मृदुला के घर से फिर वही आवाजें उठ रही थीं..चीखें, रोने की, बर्तनों के गिरने की, बच्चों के सिसकने की।
मोहनलाल के घर तक साफ सुनाई देती थीं ये चीखें।
पर अब यह सब उनके लिए नया नहीं था।
हर शाम यही होता था।
जैसे इस मोहल्ले की हवा में भी अब उस दर्द की गंध घुल चुकी थी।
विनय - मृदुला का पति -शराब पीकर लौटता, और फिर वही सिलसिला शुरू।
कभी मृदुला पर हाथ उठाता, कभी बच्चों पर।
पड़ोसी दीवारों के पीछे चुपचाप सुनते रहते -
“ये तो रोज़ की बात है…”
“उनका मामला है…”
“बीच में पड़ना ठीक नहीं…”
धीरे-धीरे हिंसा एक दैनिक अनुष्ठान बन गई थी -
और मृदुला, उस अनुष्ठान की बलि।
वो चार भाइयों की एकलौती बहन थी।
शादी में बैंड-बाजे से सजी थी वो..
भाइयों की आँखों में ख़ुशी थी, सोचा था बहन रानी बनके रहेगी |
किसे पता था कि वे अपनी बहन को किसी दूल्हे नहीं, एक कसाई के हवाले कर रहे हैं।
कुछ दिनों तक सामान्य चला सब फिर. विनय काम से शराब के नशे में लौटने लगा |
पहले साल जब विनय का असली चेहरा सामने आया..
भाइयों को खबर भी हुई।
पर पिता बोले..
“अब वो हमारी नहीं रही बेटा, अब उसका घर वही है।
लौटी तो लोग क्या कहेंगे?”
और इस समाज ने उस दिन एक और कहावत को सच कर दिया..
“ बेटियाँ ससुराल से सिर्फ चिता पर लौटती हैं।”
एक दिन छोटा भाई अजय दौड़ा आया..
बहन के नीले पड़े गाल, सूजे होंठ, काँपते बच्चे देखकर वो टूट गया।
मोहनलाल के घर आकर सिर पकड़कर रो पड़ा..
“फूल सी दी थी मोहन भाई… देखो क्या हाल बना दिया मेरी बहन का!”
मोहनलाल बस धीरे से बोले..
"जबतक वो खुद की मदद नहीं करेगी, कोई उसकी मदद नहीं कर पायेगा अजय "|
“पिताजी से कहो, बात करें विनय से |…”
अजय ने बस इतना कहा..
“ वो तो किसी की बात ही नहीं सुन रहे,अब यहाँ नहीं आऊँगा, नहीं देख सकता उसे ऐसे…”
मृदुला फिर भी मुस्कुराती रही..
नाम के अनुरूप ही सौम्य स्वभाव था उसका |
लोगों से हँसती-बोलती, बच्चों को गोद में लेकर गुनगुनाती।
क्योंकि उसके पास हँसने के अलावा कोई और हथियार नहीं था।
दुख सहती स्त्री का सबसे बड़ा प्रतिरोध उसकी मुस्कान ही तो होता है।
मोहल्ले की औरतें उसे “बेचारी मृदुला” कहकर दया जतातीं,
पर उसके भीतर का ज्वालामुखी कोई नहीं देख पाता था।
मोहनलाल ने कई बार विनय को समझाने की कोशिश की..
कभी प्यार से, कभी गुस्से से।
एक बार तो तब हाथ उठा दिया जब उसने अपनी बेटी पर लात मारी।
पर मृदुला और उसकी बड़ी बेटी दौड़कर मोहनलाल के पैरों से लिपट गईं..
“भैया, छोड़ दो… उन्हें छोड़ दो…”
उस दिन से मोहनलाल चाहकर भी नहीं बोल पाते थे |
और फिर वो रात आई।
बरामदे में बैठे मोहनलाल को फिर वही आवाज सुनाई दी..
पर इस बार चीख कुछ अलग थी।
कातर, करुण… और फिर अचानक सन्नाटा।
वो दौड़ पड़े,
दरवाजा बंद था।
खिड़की से झाँककर देखा..
विनय ज़मीन पर गिरा था।
मृदुला उसके सीने पर पैर रखे दीवार में उसका सिर पटक रही थी।
उसकी आँखों से आँसू नहीं, सालों का सैलाब बह रहा था।
मोहनलाल ठिठक गए।
पीछे से उनकी पत्नी और बेटी आ पहुँचीं।
वो धीरे से बोले...
“आज जो हुआ… बहुत पहले हो जाना चाहिए था।”
सुबह मोहल्ले में औरतों की फुसफुसाहट थी
.
“बड़ी मर्दमारन औरत है…”
“सीने पर चढ़के मारा उसनें अपने आदमी को…”
एक कह रही थी..
"अरे तो कितना सहे कोई"
दूसरी कह रही थी..
“पर बहन, आदमी पर हाथ कैसे उठा दी |”
जब मृदुला सुबह बाहर निकली,
सबकी निगाहें तीर बनकर उस पर गड़ीं..
जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो।
पर जिन नज़रों में सबसे ज़्यादा नफरत थी,
वो औरतों की ही थीं।
क्योंकि इस समाज में औरत से ज़्यादा संवेदनशील और
औरत से अधिक निर्दयी कोई नहीं होता..
कभी -कभी औरत की सबसे निष्ठुर जंग उसकी अपनी जात से होती है |
मृदुला ने उस दिन लोगों की बातों को दिल पर नहीं लिया।
जो फुसफुसाहटें उसके पीछे चल रही थीं..
“औरत होकर मर्द पर हाथ उठाया…”
“सीने पर चढ़कर मारा उसने…”
वो सब अब उसके भीतर की शांति को नहीं डिगा पा रही थीं।
क्योंकि मृदुला जानती थी..
आज जो उसने किया, वो जरूरी था।
उसकी बेटी के सिर के बाल उखाड़ लिए थे उस निर्दयी बाप ने।
उसकी आँखों में डर नहीं, अपमान था।
और उस अपमान को देखकर मृदुला के भीतर की माँ जाग उठी थी..
वो माँ, जो वर्षों से चुप थी…
जिसने अपमान सहा, मार सही, पर आज और सहना असंभव था।
अगर वो उस दिन भी चुप रहती,
तो हार सिर्फ एक औरत की नहीं होती..
हार होती माँ के रूप की,
हार होती आने वाली पीढ़ियों की।
क्योंकि औरत के रूप में झुकना समाज सिखा देता है,
पर माँ के रूप में झुकना,
प्रकृति भी स्वीकार नहीं करती।
उस रात के बाद से मृदुला के घर से कोई आवाज नहीं आई।
ना चीख, ना रोना, ना काँच टूटने की आवाज।
क्योंकि विनय का नशा उतर गया था..
शराब का नहीं…
पुरुष होने के घमंड का नशा।
और मोहल्ले की हवा में पहली बार एक नई गंध थी..
डर की नहीं,
आत्मसम्मान की।
~रिंकी सिंह ✍️