं। प्रायः तकिये के गिलाफ और रुमाल काढ़ने में लड़कियाँ अपनी कला का प्रदर्शन करतीं। घरों में मिट्टी के चूल्हे भी बनाए जाते, डेहरी और धुनकी भी बनाई जाती। 15-20 कुन्तल अनाज को बड़ी-बड़ी डेहरी बनाकर भर लिया जाता। आजकल प्रायः टिन के ड्रम बनाकर अनाज रखे जाते हैं। उस समय डेहरी में ही प्रायः अनाज रखे जाते। धुनकी छोटी डेहरी होती। उसमें अरहर उर्द आदि की दालें रखी जाती। गाँवों के ये पुराने शिल्प अब नहीं दिखते। हाथ से रस्सी बुनने का काम भी अधिक होता था। बरसात में जब झींसा पड़ता और बाहर काम करना संभव नहीं होता तो प्रायः लोग सन लेकर रस्सी बुनते। कुएँ से पानी निकालने के लिए उबहन, बैलों तथा अन्य जानवरों के लिए पगहा घर पर ही बना लिए जाते। कभी-कभी रस्सी बुनकर खाट की बुनाई भी की जाती। खाली समय में पुरुष लोग प्रायः अरहर या बांस की कौंची से डलिया, मउना आदि बीन लेते जो गोबर आदि फेंकने, खाद भरने या अनाज भरने के काम आते। कभी-कभी खलिहान में यदि राशि बड़ी होती तो उसे मउना से ही नाप लिया जाता और फिर एक मउने में रखे अनाज को तौलकर पूरी राशि का अनुमान लगा लिया जाता। 
        नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार इनकी जरूरत सभी को पड़ती और ये सभी खेत में अच्छी फसल को देखकर बिस्वा बराते। रबी और खरीफ दोनों फसलों में ये सभी बिस्वा बराते और एक निश्चित मात्रा में अनाज भी पाते। बिस्वा और अनाज से उनका साल भर का काम चल जाता। बल्कि कुछ अनाज बेच भी लेते। प्रायः मुंडन, विवाह तथा अन्य उत्सवों में उन्हें नेग मिलता। इसी से उनके परिवार का पूरा काम चल जाता। नगदी का लेनदेन कम ही होता। बैलों से खेती बंद होने, वाशिंग मशीन आ जाने के कारण अब इन लोगों के धन्धे बदल गए हैं। धोबी धुलाई का काम कम, प्रेस का काम अधिक करते हैं। बढ़ई और लुहार भी लकड़ी और लोहे की विविध प्रकार की आवश्यकता की चीजें बनाने में लगे हैं। नाई अपनी दुकान खोल कर बैठ गए। वे बाल ही नहीं काटते विभिन्न डिजाइन के बाल काटते हैं और बालों आदि की विविधतापूर्ण रंगाई करते हैं। बालों की नई-नई डिजाइन निकालकर युवाओं को आकर्षित करते हैं। बालों की कटाई, छटाई और रंगाई नाई का मुख्य पेशा बन गया है। महिलाओं के लिए और पुरुषों के लिए अब पारम्परिक प्रसाधन की जगह नए-नए पार्लर खुल गये हैं। पूरी दुनिया में यह एक मुख्य धंधा बन गया है। गाँव में पहले पैसे की जरूरत कम पड़ती थी। आवश्यकताएँ सीमित थीं और वे आसानी से पूरी भी हो जाती थीं। महिलाओं के लिए जो आभूषण बनते थे वह प्रायः मजबूत हुआ करते थे। लोग मजबूती अधिक देखते डिजाइन कम। उस समय बाजार में भी सामानों में विविधताएं अधिक नहीं होती थी। उसमें परिवर्तन भी बहुत अधिक तेजी से नहीं होता था। एक ही माडल बहुत दिनों तक चलता रहता था। आज बाजार सामानों से पटा है। वे सामान लोगों को ललचाते हैं। बहुत आवश्यक नहीं होने पर भी सामान खरीद लिए जाते हैं। वित्तीय संस्थाएँ उधार देकर सामान बिकवाने में मदद देती हैं। माडल इतनी तेजी से बदल रहे हैं कि मनुष्य भौचक्का रह जाता है। दुकानों पर अक्सर यह लिखा मिलता है- फैशन के इस दौर में गारंटी की बात न करें। अब गारंटी की जगह वारंटी मिलती है। इसलिए ज़िन्दगी पहले आसान बहुत थी अब अधिक जटिल हो गई है। इसलिए मैंने एक ग़ज़ल में लिखा है- 

लहर पर लहर है किधर जाइएगा,
मिलेंगे चतुश्पथ जिधर जाइएगा।
या
जिधर देखिए आज कुहरा घना है,
यहाँ चोर को चोर कहना मना है। (‘नये पत्ते’ से)