नकल से कहीं क्रान्ति नहीं हुई डॉ0 सूर्यपाल सिंह साक्षात्कार
साक्षात्कर्ता : जीतेश कान्त पाण्डेय
निवेदन
गुरु जी डॉ0 सूर्यपाल सिंह से मैं दो वर्ष से सम्पर्क में हूँ। प्रारम्भ में गुरु जी के बोले शब्दों को लिखने के लिए ही आया था। धीरे-धीरे उनके साहित्य को भी पढ़ने में रुचि जगी। उनके बहुआयामी व्यक्तित्त्व को भी जानने-समझने की कोशिश की। वे साहित्यकार, शिक्षाविद् ही नहीं एक प्रबुद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं। उन्होंने चालीस वर्षों तक अध्यापक एवं प्राचार्य के रूप में सेवा की। सन् दो हजार में महाविद्यालय के प्राचार्य पद से पन्द्रह वर्ष सेवा कर सेवानिवृत्त हुए। सेवाकाल में उन्होंने अनेक शिक्षा सम्बन्धी संगोष्ठियों में सहभागिता एवं संचालन किया। 1984 में शिक्षक-शिक्षा की इण्टरनेशनल कौंसिल ऑन एजुकेशन फॉर टीचिंग के विश्वसम्मेलन बैंकाक (थाईलैण्ड) में अपना पत्र प्रस्तुत किया तथा मलेशिया और सिंगापुर के उच्चशिक्षा केन्द्रों का निरीक्षण किया। उनके निर्देशन में सात अभ्यर्थियों को अवध विश्वविद्यालय से पीएच-डी0 की उपाघि प्राप्त हो चुकी है। अवध विश्वविद्यालय में उनके रचना कर्म पर शोध हुए हैं। सिद्धार्थनगर विश्वविद्यालय में भी शोध हो रहा है।
गुरु जी ने ‘पूर्वापर’ प्रकाशन के माध्यम से अपना साहित्य ही प्रकाशित नहीं किया, बल्कि चार दर्जन से अधिक साहित्यकारों की रचनाओं को भी प्रकाशित कराया। 2007 से ‘पूर्वापर’ त्रैमासिक का सम्पादन कर साहित्यिक परिवेश निर्मित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। मलयालम विशेषांक निकालकर उत्तर को दक्षिण से जोड़ा ही नहीं, राष्ट्रीय एकता को भी पुष्ट आधार दिया।
उनका साहित्य पढ़ते हुए देखा कि वंचितों को आगे बढ़ाने पर उनका विशेष ध्यान रहता है। कविता-कहानी-नाटक-उपन्यास-लेख-संस्मरण आदि विभिन्न विधाओं में उन्होंने सार्थक लेखन किया है। शिक्षा और साहित्य में उनकी बीस पुस्तकें प्रकाशित हैं जिन्हें ग्रन्थावली का आकार दिया जा रहा है।
पर सब से अधिक प्रभावित करता है, उनका तथ्यों-घटनाओं-विचारों को विश्लेषित करने का नज़रिया। वे किसी के न अन्धभक्त हैं न अन्धविरोधी। उनकी कविताओं को पढ़ते समय उनकी दृष्टि का पता लगता है। उनका कहना है कि क्रान्ति पुराने औज़ारों से नहीं होती, उसके लिए नए औज़ार विकसित करने होते हैं- यथा राम छत्रक दण्ड की भाँति उगते नहीं उगाए जाते हैं। कोई भी नया राम पुराने राम को दुहराता नहीं.... नकल से कहीं क्रान्ति नहीं हुई।
उनकी व्याख्याओं से आप चमत्कृत होते हैं। वे एक आकाशधर्मा गुरु हैं।
इसीलिए मन में यह विचार आया कि गुरु जी का साक्षात्कार लिया जाए। यह पुस्तक इसी का परिणाम है।
-जीतेशकान्त पाण्डेय
15.06.2024
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जीतेशकान्त पाण्डेय- आपकी जन्मतिथि जन्मपत्री के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि संवत् 1994 तद्नुसार 10 जनवरी, 1938 है, लेकिन शैक्षिक एवं सेवा के अन्य रेकार्ड्स में आपकी जन्मतिथि 25 फरवरी, 1940 लिखी हुई है। ऐसा कैसे हुआ और आपकी असली जन्मतिथि कौन सी है?
डॉ0 सूर्यपाल सिंह- मेरी जन्मतिथि पौष शुक्ल पक्ष नवमी तिथि संवत् 1994 ही सही है। गिग्रेरियन कैलेंडर के अनुसार यह तिथि 10 जनवरी, 1938 पड़ती है। पहले जब बच्चा स्कूल जाता था तो गुरुजी अपने अनुमान के अनुसार जन्मतिथि लिख दिया करते थे। उस समय जन्मतिथि प्रमाण पत्र नहीं माँगा जाता था और न बच्चे के अभिभावक उसे प्रस्तुत ही करते थे। 25 फरवरी, 1940 यह जन्मतिथि मेरी छात्रपंजी में अंकित हो गयी और संपूर्ण शैक्षिक रेकार्ड्स एवं सेवा रेकार्ड्स में यही जन्मतिथि अंकित है, इसलिए जन्मपत्री और शैक्षिक रेकार्ड्स की जन्मतिथि में अंतर दिखाई पड़ता है, लेकिन वास्तविक जन्मतिथि जन्मपत्री वाली ही है। मैंने ‘अलिफ़’ और ‘बे’ की पढ़ाई घर पर ही की थी। उर्दू और हिंदी का अक्षर ज्ञान हो गया था। अक्षरों को मिलाकर भी आसानी से पढ़ लेता था। पंडित रामसहाय तिवारी ने घर पर ‘अलिफ़’ और ‘बे’ की पढ़ाई पूरी कराई थी। उस समय प्राइमरी में अलिफ़-बे, अव्वल, दोयम, सोयम, चहर्रुम की पढ़ाई होती थी। स्कूल में मेरा दाखिला 1946 में दर्जा अव्वल में कराया गया। 1947 में दोयम, 1948 में सोयम, 1949 में चहर्रुम की परीक्षा पास की। प्राइमरी की छात्रपंजी में जन्मतिथि 25 फरवरी, 1940 अंकित की गयी और वही आगे के भी सभी रेकार्ड्स में चलती रही।
जीतेशकान्त पाण्डेय- आप कक्षा दो में पढ़ रहे थे, उसी समय भारत स्वतंत्र हुआ। उस समय क्या आपने किसी कार्यक्रम में भाग लिया? यदि स्मरण हो तो कृपया बताएँ।
डॉ0 सूर्यपाल सिंह- 15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ, मैं दर्जा दोयम (कक्षा-दो) में पढ़ रहा था। मेरा प्राथमिक विद्यालय आर्य समाज गोण्डा में लगता था। 15 अगस्त के दिन गुरु जी ने हम लोगों को पंक्तिबद्ध कराया और गोण्डा तहसील में ले गए। आज-कल जो देहात कोतवाली है, वही उस समय गोण्डा की तहसील थी। वहीं हम लोग पंक्तिबद्ध बैठाए गए। कुछ और बच्चे भी आए हुए थे। सफेद कुर्ता-पैजामा में एक व्यक्ति ने झण्डा फहराया। हम लोगों ने खड़े होकर तालियाँ बजाई। राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ गाया गया। गीत ‘वन्दे मातरम्’ का भी गायन हुआ। उसके बाद झंडा फहराने वाले व्यक्ति ने एक व्याख्यान दिया जिसकी कुछ बातें हम लोगों की समझ में आईं। व्याख्यान की कुछ बातों को हम लोग समझ नहीं पाए। पर इतनी बात समझ में आईं कि पहले हम गुलाम थे, आज से देश आजाद हो गया है। भारत माता की जय, महात्मा गांधी की जय, वन्दे मातरम् के उद्घोष के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। हम लोगों में लड्डू बाँटा गया। लड्डू खाते हुए और वंदे मातरम् गाते हुए हम लोग अपने विद्यालय को लौट आए। कुछ देर खेलकूद और उसके बाद छुट्टी कर दी गई। घर जाते समय भी हम लोग वन्दे मातरम, वन्दे मातरम् कहते रहे।
जीतेशकान्त पाण्डेय- गुरुजी आप ने यह बताया है कि प्राइमरी कक्षा में चहर्रुम (कक्षा चार) तक की पढ़ाई होती थी। क्या कक्षा चार ही प्राइमरी की अंतिम कक्षा होती थी?
डॉ0 सूर्यपाल सिंह-आजादी के पहले प्राइमरी में दर्जा चार तक की पढ़ाई होती थी। यही प्राइमरी की अंतिम कक्षा थी। अलिफ़, बे, अव्वल, दोयम, सोयम और चहर्रुम यही क्रम था, तब मिडिल स्कूल में कक्षा पांच, छह और सात की पढ़ाई होती थी। मिडिल स्कूल तक लोग उर्दू ज़बान से पढ़ाई करते थे। जो बच्चे हिंदी में भी परीक्षा पास करना चाहते थे वे हिंदी ज़बान से भी मिडिल की परीक्षा पास करते। इस तरह वे उर्दू हिंदी दोनों की जानकारी रखते। उस समय कचहरी का ज़्यादा काम-काज उर्दू या अंग्रेजी में ही होता था। इसलिए अभिभावक बच्चों को उर्दू पढ़ाने की कोशिश करते। देश जब आज़ाद हो गया तो प्राइमरी कक्षाओं का नाम बदल गया। कक्षा 1 से 5 तक प्राइमरी कक्षाएं चलने लगीं। अब चहर्रुम की जगह कक्षा पाँच प्राइमरी की अंतिम कक्षा होती। मिडिल स्कूल में भी कक्षा 6, 7 और 8 की पढ़ाई शुरू हुई। माध्यम भी हिंदी हो गया। मिडिल स्कूल में कक्षा 6 से अंग्रेजी भी पढ़ाई जाने लगी।
जीतेशकान्त पाण्डेय- प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हुए बच्चों का क्या कोई ड्रेस कोड हुआ करता था? आपने किस सन् में कक्षा 5 की परीक्षा उत्तीर्ण की? उस समय गाँव में ही नहीं शहरों में भी सबके घरों में बिजली नहीं होती थी, तो लोगों का गुजर किस तरह होता था?
डॉ0 सूर्यपाल सिंह- सन् 1949 में मैंने प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उस समय प्राइमरी स्कूल में कोई ड्रेसकोड नहीं था। बच्चे प्रायः कमीज़ और छोटी धोती तथा कुछ लोग नेकर पहन कर आते। कोशिश करते की कपड़े कुछ साफ रहें। बैठने के लिए टाटपट्टी होती थी। अध्यापक के लिए कुर्सी अवश्य होती थी। हम जिस विद्यालय में पढ़ते थे वह आर्य समाज मन्दिर के भवन में ही चलता था। कमरे ठीक थे। प्रायः दो कक्षाओं के बच्चे अलग-अलग पंक्ति में एक साथ बैठते। अध्यापक एक कक्षा को पढ़ा देता और बच्चों को करने के लिए कुछ काम दे देता फिर दूसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाकर उन्हें कुछ लिखने के लिए दे दिया करता था। विषय अधिक नहीं हुआ करते थे। भाषा और गणित पर विशेष ध्यान दिया जाता था। वर्तनी, उच्चारण, शब्दार्थ पर अध्यापक विशेष ध्यान देते थे। गणित में प्राइमरी में हम लोग जिस पुस्तक से सवाल लगाते थे वह चक्रवर्ती की गणित कहलाती थी। उसमें अभ्यास के लिए एक-एक प्रश्नावली में सैकड़ों सवाल हुआ करते थे। हमें याद पड़ता है कि भिन्न का सवाल लगाते-लगाते हम लोग लँगड़ी भिन्न तक पहुँचे। बाद में पता चला कि यही पुस्तक हाईस्कूल में बच्चे पढ़ते थे। चक्रवर्ती की गणित अत्यन्त प्रसिद्ध पुस्तक थी। इतिहास, भूगोल के बारे में भी थोड़ी जानकारी दी जाती। प्रायः जिले और प्रदेश के भूगोल पर ध्यान दिया जाता। जिले की नदियाँ और झीलें बच्चों की ज़बान पर होते। पाठ्यक्रम का दायरा कम था। पर बच्चे उस पाठ्यक्रम को पूरी दक्षता से तैयार करते। आधुनिक शिक्षा शास्त्री भी इस बात से सहमत हैं कि प्राइमरी कक्षाओं में अधिक विषयों को एक साथ न पढ़ाया जाए। बार-बार बस्ते का बोझ कम करने की बात की जाती है। उस समय बस्ता बहुत भारी नहीं हुआ करता था। उस ज़मानें में गोण्डा शहर में न तो सभी मकान पक्के थे और न ही सभी घरों में बिजली ही हुआ करती थी। बहुत से घर खपडै़ल की छाजन के हुआ करते थे। लोग घरों में दिया या लालटेन जलाते। दिया जलाने के लिए प्रायः सरसो या रेड़ी का तेल प्रयोग में आता। घरों में ढिबरी भी जलाई जाती थी जिसमें प्रायः मिट्टी का लाल तेल प्रयोग में आता। उस समय मिट्टी का तेल सफ़ेद और लाल के रूप में मिलता था। लाल तेल ढिबरी में और सफेद तेल लालटेन में जलाया जाता। यह तेल भी कोटे की दुकान से मिलता, हर जगह उपलब्ध न होता। हम लोग प्रायः विद्यालय से छूटने के बाद एक अद्धा तेल के लिए लाइन लगाते। घर में बिजली न होने पर प्रायः लोग हाथ के पंखे से काम चलाते। घरों में लोग तरह-तरह के पंखे बनाते और उसका उपयोग करते।