Goswami Tulsidas: The Divine Poet of Ramcharitmanas and Hanuman in Hindi Biography by Rahul Gupta books and stories PDF | गोस्वामी तुलसीदास – श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा के अमर रचयिता

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गोस्वामी तुलसीदास – श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा के अमर रचयिता

जय श्री राम 

यह ब्रह्मांड हमारी कल्पना से भी अधिक विशाल और रहस्यमय है। जहां असंख्य तारे, ग्रह, नक्षत्र, आकाशगंगाएँ विद्यमान है। इन्हीं में से एक हमारी पावन पृथ्वी धरती है, जहाँ अनेक देश और विविध संस्कृतियाँ हैं। उसी में हमारा प्यारा भारतवर्ष है। और यही वह पुण्यभूमि है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी ने अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना हेतु अवतार लिया था। उनके आदर्श, चरित्र और भक्ति-भावना ने न केवल भारतभूमि को, अपितु संपूर्ण विश्व को आलोकित किया। विश्व के कोने-कोने में श्री रामजी के अनगिनत भक्त हैं, और युगों-युगों से अनेकों कवियों, संतों, मुनियों और विद्वानों ने उनकी दिव्य महिमा का गान किया है। इन्हीं महान भक्त कवियों में एक नाम अत्यंत पूजनीय है — श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी का, जिन्होंने श्रीरामजी की लीला, मर्यादा और भक्ति को जनमानस की भाषा "अवधी" में "श्रीरामचरितमानस" के रूप में रचा।

यह ग्रंथ न केवल साहित्यिक दृष्टि से अनुपम है, बल्कि इसे "भक्ति का महासागर" कहा गया है, जिसमें श्री रामजी के चरित्र का ऐसा भावपूर्ण और भक्तिमय चित्रण है कि यह आज भी करोड़ों लोगों के जीवन का आधार है।

काशी के तत्कालीन महान पंडित श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने इसकी प्रशंसा निम्नलिखित श्लोक द्वारा की: 


आनन्दकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

अर्थात् काशी के इस आनंद वन में तुलसीदास साक्षात् तुलसी का पौधा है उनकी काव्य मंजरी बड़ी ही मनोहर है। जिस पर श्री राम रूपी भंवरा सदैव मंडराता रहता है।

"श्रीरामचरितमानस" ने तुलसीदास जी को अपार प्रतिष्ठा दिलाई और वे भक्तों के हृदय में अमर स्थान प्राप्त कर गए। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री हनुमान चालीसा की रचना की जो करोड़ों हनुमान भक्तों द्वारा प्रतिदिन पाठ किया जाता है। उन्होंने "हनुमान बाहुक" और "बजरंग बाण" की भी रचना की. जो आज भी भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय हैं। 


किंतु तुलसीदास जी का जीवन इतना सरल न था। उनका जीवन कठिन उतार चढ़ाव और संघर्ष से भरा हुआ था। गांव के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में, अनेक व्रतों, तीर्थ-दर्शनों और प्रार्थनाओं के पश्चात माता-पिता को संतान सुख मिला। माता के गर्भ में बारह महीने तक रहने के बाद उनका जन्म हुआ—वह भी बत्तीस दाँतों के साथ, वे जन्म के बाद रोए नहीं, बल्कि ‘राम-राम’ उच्चारित करने लगे। उनका जन्म एक अत्यंत दुर्लभ और अभुक्त नक्षत्र में हुआ। गांव के पंडितों और लोक मान्यताओं ने उस बालक को अमंगल माना, जन्म के कुछ ही दिनों बाद माता का देहांत हो गया, और पिता ने उस नवजात बालक का त्याग कर दिया। पांच वर्षों तक जिस दाई मां ने उन्हें पाला, वह दाई भी सर्पदंश का शिकार हो गई। अब वह बालक पूर्णतः अनाथ हो गया था, न कोई सहारा, न कोई घर। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा वह बालक, राम नाम जपने लगा, और एक दिन वही बालक "श्रीरामचरितमानस" जैसा भक्तिभाव से परिपूर्ण महाकाव्य रचकर संसार में अमर हो गया। आइये तुलसीदास जी के जन्म से लेकर उनके अंतिम क्षण तक के जीवन की उन अनसुनी कहानियों और संघर्षों को जानते है, जो हमें न केवल प्रेरणा देती हैं, बल्कि यह भी सिखाती हैं कि भक्ति और विश्वास से मानव कितना ऊँचा उठ सकता है।

  

विषय सूची 


Chapter 1) अद्भुत जन्म: बारहवें महीने में 32 दाँतों के साथ!
Chapter 2) कष्ट भरा बचपन.
Chapter 3) तुलसीदास और रत्नावली का विवाह.
Chapter 4) पत्नी रत्ना ने सिखाया महत्वपूर्ण पाठ.
Chapter 5) मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ…
Chapter 6) तुलसीदास जी की भक्ति यात्रा का आरंभ.
Chapter 7) तुलसीदास जी को हुए श्रीराम और हनुमानजी के प्रत्यक्ष दर्शन.
Chapter 8) महान ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस की रचना.
Chapter 9) श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने रामचरितमानस की प्रशंसा की.
Chapter 10) हनुमान चालीसा की रचना.
Chapter 11) संत कबीर और श्रीकृष्ण जोगन मीराबाई से मुलाकात.







प्रारंभ 





Chapter 1) अद्भुत जन्म: बारहवें महीने में 32 दाँतों के साथ!

श्रीराम जी की कृपा से भारतवर्ष पृथ्वी की सबसे सुंदर और पवित्र भूमि मानी जाती है। यह वही भूमि है जहाँ सभी देवी-देवताओं का वास है, जहाँ नदियाँ, पर्वत, वृक्ष और सम्पूर्ण प्रकृति तक को ईश्वर का स्वरूप मानकर पूजा जाता है। यहाँ विविध भाषाओं, संस्कृतियों और परंपराओं के लोग एक साथ मिल-जुलकर प्रेमपूर्वक जीवन जीते हैं। प्रातःकाल की पहली किरण के साथ ही भारत के प्रत्येक घर और मंदिरों में आरती, शंख और घंटियों की दिव्य ध्वनि गूंजती है, जो सम्पूर्ण वातावरण को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देती है।

इसी पुण्यभूमि पर श्रीराम भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन्म लिया था, एक ऐसे संत, जिनके द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस ओर हनुमान चालीसा आज भी भक्तों के द्वारा बड़ी श्रद्धा से पाठ किया जाता हैं। उनके माता-पिता ने वर्षों तक मंदिरों में दर्शन किए, व्रत-उपवास रखे और प्रभु से संतान प्राप्ति की प्रार्थना की। किंतु जिस दिन उनका जन्म हुआ उस दिन शायद उनकी माता को छोड़कर कोई और उतना खुश न था। 


यह बात है सोलहवीं सदी की. प्रयागराज से नजदीक स्थित एक सुंदर गांव राजापुर में श्री आत्माराम दुबे जी अपनी पत्नी हुलसी देवी के साथ रहते थे। श्री आत्माराम दुबे जी जाति से ब्राह्मण थे। वे पंडिताई और ज्योतिष का ज्ञान भी अच्छा रखते थे। गांव के लोग उनका नाम बड़ा आदर से लेते थे। वैसे तो वे अपनी पत्नी के साथ सुखी थे। किंतु एक बात कि पीड़ा उन्हें अंदर ही अंदर बहुत परेशान कर रही थी। और इसलिए वे गांव के एक बड़े ज्योतिष और अपने मित्र से मिलने गए.   


श्री आत्माराम: प्रणाम पंडित जी।

पंडित जी: आओ आत्माराम जी, कैसे आना हुआ? सब कुशल मंगल तो है न?

श्री आत्माराम: वैसे तो भगवान श्रीराम जी की असीम कृपा है, किंतु एक पीड़ा है जिसका निदान नहीं हो पा रहा है।

पंडित जी: कैसी पीड़ा, आत्माराम जी?

श्री आत्माराम: वही पीड़ा, जो अयोध्यापति राजा दशरथ को श्रीराम के जन्म से पहले थी।

पंडित जी: मैं तुम्हारी मनोस्थिति समझ सकता हूँ। परंतु तुम चिंता न करो। मैंने तुम्हारी और हुलसी भाभी की जन्म कुंडलियाँ ध्यानपूर्वक देखी हैं। कुंडली के अनुसार, तुम्हारे भाग्य में एक ऐसे तेजस्वी और विद्वान पुत्र का योग है, जो अपनी भक्ति, ज्ञान और चरित्र से समस्त संसार को प्रकाशित करेगा। उसका नाम युगों-युगों तक श्रद्धा और सम्मान से लिया जाएगा। बस, अब तुम ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखो।

श्री आत्माराम (उदास स्वर में): क्या करूं? पंडित जी, पर मन अब धैर्य नहीं रख पा रहा। विवाह को कई वर्ष बीत गए हैं। नाते - रिश्तेदार अब बाते बनाने लगे है। परिवार के लोग दूसरा विवाह करने को कहते है। आप ही बताइए, मैं अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ ऐसा अन्याय कैसे करूं? इसमें भला उसका क्या दोष? बस एक संतान हो जाती, तो सबके मूंह बंद हो जाते। अब आप ही कोई उपाय बताइए।

पंडित जी (गंभीर स्वर में): आत्माराम जी, उपाय तो एक ही है - प्रभु श्रीराम का नाम लो और उनपर पूर्ण विश्वास रखो। मुझे तो जल्द ही तुम्हारे घर एक दिव्य बालक के कदम पड़ते दिख रहे है।

पंडित जी की बात सुनकर आत्माराम जी का उदास दिल फिर एक बार हरा हो गया। और वे खुशी खुशी यह शुभ समाचार अपनी पत्नी हुलसी देवी को सुनाने घर की ओर चल पड़े। दोनों पति-पत्नी ने मिलकर अनेक मंदिरों में दर्शन किए, व्रत किए और प्रभु से संतान प्राप्ति की प्रार्थना की।

 कुछ दिनों बाद वह शुभ घड़ीं भी आ गई जब हुलसी देवी के गर्भवती होने की खबर गांव भर में फैल गई, आत्माराम दुबे और हुलसी देवी की खुशी का ठिकाना न रहा।

आत्माराम जी (प्रसन्न होकर): हुलसी, सच कहते हैं — प्रभु के घर देर है, पर अंधेर नहीं। जानती हो, पंडित जी ने हमारे पुत्र के बारे में क्या भविष्य वाणी की है, हमारा पुत्र ऐसा विद्वान और गुणी होगा जिसके तेज से पूरा संसार प्रकाशित होगा, जिसकी कीर्ति युगों तक अमर रहेगी वह लाखों में नहीं, करोड़ों में एक होगा, और ऐसे पुत्र के माता पिता बनने का सौभाग्य हमे मिलेगा। कितने कृपालु है मेरे श्री राम।

खुशियों से भरे दिन पंख लगाकर तेजी से उड़ने लगे। गर्भावस्था में हुलसी देवी ने अपना पूरा ध्यान पूजा-पाठ और गर्भसंस्कार में लगाया। उन्हें कई बार चमत्कारिक अनुभव भी हुए। दोनों पति–पत्मी को भरोसा था कि उनके घर कोई दिव्य आत्मा आने वाली है। पूरे उत्साह से उन्होंने नौ महीने गुजार दिए और संतान के जन्म का इंतजार करने लगे। धीरे- धीरे प्रसव का समय आ गया, पर माता को प्रसव पीड़ा नहीं हुई। नौवां और दसवां महीना बीत गया। ग्यारहवां महीना भी चालू हो गया, पर प्रसव पीड़ा का कोई नामोनिशान नहीं था। अब हालत चिंताजनक हो गई थी। घर-घर में हुलसी देवी की अनोखी गर्भावस्था की चर्चा होने लगी। बच्चा स्वस्थ था, हिल-डुल रहा था, पर नियत समय होने के बावजूद जन्म नहीं ले रहा था।

इसका जवाब न तो गाँव के किसी वेद के पास था और न ही किसी दाई माँ के पास। परंतु श्री आत्माराम और हुलसी देवी की ईश्वर में अटूट आस्था थी। फिर भी, दोनों किसी अनहोनी की आशंका से अत्यंत चिंतित थे। खैर, जब बारहवां महीना लगा, तब माता हुलसी को प्रसव पीड़ा हुई। उस समय माता हुलसी के साथ घर के भीतर दाई माँ और घर की दासी चुनिया भी उपस्थित थीं। बाहर श्री आत्माराम जी अपने परिवारजनों और शुभचिंतकों के साथ बच्चे के जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे। बारहवें महीने में प्रसव होने के कारण वे हुलसी देवी और होने वाले शिशु के स्वास्थ्य को लेकर अत्यधिक चिंतित थे।

आख़िरकार वह शुभ घड़ी भी आ ही गई, जब तुलसीदास जी का जन्म हुआ। यह दिव्य जन्म 11 अगस्त 1497 ईस्वी, अर्थात संवत् 1554 के श्रावण माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि के दिन हुआ।

पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर। 
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर.

घर की दासी चुनिया दौड़ती हुई खुशी-खुशी यह शुभ समाचार देने श्री आत्माराम जी के पास पहुँची। परंतु बच्चे का जन्म सामान्य शिशुओं जैसा नहीं था, इसलिए दाई माँ के चेहरे पर चिंता साफ दिख रही थी। उन्होंने बाहर आकर आत्माराम जी से कहा, “यह तो आश्चर्य की बात है! हुलसी देवी के गर्भ से एक ऐसे बालक ने जन्म लिया है जिसके पूरे बत्तीस दांत हैं, और वह रोने के बजाय 'राम-राम' बोल रहा है। बच्चा स्वस्थ है, परंतु हुलसी देवी की तबियत बहुत नाजुक है। उनका ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।

हुलसी देवी तो इस दिव्य बालक को देखकर अत्यंत निहाल थीं, परंतु आत्माराम जी, जो ज्योतिष के ज्ञाता थे, बालक के जन्म के समय को देखकर उन्हें ज्ञात हो गया था कि शिशु का जन्म 'मूल नक्षत्र' में हुआ है, जो शास्त्रों के अनुसार माता-पिता और परिवार के लिए अशुभ और अमगंलकारी है। 

उनके दिल में एक अनजाना डर बैठ गया था। उन्होंने हुलसी देवी से कहा, हुलसी, भगवान हमारी कैसी परीक्षा ले रहे हैं? हमने संतान प्राप्ति के लिए कितने व्रत-उपवास किए, कितने मंदिरों की चौखट पर माथा टेका। शायद हमारे भाग्य में संतान थी ही नहीं, और हमने भगवान से जबरदस्ती संतान माँग ली। तभी तो उन्होंने हमें यह जीवनभर का कष्ट दे दिया। इतने वर्षों बाद हमारे घर संतान का आगमन हुआ भी तो वह मूल नक्षत्र में जन्मा, जो शास्त्रों के अनुसार परिवार के लिए अमंगलकारी होता है। देखो न, तुम्हारी तबीयत भी कितनी खराब हो गई है।

हुलसी देवी ने शांत भाव से कहा,
"आप ये कैसी बातें कर रहे है। सालों की तपस्या के बाद तो पुत्र का मुख देखने को मिला है। सुनी सुनाई बातों में आकर हमारी प्रार्थना के फल को कष्ट न कहिए। एक बार अपने पुत्र के सिर पर प्यार से हाथ रख दीजिए, देखिएगा आपके सारे डर समाप्त हो जाएंगे"

आत्माराम जी ने उदासी से कहा,
कैसे समाप्त हो जाए मेरा डर, हुलसी... तुम्हारी सेहत तो लगातार गिरती जा रही है…


"अब तो तुम बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही हो। गाँव के सारे पंडित यही कह रहे हैं कि यह संतान तुम्हारे लिए भारी है। मैं इस संतान की वजह से तुम्हें नहीं खो सकता... मैं इसे कहीं दूर छोड़ आऊँगा।”

माता ने आँसुओं से भरे नेत्रों से कहा,
"आप यह कैसी बात कर रहे हैं? क्या मैं पहली स्त्री हूँ जिसकी प्रसव के बाद तबीयत बिगड़ गई हो? इसमें इस मासूम बच्चे का क्या दोष है? आप तो स्वयं इतने ज्ञानी और विद्वान हैं। जीवन-मृत्यु और सुख-दुख तो मनुष्य के अपने कर्मों के फल हैं। मेरा पुत्र किसी के लिए अशुभ नहीं है, और मुझे अगर कुछ हो भी गया तो ये मेरा अपना भाग्य है। इसमें मेरे पुत्र का कोई दोष नहीं। आप मुझे वचन दीजिए कि मेरे बाद आप मेरे पुत्र का पालन-पोषण करेंगे, उसका ध्यान रखेंगे।

पिता आत्माराम ने कठोर स्वर में कहा,
"नहीं हुलसी! मैं यह वचन नहीं दे सकता। आज ही मैं इस बच्चे का त्याग कर दूँगा और इसे गंगा मैया की गोद में सौंप दूँगा। मैं तुम्हें किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता।"

आत्माराम जी की बातें सुनकर हुलसी देवी पूरी तरह डर गईं। उनके मन में भयानक आशंकाएँ होने लगीं। "अगर मुझे कुछ हो गया, तो मेरे इस निर्दोष बच्चे का क्या होगा? हे प्रभु! यह कैसा अनर्थ होने जा रहा है? माँ के जिते जी उसकी संतान का त्याग? एक पिता के हाथों उसके नवजात पुत्र की हत्या? नहीं... नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूँगी। हे प्रभु! मेरे पुत्र की रक्षा करना।


ऐसा नहीं था कि आत्माराम जी, बच्चे के जन्म से प्रसन्न नहीं थे। उन्होंने भी हुलसी देवी के साथ संतान की प्राप्ति हेतु वर्षों तक दर-दर की ठोकरें खाईं थीं। उनके मन में भी शिशु को त्यागने की कोई इच्छा नहीं थी। उन्होंने शिशु की जन्म-कुंडली स्वयं देखी थी और गाँव के प्रतिष्ठित ज्योतिषाचार्य से भी परामर्श लिया था। उन्हीं की सलाह के आधार पर उनके मन में डर बैठ गया था।

उन्हें अपने जीवन की कोई लालसा नहीं थी, परंतु एक परिवार का मुख्या होने के नाते उन्होंने यह कठिन निर्णय लिया कि नवजात शिशु को त्याग देना ही परिवार की भलाई के लिए उचित होगा।
उन्हें ऐसा लगता था कि उसी शिशु के कारण हुलसी देवी की तबीयत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है, और वे हुलसी देवी सहित परिवार के अन्य सदस्यों को खोना नहीं चाहते थे।

एक पिता अपने मन की सारी भावनाओं को दबाकर केवल अपने परिवार को सुरक्षित और सुखी देखना चाहता है। आत्माराम जी भी वही धर्म निभा रहे थे — अपने कर्तव्यों का पालन, अपने भीतर के दर्द को छुपाकर।

वहीं दूसरी ओर, हुलसी देवी तुलसीदास जी के जीवन को लेकर अत्यंत व्याकुल थीं। अपने पुत्र की रक्षा के लिए उन्होंने एक बड़ा निर्णय लिया।

क्या था वह निर्णय?
चलिए, यह जानेंगे हम इस कथा के दूसरे अध्याय में…





Chapter 2) कष्ट भरा बचपन.



माता हुलसी की तबियत दिन ब दिन खराब हो रही थी, वेद की भी दवाईयां असर नहीं कर रही थी। उन्हें लग रहा था उनका जीवन जल्द ही खत्म हो जाएगा और इसीलिए वे अपने बच्चे को किसी ऐसे हाथ में रखना चाहती थी जहां वह सुरक्षित रह सके फिर एक रात उन्होंने अपनी दासी चुनिया से कहा हे चुनिया तुमने अभी तक मेरी और मेरे परिवार की बहुत सेवा की है। आज एक उपकार और कर दो। में तेरी हमेशा हमेशा आभारी रहूंगी । दासी चुनिया ने कहा "आप कैसी बात कर रही है मालकिन आप आदेश दीजिए,

हुलसी देवी ने कहा "मेरे जीवन का अब कोई भरोसा नहीं है और न जाने क्यों उनके (श्री आत्माराम) मन में ये बैठ गया कि ये बच्चा हमारे लिए अशुभ है। उन्होंने इस बच्चे को त्यागने का मन बना लिया है। और वे जल्द ही इसे गंगा मैया के हवाले कर आयेंगे। 

चुनिया ने कहा "मालकिन, हो सकता है कि आपकी बिगड़ती तबियत को देखकर उन्होंने परेशान होकर ऐसा कहा हो। आप चिंता न करे आप जल्द ही ठीक हो जाएंगी और फिर शायद उनके मन के सारे डर भी खत्म हो जाए।

हुलसी देवी ने कहा "भगवान करे ऐसा ही हो। मेरा मन बहुत घबरा रहा है पर अभी तुम इस बच्चे को अपने घर ले जाओ और जब तक में ठीक नहीं हो जाती तब तक इसे अपने पास ही रखना। में निश्चित रहूंगी कि तुम्हारी आंचल की छांव में मेरा बेटा सुरक्षित है। 

दासी चुनिया ने कहा "ठीक है मालकिन जैसा आप कहे, में आज ही इसे अपने साथ ले जाती हुं आप इसकी तरफ से निश्चित रहिए में इसका पूरा ध्यान रखूंगी। हुलसी देवी ने अपने दिल पर पत्थर रखकर अपने बच्चे को खुद से अलग कर दिया शायद उन्हें आभास हो गया था कि उनके पास अब ज्यादा समय नहीं है लेकिन फिर भी वह खुश थी क्योंकि उसका पुत्र अब सुरक्षित था, 

चुनिया बच्चे को लेकर अपने गांव चली गई और अगले दिन ही हुलसी देवी ने अपने प्राण त्याग दिए। चुनिया अब समझ गई थी कि अब उसके मालिक श्री आत्माराम कभी इस बच्चे को स्वीकार नहीं करेंगे अब वो ही उस बच्चे की मां है और उसे ही इस बच्चे का पालन पोषण करना पड़ेगा। कुछ दिन बीतने के बाद चुनिया की सास बोली - हे चुनिया तेरी मालकीन तो चली गई अब तुझे ही इस बच्चे को संभालना है तो इसका नाम तो रख दे। कितना बदनसीब है बेचारा- इतने बड़े और विद्वान ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी अभी तक इसका नामकरण नहीं हुआ! 

यह सुनकर चुनिया सोचने लगी कि बच्चे का क्या नाम रखा जाए। तभी उसे याद आया कि जब यह बच्चा जन्मा था, तब रोने की बजाय इसके मुख से पहला शब्द 'राम' निकला था। बस, उसी क्षण चुनिया के मुख से सहज ही निकल पड़ा—”रामबोला”


आज से मेरे लाल का नाम रामबोला होगा, चुनिया ने उत्साहित होकर कहा। बोलो अम्मा, कैसा लगा आपको यह नाम?

अम्मा मुस्कराते हुए बोलीं, जिस नाम में 'राम' शब्द हो, वह नाम भला बुरा कैसे हो सकता है? वह तो निश्चित ही शुभ और मंगलकारी होगा।

चुनिया रामबोला को अपने ही पुत्र की तरह प्यार करती। वह हमेशा उसकी सेवा और देखभाल में लगी रहती। उस मासूम बालक को भी एक माँ की गोद मिल गई थी—जिसमें वह सुखी था। और सुरक्षित भी, धीरे धीरे वह बड़ा होने लगा।

कुछ दिनों बाद एक समाचार आया— रामबोला के पिता श्री आत्माराम दुबे जी का भी स्वर्गवास हो गया। लेकिन उस नन्हे बालक को इन बातों की कोई समझ नहीं थी। उसके लिए तो उसकी सारी दुनिया बस चुनिया ही थी।

उसके मुख से सदा ‘राम’ नाम शब्द ही निकलता था। पता नहीं क्यों, जन्म से ही उसके हृदय में प्रभु श्रीराम जी के प्रति गहरा आकर्षण और प्रेम था।

पर कहते है न दुख के दिन बीते नहीं बीतते, एक एक पल एक साल जितना बड़ा लगता हैं मगर सुख के दिन तुरन्त पंख लगाकर उड़ जाते हैं। रामबोला के जीवन में भी कुछ ऐसा ही हुआ।

नगर के लोग उसे अशुभ मानते थे। यहां तक कि उसके बाल-सखा भी कई बार उसे ‘मनहूस’ कहकर उसका उपहास करते थे। यह सब सुनकर उसका नन्हा हृदय आहत हो जाता, पर वह कुछ कह नहीं पाता—बस भीतर ही भीतर सब सहता रहता।


सिर्फ चुनिया ही थी, जो रामबोला को जीवन के सुख-दुख, और सही गलत का ज्ञान देती थी और उसे अत्यंत स्नेह व दुलार से पालती। नगर के लोग तो उसे ही उसके माता-पिता की मृत्यु का कारण मानते थे।

जब बालक पाँच वर्ष का हुआ, तब एक दिन चुनिया की भी सांप के डसने से मृत्यु हो गई। इस बार भी परिवार और नगरवासियों ने उस बालक के भाग्य को ही दोषी ठहराया। इस दुनिया में सिर्फ चुनिया ही थी जो उसे अपना मानती थी। वह भी उसे उन लोगों के बीच अकेला छोड़ कर चली गई।


चुनिया के घरवालों ने उसे ‘अशुभ’, ‘मनहूस’ और चुनिया की मौत का कारण बताकर घर से निकाल दिया। अब रामबोला एक बार फिर से पूरी तरह अनाथ हो गया था। इस संसार में अब कोई नहीं था जो उसकी चिंता करता, उसे स्नेह से देखता या उसका हाथ थामता। वह नगर में इधर उधर भटकने लगा। भूख लगने पर रामबोला नगर में घर-घर जाकर भिक्षा माँगता, परंतु लोग उसे देखते ही अपने दरवाज़े बंद कर लेते थे, मानो वह कोई अपराधी हो। कई दरवाजा खटखटाने के बाद कोई न कोई दया करके रोटी दे देता।

एक दिन की बात है। रामबोला भूख से व्याकुल था। वह भिक्षा माँगते-माँगते एक घर के दरवाज़े पर पहुँचा। अंदर से एक स्त्री कुछ खाने को लेकर आई, पर तभी उसके पति ने उसे रोक दिया और कहा, यह वही मनहूस बालक है जो जन्म लेते ही अपनी माँ और पिता को खा गया। और जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो जिसने इसे पाला, वह स्त्री भी मर गई। अगर हम भी इसे कुछ खाने को दे देंगे, तो हमारे जीवन में भी कोई बड़ा संकट आ जाएगा।

यह कड़वी बात सुनकर वह नन्हा बालक रोते हुए नगर में ही स्थित एक प्राचीन शेषवकाल शिव मंदिर की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गया। उसने अब दुबारा नगर में जाकर भीख न मांगने की कसम खाई। मासूम बालक ने जिद में पूरा दिन तो भूखे पेट निकाल दिया। किंतु अब रात्रि का समय था और रात भी गहरी हो चली थी। शायद अब उसे एहसास होने वाला था कि भूखे पेट दिन तो गुजर जाता हैं किंतु रात नहीं गुजरती। भूखे पेट ने उस नन्हे बालक की सारी जिद, सारा गुस्सा समाप्त कर दिया। भूखे पेट ने उसे फिर नगर में जाकर भिक्षा मांगने के लिए मजबूर कर दिया। भोजन की उम्मीद मे वह फिर नगर में घरों के दरवाजे खटखटाने लगा पर उसकी आवाज सब ने अनसुनी की। रामबोला फिर निराश होकर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गया और ठंडी हवाओं के बीच अपने माता पिता को याद करके रोने लगा। 

वह मासूम बच्चा सोच रहा था कि इस धरती के लोग क्या इतने बेरहम भी हो सकते है कि किसी बालक को एक रोटी तक नहीं खिला सकते। धीरे धीरे आधी रात बीत गई। मन्दिर के चारों और घना अंधेरा था। रामबोला भी मंदिर के कोने में पेरो को सिकुड़ कर सो रहा था, तभी मंदिर की सीढ़ियों पर किसी के चलने की आवाज सुनकर रामबोला की आंख खुल गई। उसने देखा एक स्त्री अपने हाथों में भोजन लेकर उसी के तरफ चली आ रही है। वह थोड़ा घबराया किंतु जब उस स्त्री ने उसे रामबोला कहकर पुकारा तो उस मासूम बालक को अपनापन महसूस हुआ। जैसे उसकी माता चुनिया ने ही उसे पुकारा हो। उस अंधेरी रात में वह स्त्री रामबोला को अपने गोद में बिठाकर बड़े प्यार से भोजन करा रही थी। रामबोला भी भोजन के बाद निर्भय होकर उसी स्त्री की गोद में सो गया। सुबह मंदिर की घंटियों की आवाज सुनकर उसकी नींद खुली, उसने अपने आस पास मंदिर में लोगों को आते जाते देखा, किंतु वह स्त्री न दिखी जिसकी गोद में वह सोया था। मंदिर में आने वाले भक्त उसे प्रसाद और कुछ खाने को देकर जाते। और उसी अपना पेट भरता। अब बालक वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठता और चुनिया से सीखे राम-भजन गाता। मंदिर में आने वाले भक्त उसके भजन सुनकर उस पर दया कर कुछ न कुछ खाने को दे जाते।

धीरे धीरे समय बीतने लगा, प्रतिदिन रामबोला मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे मधुर राम भजन करता। और रात में वह स्त्री आकर रामबोला को प्यार से भोजन कराकर अपनी गोद में सुला देती। कहते है वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि माता पार्वती ही थी जो इस नन्हे रामभक्त का ख्याल रखती थी। सही बात है मां अन्नपूर्णा माता पार्वती जी अपने किसी भी बच्चे को भूखा सोने नहीं देती।


रामबोला का हृदय संपूर्ण राममय था। और हो भी क्यों न — जिसने जन्म लेते ही रोने की जगह 'राम' शब्द का उच्चारण किया हो, उसे श्रीराम की भक्ति के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही कैसे देता! रामबोला ने अपनी पाँच वर्ष की आयु तक अनेक कष्ट और अपमान सहे थे, किंतु अब उस रामभक्त बालक का भाग्य बदलने वाला था। 

एक दिन जब रामबोला मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे राम भजन कर रहा था तभी वहां से एक सिद्ध महात्मा गुरु गुजर रहे थे वे उस बालक का भजन सुनकर रुक गए और उसका भजन ध्यान से सुनने लगे। वे बोले "कितना तेजस्वी बालक है! इसके कंठ में स्वयं मां सरस्वती विराजमान है। इसके गायन में प्रेम है भक्ति हैं। लगता है इसके सिर पर साक्षात् महादेव और मां पार्वती का हाथ है।

महात्मा की बातें मंदिर के पुजारी जी ने सुन लीं। उन्होंने आदरपूर्वक महात्मा को प्रणाम किया। वे महात्मा अयोध्या नगरी से पधारे थे। उनका नाम श्री नरहर्यानंद था, परंतु लोगों के बीच वे बाबा नरहरीदास के नाम से प्रसिद्ध थे। वे बहुत बड़े रामभक्त थे। और लोग उनकी रामकथा को बड़े आदर और ध्यान से सुनते थे। 

पुजारी जी "प्रणाम, गुरुदेव। कैसे आना हुआ? बड़े दिनों बाद आपके दर्शन हुए।"

बाबा नरहरीदास — हाँ पुजारी जी, बहुत दिनों बाद यहाँ आने का अवसर मिला है। रामलला के दर्शन की तीव्र इच्छा थी, सो चला आया। और देखिए न, मंदिर के बाहर ऐसा अद्भुत बाल रामभक्त मिल गया कि कदम आगे ही नहीं बढ़ पा रहे हैं। इसके चेहरे से नजर ही नहीं हट रही है। सच कहूँ तो इसके चेहरे में मुझे स्वयं रामलला के दर्शन हो रहे हैं।

पुजारी जी — आप शायद पहले व्यक्ति हैं, जो इस अभागे, अनाथ रामबोला के बारे में इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। वरना नगर के लोग तो इसे जानवर की तरह दुत्कारते हैं। कोई इसे जल्दी से भीख में एक रोटी तक नहीं देता।

बाबा नरहरीदास — पर ऐसा क्यों? यह तो बड़ा प्यारा बालक है।

पुजारी जी — प्यारा तो है, गुरुदेव... लेकिन दुर्भाग्य का मारा है। इसका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था। जन्म के बाद में माता की मृत्यु हो गई कुछ समय बाद पिता का भी स्वर्गवास हो गया और जब यह पाँच वर्ष का हुआ, तब इसे पालने वाली दाई 'चुनिया' की भी मृत्यु हो गई। नगर के लोग इन सबकी मृत्यु का कारण इस रामबोला को ही मानते है। और इसे बड़ा मनहूस समझते है। और तभी से यह अनाथों की तरह अकेला ही रहता है और भीख मांगकर अपना पेट पालता है।


बाबा नरहरीदास — हे महादेव! इतनी नन्ही, मासूम सी जान के साथ गाँववाले इतना अन्याय कर रहे हैं! ये मूर्ख लोग इतना भी नहीं समझते कि बच्चे तो साक्षात् भगवान का ही स्वरूप होते हैं।

कोई इन अज्ञानी लोगों को समझाए कि किसी के जन्म या मृत्यु में किसी अन्य मनुष्य की कोई भूमिका नहीं होती। यह सब विधि का विधान है।

हर कोई ऊपर से अपनी तय सांसे लेकर आता है। और जब पूरी हो जाती है तब चला जाता है।


पुजारी जी — अब ज़माना ही ऐसा है, तो क्या किया जा सकता है? शायद इस अनाथ बालक का यही भाग्य है। दर-दर की ठोकरें खाना और भीख माँगकर जीवन गुज़ारना।

पुजारी जी की बातें सुनकर बाबा नरहरीदास को बहुत पीड़ा पहुंची। उनके भीतर से कोई आवाज़ बार-बार कह रही थी कि इस बच्चे को अपने साथ ले जाओ, इसका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा ठीक से होनी चाहिए।

वे सोच रहे थे — यह कोई साधारण बालक नहीं है, अपितु कोई दिव्य आत्मा है। शायद इसी कारण मेरे कदम आगे नहीं बढ़ रहे है।

इन्हीं विचारों को महादेव का आदेश जानकर उन्होंने इस बालक को अपने साथ ले जाने का निर्णय कर लिया।

पुजारी जी, आज तक भले ही यह बालक अनाथ रहा हो, पर अब नहीं है। इसके माता-पिता स्वयं महादेव और माता पार्वती हैं। उन्होंने ही मुझे प्रेरणा दी है कि मैं इसका अभिभावक बनकर इसे अपने संरक्षण में लूँ।

मैं इसे अपने साथ अयोध्या ले जाऊँगा, इसकी उचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करूँगा। इसे पढ़ा-लिखाकर एक विद्वान बनाऊँगा। भक्ति तो इसके स्वर में पहले से ही है, और ज्ञान चेहरे से छलक रहा है।

आप देखिएगा, यह गाँव जो आज इसे मनहूस कहकर अपमानित करता है — एक दिन इसी के सम्मान में सिर झुकाएगा।


उस दिन ये सब बाते सुनकर रामबोला के निराशा भरे जीवन में प्रेम की फुहार पड़ गई थी उसे अब कोई अपना मिल गया था जो उसे सम्मान से देख रहा था उसके सुंदर भविष्य की कल्पनाएं कर रहा था। और वे उसे बिना किसी लालच और स्वार्थ के वो सब कुछ देना चाह रहा था। जिसे पाने का अधिकार एक बालक को होता है। प्रेम, सुरक्षा, शिक्षा, अच्छी सुख सुविधाएं और एक सम्मानजनक जीवन और यही सब देने के लिए बाबा नरहरीदास बालक रामबोला को अपने साथ हाथ पकड़ कर के अयोध्या ले गए। 

अयोध्या नगरी में बाबा नरहरीदास जी का आश्रम बहुत सुंदर और शांत था। वहाँ कई बालक रहते थे, जो बाबा से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। अब उसी आश्रम में रामबोला की भी शिक्षा आरंभ होनी थी।

किन्तु शिक्षा प्रारंभ होने से पूर्व, वैदिक परंपरा के अनुसार उसका वैष्णव संस्कार एवं यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कार सम्पन्न होना आवश्यक था।

एक दिन रामबोला आश्रम में एक वृक्ष के नीचे शांत बैठा कुछ सोच रहा था। तभी बाबा नरहरीदास वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने प्रेम से पूछा,

पुत्र, कुछ सोच रहे हो क्या? क्या तुम्हें अपने गाँव की याद आ रही है?

रामबोला ने विनम्रता से उत्तर दिया, गाँव की याद तो नहीं आ रही है बाबा, पर एक बात सोच रहा था — गाँव में सब लोग मुझे ताने मारते थे, भला बुरा कहते थे। वे मुझे ऐसे देखते थे जैसे मैं कोई नीच वस्तु हूँ।

मगर यहाँ मुझे कोई बुरा नहीं कहता, उल्टा सब लोग मुझसे बड़े प्रेम से बात करते हैं। इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। क्योंकि जैसा मैं वहाँ था, वैसा ही यहाँ हूँ। मुझमें तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ... फिर मेरे साथ दूसरों के व्यवहार में क्यों परिवर्तन आ गया? पहले में बुरा समझा जाता था तो अब में अच्छा कैसे हो गया।

बाबा नरहरीदास मुस्कुराए और बोले,
पुत्र, इस पेड़ पर खिले इन फूलों को देख रहे हो?


रामबोला ने तुरंत कहा,
हाँ बाबा, बहुत सुंदर फूल हैं। क्या मैं इन फूलों में से दो-चार फूल लेकर प्रभु श्रीराम जी के चरणों में चढ़ा दूं?

बाबा नरहरीदास मुस्कराए और बोले,
पुत्र, तुम्हारे ही वाक्य में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर छिपा हुआ है।

हम किसी के प्रति कैसा व्यवहार करें, यह कोई दूसरा नहीं तय करता — यह हमारी अपनी बुद्धि, विवेक, समझ और चेतना तय करती है।

फूल तो फूल ही होता है। तुमने उसे देखा और तुम्हारे मन में आया कि इसे प्रभु के चरणों में चढ़ा दोगे। पर हो सकता है कि कोई दूसरा बालक उसी फूल को तोड़कर मसल दे और फेंक दे। कोई स्त्री उसे अपने शृंगार में उपयोग कर ले। कोई व्यक्ति उन फूलों को इकट्ठा करके माला बनाकर बेचने लगे।

इसी प्रकार, तुम भी वही रामबोला हो, लेकिन गाँव में जिसकी जैसी सोच थी, उसने तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार किया।

यहाँ आश्रम में सभी बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। उन्हें ज्ञात है कि हर प्राणी में एक ही परमात्मा का वास है। यहाँ कोई किसी को नीचा या ऊँचा नहीं समझता। सब समान हैं, सब अच्छे हैं।

लेकिन गाँव के लोग अज्ञानी हैं। वे डरे हुए हैं, पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें लगता है कि किसी और की वजह से उनका बुरा हो सकता है — और इसी भ्रम में वे तुम्हें दोषी ठहराते हैं।

रामबोला ने बात को समझते हुए पूछा,
ओह! तो क्या ज्ञान प्राप्त करना इतना आवश्यक है? क्या ज्ञान ही वह चीज़ है जिससे हम सही कार्य और सही व्यवहार करना सीखते हैं?

बाबा नरहरीदास ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया,
हाँ पुत्र, वह 'ज्ञान' ही है — जो हमारी बुद्धि को सही दिशा में चलना सिखाता है।

रामबोला ने बाबा से कहा, बाबा, मुझे भी ज्ञान चाहिए। कृपया मुझे भी ज्ञान दीजिए। बाबा मुस्कराए और बोले, पुत्र, इसी उद्देश्य से तो मैं तुम्हें अपने साथ यहाँ लाया हूँ। कुछ ही दिनों में तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार होगा, और तब तुम विधिवत् रूप से ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी बन जाओगे। उसके पश्चात् मैं तुम्हें वेदों, शास्त्रों और उपनिषदों की शिक्षा दूंगा। मेरे पास जो भी ज्ञान है, वह सब मैं तुम्हें प्रदान करूंगा।

रामबोला ने श्रद्धा से बाबा के चरण स्पर्श किए और उनका आशीर्वाद लिया। बाबा की बातें सुनकर उसका हृदय आनंद से भर गया। अब उसे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार था, जब उसका यज्ञोपवीत संस्कार होना था। वह प्रतिदिन प्रातःकाल जल्दी उठता और आश्रम के सभी छात्रों के साथ आश्रम के कार्यों में सहयोग करता। वह पेड़ों को जल देता, प्रभु श्रीराम के पावन चरणों में पुष्प अर्पित करता और तुलसी माता को नित्य श्रद्धापूर्वक जल चढ़ाता।

अब वह शुभ दिन भी समीप आ गया था, जिस दिन रामबोला का वैष्णव विधि से यज्ञोपवीत संस्कार होना था। संवत् 1561, माघ शुक्ल पंचमी, शुक्रवार के दिन उसका विधिवत् यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ। इसके पश्चात् वैष्णव परंपरा के पाँच संस्कारों द्वारा उसे संस्कारित किया गया। बाबा नरहरिदास ने उसे राम नाम का गुरु-मंत्र दिया, और इसी के साथ उन्होंने रामबोला को एक नया नाम भी दिया।


बाबा ने स्नेहपूर्वक कहा — पुत्र, आज तुम्हारा एक नया जन्म हुआ है। इस नवजीवन के साथ मैं तुम्हें एक नया नाम भी देता हूँ। भगवान विष्णु को तुलसी अत्यंत प्रिय है, और तुम प्रतिदिन आश्रम में लगे तुलसी के पौधे को प्रेमपूर्वक जल चढ़ाते हो। साथ ही, तुम प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त भी हो। इसलिए आज से तुम्हारा नाम ‘तुलसीदास’ होगा। आज से इस संसार में तुम इसी नाम से पहचाने जाओगे, और इसी नाम से तुम्हारी कीर्ति होगी। और ध्यान रखना, जिस दिन तक इस संसार में प्रभु श्रीराम का नाम रहेगा और जब तक इस संसार में प्रभु श्रीराम का नाम रहेगा, तब तक तुम्हारा नाम भी उनके नाम के साथ जुड़कर अमर बना रहेगा।

इस प्रकार रामबोला, जो अब तुलसीदास बन गया था। उसकी शिक्षा विधिवत् प्रारंभ हुई।

गुरुजी ने उसे वेद, शास्त्र, संस्कृत और व्याकरण की शिक्षा देना आरंभ किया। तुलसीदास ने भी पूर्ण मनोयोग से इन विषयों को सीखने में स्वयं को समर्पित कर दिया और जो भी शिक्षाएँ उसे प्राप्त होतीं, उन्हें वह अपने जीवन-आचरण में उतारने का प्रयास करता।

उसका मन केवल रामभक्ति में ही रमता था, और प्रभु श्रीराम के आशीर्वाद से उसने अल्प समय में ही गूढ़ ज्ञान प्राप्त कर लिया।

अब वह भी संस्कृत भाषा में कठिन से कठिन श्लोक रचने लगा था। उसके श्लोक सुनकर बाबा अत्यंत प्रसन्न होते और गर्व का अनुभव करते।

गुरुजी ने आश्रम में कई बार सभी शिष्यों को रामायण तथा प्रभु श्रीराम की लीला कथाएँ सुनाई थीं, किन्तु उस समय बालक तुलसीदास की बालबुद्धि प्रभु श्रीराम के दिव्य चरित्र को पूर्ण रूप से समझ नहीं पाती थी।

मय पुनि निज गुर सना सुनि कथा सो सूकरखेता।
समुझि नहिं तासा बालापना तब अति रहेउ॥

बाबा जहाँ-जहाँ रामकथा करने जाते, वहाँ बालक तुलसीदास भी उनके साथ जाया करता।
एक बार बाबा तुलसीदास को लेकर भगवान विष्णु के वराह अवतार के एकमात्र मंदिर वाले स्थान, सुकर क्षेत्र, रामकथा के लिए गए। वहाँ तुलसीदास ने बाबा से प्रभु श्रीराम के दिव्य चरित्र को विस्तार से सुना।

यद्यपि वह पहले से ही प्रभु श्रीराम के नाम से परिचित था और उनका नाम भी जपा करता था, परंतु प्रभु के अनंत चरित्र की महिमा को इतनी अच्छी तरह से नहीं जानता था।

पहली बार जब तुलसीदास जी ने बाबा की वाणी से प्रभु श्रीराम के विराट पावन चरित्र को सुना। तो वह अपने नेत्रों से आंसुओं को रोक नहीं पा रहा था। उसे इस प्रकार रोते देखकर बाबा ने प्रेम से पूछा —

“क्या हुआ तुलसी, रो क्यों रहे हो?”

तुलसीदास ने बाबा से कहा —
अब क्या कहूं बाबा...! मैं स्वयं को अब तक प्रभु श्रीराम जी का बहुत बड़ा भक्त समझता था,
लेकिन आज आपके मुख से प्रभु श्री राम जी की अनसुनी कथा सुनने के बाद मुझे एहसास हो गया कि में उस विराट चरित्र के एक अंश को भी नहीं जानता। ऐसा महान निर्मल चरित्र है मेरे प्रभु श्री राम का!

यही सोचकर मेरी आँखों से अश्रु बह रहे हैं।
आज यदि आपके मुख से ये रामकथा न सुनता तो शायद मैं अपने श्रीराम जी को कभी जान ही न पाता आपकी कृपा से में अपने प्रभु श्रीराम को जान पाया हूँ। 

गुरुदेव आज से प्रभु श्रीराम जी की भक्ति ही मेरा एकमात्र उद्देश्य है। राम का नाम, राम के काम, राम के चरणों में ही मेरे चारों धाम। 

धीरे धीरे समय बीतता गया। अब बालक तुलसीदास किशोर अवस्था में प्रवेश कर चुके थे। उन्होंने निरंतर शिक्षा ग्रहण की और बाबा ने भी अपना समस्त ज्ञान तुलसीदास जी को सौंप दिया। तुलसीदास जी भी सदैव जिज्ञासु भाव से उनसे कुछ न कुछ प्रश्न करते रहते - कई बार ऐसे प्रश्न भी पूछते, जिनका उत्तर स्वयं बाबा के पास न होता।

बाबा उनकी प्रतिभा को भली-भाँति परख रहे थे और मन ही मन सोचते, मेरे पास जो भी ज्ञान था, वह मैं तुलसीदास को दे चुका हूँ। अब समय आ गया है कि इस किशोर बालक को दूसरे योग्य गुरु के सान्निध्य में सौंपा जाए, जो इसकी योग्यता के अनुसार इसे महा ज्ञान प्रदान कर सके और इसकी प्रतिभा को और अधिक निखार सके।

यह निश्चय कर बाबा नरहरिदासजी तुलसीदास को साथ लेकर काशी नगरी की ओर चल पड़े, जहाँ उस समय के प्रसिद्ध विद्वान, वेद-शास्त्रों के ज्ञाता और महान गुरु श्री शेष सनातन जी रहते थे। और वे बाबा के परम मित्र भी थे।


बाबा नरहरिदास - शेष सनातन जी, प्रणाम।
मैं आज आपके समक्ष अपनी सबसे अनमोल धरोहर सौंपने आया हूँ।
स्वयं महादेव ने मुझे इस बालक तुलसी की रक्षा और मार्गदर्शन का दायित्व सौंपा था।

अब इसकी प्रतिभा और योग्यता को देखकर मुझे प्रतीत होता है कि इसे मुझसे भी अधिक योग्य और विद्वान गुरु की आवश्यकता है।

और आपसे श्रेष्ठ गुरु और कौन हो सकता है?
इसलिए मैं इसे आपके पास लेकर आया हूँ।
मैं चाहता हूँ कि इसकी शिक्षा में कोई भी कमी न रहे।

शेष सनातन जी खुश होकर बोले- यह तो मेरा सौभाग्य है कि मुझे तुलसीदास जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु बनने का अवसर मिल रहा है।

मैं तो इसे पहली नज़र देखते ही समझ गया था कि इसमें कोई विशेष बात अवश्य है, जो इसे अन्य शिष्यों से अलग बनाती है।

और जब आपने यह बताया कि स्वयं महादेव की प्रेरणा से आपने इसकी संरक्षा की है, तो अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि यह बालक भविष्य में असाधारण कार्य करेगा।

मेरे पास जो भी ज्ञान है, जो भी विद्या है। मैं उसे इस बालक को अवश्य प्रदान करूंगा।
आखिर मुझे भी एक दिन महादेव को मुँह दिखाना है।


बाबा नरहरिदास, तुलसीदास को गुरु के पास छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान कर गए। अब तुलसीदास, गुरु शेष सनातन जी के सान्निध्य में रहकर उनसे विधिवत् शिक्षा प्राप्त करने लगे।

अब काशी नगरी ही उनके लिए सबकुछ थी। वे वहाँ लगभग पंद्रह वर्षों तक रहे और इस अवधि में उन्होंने वेद, उपनिषद, शास्त्र तथा अन्य समस्त विद्याओं में निपुणता प्राप्त की।

जिस बालक को बचपन में एक रोटी भी भीख माँगकर खानी पड़ती थी, वही अब एक महाज्ञानी और महापंडित बन चुका था।

गुरु ने उन्हें उस समय की परंपरा के अनुसार वह समस्त ज्ञान प्रदान किया, जो एक योग्य शिष्य को प्राप्त होना चाहिए।

अब तुलसीदास भी संस्कृत में कठिन से कठिन श्लोक रचने लगे थे और लोकभाषा अवधी में भी उन्होंने काव्य रचना प्रारंभ कर दी थी। गुरु शेष सनातन जी भी उनकी शिक्षा और साधना से अत्यंत संतुष्ट थे।

जिन शिष्यों की शिक्षा संपूर्ण हो जाती, तो गुरु शेष सनातन जी अंत में हमेशा एक प्रश्न अवश्य पूछा करते। किन्तु अब तक उन्हें अपने इस प्रश्न का सटीक उत्तर किसी भी शिष्य से नहीं मिला था।

अब जब तुलसीदास की भी शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी, तो एक दिन गुरुजी ने उनसे भी वही प्रश्न किया।

गुरु शेष सनातन जी —
तुलसी, तुमने सभी वेदों और शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया है। हमारे धर्मशास्त्रों में अब ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम नहीं जानते।

अब तुम अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर यह बताओ कि…

“वेदों के हजारों लाखों श्लोकों मे लिखे ज्ञान का निचोड़ क्या है और वो एक बात क्या है जिसे जानने के बाद कुछ और जानना बाकी नहीं रह जाता।”

तुलसीदास गुरु के सामने हाथ जोड़े और बोले - "गुरुदेव में तो सभी वेदों का सार बस इस एक बात को मानता हूँ”

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

"पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥”

अर्थात — निःस्वार्थ भाव से दूसरों का भला करने से बड़ा कोई पुण्य नहीं है, और दूसरों को दुख पहुँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है।

जिसने इस सूत्र को अपने जीवन में उतार लिया, उसका जीवन वास्तव में सफल है और उसे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी।

फिर चाहे वह वेद-शास्त्र पढ़े या न पढ़े, इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता।

और जो भले ही अत्यंत ज्ञानी क्यों न हो, यदि उसने इस एक सूत्र को अपने जीवन में नहीं उतारा,
तो मेरी दृष्टि में वह अज्ञानी ही हैं।


गुरुजी, तुलसीदास का उत्तर सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने गर्व से गले लगाया और बोले —

तुलसी! आज तुमने मेरी शिक्षा को सफल बना दिया। आज वास्तव में तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई।

क्योंकि तुमने वह सार सीख लिया है, जिसे लोग वर्षों तक शिक्षा पाकर भी नहीं समझ पाते।

कुछ तो ज्ञान प्राप्त करके भी उसका अहंकार पाल लेते हैं।

पुत्र! अब मेरे पास ऐसा कुछ भी शेष नहीं है, जो मैं तुम्हें और सिखा सकूँ।
तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है। तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर मैं धन्य हो गया। 

तुलसीदास, शांत स्वर में बोले —
गुरुदेव,धन्य तो मैं हो गया।

बाबा नरहरिदास जी और आप जैसे महाज्ञानी गुरुओं से शिक्षा प्राप्त कर मैं स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता हूँ।

मुझे तो जन्म के साथ ही माता-पिता ने त्याग दिया था, गाँववालों ने भी मुझे मनहूस समझकर मुँह फेर लिया था।

और उसी अनाथ, अभागे बालक को आपने शिक्षा देकर एक महाज्ञानी बना दिया।

इसके बाद तुलसीदास ने भावुक होकर कहा —
गुरुदेव, आपके सभी शिष्यों ने आपको गुरु-दक्षिणा दी है, परंतु मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है...

गुरुजी मुस्कराए और बोले —
मन छोटा मत करो तुलसी।
समय आने पर मैं तुमसे अपनी गुरु-दक्षिणा अवश्य माँगूंगा — और शायद तब तुम उसे देने में सक्षम भी होगे।

तुलसीदास ने गुरू जी के चरण स्पर्श करते हुए कहा —
गुरुदेव, अब आप मुझ पर एक कृपा और करें — मुझे संन्यास की दीक्षा दे दीजिए।
अब मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य केवल “रामभक्ति” है।
मैं इस प्रपंच भरे झूठे संसार को त्याग देना चाहता हूँ।

तुलसीदास की बात सुनकर गुरु शेष सनातन जी गहरी सोच में पढ़ गए। वे भली-भाँति जानते थे कि तुलसीदास के भीतर कुछ सूक्ष्म विकार अभी शेष हैं, जिसे सुधारने के लिए अभी उसे इसी माया भरे संसार में रहना होगा। अभी उसके सन्यास का समय नहीं आया था।

अतः उन्होंने गंभीर स्वर में समझाते हुए कहा —
तुलसी, यह संसार तो हमारा दर्पण है, जो हमें हमारा वास्तविक चेहरा दिखाता है।
जंगलों - पहाड़ों में घर-संसार छोड़कर सन्यासी बनकर भक्ति करना तो बहुत आसान है,
लेकिन इस संसार के बीच रहकर भक्ति को साध लेना यह तलवार की नोक पर चलने जैसा है।

और तुम्हे भी अब लोगों को यही सिखाना है कि संसार में रहते हुए भी कैसे विकारों से बचा जा सकता है और प्रभु की भक्ति की जा सकती है।
इसलिए मेरी आज्ञा है कि तुम विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो और संसार को यह शिक्षा दो
कि ज्ञान और भक्ति के बल पर संसार में रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।



तुलसीदास को ऐसा लगा मानो गुरु ने उन्हें वर्षों तक जो शिक्षा दी थी, वह सब मिट्टी में मिल रही है। उन्होंने आश्चर्य से कहा —
हे गुरुदेव! आप यह क्या कह रहे हैं? कृपया मुझे ऐसी आज्ञा में मत बांधिए।
गृहस्थ बन जाने के बाद मुझे न तो माया ही मिलेगी और न ही श्रीराम, नमक-तेल-कड़ाही की चिंता में फँसकर न राम-भक्ति कर सकूंगा, और न ही लोककल्याण के कार्य।
कृपया मुझे इस सांसारिक झंझट में मत डालिए।

गुरुदेव ने शांत स्वर में उत्तर दिया —
तुलसी, गृहस्थ आश्रम कोई छोटा धर्म नहीं है।
सही अर्थ में, चारों आश्रमों में सबसे कठिन आश्रम यही है।
गृहस्थ ही समाज और देश की नींव होता है।
एक बात सदा स्मरण रखना - व्यक्ति को बांधने वाला उसका लालच और विकार होता है, न कि गृहस्थ जीवन।
वह गृहस्थी ही है, जिसके दान के बल पर एक सन्यासी अपनी तपस्या और जीवन का निर्वाह करता है।

और जरा अपने आदर्श भगवान श्रीराम को भी देखो क्या वे एक गृहस्थ नहीं थे? वे तो ईश्वर थे फिर भी उन्हें कितना कष्ट सहना पड़ा था। उन्होंने भी तो विवाह किया था। क्या उन्होंने लोक कल्याण के कार्य नहीं किए? क्या श्रीकृष्ण गृहस्थ नहीं थे। गृहस्थ होते हुए भी उनके जैसा परम योगी दूसरा और कौन होगा?

तुलसीदास ने संकोचपूर्वक कहा —
गुरुदेव, वे तो ईश्वरीय अवतार थे।
मायापति स्वयं माया के जाल में नहीं फँसते।
पर मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ।
यदि मैं माया में उलझ गया, तो मेरा क्या होगा?

गुरुदेव मुस्कुराए और बोले —
यही तो तुम्हें सीखना है, तुलसी, कि इस माया-सागर में रहते हुए, उससे पार कैसे पाया जा सकता है।
गृहस्थ जीवन जीते हुए भी, योगियों जैसा जीवन कैसे जिया जा सकता है।
माया के कीचड़ में भी, भक्ति का निष्पाप कमल कैसे खिल सकता है! यही तुम्हारी अगली साधना है।
अब यही मेरी आज्ञा है, यही मेरा आशीर्वाद है, और यही मेरी गुरु-दक्षिणा भी होगी।

जैसे श्रीराम सीता के बिना अधूरे हैं, वैसे ही तुम भी अपनी संगिनी के बिना अधूरे हो।
तुम्हारी आगे की शिक्षा तुम्हारी संगिनी के हाथों ही पूर्ण होगी।
वही तुम्हारी अगली गुरु होंगी, जो तुम्हें एक महत्वपूर्ण पाठ सिखाएगी।

गुरु शेष सनातन जी, एक सिद्ध पुरुष, महाज्ञानी और अत्यंत अनुभवी थे।
शायद वे तुलसीदास का भविष्य देख रहे थे।
उनकी आज्ञा के सामने तुलसीदास की एक न चली।
अंततः उन्हें विवाह का वचन देना पड़ा — आखिर गुरु-दक्षिणा भी तो देनी थी।
और गुरु, तो सदैव अपने शिष्य का ही कल्याण सोचते हैं।

गुरु ने उन्हें वहीं लौट जाने का आदेश दिया जहाँ से उनके जीवन की यात्रा आरंभ हुई थी।
उन्होंने कहा :- 
जिस कन्या के प्रति तुम्हारे हृदय में सहज और निर्मल आकर्षण जागे,
समझ लेना - वही तुम्हारी जीवन-संगिनी है।

गुरु की आज्ञा पाकर तुलसीदास चल पड़े अपने गाँव राजापुर की ओर —
जहाँ से उनके जीवन की वास्तविक शुरुआत हुई थी।







Chapter 3) तुलसीदास और रत्नावली का विवाह.




प्रभु श्रीराम, गुरु श्री शेष सनातन जी और बाबा नरहरीदास जी की कृपा से, तुलसीदास कम उम्र में ही एक प्रसिद्ध रामकथा-वाचक बन गए थे। उनकी रामकथा सुनने के लिए लोग दूर-दूर से बड़ी संख्या में एकत्रित होते थे। तुलसीदास भी अपने प्रभु श्रीराम से अत्यंत प्रेम करते थे, और इसी कारण वे उनकी कथा को बहुत प्यार और भाव के साथ लोगों के सामने प्रस्तुत करते थे। लोग भी बड़े ध्यान और आनंद से कथा सुनते, और वे भी अपनी सुध-बुध खोकर प्रभु श्रीराम के प्रेमभक्ति में डूब जाते थे।

गुरु की आज्ञा से गृहस्थ जीवन बसाने के लिए तुलसीदास अपने जन्मस्थान, गाँव राजापुर लौट आए। यह वही स्थान था जहाँ उनके माता-पिता ने ‘अभुक्त मूल’ में जन्म लेने के कारण उन्हें अमंगल मानकर त्याग दिया था। वही लोग, जिन्होंने कभी छोटे रामबोला को मनहूस कहकर भीख में रोटी तक नहीं दी थी, गाँव में प्रवेश करते ही तुलसीदास सबसे पहले उसी मंदिर की ओर बढ़े, जहाँ से बाबा नरहरीदास जी उन्हें अपने साथ ले गए थे। तन पर सफ़ेद धोती-कुर्ता, माथे पर चंदन का तिलक और कंधे पर राम-नाम का गमछा, उनका रूप बड़ा ही तेजवान था। मार्ग में लोग उन्हें विद्वान, ज्ञानी और पंडित मानकर आदरपूर्वक प्रणाम कर रहे थे, और तुलसीदास भी उनका दिल से अभिवादन कर रहे थे।

मंदिर में राम-नाम का कीर्तन चल रहा था। ढोलक, ताश और मंजीरे की मधुर ध्वनि, साथ ही किसी स्त्री की मधुर वाणी से गाए जा रहे भजनों की धुन, उनके कानों में पड़ते ही उनके तन-मन में आनंद की लहर दौड़ गई। मंदिर के निकट पहुँचकर तुलसीदास ने प्रथम सीढ़ी पर साष्टांग दंडवत करते हुए बड़ी श्रद्धा के साथ प्रणाम किया। उन्हें इस प्रकार सीढ़ियों को प्रणाम करते देख, बाहर आते पंडित ने कहा—

अरे पुत्र, प्रभु तो मंदिर के भीतर हैं। जाकर उनका साक्षात दर्शन करो, वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। ये सीढ़ियाँ तो केवल उन तक पहुँचने का मार्ग हैं।

तुलसीदास ने पुजारी जी से कहा:
पुजारी जी, मेरे लिए तो ये सीढ़ियाँ किसी तीर्थस्थल से कम नहीं हैं। ये मेरे लिए दूसरी काशी हैं, जिन्होंने मुझे मोक्ष का मार्ग दिखाया है। यहीं से तो बाबा नरहरीदास जी मुझे अपने साथ ले गए थे। उन्होंने मुझ जैसे अनाथ और मनहूस समझे जाने वाले बालक को, इसी सीढ़ी से उठाकर एक नया, सम्मानजनक और अर्थपूर्ण जीवन दिया। इस पर जितना भी सिर झुकाऊँ, वह कम है।

पुजारी जी ने तुलसीदास को ध्यान से देखा, बीते दिनों को याद किया और फिर बोले- 

कौन… रामबोला?

तुलसीदास ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।

पुजारी जी भावविभोर होकर बोले—
अरे बेटा, तुम तो कितने बड़े हो गए हो! किसी की नजर न लगे। सुना है बहुत नाम हो गया हैं तुम्हारा बड़ी अच्छी रामकथा कहने लगे हो इतनी सी छोटी उम्र में कवि तुलसीदास कहलाने लगे हो। मुझे तो साक्षात् तुम में प्रभु श्रीराम का स्वरूप दिख रहा है।

तुलसीदास ने विनम्रता से पुजारी जी के चरण स्पर्श किए।

पुजारी जी ने आशीर्वाद देते हुए कहा—
जुग-जुग जियो! प्रभु श्रीराम की कृपा सदा तुम पर बनी रहे।

तुलसीदास ने उत्तर दिया—
ये सब गुरुजी की कृपा है।

पुजारी जी ने कहा—
अब जब यहाँ आए हो, तो कुछ दिन हमारे मंदिर में भी रामकथा कहो। हमें भी तुम्हें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो। वैसे, इतने वर्षों बाद इस गाँव में आए हो, कोई महत्वपूर्ण काम है क्या?

काम तो था, पर वह ऐसा था जिसे तुलसीदास पुजारी जी से कह नहीं पाए। उनकी आँखों में लज्जा तैर आई। गुरुजी ने उन्हें एक खास उद्देश्य से यहाँ भेजा था, “विवाह हेतु” किंतु इसका उल्लेख वे किसी से नहीं कर सकते थे।

तुलसीदास ने सहज भाव से कहा—
नहीं पुजारी जी, कोई खास काम नहीं था। बस अपने गाँव आने का बहुत मन हो रहा था, इसलिए आ गया।

इसके बाद उन्होंने पुजारी जी से आज्ञा ली और मंदिर के अंदर जाने लगे। वहाँ अत्यंत मधुर कीर्तन हो रहा था। मंदिर के भीतर प्रवेश कर उन्होंने श्रद्धापूर्वक प्रभु श्रीराम और माता सीता के चरणों में प्रणाम किया।

आपदामप हर्तारम दातारं सर्व सम्पदाम,
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम ! 
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे,
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नमः

प्रभु के दर्शन कर तुलसीदास पीछे मुड़े और भजन-कीर्तन में लीन लोगों को देखने लगे। तभी उनकी नज़र एक किशोरी पर पड़ी, जिसके हाथ में वीणा थी और जो अपनी मधुर वाणी में भजन गा रही थी। उनकी आँखें बस उसी पर ठहर गई। उसकी मधुर आवाज तुलसीदास के कानो में गूंज रही थी। चेहरे पर उसके ऐसी दिव्य आभा चमक रही थी, मानो साक्षात मां लक्ष्मीजी का अवतार हो।

तुलसीदास उसे एक टक निहारते रह गए। उसी समय, मां गौरी की कृपा से, उस किशोरी की नज़र भी तुलसीदास की आँखों से मिली। उस क्षण उन्हें लगा मानो उनकी पूरी दुनिया बदल गई हो। उनकी वे सारी इच्छाएं और प्रतिज्ञाएँ हवा हो गई, जो उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर प्रभु श्रीराम की भक्ति में जीवन समर्पित करने के लिए ली थीं, ऐसा आकर्षण उन्होंने इससे पहले कभी किसी भी स्त्री के प्रति अनुभव नहीं किया था। उन्हें स्वयं समझ नहीं आ रहा था कि यह उनके साथ क्या हो रहा है। उनके हृदय में गुरु के प्रति असीम श्रद्धा थी, प्रभु श्रीराम के प्रति अटूट भक्ति थी, परंतु कभी किसी के प्रति ऐसा प्रेम और अपनेपन का भाव उन्होंने महसूस नहीं किया था। और करते भी कैसे, अपना कहने को था ही कौन, जो उन्हें प्रेम जैसे पवित्र भाव का आभास कराता?

माता हुलसी देवी तो उन्हें जन्म देने के कुछ ही दिनों बाद स्वर्ग सिधार गई थीं। पिता, जो बड़े ज्योतिषी और पंडित थे, अपनी विद्या से यह तो जान गए कि अभुक्त मूल में जन्म लेने वाला यह बालक मनहूस और अमंगलकारी है, परंतु इतने वेद-शास्त्र पढ़ने के बाद भी उन्हें यह ज्ञान नहीं हुआ कि कोई भी मनुष्य किसी के लिए मनहूस नहीं होता, हर कोई अपने ही कर्मों का फल भोगता है।

पिता ने भी उन्हें त्याग दिया था। अनाथ-सा जीवन जीते हुए, मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर भीख मांगकर वे अपना पेट भरते और लोगों से अपमान सहते थे। ऐसे में, वह प्रेम का कोमल स्पर्श वे कैसे जान पाते, जो उन्हें उस भजन गाती किशोरी की आँखों से महसूस हो रहा था।


पुजारी जी के कहने पर तुलसीदास ने प्रतिदिन उस मंदिर में रामकथा कहना प्रारंभ कर दिया। उनकी कथा सुनने लोग दूर-दूर से आने लगे। परंतु तुलसीदास की आँखें तो उन सभी लोगों के बीच केवल उस किशोरी को ही ढूंढती, जिससे मंदिर में पहले दिन नजरें मिली थीं। उनका हृदय केवल उसी किशोरी के मुखमंडल को देखकर प्रसन्न होता था। वह किशोरी भी प्रतिदिन अपने पिता के साथ तुलसीदास की रामकथा सुनने आती थी। वह भी प्रभु श्रीराम जी की अनन्य भक्त थी, आँखों ही आँखों में उन दोनों के बीच आत्मीयता बढ़ती जा रही थी। उन दिनों तुलसीदास के हृदय में जो प्रसन्नता थी, उसे वे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता।

उस किशोरी के पिता का नाम पंडित दीनबंधु था। वे कासगंज ज़िले के बदरिया गाँव के रहने वाले, अत्यंत धनवान और बड़े पंडित थे। कुछ दिनों के लिए किसी कार्यवश वे अपनी कन्या रत्नावली के साथ राजापुर में ठहरे हुए थे और प्रतिदिन तुलसीदास की रामकथा सुनने आते थे। तुलसीदास और रत्नावली के बीच आँखों-ही-आँखों में जो आत्मीयता पनप रही थी, संभवतः उन्होंने यह भाँप लिया था। वे तुलसीदास के अतीत से परिचित थे। कि उनके गुरुजनों के अतिरिक्त इस संसार में उनका कोई अपना नहीं था। इसी कारण उन्होंने तुलसीदास और रत्नावली के विवाह के लिए उनके गुरु से अनुमति प्राप्त की और एक संध्या, रामकथा समाप्त होने के बाद, तुलसीदास से बात की।

पंडित दीनबंधु: तुलसीदास जी, आपसे एक विनम्र निवेदन है। यदि आज्ञा हो तो कहूँ?

तुलसीदास: पंडित जी, आप तो मेरे पिता समान हैं। आपको निवेदन की आवश्यकता नहीं, आदेश दीजिए। मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?

पंडित दीनबंधु: नहीं तुलसीदास जी, कन्या के पिता को तो निवेदन ही करना होता है। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी पुत्री रत्नावली को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करें, तो इस पिता पर आपकी बड़ी कृपा होगी। मेरी पुत्री प्रतिदिन आपको देखने और आपके मुख से रामकथा सुनने के लिए व्याकुल रहती है। वह मन ही मन आपको पसंद करती है और मुझे लगता है कि आपको भी वह प्रिय है। इसी कारण मैं यह निवेदन करने का साहस कर रहा हूँ। मैंने आपके गुरु से भी अनुमति प्राप्त की है, और उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया है कि आप अपने गुरु की आज्ञा का अनादर नहीं करेंगे




तुलसीदास पंडित जी बोले—
अब आप तो सब जानते ही हैं, मैं आपसे क्या कहूँ? मगर अपनी स्थिति देखकर संकोच में हूँ। आप एक समृद्ध ब्राह्मण हैं और मैं एक गरीब, अनाथ और अकेला व्यक्ति हूँ, जिसका कोई स्थायी ठिकाना नहीं है। मुझे स्वयं पर भी विश्वास नहीं कि मैं आपकी पुत्री को संसार के सुख दे पाऊँगा या नहीं और आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाऊँगा।

पंडित जी ने उत्तर दिया —
भक्ति के साथ ज्ञान, ज्ञान के साथ विनम्रता, और बिना परिवार के भी परिवार के महत्व को समझना — यह एक योग्य व्यक्ति की निशानी है। मेरा मानना है कि जिनके पास ‘राम-नाम’ की निधि होती है, वे कभी गरीब नहीं होते, बल्कि अत्यंत समृद्ध होते हैं। और आपके सिर पर तो स्वयं प्रभु श्रीराम जी का हाथ है, फिर आप कैसे अनाथ हो सकते हैं भला? आप विद्वान हैं, वेदों के ज्ञाता हैं, और साथ ही एक कुशल कवि भी हैं। आप में अनेकों गुण हैं। मेरी पुत्री के लिए आप से अधिक योग्य वर और कहाँ मिलेगा? मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी पुत्री आपके साथ अवश्य सुखी रहेगी।

पंडित जी की बातें सुनकर तुलसीदास के मन में विश्वास जाग उठा। उन्हें अपने गुरु श्री शेष सनातन जी की वह बात भी याद आ गई, जब उन्होंने कहा था। जब किसी स्त्री के प्रति तुम्हारे मन में सहज आकर्षण उत्पन्न होगा, समझ लेना कि वही तुम्हारी अर्धांगिनी बनेगी। और वास्तव में ऐसा ही हो रहा था। उनका हृदय बार-बार रत्नावली को देखने के लिए व्याकुल रहता था।

इसलिए, प्रसन्न मन से उन्होंने पंडित जी की बात मान ली, उनके चरण स्पर्श किए, और तुरंत अपने प्रभु श्रीराम जी के पास जाकर हाथ जोड़कर उनका धन्यवाद किया, क्योंकि अब प्रभु की कृपा से उन्हें भी परिवार का सुख और साथ पाने का अवसर मिलने वाला था।

बस कुछ ही दिन बाद प्रभु की दया से वह शुभ दिन भी आ गया। संवत 1583 की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार को तुलसीदास और रत्नावली का विवाह उनके गुरु श्री शेष सनातन जी और बाबा हरिदास जी की उपस्थिति में संपन्न हुआ। विवाह के पश्चात रत्नावली, तुलसीदास की छोटी सी कुटिया में दुल्हन बनकर आ गई। रत्नावली को पत्नी रूप में पाकर तुलसीदास अत्यंत प्रसन्न थे। उनके अधूरे जीवन को रत्नावली ने पूर्ण कर दिया।

तुलसीदास रत्नावली के प्रेम में इतने डूबते जा रहे थे कि रत्नावली के बिना तुलसीदास का एक पल भी रहना कठिन हो गया था। जिन होंठों पर पहले ‘राम-राम’ का नाम रहता था, अब वहाँ केवल ‘रत्ना-रत्ना’ गूंजने लगा। क्या करते, आज से पहले किसी ने उन्हें इतना प्रेम दिया ही नहीं था। उन्हें कभी परिवार के साथ रहने का सौभाग्य नहीं मिला था, किंतु अब परिवार की अहमियत समझ में आने लगी।

जब भी तुलसीदास बाहर रामकथा करने जाते, उनका मन कथा में न लगता; पूरा ध्यान घर पर रत्ना की ओर ही रहता। वे जल्दी-जल्दी रामकथा पूरी कर कुटिया की ओर लौटते और रत्ना से मिलने दौड़ पड़ते। कुटिया पहुँचते ही रत्ना से कहते – आओ, मेरे पास बैठो। रत्ना हँसकर कहती – “आजकल आप रामकथा जल्दी समाप्त कर आते हैं।” तुलसीदास मुस्कुराकर कहते – “तो और क्या करूं! मेरा पूरा ध्यान यहीं घर पर, तुम्हारे पास ही लगा रहता है। मेरा मन तुम्हारे बिना कहीं नहीं लगता।”

दिन-प्रतिदिन उनका प्रेम रत्ना के प्रति बढ़ता जा रहा था। पहले जो आंखें केवल प्रभु श्रीराम के दर्शन पाकर धन्य हो जाती थीं, अब हर समय रत्ना को ही देखने की इच्छुक रहतीं। कई बार रत्ना के मायके से उसके भाई और भाभी उसे लेने आते, पर तुलसीदास कोई न कोई बहाना बनाकर उसे जाने नहीं देते। उन्हें रत्ना से एक क्षण की भी जुदाई स्वीकार न थी। रत्ना भी पतिव्रता धर्म निभाते हुए उनकी आज्ञा का उल्लंघन न करती और मायके न जाती।

कुछ समय बाद उनके जीवन में एक और खुशखबरी आई—तुलसीदास और रत्ना का अंश उनके बालक रूप में आया, जिसका नाम उन्होंने ‘तारक’ रखा। दोनों पति पत्नी अत्यंत प्रसन्न थे। उस अनाथ तुलसीदास को अब पूर्ण परिवार का सुख मिल गया था।

लेकिन यह खुशी अधिक दिनों तक न रह सकी। कुछ समय बाद उनके बालक की मृत्यु हो गई। तुलसीदास रत्ना के उदास मन को शांत करते। इसके बाद तुलसीदास का रत्ना के प्रति लगाव और भी गहरा हो गया। गुरु से शिक्षा लेते समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि सारा जीवन केवल प्रभु श्रीराम की भक्ति में और उनकी कथा जन-जन तक पहुँचाने में बिताएँगे, किंतु विवाह के बाद वे शायद अपने लक्ष्य से भटकने लगे थे।





Chapter 4) पत्नी रत्ना ने सिखाया महत्वपूर्ण पाठ.




रत्नावली एक समझदार स्त्री थी और वह यह समझ गई थी कि तुलसीदास उसके प्रेम और कामवासना में डूबते जा रहे हैं तथा अपने प्रभु श्रीराम को भूलते जा रहे हैं। एक दिन की बात है। जब तुलसीदास घर जल्दी लौटे, तो उन्होंने भीतर में आवाज देते हुए रत्ना से कहा
अरे रत्ना…! ओ रत्ना….! कहां हो? तुम्हें कितनी बार कहा है कि जब मैं घर में रहूं तो मेरे पास ही बैठा करो, मगर न जाने कहां चली जाती हो मुझे छोड़कर।

इस पर रत्ना गुस्से में बोली—
हम औरतों को घर के दस काम होते हैं - बाहर नदी से पानी भरकर लाना, घर में झाड़-बुहार करना, रसोई बनाना… हर समय आपके पास कैसे बैठी रहूं?

तुलसीदास ने कहा—
ये सब मैं नहीं जानता। मैं तुमसे एक क्षण की भी दूरी बर्दाश्त नहीं कर सकता। तुम नहीं जानती मेरे दिल की हालत। मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ।

रत्ना बोली—
अपने दिल को संभालना सीखिए। विवाह से पहले आप कैसे रहते थे? तब तो मैं आपके जीवन में नहीं थी, तब भी तो खुश थे न आप?

तुलसीदास बोले—
नहीं रत्ना, तब तो मैं जानता ही नहीं था कि खुशी क्या होती है। तुमसे विवाह करने के बाद ही समझ पाया कि सच्ची खुशी तो किसी के प्रेम में डूबकर ही मिलती है।

रत्ना ने कहा - 
प्रेम तो मैं भी आपसे बहुत करती हूं, पर मेरा प्रेम आपकी तरह बावलों जैसा नहीं है।

तुलसीदास बोले –
तुम मेरी दशा नहीं समझ सकती, रत्ना। उसे समझने के लिए तुम्हें मेरे जैसा जीवन जीना होगा। तुम तो हमेशा अपने परिवार के साथ रही हो, माता-पिता और भाई-बहनों का भरपूर स्नेह पाया है। लेकिन मैं अभागा, जो जन्म लेते ही अपनों से दूर कर दिया गया। मेरे जीवन में तुमसे पहले कोई भी ऐसा नहीं था, जिसे मैं अपना कह सकूँ। अब तुम हो, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ। मैं तुम्हें खुद से कैसे दूर जाने दूँ?

इतना कहते हुए उन्होंने रत्ना का हाथ खींचकर उसे अपने पास बैठा लिया। वह बोली – ये क्या कर रहे हैं आप? अभी तो शाम का समय है, रसोई बनानी है।

तुलसीदास मुस्कुराते हुए बोले – मैं उपवास कर लूंगा, लेकिन तुम्हें जाने नहीं दूंगा।
रत्ना ने आश्चर्य से पूछा – लेकिन आज आपने पूजा इतनी जल्दी कैसे समाप्त कर ली?

तुलसीदास ने गहरी सांस लेकर कहा – क्या करूँ, रत्ना? पहले ध्यान में बैठता था तो प्रभु श्रीराम जी का मुख दिखाई देता था, लेकिन अब वहाँ भी तुमने कब्ज़ा कर रखा है। पूजा-पाठ तो अब केवल औपचारिकता रह गया है, मन तो सदैव तुम्हारे आस पास ही रहता है।

रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा – इतनी आसक्ति और वासना उचित नहीं है, स्वामी। आप जैसे रामभक्त को ऐसा आचरण शोभा नहीं देता।

तुलसीदास ने बड़े प्रेम से उत्तर दिया – यह आसक्ति नहीं है, रत्ना, यह प्रेम है। सदियों से प्यासा, सूखा हृदय अब प्रेम की फुहार से भीग रहा है। इसे अभी भीगने दो। भक्ति और ध्यान के लिए तो पूरी उम्र पड़ी है, अभी तो बस प्रेम करने दो।

यह सुनकर रत्ना एकदम शांत हो गई। वह एक समझदार पत्नी थी, लेकिन तुलसीदास की ऐसी हालत देखकर घोर चिंता में पड़ गई। वह उनसे सच्चा प्रेम करती थी, इसलिए चाहती थी कि उसका पति, जिसकी कीर्ति एक रामभक्त ज्ञानी पंडित के रूप में है, साधारण इंसानों की तरह वासना का पुतला बनकर न रह जाए। वे भक्ति के जिस उच्च आसन पर विराजमान थे, वहाँ से नीचे न गिर जाएं। रत्ना कभी प्रेम से तो कभी डाँट कर तुलसीदास को समझाने की कोशिश करती, पर तुलसीदास कहाँ किसी की सुनने वाले थे। बचपन से ही प्रेम के प्यासे, अब जीवन में पहली बार, उन्हें एक सच्चे रिश्ते का स्वाद मिला था। इस एक रिश्ते ने उनकी सारी पुरानी कमी पूरी कर दी थी और वे इसे पूरी तरह जी लेना चाहते थे। लेकिन अब यह बात केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रही, बल्कि पूरे गाँव में इसका मज़ाक बनने लगा था। तुलसीदास अधिक समय घर में ही रत्ना के पास रहा करते, और जब रामकथा के लिए जाते भी, तो वहाँ से कोई न कोई बहाना बनाकर शीघ्र घर लौट आते। यदि रत्ना घर पर न मिलती, तो व्याकुल होकर बावलों की भाँति पूरे गाँव में उन्हें खोजने निकल पड़ते।

एक दिन, जब रत्ना पानी भरकर घर लौटी, तो तुलसीदास ने उसे अपनी बाँहों में खींच लिया। परंतु रत्ना ने गुस्से में उन्हें परे झटकते हुए कहा —
बस करो यह पागलपन! ज़रा भी शर्म नहीं आती आपको, ऐसा व्यवहार करते हुए?

तुलसीदास ने पूछा — कैसा व्यवहार, रत्ना? मैं किसी पराई स्त्री से तो प्रेम नहीं कर रहा। अब क्या अपनी पत्नी से भी प्रेम करना पाप है?

रत्ना ने कटु स्वर में कहा —
प्रेम करना पाप नहीं है, लेकिन वासना में डूबे रहना अवश्य पाप है। ज़रा देखिए अपनेआप को, पहले आपके चेहरे पर कैसी महिमा और तेज हुआ करता था! ऐसा तेज तो बड़े-बड़े ज्ञानी और ध्यानियों के चेहरे पर भी नहीं होता, और आज देखिए — स्वयं को वासना के दलदल में गिरे पड़े कीड़े जैसा बना लिया है आपने। क्या मुँह दिखाऊंगी मैं प्रभु श्रीराम को, कि उनके अच्छे-भले भक्त को मैंने एक कामी पुरुष बनाकर रख दिया!

जानते हो, संसार मुझे यही उलाहना दे रहा है, लोग मेरा मज़ाक उड़ा रहे हैं। …अब तो आपका प्रभु-भक्ति में भी मन नहीं लगता। रामकथा जल्दी-जल्दी पूरी करके घर आ जाते हो, और मुझे घर पर न पाकर बावलों की तरह पूरे गाँव में ढूँढते फिरते हो। गाँव वाले बातें बनाते हैं। जब मैं पानी भरने जाती हूँ, तो दूसरी औरतें कहती हैं — ‘पहले रत्ना को पानी भरकर जाने दो, नहीं तो तुलसी भैया उसे ढूँढते-ढूँढते पनघट पर आ जाएँगे।’ वे मुझ पर हँसते हुए कहती हैं — रत्ना, तुमने तुलसी भैया पर ऐसा क्या जादू-टोना, तंत्र-मंत्र किया है, जो इतने वर्षों बाद भी तुम्हे मुझसे इतना लगाव है? जो पहले केवल मंदिरों और भागवत-चर्चाओं में दिखते थे, अब तो बस घर के भीतर, रत्ना की बाँहों में पड़े रहते हैं। हमारे स्वामी लोग तो अब हमसे ठीक से बात भी नहीं करते।

तब तुलसीदास ने कहा —
प्रिय रत्ना, गाँववालों की बातों पर ध्यान मत दो। ये सब हमसे जलते हैं। इन गांव वालों का क्या हैं! बचपन में मुझे अनाथ और मनहूस कहते थे, और अब तुम्हें ताने दे रहे हैं। आज जब मैं अपनी पत्नी के साथ सुखी जीवन जी रहा हूँ, तो इन सबसे देखा नहीं जा रहा है। इसलिए तुम्हें सुनाते हैं। इनकी बातों पर ध्यान मत दो। मेरा बचपन बहुत कष्ट में बीता है, अब तुम तो मुझे कष्ट मत दो।

यह सुनकर रत्ना गुस्से से तिलमिला उठी और बोली —
आपको मैं नहीं समझा सकती!

इतना कहकर वह गुस्से में पीछे मुड़ी और अंदर जाकर रसोई में लग गई। वह तुलसीदास को समझा-समझाकर थक चुकी थी। किंतु तुलसीदास को समझ नहीं आ रहा था कि जो इंसान अपनी बुद्धि और चेतना खो बैठता है, वह प्रेम में नहीं, बल्कि वासना में डूबा होता है, और वासना इंसान को भक्ति के मार्ग से हटाकर उसका पतन कर देती है। रत्ना के लिए अब और समझाना कठिन हो गया था।

गाँव में ही रत्नावली की एक पक्की सहेली थी — श्यामा। रत्ना उससे अपने मन की सुख दुख की बात कर लिया करती थी। अब रत्ना फिर अपना दुख साझा करने के लिए श्यामा के पास गई और बोली- 

“क्या करूँ श्यामा, कुछ समझ नहीं आ रहा है कि अपने पति को सही राह पर कैसे लाऊँ। ज्ञान और भक्ति का मार्ग छोड़कर, तथा अपने प्रभु श्रीराम को भूलकर, वे प्रेम और वासना में उलझ गए हैं।”

श्यामा बोली —
सच कहूँ तो मुझे तेरा दुख समझ ही नहीं आता। ऐसी स्त्रियाँ तो खुद को बहुत भाग्यशाली मानती हैं, जिनके पति उनसे इतना प्रेम करते हैं, और तू इस बात से परेशान है! क्या तू अब तुलसी भैया से प्रेम नहीं करती? क्या तु चाहती है कि वे तुझसे दूर रहें?

रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा —
यानी, तू मेरी समस्या समझी ही नहीं। तुम्हारे तुलसी भैया का यह प्रेम अब वासना में बदल चुका है। मेरे प्रेम में पड़कर मेरे स्वामी अपने आराध्य प्रभु श्रीराम को भूल गए हैं। भक्ति मार्ग पर चलने वाले उस महान रामकथावाचक, ज्ञानी और पंडित के कदम डगमगाने लगे हैं और वे आसक्ति में डूब रहे हैं - और इन सबका कारण मैं ही हूँ। विवाह से पहले मेरे पिताजी ने इनकी प्रभु श्रीराम के प्रति भक्ति, ज्ञान और आदर्श देखकर ही मेरा विवाह उनसे किया था, लेकिन मुझे पाने के बाद स्वामी इन सबसे दूर हो गए हैं।

श्यामा ने पूछा —
तो फिर तुमने क्या सोचा, रत्ना?

रत्ना ने कहा —
मैं सोच रही हूँ कि कुछ महीनों के लिए अपने मायके चली जाऊँ। शायद मुझसे दूर रहकर वे फिर से प्रभु श्रीराम की शरण में लौट आएँ।

श्यामा ने चिंतित होकर पूछा —
पर क्या तुम उनके बिना रह पाओगी?

रत्ना बोली —
मुझे रहना ही होगा, श्यामा। मेरा प्रेम स्वार्थी नहीं है। मैं हमेशा वही करूँगी जिसमें मेरे स्वामी का भला होगा, चाहे इसके लिए मुझे उनसे अलग ही क्यों न रहना पड़े। मैं खुद को अपने पति की आध्यात्मिक यात्रा में बाधा नहीं बनने दूँगी। मेरे प्रेम से उन्हें कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन प्रभु श्रीराम की भक्ति से उन्हें मोक्ष अवश्य मिलेगा।

रत्ना को लगा कि शायद अकेले रहकर तुलसीदास अपनी गिरती हुई मनोदशा पर चिंतन करेंगे और प्रभु की दया से सही मार्ग पर लौट आएँगे। इसी कारण उसने मायके जाने का दृढ़ निश्चय किया। पर वह जानती थी कि जब तुलसीदास घर पर रहते हैं, तब तो रत्ना को एक पल के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होने देते; फिर इतनी दूर मायके जाने की बात - वह भी कई महीनों के लिए - असंभव।

इसलिए उसने निश्चय किया कि जब तुलसीदास घर पर न हों, तभी वह चुपचाप बिना बताए मायके चली जाएगी। वह अवसर भी शीघ्र ही आ गया, जब इन बातों से अनजान तुलसीदास को कुछ दिनों के लिए गाँव से दूर रामकथा के लिए जाना पड़ा।

मौका पाकर, रत्ना ने अपने भाई को बुलावा भेजा और उसके साथ मायके चली गई।

जब तुलसीदास घर लौटे, तो रत्ना घर पर नहीं थी। वे थोड़ा घबरा गए और सोचा, शायद वह पानी भरने पनघट गई होगी। वे तुरंत पनघट की ओर दौड़े और वहाँ पानी भरने आई अन्य स्त्रियों के बीच अपनी रत्ना को ढूँढ़ने लगे। लेकिन रत्ना कहीं न दिखी। तुलसीदास को यूँ पागलों की तरह रत्ना को ढूँढ़ते देख, वे स्त्रियाँ उनका मज़ाक बनाने लगीं।

अरे.. क्या हुआ तुलसी भैया? रत्नावली तुम्हें छोड़कर कहीं चली गई क्या? आपको बताकर नहीं गई क्या? अरे राम-राम! पति बावला बनकर इधर-उधर घूम रहा है और वह न जाने कहाँ घूम फिर रही है!

तुलसीदास ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर पूरे गाँव में अपनी रत्ना को ढूंढा, पर वह कहीं न मिली। थके-हारे वे घर लौटे, तो उनके लिए श्यामा भोजन लेकर आई और बोली—

तुलसी भैया, चिंता मत कीजिए। रत्नावली कुछ दिनों के लिए मायके गई है। बहुत दिनों से उसका मन मायके जाने को था। यह आपके लिए पत्र छोड़ गई है। कह रही थी कि उसके जाने के बाद मैं आपको खबर कर दूँ और आपको भोजन भी दे दूँ। आप यह भोजन कर लीजिए।

तुलसीदास ने व्याकुल होकर कहा—
श्यामा बहन, ऐसा भी कोई करता है क्या? अनहोनी की आशंका से तो मेरे प्राण ही निकल गए थे! अगर मायके ही जाना था, तो मुझे बताकर भी तो जा सकती थी।

श्यामा ने तुरंत उत्तर दिया—
आपको बताकर जाती तो क्या आप जाने देते? पहले भी कई बार रत्ना के मायके से उसके भाई उसे लेने आए थे, पर आपने हमेशा कोई-न-कोई बहाना बनाकर उसे जाने नहीं दिया।

श्यामा की बात सुनकर तुलसीदास एकदम चुप हो गए। वे जानते थे कि रत्ना ने कई बार मायके जाने की जिद की थी, पर उन्होंने उसे आज्ञा ही नहीं दी। शायद इसी वजह से इस बार उसने बिना बताए ही मायके जाने का निश्चय किया।

वे उदास होकर बैठ गए और आँसुओं में डूबते हुए बोले
हे प्रभु! मेरी रत्ना के बिना यह घर कैसा खाली खाली लग रहा है… जैसे यह मकान नहीं, श्मशान हो। मैं उसके बिना कैसे रहूँगा? कहीं यह अकेलापन मेरे प्राण न ले ले। श्यामा जो भोजन लेकर आई थी, अब उसे खाने का भी जी नहीं कर रहा है। ऐसी पीड़ा मैंने जीवन में पहले कभी महसूस नहीं की।

तुलसीदास का मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। वे यहाँ से वहाँ चक्कर काट रहे थे। दोपहर शाम में बदल गई और शाम रात में, पर रत्ना के बिना उस घर में रहना उनके लिए मुश्किल होते जा रहा था। वर्षों से वे रत्ना के बिना अकेले नहीं रहे थे। उनका तन-मन, सब कुछ, बस रत्ना के विचारों में डूबा था। उसके बिना एक पल भी काटना कठिन था। तुलसीदास रत्ना के प्रेम में पूरी तरह डूब चुके थे, और अब उसके बिना वे एक क्षण भी नहीं रह पा रहे थे। रात गहरी हो चुकी थी। बाहर तूफ़ान के साथ तेज़ बरसात शुरु हो गई थी, और अंदर रत्ना की याद में तुलसीदास की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। फिर उन्होंने सोचा—

मैं भी रत्ना के मायके चला जाता हूँ। दो-चार दिन उसे वहाँ सबसे मिलवाकर, फिर अपने साथ वापस ले आऊँगा। हाँ… यही ठीक रहेगा।

उस अंधेरी रात में घर के बाहर तूफान के साथ मूसलाधार वर्षा हो रही थी, और घर के भीतर तुलसीदास बेचैनी से इधर-उधर टहल रहे थे। उनके हृदय को एक पल भी चैन नहीं मिल रहा था। कुछ देर बाद उन्होंने निश्चय किया कि आज ही अपने ससुराल जाएंगे। परंतु ससुराल नदी के उस पार, दूसरे गाँव में था, और बाहर मूसलाधार तूफ़ानी बरसात चालू थी। घर से बाहर निकलना प्राणों को संकट में डालने के समान था।

किन्तु उन्होंने रत्नावली के पास जल्द से जल्द पहुँचने का संकल्प कर लिया था। इसलिए तुलसीदास उस तेज़, तूफ़ानी वर्षा में ही रत्ना से मिलने घर से निकल पड़े। प्रभु श्रीराम जी का नाम जपते जपते वे जैसे-तैसे नदी के तट पर पहुँचे। उस भयंकर वर्षा में नदी का पानी भी उफान पर था और आस-पास न तो कोई नाव दिख रही थी, न ही कोई नाविक। वे सोचने लगे—इस अंधेरी रात में उफनती नदी को कैसे पार करूँ? क्या तैरकर ही पार हो जाऊँ? हे प्रभु! मेरी रक्षा करना।

वे दूर-दूर तक नदी पार करने का कोई मार्ग खोज रहे थे, तभी अचानक नदी में नाव जैसी आकर का लकड़ी का एक लठ्ठा किनारे की ओर आता दिखाई दिया, जो बिना नाविक के हिचकोले खा रहा था। इसे देखकर उनके चेहरे पर प्रसन्नता छा गई और उन्होंने प्रभु श्रीराम का धन्यवाद किया—प्रभु ने मेरी सहायता के लिए एक नाव भेज दी है, अब इसी के सहारे मैं नदी पार कर लूँगा।

तुलसीदास उसी मोटे लकड़ी के लट्ठे को पकड़कर नदी में कूद पड़े और उसी के सहारे तैरते हुए जैसे-तैसे नदी पार कर ली। नदी का पानी बहुत ठंडा था, जिससे उनका पूरा शरीर ठंड से कांपने लगा। भीगे हुए कपड़ों में उनकी हालत बहुत खराब हो गई थी, पर फिर भी वे प्रसन्न थे कि सकुशल नदी पार कर ली है और अब कुछ ही देर में अपनी प्रिये रत्नावली से मिलने वाले हैं। आधी रात बीत चुकी थी, चारों ओर केवल तेज हवाएँ और मूसलाधार बारिश हो रही थी। ऐसे में, तुलसीदास अपने ससुराल पहुँचे और दरवाज़ा खटखटाने लगे।

लेकिन किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला। सब लोग भीतर गहरी नींद में सो रहे थे और शायद बारिश की आवाज़ में दरवाज़ा खटखटाने की ध्वनि भीतर तक नहीं पहुँच पा रही थी। तब तुलसीदास को रत्ना की एक बात याद आई, जब उसने एक बार कहा था कि उसका कमरा ऊपरी मंज़िल पर है। तुलसीदास ने सोचा—यदि किसी तरह इस दीवार से चढ़ जाऊँ, तो सीधे रत्नावली के कमरे तक पहुँच सकता हूँ।

यही सोचकर वह ऊपरी मंज़िल की खिड़की खोजने लगे, जहाँ से भीतर प्रवेश किया जा सके। घर के पीछे ही वह खिड़की दिख गई। अंधेरी रात में खुशी की बात यह थी कि उस खिड़की से एक मोटी रस्सी लटक रही थी। वह थोड़ी छोटी थी, लेकिन पकड़कर चढ़ने लायक थी।

तुलसीदास ने प्रभु को धन्यवाद करते हुए बोले- “प्रभु श्रीराम सदा सहायते”, पहले उन्होंने नदी पार करने के लिए नाव की व्यवस्था कर दी, और अब इस रस्सी की भी। प्रभु भी चाहते हैं कि उनका भक्त तुलसी अपनी पत्नी रत्ना से जल्द से जल्द मिले।

बस, आगे बिना सोचे-समझे और मिलने के उत्साह में तुलसीदास उस रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ने लगे। जैसे ही वह खिड़की से कमरे में कूदे, उन्होंने देखा—रत्ना अपने बिस्तर पर गहरी नींद में सो रही थी। उनके कूदने की आवाज़ सुनकर वह तुरंत जागी और ज़ोर से चिल्लाने लगी- कौन… कौन… कौन है?

तुलसीदास बोले – अरे रत्ना, मैं… मैं हूँ, तुम्हारा तुलसी। और जरा धीरे बोलो, कहीं तुम्हारे परिवार वाले न जाग जाएँ।

ऐसी बुरी हालत में अचानक तुलसीदास को देखकर रत्ना हड़बड़ा गई। उसका चेहरा एकदम लाल हो गया, पर रत्ना को देखकर तुलसीदास की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। रत्ना को उनका यहाँ आना अच्छा नहीं लगा। वह गुस्से से बोली – आप यहाँ इस तूफ़ान और बारिश में, इतनी रात को इस तरह कैसे आ गए? ऐसी क्या मुसीबत आन पड़ी?

तुलसीदास बड़े प्यार से बोले – अरे, उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। पहले तुम बताओ कि तुम अचानक मुझे बताए बिना मायके क्यों चली आईं? जानती हो, कैसी हालत हो गई थी मेरी… कैसे-कैसे बुरे विचार आ रहे थे। 

अगर मायके आना ही था तो बता कर आतीं।

रत्ना ने कहा – वाह! जैसे पहले बताकर आती तो आप मुझे आने देते। मगर ऐसे खराब मौसम और इतनी रात में आप यहाँ पहुँचे कैसे?

तुलसीदास मुस्कराकर बोले – बस, रामजी की कृपा से पहुँच गया। उन्होंने कदम-कदम पर मेरी सहायता की। पहले नदी पार करने के लिए एक तैरता हुआ लकड़ी का लठ्ठा भेज दिया, जिसके सहारे मैंने नदी पार की। फिर तुम्हारे कमरे तक आने के लिए छज्जे से लटकती रस्सी मिली, उसी के सहारे मैं ऊपर आ गया। 

अच्छा… कहीं तुमने तो वह रस्सी नहीं लटकाई थी?

रत्ना को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह तुरंत छज्जे पर देखने गई। वहाँ पहुँचते ही वह डर के मारे जोर से चिल्ला उठी –
हाय प्रभु! यह तो कालिया नाग लटका हुआ है! क्या आप इसके सहारे ऊपर आए।



तुलसीदास स्वयं हैरान रह गए और सोचने लगे—क्या मैं सचमुच एक साँप को रस्सी समझकर उसके सहारे ऊपर चढ़ गया?

तभी रत्ना बोली- चलो, नदी के तट पर भी देख लें कि आपने नदी किसके सहारे पार की थी। अब तूफ़ान और बारिश थम चुकी थी, और थोड़ा थोड़ा दिन भी निकल आया था। रत्ना, तुलसीदास को लेकर नदी के किनारे पहुँची, जहाँ तुलसीदास ने वह लकड़ी का लट्ठा छोड़ा था। दोनों उसे देखते ही चौंक उठे। दरअसल, वह लकड़ी का लट्ठा नहीं, बल्कि एक शव था, जो कई दिनों से पानी में रहकर अकड़ गया था। अँधेरे में साफ न दिखने के कारण तुलसीदास ने उसी शव के सहारे नदी पार कर ली थी।

यह देखकर रत्ना ने अपना सिर पकड़ लिया और तुलसीदास के पागलपन पर रोने लगी। फिर गुस्से में बोली—
ये आपको क्या हो गया है?

तुलसीदास बोले—‘मैं खुद नहीं जानता, रत्ना… मुझे क्या हो गया…

ओ रत्ना… रत्ना…

रत्ना तिलमिलाई और बोली 

रत्ना… रत्ना… रत्ना…

क्या रखा है इस ‘रत्ना’ में, जो आप इतने पागल हो गए हैं?

तुलसीदास बोले - 
क्या नहीं है मेरी रत्ना में, उसके अंग-अंग में सुंदरता है, प्रेम है… जी चाहता है कि इस सुंदरता के सागर में हमेशा के लिए खो जाऊँ।

रत्ना ने फिर कहा - 
मैंने नहीं सोचा था कि आप मेरे प्रेम में इतने बावले हो जाएँगे। मैंने तो एक विद्वान, ज्ञानी और रामभक्त से विवाह किया था। लेकिन यह कौन है, जो मेरे सामने खड़ा है। वासना में डूबा, कामनाओं का मारा, एक साधारण मनुष्य से भी गिरा हुआ व्यक्ति! यह मेरा पति नहीं हो सकता।

मैंने सोचा था कि आप एक महान रामभक्त बनेंगे, बाबा नरहरिदास और गुरु शेष सनातन जी का नाम उज्ज्वल करेंगे। परंतु आपने मेरी आशाओं पर पानी फेर दिया…

लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक्-धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥


आपको तनिक भी लाज नहीं आई कि आप दौड़ते हुए मेरे पास चले आए! ऐसे प्रेम पर धिक्कार है—यह प्रेम नहीं, वासना है।

अस्थि-चर्ममय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत॥


हे नाथ! जितना लगाव आपको मेरे इस अस्थि और चमड़ी के बने नश्वर शरीर से हो गया है, उतना यदि आपने अपने प्रभु श्रीराम से लगा लिया होता, तो आपके सारे भय और दुख दूर हो जाते और आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती।

रत्ना के ये शब्द तुलसीदास के हृदय में तीर की भाँति चुभे। वे अंदर तक व्यथित हो उठे और उन्हें अपने किए पर पश्चाताप होने लगा।


उन्होंने काँपते स्वर में कहा –
रत्ना…! यह तुम क्या कह रही हो?

रत्ना ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया –
सत्य कह रही हूँ, स्वामी। आपको इतने महान गुरुओं से अमूल्य ज्ञान मिला, प्रभु की भक्ति का पावन प्रसाद मिला। किन्तु आपने एक क्षणिक शरीर की वासना में वह सब मिट्टी में मिला दिया। क्या कभी इस क्षति की भरपाई हो पाएगी? मेरी सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि इस अनर्थ का कारण मैं बनी। मेरा मन कहता है, इसी क्षण इस शरीर को गंगा मैया के हवाले कर दूँ, जिसने आपको इतना गिरा दिया।

तुलसीदास बिलखते हुए बोले –
नहीं रत्ना… भगवान के लिए ऐसा मत कहो। जन्म से मुझे परिवार का प्रेम नहीं मिला था, प्रेम का अर्थ भी न जानता था। बाबा नरहरीदास और गुरु शेष सनातन जी से संसार का ज्ञान तो बहुत मिला, पर जब से तुम मेरे जीवन में आईं और मुझे इतना प्रेम दिया, मैं प्रेम मोह में बहक गया। 

तुलसीदास के आंखों से अश्रु की धारा बह रही थी। उन्हें अपने कष्ट भरे बचपन से लेकर, बाबा नरहरीदास और शेष सनातन द्वारा सिखाई सब बाते तथा अपनी प्रतिज्ञा स्मरण होने लगीं, थोड़ी देर चुप रहने के बाद तुलसीदास रत्ना से बोले..

रत्ना.. तुमने आज मेरी आँखें खोल दीं। मैं सौगंध खाता हूँ कि आज के बाद में तुम्हें अपनी सूरत नहीं दिखाऊँगा। अब यह तुलसीदास केवल और केवल प्रभु श्रीराम के पथ पर ही चलेगा। आज से मैं इस गृहस्थ आश्रम का त्याग करता हूँ, जिसने मुझे वासना के कीचड़ में डुबो दिया। मैं आज से संन्यास लेता हूँ।

इतना कहकर तुलसीदास अपने ससुराल से उल्टे पाँव लौट पड़े…


Chapter 5) मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ…

उस रात के तूफ़ान ने तुलसीदास के जीवन में भी एक भीषण तूफ़ान खड़ा कर दिया था। उनकी प्रिय रत्ना उनसे सदा-सदा के लिए दूर हो चुकी थी। वे रत्ना के मायके से तो निकल आए, किंतु रत्ना के वे शब्द उनके हृदय को बार-बार व्यथित कर रहे थे। अब अपने गाँव लौटने का मोह भी उनके हृदय से समाप्त हो चुका था। उनके मन में असंख्य प्रश्न उठ रहे थे। वे नगर-नगर भटकने लगे। व्याकुल मन उन्हें कहीं भी शांति से बैठने नहीं देता और न ही किसी नगर में टिकने देता। वे मंदिर-मंदिर जाकर प्रभु के चरणों में आँसू बहाने लगे।

मन में हज़ारों प्रश्न उमड़ते रहते—कभी सोचते, "आख़िर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ?" कभी पछताते कि क्यों गुरु की आज्ञा मानकर मैने विवाह किया, और क्यों गुरु ने जानते हुए भी मुझे गृहस्थी के दलदल में डाल दिया, जिससे मेरा पतन हो सके। कभी क्रोध की अग्नि में जलते कि रत्नावली ने उनके साथ इतना कठोर व्यवहार क्यों किया। क्यों मेरे प्रेम में रत्ना को केवल वासना ही दिखाई दी? 

यह पीड़ा उनके हृदय को छलनी कर रही थी। इन्हीं उलझनों में उनका मन न भक्ति में लगता, न ही संसार में। यही पीड़ा लेकर वे पुनः अपने गुरु श्री शेष सनातन जी के पास लौट आए।

तुलसीदास बोले —
देखिए गुरुदेव, मेरी अवस्था को..
मेरे प्रभु श्रीराम मुझसे रूठ गए हैं। 
रत्ना ने भी मेरे प्रेम को वासना समझकर मुझे अपने से दूर कर दिया। 
मैं तो न राम का रहा, न ही घर-संसार का। 
आपने जान-बूझकर मुझे गृहस्थी के इस दलदल में क्यों धकेला? 
विवाह से पहले कितना सुखमय जीवन था मेरा।

गुरु जी तुलसीदास की ओर देखकर मंद-मंद मुस्कुराए और बोले —
तुलसी, तुमने केवल बुराई ही देखी, अच्छाई नहीं। आओ, तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ - एक ऐसे तपस्वी की, जिसे उसके गाँव वाले निकम्मा और बुद्धिहीन समझते थे। वह किशोरावस्था में ही घर-संसार छोड़कर पहाड़ों और जंगलों में भटकने लगा और फिर वहीं रहकर कई वर्षों तक घोर तपस्या की। उसने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं, सभी विकारों काम, क्रोध, लोभ और मोह से ऊपर उठ गया था।

एक दिन उसने सोचा - क्यों न अब गाँव लौटकर सबको दिखाया जाए कि जिसे वे लोग निकम्मा समझते थे, वह आज कितना महान सिद्ध तपस्वी बन चुका है। वह जब अपने गाँव पहुँचा तो देखा, कुछ बच्चे खेल रहे थे और कच्चे आम तोड़कर एक-दूसरे पर निशाना साध रहे थे। उसी समय गलती से एक बच्चे का निशाना उस तपस्वी के आंख पर लग गया। तपस्वी दर्द से कराह उठा और क्रोध में बच्चों को खूब डाँटा। वह इतना क्रोधित हो गया था कि उसका मन किया उस बच्चे को पीट ही डाले। वह गुस्से में बच्चे के पीछे दौड़ा।

तभी उसका एक पुराना मित्र वहाँ आ पहुँचा। उसने यह दृश्य देखकर कहा - ‘मैंने तो सुना था कि तुम क्रोध, लोभ से ऊपर उठ चुके हो, फिर यह क्या है? तुम्हारे हिमालय से तो हमारा गाँव अच्छा है। तुम्हारे हिमालय ने तुम्हें भ्रम में रखा था कि तुम विकारों से मुक्त हो गए हो, लेकिन गाँव ने तुम्हें आईना दिखा दिया कि तुम अभी भी वहीं के वहीं हो।’

यह सुनकर तपस्वी को बड़ा झटका लगा। तब उसे समझ आया कि विकार अभी भी उसके भीतर ही दबे हुए थे, जो केवल बाहरी परिस्थितियों के कारण प्रकट नहीं हो पा रहे थे। क्योंकि हिमालय पर न ही कोई क्रोध करने वाला था और न ही किसी प्रकार की लोभ माया थी, फिर उसने संसार में रहकर ही अपने विकारों पर विजय पाई — काम, क्रोध, लोभ, मोह को जड़ से नष्ट किया, और तभी वह सच्चा तपस्वी बन सका।

इसी प्रकार, तुम्हे भी तुम्हारे अंदर छिपे विकारों के दर्शन तब हुए जब तुम्हारा विवाह हुआ। यदि तुम्हारा विवाह रत्नावली से न होता, तो तुम्हें कभी पता ही न चलता कि तुम्हारे भीतर प्रेम की कितनी प्यास, कितनी तड़प और कितनी वासना छुपी है, और तुम्हारी प्रभु-भक्ति कितनी कमजोर है, जो किसी भी समय डगमगा सकती है। इसलिए मैंने कहा था — अगली गुरु तुम्हारी पत्नी होगी। और देखो, उसने तुम्हें तुम्हारी कमियों से परिचित करा दिया। तुलसी, अपनी पत्नी के प्रति मन में जो भी क्रोध और दुख है, उसे त्याग दो। उसके त्याग और बलिदान का सम्मान करो, उस देवी को नमन करो।

तुलसीदास बोले —
गुरुदेव, मैं आपकी सभी बातों से सहमत हूँ, परंतु मेरे मन में एक दुविधा अब भी है। जो कमी थी, वह मुझमें थी — इसमें रत्नावली का क्या दोष? उसे इतनी बड़ी सजा क्यों मिली? क्यों उसे सुहागन होते हुए भी परित्यक्ता का विष पीना पड़ा? उसके भाग्य में इतने दुःख क्यों लिखे गए?

गुरु शेष सनातन बोले —
इस धरती पर मनुष्य का जन्म केवल सुखी जीवन जीने के लिए नहीं होता, बल्कि अपने कर्म, कर्तव्य और विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है। अपने प्रभु श्रीराम का जीवन देखो — क्या वे इस धरती पर कुछ पल के लिए भी सुखपूर्वक रह सके थे? विवाह के तुरंत बाद वनवास, माता सीता का अपहरण, लंकापति रावण से युद्ध, और फिर लोक-भय के कारण माता सीता से बिछुड़ना! फिर भी उन्होंने धरती पर रहते हुए अपने कर्तव्यों और उद्देश्य को पूर्ण किया। जब ईश्वरीय अवतार को स्वयं इतने संघर्ष सहने पड़ते हैं, तो हम मनुष्य की तो क्या बात? 

दरअसल सुख-दुःख की परिभाषा मनुष्यों ने स्वयं बनाई है। तुम्हारे लिए सुख की परिभाषा थी - रत्नावली के साथ रहना। किंतु रत्नावली के लिए सुख का वास्तविक अर्थ था - तुम्हारा भक्ति-पथ पर आगे बढ़ना। वह कोई साधारण स्त्री नहीं थी, जो केवल पति के साथ को ही सुख माने; बल्कि वह अपने पति के आध्यात्मिक विकास को ही सच्चा सुख समझती है। उसका प्रेम निस्वार्थ है।

तुमसे अलग होकर वह स्वयं भी अकेली हो गई है, उसके प्रेम और बलिदान का सम्मान करो। अब पिछली बातों को भूलकर अपने जीवन का विशेष उद्देश्य पहचानो और उसे पूर्ण करो। अपने प्रभु श्रीराम की भक्ति में लीन हो जाओ। तुम्हारी वाणी में जादू है, और तुम्हारी रामकथा कहने की शैली लोगों को सहज ही मोहित कर लेती है। अतः अपने प्रभु श्रीराम की महिमा का व्यापक प्रचार-प्रसार करो।







Chapter 6) तुलसीदास जी की भक्ति यात्रा का आरंभ.




गुरुदेव से आज्ञा लेकर तुलसीदास जी अपने नए जीवन की शुरुआत करने और प्रभु श्रीराम जी को प्राप्त करने चल पड़े। उन्होंने प्रभु के चारों तीर्थ - बद्रीनाथ, रामेश्वरम्, द्वारका और जगन्नाथ पुरी की यात्रा की। वहाँ उन्होंने प्रभु के दर्शन किए, अनेक संतों से मिले और रामकथा का प्रचार प्रसार किया। इसके बाद उन्होंने हिमालय की यात्रा की, मानसरोवर की परिक्रमा की और वहीं साक्षात् काकभुशुंडी जी के दर्शन भी किए, जो अनेक साधु-संतों और ऋषियों को रामकथा सुना रहे थे।

तुलसीदास जी हर स्थान पर अपने प्रभु श्रीराम को ही ढूंढते रहते। उनके मन में अब केवल श्रीराम बसे थे; उनकी आँखें प्रभु के दर्शन की प्यासी थीं और उनकी हर एक सांस प्रभु का ही नाम पुकारती थी। किंतु कभी-कभी रत्नावली की यादें उनके मन को व्यथित कर देती थी। रत्ना से तो वे अलग हो चुके थे, परंतु आज भी उनके दिल में एक ऐसा धागा था जो टूटे नहीं टूट रहा था।

एक दिन वह अंतिम धागा भी टूट गया — जब मानसरोवर की यात्रा से लौटकर वे अयोध्या में कुछ दिन के लिए रुके हुए थे, तब उन्हें रत्नावली के देहांत का समाचार मिला। यह सुनते ही उनका अंतिम धागा भी टूट गया। अगले दिन वे चित्रकूट पहुँचे, अपनी प्रिय पत्नी का श्राद्ध किया और उसे स्मरण करते हुए एक दृढ़ संकल्प लिया —

रत्ना, तुम्हारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। मैं तुम्हें वचन देता हूँ — जैसा तुम मुझे देखना चाहती थीं, वैसा ही बनूँगा। मेरा जीवन आज से केवल प्रभु श्रीराम के चरणों में समर्पित है। इस जीवन की एक-एक सांस उन्हीं का नाम लेगी और उन्हीं की सेवा में व्यतीत होगी। जीते-जी तो मैं तुम्हें गर्व का अनुभव नहीं करा सका, परंतु मृत्यु के बाद जब मैं तुमसे मिलूँगा, तब निश्चय ही तुम मुझ पर गर्व करोगी।

कुछ दिन बाद तुलसीदास जी काशी जाकर रामकथा करने लगे। वे प्रभु श्रीराम जी की भक्ति, कथा, और चरित्र में ऐसे डूबे की उन्हें अब हर जगह सिर्फ श्रीराम जी की छबि ही दिखाई देने लगी। और अब वे प्रभु श्रीराम जी के प्रत्यक्ष दर्शन का मार्ग भी ढूंढने लगे।

संसार का त्याग करके तुलसीदास जी ने अब वैराग्य धारण कर लिया था। उनका एकमात्र उद्देश्य रह गया था — अपने प्रभु श्रीराम की भक्ति करना, उनकी कीर्ति और महिमा को जन-जन तक पहुँचाना, और प्रभु श्रीराम के वास्तविक दर्शन करना।

चित्रकूट से प्रस्थान करके वे काशी आए, जहाँ प्रतिदिन वे जन-जन को रामकथा कहकर प्रभु के पावन चरित्र का प्रचार-प्रसार करने लगे।

एक बार की बात है — रामकथा समाप्त कर जब वे अपनी कुटिया लौट रहे थे, तो मार्ग में एक छोटा-सा जंगल पड़ता था। वहाँ के सभी वृक्ष हरे-भरे थे, किन्तु उनकी दृष्टि एक ऐसे वृक्ष पर पड़ी जो मानो अपने अंतिम समय में था। उसकी सभी शाखाएँ सूख चुकी थीं, एक भी पत्ता शेष न था।

तुलसीदास जी ने सोचा — यदि इसे जल मिले तो शायद यह पुनः हरा-भरा हो जाए। यह विचार मन में आते ही उन्होंने निश्चय किया कि प्रतिदिन कथा समाप्ति के बाद अपने कमंडल से इस वृक्ष के तने में जल चढ़ाएंगे।

इसके बाद प्रतिदिन वे कथा पूरी करके लौटते समय वृक्ष पर जल चढ़ाने लगे। कुछ ही दिनों में आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखने लगा — सूखी शाखाओं में प्राण लौट आए, कोमल पत्तियाँ फूटने लगीं, और वृक्ष मानो पुनर्जीवित हो उठा।

एक दिन, जैसे ही वे रोज की तरह शाम को कथा समाप्त कर उस वृक्ष के पास पहुँचे और कमंडल से जल चढ़ाया, तभी अचानक एक भयानक, गूंजती हुई आवाज से तुलसीदास जी को किसी ने पुकारा -

“हे महात्मा… हे महात्मा!”

संध्या का समय था, चारों ओर हल्का अंधेरा छाने लगा था। यह आवाज उन्होंने पहली बार सुनी थी, इसलिए तुलसीदास जी घबरा गए। चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, पर कोई दिखाई नहीं दिया।

सहमी हुई आवाज में उन्होंने पूछा — “कौन भाई… कौन?”

तभी फिर वही आवाज आई —
हे महात्मा, घबराइए नहीं। मैं एक प्रेत हूँ, जो इस वृक्ष पर अपना आवास बनाकर रह रहा हूँ। यह वृक्ष जल के अभाव में सूख रहा था, और उसके साथ मेरा आवास भी नष्ट हो रहा था। परंतु आपने प्रतिदिन नियमित रूप से इस पर जल चढ़ाकर मेरे घर को फिर से हरा-भरा कर दिया है। आपने मेरा आवास बचा लिया है। मैं आपसे अत्यंत प्रसन्न हूँ। यदि आपकी कोई मनोकामना हो, तो बताइए - मैं उसे पूर्ण कर दूँगा।

तुलसीदास जी उस प्रेत से बोले —
आप तो स्वयं प्रेत योनि में हैं, आप मेरी किस प्रकार सहायता कर सकते हैं?

प्रेत बोला —
मैं मनुष्य योनि में एक सिद्ध साधु था और इस प्रेत योनि में मुझे ब्रह्मराक्षस का दर्जा प्राप्त हुआ है। हो सकता है मेरी पूजा पाठ और पुण्य का लाभ आपको मिल जाए।


प्रेत की बात सुनकर तुलसीदास जी को उस पर विश्वास हुआ और उन्होंने अपने मन की इच्छा प्रकट की —
“हे ब्रह्मराक्षस, मैं प्रभु श्रीराम का परम भक्त हूँ। कृपया मुझे उनके दर्शन करा दीजिए।”

प्रेत थोड़ा मुस्कुराया और बोला —
हे महात्मा, आप बहुत बड़ी बात कह रहे हैं, मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं आपको प्रभु श्रीराम के दर्शन करा सकूँ, परंतु मैं आपको प्रभु तक पहुँचने का मार्ग अवश्य बता सकता हूँ। आप रामभक्त हनुमान जी से विनती कीजिए, वे निश्चय ही आपको प्रभु से मिला देंगे।

तुलसीदास जी ने पूछा —
“हनुमान जी… वे मुझे कहाँ मिलेंगे?”

प्रेत ने उत्तर दिया —
आपको उन्हें ढूँढने जाने की आवश्यकता नहीं। बस उन्हें पहचान लीजिए। जब भी आप रामकथा करते हैं, हनुमान जी भेष बदलकर सबसे पहले आपकी कथा सुनने आते हैं और सबसे अंत में जाते हैं।

प्रेत की यह बात सुनकर तुलसीदास जी आश्चर्य में पड़ गए। वे सोचने लगे - प्रभु श्रीराम के परम भक्त हनुमान जी सदा मेरी रामकथा में उपस्थित रहते हैं, और मैं आज तक उन्हें पहचान भी न सका! और फिर ये सोचकर प्रसन्न भी हो गए। कि मेरी रामकथा सुनने प्रतिदिन श्री हनुमान जी सबसे पहले आते है।


तुलसीदासजी, ब्रह्मराक्षस की बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न और आश्चर्यचकित थे कि हनुमान जी प्रतिदिन उनकी रामकथा सुनने आते हैं, किंतु आज तक वे उन्हें पहचान नहीं सके। तुलसीदास जी ये सोचकर अति प्रसन्न थे कि अब उन्हें प्रभु श्रीराम और हनुमान जी के प्रत्यक्ष दर्शन करने का मार्ग जल्द ही मिल जाएगा। 




Chapter 7) तुलसीदास जी को हुए श्रीराम और हनुमानजी के प्रत्यक्ष दर्शन.




   जब से तुलसीदास जी ने ब्रह्मराक्षस से हनुमान जी के बारे में सुना तबसे उनके मन में हनुमान जी के दर्शन की तीव्र व्याकुलता लगातार बढ़ती जा रही थी। अगले कुछ दिनों तक उन्होंने रामकथा में अपना पूरा ध्यान उस विशेष भक्त को पहचानने में लगाया, जो कथा के प्रारंभ से पहले आता और सबसे अंत में जाता था। 

वह एक वृद्ध सज्जन थे जो शरीर से अत्यंत दुर्बल और हाथ में वैशाखी का सहारा लिए चलते थे, कथा के दौरान तुलसीदास जी का ध्यान प्रायः उन पर ही रहता। लेकिन कथा के अंत में जब प्रसाद का समय होता तब भीड़ में वे वृद्ध प्रसाद लेकर तुरंत ही गायब हो जाते। तुलसीदास जी ने कई दिनों तक उनका पीछा करने की कोशिश की, किंतु सफलता नहीं मिली। क्योंकि वो कोई साधारण मनुष्य थोड़े ही है वे तो पवनपुत्र हनुमान है उन्हें कोई पकड़ थोड़े ही सकता है। परंतु तुलसीदास जी अपने प्रभु श्रीराम जी के दर्शन के लिए हनुमान जी की सहायता चाहते थे। 

वह अवसर भी आया, जब एक संध्या रामकथा के बाद तुलसीदास जी ने भक्तों की भीड़ में उस वृद्ध सज्जन को प्रसाद दिया और तुरंत उनके पीछे दौड़ने लगे, वो पवन की गति से चल रहे थे, तुलसीदास जी समझ गए कि वे इस तरह कभी उनको पकड़ नहीं पाएंगे, तुरंत तुलसीदास जी चिल्लाकर बोले,

"हे पवनपुत्र हनुमानल… आपको प्रभु श्रीराम जी की शपथ है, कृपया रुक जाइए!"

यह सुनते ही वे वृद्ध सज्जन रुक गए। तुलसीदास जी उनके चरणों में गिर गए और रोने लगे — कुछ देर बाद बोले - 
मैं भलीभांति जानता हूँ, आप ही बजरंगबली हनुमान हैं। आप मुझे अपना असली रूप क्यों नहीं दिखाते?

वृद्ध मुस्कराए और बोले- नहीं पुत्र, तुम भूल कर रहे हो। मैं तो एक साधारण वृद्ध हूँ, जो अनेक शारीरिक बीमारियों से पीड़ित हूं।

तुलसीदास जी ने दृढ़ स्वर में कहा - आप असत्य कह रहे हैं। ब्रह्मराक्षस ने मुझे बताया था कि हनुमान जी भेष बदलकर कथा में सबसे पहले आते हैं और सबसे अंत में जाते हैं। कई दिनों से मैं आपको देख रहा हूँ, और मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप ही रामभक्त हनुमान हैं। कृपया अपना दिव्य स्वरूप दिखाइए और मुझे श्रीराम जी के दर्शन का मार्ग बताइए।

वृद्ध सज्जन ने कई बार तुलसीदास जी की बात को नकारा, किंतु तुलसीदास जी के इस अटूट विश्वास को देखकर अंततः वृद्ध सज्जन ने अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया। पवनपुत्र हनुमान का तेजस्वी स्वरूप देखकर तुलसीदास जी धन्य हो गए। वे विनम्रता से बोले- हे प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त! मुझे श्रीराम जी के दर्शन करवा दीजिए।

हनुमान जी बोले- वत्स, प्रभु श्रीराम जी के दर्शन केवल निस्वार्थ भक्ति और सेवा से ही प्राप्त होते हैं। तुम चित्रकूट जाओ, वहाँ प्रभु की भक्ति करो और कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करो। वहीं तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।

तुलसीदास जी ने प्रार्थना की- हे प्रभु! आप मेरे साथ ही रहकर मेरा मार्गदर्शन करते रहिएगा।

हनुमान जी मुस्कराए और बोले—"हे तुलसी! तुम बस सच्चे हृदय से प्रभु श्रीराम का स्मरण करना, मैं तुम्हारी सहायता हेतु दौड़ा चला आऊँगा।

हनुमान जी की बातें सुनकर तुलसीदास जी अत्यंत प्रसन्न हो गए और अपने प्रभु श्रीराम से मिलने के लिए चित्रकूट की ओर निकल पड़े। चित्रकूट पहुँचने के बाद, जैसा कि हनुमान जी ने कहा था—“बहुत जल्द ही तुम्हें प्रभु श्रीराम के दर्शन होंगे”—अब तुलसीदास जी उसी क्षण की प्रतीक्षा करने लगे। उन्होंने वहीं ठहरकर चित्रकूट वासियों को प्रभु की पावन चरित्र कथा सुनाना आरंभ किया और प्रतिदिन प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर श्री कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करने लगे।

कुछ दिन बाद वह शुभ समय भी आ गया, जब उन्हें प्रभु के दर्शन होने थे। उस रात हनुमान जी उनके स्वप्न में आए और बोले—
“तुलसी! कल प्रातः तुम्हारी प्रभु-दर्शन की इच्छा पूरी होगी। ब्रह्ममुहूर्त में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करना, वहीं प्रभु आकर तुम्हें दर्शन देंगे।”

इतना सुनते ही तुलसीदास जी की आँखें खुल गईं। इधर-उधर देखा तो कोई न था, किंतु उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि कल प्रातः उन्हें प्रभु के दर्शन अवश्य होंगे। प्रभु के दर्शन को आतुर आँखों में अब नींद कहाँ! वे बेसब्री से प्रभात की प्रतीक्षा करने लगे।

ब्रह्ममुहूर्त होते ही वे कामदगिरि पर्वत पहुँचकर परिक्रमा करने लगे। लंबे समय तक परिक्रमा करते-करते प्रातः काल होने को आया, किंतु अभी तक प्रभु के दर्शन नहीं हुए। उनका मन उदास हो चला “क्या रात का स्वप्न केवल भ्रम था?” यह सोचते हुए वे निराश होने लगे।

तभी उनकी दृष्टि कुछ दूर पर्वत की चोटी की ओर गई, जहाँ दो रथ तेजी से ऊपर की ओर जा रहे थे। उनमें दो शाही राजकुमार, हाथों में धनुष लिए, आगे बढ़ रहे थे। एक रथ पर सांवले रंग के राजकुमार विराजमान थे, और दूसरे रथ पर गौरवर्ण के राजकुमार। दोनों ही राजकुमार दिव्य तेज से आलोकित हो रहे थे। कुछ क्षण तक तुलसीदास जी उन्हें देखते रहे, किंतु उनका मन अब भी रात के स्वप्न को भ्रम सिद्ध करने में उलझा था। इसलिए वे उन दोनों राजकुमारों को पहचान न सके। इसी बीच वे दोनों राजकुमार आँखों से ओझल हो गए।


तुलसीदास जी कुछ और समझ पाते तभी वहां हनुमान जी प्रकट हुए और बोले—

“क्या तुलसी, प्रभु के दर्शन हुए?”

तुलसीदास जी ने कहा—“प्रभु, कहाँ हैं प्रभु? मैं तो बड़ी देर से अपने प्रभु का इंतज़ार कर रहा हूँ।”

हनुमान जी ने मुस्कराकर कहा—अभी तुमने जिन दो राजकुमारों को देखा था, वही तो प्रभु श्रीराम और भैया लक्ष्मण थे। पर तुम्हारा ध्यान प्रभु पर कम और अपने स्वप्न को भ्रम सिद्ध करने में अधिक था।

हनुमान जी की यह बात सुनकर तुलसीदास जी बहुत निराश हो गए और पश्चाताप करते हुए बोले— मेरे प्रभु तो अपना वचन निभाने स्वयं दर्शन देने आए थे। लेकिन में ही अभागा उनको पहचान न सका।

उन्होंने हनुमान जी से विनती की—
आज की भूल के लिए मुझे क्षमा कीजिए और कृपया प्रभु के दर्शन का मार्ग बताइए।

हनुमान जी ने कहा—
प्रभु पर विश्वास रखो और उनकी भक्ति करते रहो, वे अवश्य तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगे। संभव है, कल ही तुम्हें दर्शन हो जाएँ। कल रामघाट आना, शायद वही शुभ घड़ी हो जब तुम्हें प्रभु के दर्शन प्राप्त हों।

तुलसीदास जी ने उत्सुकता से पूछा—
क्या आप सच कह रहे हैं कि कल प्रभु श्रीराम मुझे दर्शन देने आएँगे?

हनुमान जी ने उत्तर दिया—
यह तो प्रभु श्रीराम ही जाने, पर तुम यह अवसर मत गँवाना और उन्हें पहचान लेना।

तुलसीदास जी बोले—
हे प्रभु! यदि मैं मूर्खता या अज्ञानवश प्रभु को पहचानने में असफल रहा, तो आप कृपया मुझे कोई संकेत कर दीजिएगा।


अगली सुबह तुलसीदास जी रामघाट पहुँचे। वहाँ अनेक भक्त पवित्र पावन नदी में स्नान कर रहे थे, और कई संत ध्यान-मग्न बैठे थे। तुलसीदास जी भी अपने प्रभु श्रीराम जी का नाम जपते हुए एक स्थान पर बैठ गए और साथ लाए चंदन को सिलवट पर घिसने लगे। 

श्री राम, जय राम, जय जय राम... 
श्री राम, जय राम, जय जय राम...


वे पूर्णतः प्रभु के ध्यान में लीन हो गए। और अपने हाथों से चंदन घिसते जा रहे थे, और मुख से रामनाम जप रहे थे। आने-जाने वाले भक्तों को वे प्रेम से तिलक भी लगा रहे थे।

उन्हीं भक्तों के बीच एक नन्हा बालक तुलसीदास जी के पास आया और मासूम स्वर में बोला—
"बाबा, मुझे भी चंदन का तिलक लगा दीजिए।"

तुलसीदास जी ने उसे साधारण बालक समझकर अपने सामने बैठने को कहा, ताकि उसके मस्तक पर तिलक कर सकें। परंतु उन्हें इस बात का आभास भी न हुआ कि उनके सामने बैठा यह बालक.. कोई और नहीं स्वयं प्रभु श्रीराम जी हैं।

दूर बैठे हनुमान जी यह सब देख रहे थे, चिंतित थे कि कहीं आज भी तुलसी अपने समक्ष विराजमान प्रभु को पहचानने में असफल न हो जाएँ। और यहां जब तुलसीदास जी की अनामिका उंगली चंदन से भीगे हुए उस बालक के मस्तक को स्पर्श करती है, तो उनके पूरे शरीर में एक अद्भुत तेज का संचार होने लगता है।

उसी क्षण हनुमान जी तोते का रूप धारण कर पास आए और गूंजते स्वर में बोले —

चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीड़
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीर।

यह वाणी सुनते ही तुलसीदास जी समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं उनके प्रभु श्रीराम हैं। उनकी आँखें एकदम खुल गई और जैसे किसी स्वप्न में जाकर खो गए फिर उसी क्षण प्रभु ने बालक का रूप त्यागकर साक्षात् तेजोमय स्वरूप धारण कर लिया। 

तुलसीदास जी उन्हें अपने समक्ष देखकर अपार आनंद और भाव-विभोर में खो गए। उन्हें लगा मानो उनके जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया हो। वे प्रभु के तेजस्वी, मोहक रूप को निहारने का सुख लेते रहे, फिर उनके चरणों में गिरकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से बोले—
"प्रभु! आज आपके दर्शन पाकर मैंने अपने जीवन का उद्देश्य पूरा कर लिया।"

प्रभु तुलसीदास जी के सिर पर हाथ रखते हुए प्रेम से बोले—

"तुलसी, तुम्हारे जीवन का उद्देश्य अभी पूर्ण नहीं हुआ, अपितु अब उसका आरम्भ होगा। यह चंदन का तिलक तुम्हें उस उद्देश्य को पूर्ण करने में समर्थ बनाएगा।"

चित्रकूट के घाट पर, जिस चंदन को तुलसीदास जी भक्तों के लिए घिस रहे थे, और जिससे उन्होंने बालक रूप में आए प्रभु के मस्तक पर तिलक किया था—उसी चंदन से प्रभु श्रीराम ने अपनी मधुर उंगलियों से तुलसीदास जी के मस्तक पर तिलक लगाया।

आशीर्वाद देकर प्रभु अंतर्धान हो गए, और तुलसीदास जी का हृदय भक्तिभाव से सराबोर हो उठा।


तुलसीदास जी ने प्रभु दर्शन का जो अलौकिक सुख पाया था, वे उससे बाहर नहीं आना चाहते थे। उनका मन उस अमृतमय क्षण में सदा के लिए ठहर जाना चाहता था। तभी तोते के रूप में उपस्थित हनुमान जी अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर बोले—
हे तुलसी, आज अंततः तुमने प्रभु श्रीराम के दर्शन पाकर वह अति दुर्लभ सुख पा ही लिया। परंतु तुम्हारे मुखमंडल से ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो तुम कुछ चिंतित हो।

तुलसीदास जी विनम्रता से बोले—
नहीं प्रभु, मैं चिंतित नहीं हूँ, किन्तु सोच रहा हूँ कि अब तक मेरे जीवन का उद्देश्य केवल प्रभु श्रीराम की भक्ति करना और उनके दर्शन पाना ही था। आज स्वयं प्रभु ने कहा है कि मेरे जीवन का उद्देश्य अब प्रारंभ होगा। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरे जीवन का आखिर उद्देश्य क्या है।

हनुमान जी ने प्रेमपूर्वक कहा—
तुलसी, कुछ समय एकांत में रहकर गहन चिंतन करो। प्रभु श्रीराम तुम्हें जिस उद्देश्य से अवगत कराना चाहते हैं, उसे पहचानने का प्रयास करो। अपने भीतर छिपी हुई दिव्य शक्तियों और गुणों को बाहर लाओ, समाज के हित में उनका उपयोग करो। जीवन में आने वाले प्रत्येक संकेत को ध्यानपूर्वक समझने का प्रयत्न करो। शायद इसी से तुम्हे अपने जीवन का उद्देश्य मिल जाए। 

इतना कहकर हनुमान जी अंतर्ध्यान हो गए। तभी वहाँ एक भक्त आया और तुलसीदास जी को प्रयाग में होने वाले माघ मेले के लिए आमंत्रित करने लगा। तुलसीदास जी के मन में हनुमान जी के शब्द गूंजने लगे—
"जीवन के प्रत्येक संकेत को समझो।"
उन्होंने सोचा—शायद यह माघ मेले का निमंत्रण भी मेरे जीवन के उद्देश्य का ही एक भाग हो। इसी विश्वास और आशा के साथ तुलसीदास जी प्रयागराज जाने की तैयारी करने लगे।






Chapter 8) महान ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस की रचना.



प्रयागराज में उस समय अत्यन्त भव्य मेला लगा हुआ था। देश-विदेश से असंख्य भक्तजन पावन त्रिवेणी संगम में स्नान करने आए थे। अनेक महान संत, ज्ञानी और विद्वानों के दर्शन भी वहाँ हो रहे थे। सम्पूर्ण वातावरण प्रभु-भक्ति और आस्था में डूबा हुआ था।

मेले के लगभग छः दिन बाद, तुलसीदास जी संध्या-वन्दना करके घाट से लौट रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा कि एक वटवृक्ष के नीचे दिव्य तेजधारी एक ऋषि अपने शिष्य को उपदेश दे रहे थे। उनके शिष्य भी अत्यन्त तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। तुलसीदास जी को उन्हें देखकर ऐसा आभास हुआ कि ये संत कहीं पहले भी देखे हुए हैं। ध्यान से देखने पर उन्हें स्मरण हुआ कि मानसरोवर यात्रा के समय, जब काकभुशुंडी जी अनेक संतों को रामकथा सुना रहे थे, तब ये दोनों संत भी वहाँ उपस्थित थे। तुलसीदास जी ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया, परन्तु पहचान न पाए कि वे वास्तव में कौन थे।

कई दिन बीत चुके थे। तुलसीदास जी सोच रहे थे। "प्रभु श्रीराम ने मेरे जीवन के उद्देश्य की बात कही थी, परन्तु वह उद्देश्य क्या है?" हनुमान जी ने संकेतों को समझने का निर्देश दिया था, परंतु अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं हो पाया था। कई दिनों तक तुलसीदास जी का मन अत्यन्त व्याकुल रहा। उनके ह्रदय से भी एक बात बार-बार निकल रही थी कि "तुम्हारा जन्म प्रभु श्रीराम के कार्य के लिए हुआ है, उनकी लीलाओं का वर्णन करो, संसार को उनके आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप से अवगत कराओ।" किन्तु वे अभी भी उलझन में थे—"मैं तो रामकथा करता ही हूँ, जन-जन तक प्रभु की महिमा पहुँचाता ही हूँ, फिर प्रभु मुझसे और क्या चाहते हैं? हे महादेव, कृपा कर मार्गदर्शन दीजिए।"

इन्हीं विचारों में डूबे हुए तुलसीदास जी उस रात सो गए। रात्रि के स्वप्न में स्वयं भगवान शंकर और माता पार्वती प्रकट हुए। महादेव जी ने स्वप्न में कहा—
"पुत्र तुलसी! जिस उद्देश्य को लेकर तुम चिंतित हो, उसके प्रकट होने का समय आ गया है। जिन संतों को तुमने वटवृक्ष के नीचे देखा, वे ऋषि याज्ञवल्क्य और उनके शिष्य भारद्वाज हैं, जो रामकथा का उपदेश कर रहे थे। अब तुम्हें भी अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पहचानना और पूरा करना है। जन-जन तक प्रभु श्रीराम की कथा का प्रचार करो। तुम्हारी कथा कहने की शैली अद्वितीय है। अब इसे पद्य और काव्य रूप में लिखो, जिससे यह देश-देशांतर में फैल सके।"
इतना कहकर भोलेनाथ और माता पार्वती अंतर्धान हो गए।

महादेव जी की बात सुनकर तुलसीदास जी को एक झटका लगा, और बोले यही विचार तो मेरे अंदर भी बार बार उठ रहा था, उन्हें स्मरण हुआ। गुरुदेव नरहरीदास जी ने भी कहा था कि मैं कठिन से कठिन श्लोक सहज बना लेता हूँ। क्यों न मैं प्रभु श्रीराम के चरित्र को एक नवीन महाकाव्य के रूप में लिखूँ, जो भक्तों में रामभक्ति की ज्योति जगाए और प्रभु के आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाए?

यह निश्चय करके तुलसीदास जी अयोध्या की ओर निकल पड़े, उस नगरी की ओर जहाँ प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया था और बाल-लीलाएँ की थीं। जिस दिन वे अयोध्या पहुँचे, वह संवत् 1631 का चैत्र मास की नवमी तिथि और मंगलवार था—प्रभु श्रीराम की जन्मतिथि, जिसे आज रामनवमी के नाम से जाना जाता है। उसी मंगलमय दिन, प्रभु श्रीराम और भगवान गणेश की वंदना कर, आशीर्वाद प्राप्त कर तुलसीदास जी ने रामायण की रचना आरम्भ की।

उनकी इच्छा थी कि यह महाकाव्य संस्कृत में न होकर लोकभाषा में लिखा जाए, जिससे साधारण लोग इसे सहज पढ़ और समझ सके। किन्तु उस समय संस्कृत को ही देवभाषा माना जाता था और सभी धार्मिक ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे जाते थे। तुलसीदास जी सोचने लगे—यदि मैं इसे लोकभाषा में लिखूँगा तो विद्वान पंडित इसे कभी स्वीकृति नहीं देंगे। इसलिए उन्होंने आरम्भ में रामकथा को संस्कृत में पद्यबद्ध करना प्रारम्भ किया। परंतु प्रभु की इच्छा कुछ और ही थी.


तुलसीदास जी दिनभर जो भी संस्कृत में श्लोक लिखते, अगली सुबह वे पन्ने कोरे मिलते। कभी लिखते-लिखते पन्ने उड़ जाते, तो कभी उन पर स्याही फैल जाती। संस्कृत में लिखने का उनका हर प्रयास असफल हो रहा था। वे चिंतित थे और सोचते – आख़िर यह मेरे साथ हो क्या रहा है?

परंतु बार-बार प्रयास करने के बाद उन्हें यह विश्वास हो गया कि प्रभु की इच्छा संस्कृत भाषा में लिखने की नहीं है।

तब तुलसीदास जी ने श्री हनुमान जी से मार्गदर्शन की प्रार्थना की। हनुमान जी प्रकट होकर बोले –

तुलसी! प्रभु चाहते हैं कि तुम रामकथा को लोकभाषा में लिखो, ताकि हर साधारण जन भी प्रभु की लीला का रसपान कर सके।

महादेव जी की भी यही इच्छा थी कि रामकथा आमजन की बोली में ही रची जाए। तुलसीदास जी स्वयं भी अवधी में लिखना चाहते थे, पर विद्वानों और पंडितों के भय से ऐसा नहीं कर रहे थे। जब उन्हें प्रभु की प्रेरणा और हनुमान जी का मार्गदर्शन मिला, तब उन्होंने साहस करके अवधी भाषा में रामकथा लिखनी प्रारंभ की।

उन्होंने अपनी कथा की शुरुआत सभी पूज्य देवताओं की वंदना से की, महादेव और माता पार्वती जी के चरित्र और लीलाओं को दर्शाया और आगे प्रभु श्रीराम के जीवन को सात कांडों में विभाजित किया – बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड। कथा लिखते समय वे पूरी तरह प्रभुमय हो जाते। बालकांड लिखते समय प्रभु की बाललीलाओं से अभिभूत हो उठे, और अयोध्याकांड व अरण्यकांड में प्रभु की पीड़ा से द्रवित हो गए।

लगातार दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन की साधना के बाद, मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी (विवाह पंचमी) के दिन यह महाग्रंथ पूर्ण हुआ। इसमें लगभग 12,800 पंक्तियाँ और 1,073 छंद संकलित हैं।

इस महान ग्रंथ को आमजन को सुनाने से पहले तुलसीदास जी इसे काशी लेकर गए और भगवान विश्वनाथ तथा माता अन्नपूर्णा को सुनाया। दोनों ने इसकी अत्यधिक सराहना की। माता भवानी अन्नपूर्णा ने इस ग्रंथ को नया नाम दिया – “श्रीरामचरितमानस”। महादेव जी ने भी उस पर अपने हस्ताक्षर – “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्” अंकित किए, जिससे यह ग्रंथ लोकमान्य हो जाए।

यह अद्वितीय भक्तिग्रंथ रामभक्तों के लिए अमृत के समान था। लोग अपनी भाषा में रामकथा सुनकर आनंद और भक्ति में डूब जाते, उनकी आँखों से प्रेम और उल्लास के आँसू बहने लगते। प्रभु श्रीराम की छवि और लीलाओं का इतना सुंदर और सरल वर्णन था कि इसका प्रभाव जन-जन पर तुरंत छा गया।

देखते ही देखते श्रीरामचरितमानस नगर-नगर और जन-जन में प्रसिद्ध हो गया। लोग कहते – “जिस भक्त तुलसी ने इतनी सरल और भावपूर्ण रामकथा रची है, वह स्वयं प्रभु का कृपापात्र है।”

किन्तु उस समय के धर्म के ठेकेदारों को यह स्वीकार नहीं था। वे कहते थे – “ईश्वर की भाषा केवल संस्कृत है, और उनसे जुड़े सभी ग्रंथ भी केवल संस्कृत में होने चाहिए।” उन्हें भय था कि यदि लोकभाषा में ज्ञान उपलब्ध होने लगा तो संस्कृत की महत्ता कम हो जाएगी और हर कोई स्वयं पढ़-लिखकर पंडित बन जाएगा। तो हम वास्तविक पंडितों को कौन पूछेगा ? वे चाहते थे कि वेद, शास्त्र और पुराण केवल पंडितों तक ही सीमित रहें ताकि उनकी सत्ता और प्रभाव बना रहे।

इन्हीं कारणों से पंडित, पुरोहित और महंत मिलकर तुलसीदास जी की इस रचना का घोर विरोध करने लगे। वे सब मिलकर इस रचना को नष्ट करने का षड्यंत्र कर करने लगे।



Chapter 9) श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने रामचरितमानस की प्रशंसा की.



भगवान भोलेनाथ ने तुलसीदास जी द्वारा रचित इस महाकाव्य को अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए कहा – तुलसी! तुम्हारे द्वारा रचित इस श्रीरामचरितमानस के प्रत्येक शब्द में भक्ति का ऐसा अमृत भरा है कि कठोर से कठोर व्यक्ति का हृदय भी भक्तिमय हो जाएगा। अब तुम्हारा यह कर्तव्य है कि तुम प्रभु श्रीराम जी की भक्ति को अपने इस महाकाव्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाओ और सरल भाषा में भक्ति का प्रचार-प्रसार करो।

भगवान भोलेनाथ का यह आदेश पाकर तुलसीदास जी अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्होंने अपने प्रभु श्रीराम जी के चरित्र श्रीरामचरितमानस का नगर-नगर जाकर प्रचार किया और भक्तों को उनकी भक्ति-रस का रसपान कराते रहे। जब लोग अपनी ही भाषा में रामकथा सुनते तो अपार आनंद से भर उठते।

लेकिन दूसरी ओर धर्म के ठेकेदार संतुष्ट नहीं थे। वे षड्यंत्र रचने लगे। उन्होंने तुलसीदास जी की इस महान रचना को नष्ट करने की योजना बनाई। इसके लिए उन्होंने एक रात्रि एक चोर को भेजा कि वह तुलसीदास जी की कुटिया में घुसकर श्रीरामचरितमानस की प्रति चुरा ले और उसे नष्ट कर दे।

तुलसीदास जी इस षड्यंत्र से पूर्णतः अनजान थे। उस रात्रि वे अपनी कुटिया में गहरी निद्रा में लीन थे। घोर अंधकारमयी रात में वह चोर कुटिया के भीतर घुसने की युक्ति सोच रहा था, किन्तु जब उसने यह देखा तो विस्मय में पड़ गया कि कुटिया के द्वार पर दो धनुर्धारी प्रहरी खड़े हैं। इन धनुर्धारियों के विषय में तो उसे किसी पंडित और मंहत ने बताया ही न था…

वह चोर रात भर कभी दरवाजे पर जाता तो कभी कुटिया के पीछे बनी खिड़की के पास जाता, किन्तु उन दोनों धनुर्धारियों की उपस्थिति में वह कुटिया के भीतर प्रवेश नहीं कर सका। इसी तरह पूरी रात बीत गई। जब प्रातःकाल सूर्य की पहली किरण निकली और तुलसीदास जी अपनी निद्रा से जागकर कुटिया के बाहर आए, तो वह चोर उनके चरणों में गिर पड़ा और क्षमा-याचना करने लगा।

तुलसीदास जी ने उसे उठाया और पूछा – भाई! तुम कौन हो और मुझसे किस बात के लिए क्षमा माँग रहे हो?

चोर बोला – “मैं आपकी रचना श्रीरामचरितमानस को चुराने आया था। रात भर उसे चुराने की योजना बनाता रहा, पर सफल न हो सका। प्रातः होते-होते मुझे अपनी भूल का आभास हुआ कि मैं कितना बड़ा पाप करने जा रहा था। वह ग्रंथ, जो रामभक्तों को प्रभु श्रीराम के पावन चरित्र का रस सरल भाषा में पान कराता है, उसे नष्ट करने का अपराध मैं करने जा रहा था। दरवाजे पर खड़े आपके उन दो धनुर्धारी पहरेदार के कारण मैं अपनी योजना पूरी न कर सका।”

यह सुनकर तुलसीदास जी चौंक उठे। दो धनुर्धारी पहरेदार… वे समझ गए कि वे दोनों और कोई नहीं बल्कि श्री राम और भाई लक्ष्मण ही होंगे, तुलसीदास जी चोर से बोले वे दोनों धनुर्धारी कोई साधारण मनुष्य नहीं थे, बल्कि स्वयं प्रभु श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण थे। तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो तुम्हें उनके दर्शन प्राप्त हुए।

तुलसीदास जी को बहुत पीड़ा हुई। वे बोले – मेरे कारण प्रभु श्रीराम जी को पूरी रात जागकर कष्ट उठाना पड़ा। यह सोचकर उन्होंने अपनी कुटिया की समस्त वस्तुएँ बाहर लुटा दी और विचार किया कि श्रीरामचरितमानस को अब कुटिया में रखना सुरक्षित नहीं है। अतः उन्होंने मूल पांडुलिपि को अपने घनिष्ठ मित्र टोडरमल (जो अकबर के नवरत्नों में से एक थे) के घर सुरक्षित रखवा दिया तथा अपनी स्मरणशक्ति के आधार पर उसकी एक नई प्रतिलिपि तैयार कर ली।


उधर काशी के धर्मरक्षक माने जाने वाले पंडित और पुरोहित जब अपने षड्यंत्र को असफल होता देख रहे थे और वे श्रीरामचरितमानस की बढ़ती लोकप्रियता को रोकने में पूरी तरह विफल हो गए, तो सब मिलकर काशी के प्रसिद्ध महापंडित श्री मधुसूदन सरस्वती जी के पास पहुँचे। और कहने लगे –

पंडित जी, आप स्वयं देख लीजिए, कितना अनर्थ हो रहा है! उस अधर्मी तुलसीदास ने रामकथा को आम भाषा अवधी में लिख दिया है। कल को वेद, शास्त्र और पुराण भी आम भाषा में लिख दिए जाएँगे, फिर संस्कृत और धर्मग्रंथों का क्या महत्व रह जाएगा? अब केवल आप ही इस अनर्थ को रोक सकते हैं। यदि आप इस ग्रंथ को पढ़कर कह दें कि यह अधर्मग्रंथ है, तो इसकी कोई प्रतिष्ठा शेष नहीं रहेगी।

मधुसूदन सरस्वती जी ने शांत भाव से उत्तर दिया –
ठीक है, मैं तुलसीदास की रचना अवश्य पढ़ूँगा और उस पर निष्पक्ष राय दूँगा। यदि यह अधर्मग्रंथ हुआ, तो मैं स्वयं इसकी निंदा करूँगा; किन्तु यदि ऐसा नहीं हुआ, तो मुझसे कोई अपेक्षा न रखें।

पंडितगण अपने षड्यंत्र में इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने मधुसूदन जी की शर्त मान ली।

जब तुलसीदास जी को यह समाचार मिला कि स्वयं श्री मधुसूदन सरस्वती जी उनकी रचना पढ़ना चाहते हैं, तो उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई। यद्यपि इसमें पुरोहितों का षड्यंत्र था, फिर भी तुलसीदास जी के लिए यह लाभकारी सिद्ध होने वाला था, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि मधुसूदन सरस्वती जी निष्कपट, विद्वान और धर्मनिष्ठ संत हैं।

तुलसीदास जी अपनी मूल पांडुलिपि लेकर मधुसूदन सरस्वती जी के आश्रम पहुँचे और उन्हें आदरपूर्वक श्रीरामचरितमानस पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सरस्वती जी ने उनके निमंत्रण को स्वीकार किया और पूरी श्रद्धा के साथ पढ़ना प्रारंभ किया। उन्होंने गहन मनोयोग और रसपूर्ण भाव से इस रचना का अध्ययन किया। वे तुलसीदास की रचना से बहुत प्रभावित हुए।


कुछ दिनों बाद वे अपने शिष्यों और उन पंडित-पुरोहितों के साथ तुलसीदास जी की कुटिया में पहुंचे। पंडित और महंतों को पूर्ण विश्वास था कि मधुसूदन जी तुलसीदास जी की रचना श्रीरामचरितमानस को अधर्मग्रंथ घोषित कर देंगे।

मधुसूदन सरस्वती जी “श्रीरामचरितमानस” को लौटाते हुए तुलसीदास जी से बोले – “ 
तुलसीदास! तुम्हारी इस अद्भुत रचना के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। यह केवल काव्य नहीं, बल्कि रामनाम का ऐसा अमृत है, जो पाठक के रोम-रोम को भक्ति-रस से सराबोर कर देता है। मैं अपने अनुभव से कहता हूँ कि श्रीराम के आदर्श चरित्र पर ऐसी भक्तिपूर्ण और महान रचना न कभी रची गई है और न ही कभी रची जाएगी। जब तक यह संसार रहेगा, आपकी यह रचना “श्रीरामचरितमानस” अमर रहेगी।”

फिर उन्होंने संस्कृत श्लोक उच्चारित किया –

आनन्दकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

(अर्थात् काशी के इस आनंदवन में तुलसीदास एक जीवंत तुलसी का पौधा हैं। उनकी काव्यमंजरी अत्यंत मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदैव मंडराता रहता है।)

यह सुनकर वहाँ उपस्थित सभी पंडित और पुरोहित आश्चर्यचकित और निराश हो गए। उन्हें आशा थी कि सरस्वती जी इस ग्रंथ की निंदा करेंगे, परन्तु उनकी सकारात्मक टिप्पणी ने तुलसीदास और श्रीरामचरितमानस को और अधिक सम्मान दिला दिया।

इसके उपरांत भी पंडितों और पुरोहितों के षड्यंत्र यहीं समाप्त नहीं हुए। उन्होंने तुलसीदास जी को चुनौती दी और बोले –
यदि यह वास्तव में धर्मग्रंथ है, तो इसे काशी विश्वनाथ मंदिर में अन्य सभी धर्मग्रंथों के साथ रखा जाए। और यदि प्रातःकाल यह ग्रंथ अन्य सभी ग्रंथों के ऊपर पाया जाए, तो हम मान लेंगे कि इसमें महादेव की स्वीकृति है।

तुलसीदास जी ने चुनौती स्वीकार की, उन्हें प्रभु श्रीराम जी पर पूर्ण विश्वास था। और हनुमानजी तो तुलसीदास जी की हमेशा मदद करते थे।

रात्रि को मंदिर के पट बंद करते समय “श्रीरामचरितमानस” अन्य ग्रंथों के नीचे रखा गया। प्रातः जब मंदिर के द्वार खोले गए, तो सभी ने विस्मय से देखा कि वह अन्य सभी ग्रंथों के ऊपर विराजमान था। यह देखकर सभी पंडित और पुरोहित स्तब्ध रह गए और उन्हें भी मानना पड़ा कि वास्तव में “श्रीरामचरितमानस” को महादेव की स्वीकृति प्राप्त है।

इसके बाद “श्रीरामचरितमानस” को धर्मग्रंथ का दर्जा मिला और तुलसीदास जी को समाज में उचित सम्मान प्राप्त हुआ।






Chapter 10) हनुमान चालीसा की रचना.




“श्रीरामचरितमानस” की प्रसिद्धि के बाद तुलसीदास जी को दूर देशों से और नगर-नगर से रामकथा करने के लिए आमंत्रण मिलने लगा। वे जहाँ-जहाँ जाते, वहाँ प्रभु श्रीराम की अमर गाथा का गान करते। एक बार उन्हें वृंदावन आकर कृष्णभक्तो को श्रीराम जी के पावन चरित्र की गाथा करने का निमंत्रण मिला। और इसी उद्देश्य से वे अपने शिष्यों के साथ वृंदावन की यात्रा पर निकले। मार्ग में एक गाँव के समीप तालाब पर उन्होंने संध्या-वंदना की। जैसे ही वे तालाब से बाहर निकले, एक स्त्री ने उनके चरण स्पर्श किए। उनके मुख से अनायास आशीर्वाद निकला—“अखंड सौभाग्यवती भव।”

स्त्री बोली— हे बाबा, यह आशीर्वाद मेरे नसीब में कहाँ! अभी कुछ ही समय पूर्व मेरे पति का देहांत हो गया है और मुझे उनके साथ सती होने के लिए ले जाया जा रहा है।

तुलसीदास जी ने शांत भाव से कहा— पुत्री, मेरे मुख से जो अनजाने में आशीर्वचन निकला है, उसमें अवश्य ही प्रभु श्रीराम जी की इच्छा छिपी होगी।

फिर तुलसीदास जी उस स्त्री के साथ वहाँ पहुँचे जहाँ उसके पति का अंतिम संस्कार होने वाला था। वहाँ तुलसीदास जी ने श्रीराम जी का नाम-जप किया। उनकी आराधना की, कुछ समय बाद प्रभु की कृपा से उस स्त्री का पति पुनः जीवित हो उठा। प्रभु श्रीराम ने तुलसीदास जी के वचन की लाज रख ली। 

कुछ समय बाद वे वृंदावन पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण जी का भव्य मंदिर था। सम्पूर्ण वृंदावन कृष्णभक्ति में मग्न रहता था। उन्हें वहाँ भी रामकथा करने का अवसर मिला। परंतु कथा आरंभ करने से पूर्व तुलसीदास जी ने भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की इच्छा प्रकट की। मंदिर के पुजारियों और महंतों ने उन्हें रोकते हुए हँसी में कहा— “गोसाईं तुलसीदास जी! आप तो श्रीराम जी के अनन्य भक्त हैं। यह तो श्रीकृष्ण का मंदिर है, क्या आप उनके सामने हाथ जोड़कर नतमस्तक होंगे?”

तुलसीदास जी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया—“प्रभु श्रीराम सर्वत्र हैं। मुझे तो भगवान के हर रूप में अपने राम ही दिखाई देते हैं।”

और फिर उन्होंने एक श्लोक उच्चारित किया—

काह कहौं छबि आजु की, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै, धरो धनुष-शर हाथ॥

जैसे ही उन्होंने श्रीकृष्ण जी की मूर्ति के सम्मुख प्रणाम किया, मूर्ति में चमत्कार हुआ। श्रीकृष्ण की मूर्ति रामरूप में परिवर्तित हो गई। हाथों में बांसुरी की जगह धनुष-बाण प्रकट हो गए। यह देख वहाँ उपस्थित सभी पुजारी और महंत स्तब्ध रह गए। उन्हें विश्वास हो गया कि श्रीराम और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है—दोनों एक ही परमात्मा हैं, जो भक्त की भावना के अनुसार रूप धारण करते हैं।

कुछ समय वृंदावन में रहकर वे पुनः अपने नगर लौट आए। उनके द्वारा किए गए चमत्कारों की चर्चा नगर-नगर में फैल गई। विशेषतः उस स्त्री के पति को जीवित करने की घटना से लोग अत्यधिक प्रभावित हुए।

इन चमत्कारों की चर्चा सुनकर तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर ने तुलसीदास जी को दरबार में बुलाने के लिए संदेश भेजा। किंतु तुलसीदास जी ने आमंत्रण स्वीकार नहीं किया और अपनी रामभक्ति में लीन रहे। इससे अकबर क्रोधित हो गया और सैनिकों को आदेश दिया कि उन्हें बलपूर्वक फतेहपुर सीकरी लाया जाए।

तुलसीदासजी को बलपूर्वक लाने के लिए अकबर ने अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को भेजा, अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना तुलसीदास जी के चमत्कार को जानते थे और उनका बड़ा आदर भी करते थे। इसलिए उन्होंने तुलसीदास जी को बड़े आदर से दरबार में चलने को कहा - 

किंतु तुलसीदास जी बोले - में तो अपने आराध्य श्रीराम जी का सेवक हूँ और उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलता हूँ। मेरा बादशाह के दरबार में क्या काम भला? फिर भी रहीम खां के बार बार कहने पर तुलसीदास जी बादशाह के दरबार में गए.

तुलसीदास जी को दरबार में देखकर अकबर खुश हुआ और बोला - आओ तुलसीदास जी आओ, हम आपसे मिलना चाहते थे। हमने आपके चमत्कारों के बारे में बहुत सुना है। आप मुर्दों में भी जान फूंकने का चमत्कार करते हैं, हमें भी कुछ चमत्कार दिखाइए।

तुलसीदास जी ने शांत स्वर में उत्तर दिया—“हे बादशाह, मैं कोई जादूगर नहीं हूँ। न ही कोई चमत्कार करता हूँ। मैं तो केवल प्रभु श्रीराम का दास हूँ, उन्हीं का नाम जपता हूँ। यदि कोई चमत्कार होता भी है तो वह मेरे प्रभु की कृपा से होता है, मेरी शक्ति से नहीं।”

अकबर ने हठपूर्वक कहा—“तो अपने राम से ही कहो कि कोई करामात दिखाएँ।”

तुलसीदास जी ने उत्तर दिया —“मैं प्रभु का दास हूँ, वे मेरे दास नहीं।”

अकबर ने कहा— हमने सुना है आप अपने राम के बारे में बहुत कुछ लिखते है, तो आज आप हमारी शान में भी कुछ कहो…कुछ लिखो…

तुलसीदास जी ने दृढ़ स्वर में कहा — मैं केवल अपने आराध्य प्रभु श्रीराम जी की स्तुति करता हूँ.. और उन्हीं के बारे में लिखूंगा, वहीं मेरे स्वामी है उन्हीं के आगे सिर भी झुकाऊंगा, उनकी तुलना कतई नहीं हो सकती. इस धरती पर कई राजा आए और गए, कोई स्थाई नहीं रहता. कल इस गद्दी पर आपसे पहले कोई और था, आज आप है भविष्य में कोई और आपकी जगह लेगा, किंतु मेरे स्वामी मेरे प्रभु श्रीराम अजर है अमर है अनंत है संपूर्ण जगत के स्वामी है, उनकी जगह कोई नहीं ले सकता।


यह सुनकर अकबर क्रोधित हो गया और बोला - आप मुगलिया सल्तनत बादशाह की तोहीन कर रहे है, हम चाहे तो आपको अभी मृत्युदंड दे सकते है। क्या आपको भय नहीं लगता?

तुलसीदास जी ने कहा - 

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। 
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अर्थात - वही होगा जो प्रभु श्रीराम जी चाहेंगे, तर्क वितर्क करने से क्या फायदा।

इसके बाद अकबर ने अपने सिपाहियों को आदेश देते हुए कहा - “सैनिकों! तुलसीदास को बंदी बना लो और जब तक ये कोई चमत्कार नहीं दिखाते, इन्हें कारागार में ही कैद करके रखना।


सैनिकों ने उन्हें लोहे की जंजीरों में बाँधकर कारागार में डाल दिया। परंतु तुलसीदास जी के मन में तनिक भी भय नहीं आया। वे कारागार में रामनाम का स्मरण करने लगे।

कारागार में रहते हुए उन्होंने प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त श्री हनुमान जी को स्मरण किया और उनके प्रति भक्ति स्वरूप चालीस छंदों की रचना की, जो आज ‘हनुमान चालीसा’ के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने सतत हनुमान चालीसा का पाठ किया कुछ समय बाद महल में अद्भुत घटना घटी।

सैकड़ों बंदरों ने अकबर के महल पर धावा बोल दिया। वे सैनिकों के हथियार छीनने लगे, महल का सामान इधर-उधर फेंकने लगे और चारों ओर आतंक फैलाने लगे। सैनिक बंदरों को काबू में नहीं कर पा रहे थे।

अकबर आश्चर्यचकित हो उठा और बोला— आज तक हमारे महल में कभी बंदर नहीं आए, अचानक इतने सारे बंदर कहाँ से आ गए?

तभी एक हिंदू मंत्री ने अकबर को समझाया— जहाँपनाह, यह कोई साधारण बात नहीं है। यह हनुमान जी की सेना है, क्योंकि आपने एक रामभक्त को कारागार में बंद कर रखा है। यदि आप चाहते हैं कि ये बंदर शांत होकर वापस लौट जाएँ, तो गोस्वामी तुलसीदास जी को सम्मानपूर्वक रिहा कर दीजिए।

अकबर ने स्वयं जाकर तुरंत तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त करवाया, तुलसीदास जी के कारागार से मुक्त होते ही सभी बंदर महल छोड़कर लौट गए। फिर अकबर ने तुलसीदास जी से क्षमा माँगते हुए कहा— आज हमने अपनी आँखों से आपकी भक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण देख लिया। आप वास्तव में सिद्ध संत हैं।

इसके बाद जीवनभर अकबर ने तुलसीदास जी का मित्र की भांति सम्मान किया।






Chapter 11) संत कबीर और श्रीकृष्ण जोगन मीराबाई से मुलाकात.




तुलसीदास जी का जीवन प्रभु श्रीराम की भक्ति और उनकी महिमा का वर्णन करते-करते बीत रहा था। वे बुलावे पर नगर-नगर जाकर रामकथा करते थे। इस यात्रा में उनकी मुलाकात अनेक संत-महात्माओं से भी हुई। उन्हीं में से एक थे संत कबीर। संत कबीर जी अपने निर्भीक दोहों और उपदेशों से असंख्य लोगों का जीवन बदल चुके थे। उनका नाम बड़े आदर और श्रद्धा से लिया जाता था। वे अपने द्वार पर आने वाले हर अतिथि का प्रेम से स्वागत करते और किसी को भी भूखा नहीं जाने देते थे, चाहे वह राजा हो या कोई साधारण व्यक्ति। वे एक गरीब जुलाहा परिवार से संबंध रखते थे और आजीविका के लिए अपने हाथों से कपड़ा बुनकर उसे बाजार में बेचा करते थे। तुलसीदास जी की उनसे मिलने की प्रबल इच्छा थी। इसलिए वे दिल्ली सल्तनत में स्थित उनके घर जाने के लिए निकल पड़े।

रास्ते में एक गाँव से गुजरते समय उन्होंने देखा कि मंदिर के पास बने कुएँ पर दो प्यासे बच्चे खड़े थे। मंदिर का पुजारी उन्हें डाँट-डाँटकर भगा रहा था—

भागो यहाँ से! यह ब्राह्मणों का कुआँ है, इसका पानी तुम लोग नहीं पी सकते। इसी पानी से भगवान का स्नान होता है।

यह देखकर तुलसीदास जी बोले—
“क्या हुआ पुजारी जी? इन मासूम बच्चों को क्यों डाँट रहे हैं? ये तो केवल पानी माँग रहे हैं, सोना-चाँदी तो नहीं माँग रहे।”

पुजारी जी ने कठोर स्वर में कहा—
गोस्वामी जी, आप कैसी अधर्म की बातें कर रहे हैं? ब्राह्मणों के कुएँ से दूसरी जाति के लोग पानी कैसे पी सकते हैं? और यह तो मंदिर का कुआँ है, इसकी शुद्धि का और भी ध्यान रखना पड़ता है।

तुलसीदास जी मुस्कराकर बोले—
ठीक है, मैं तो ब्राह्मण हूँ। मुझे तो इस कुएँ का पानी मिल सकता है न?

पुजारी ने कहा—
हाँ, आपको क्यों नहीं मिलेगा! अभी निकालकर देता हूँ।

पुजारी ने पानी निकालकर तुलसीदास जी को दिया। तुलसीदास जी ने वही पानी उन बच्चों को पिला दिया। 

यह देखकर पुजारी क्रोधित हो उठा और बोला—
आपने ये क्या कर दिया? आप जैसे गोस्वामी ही अधर्म करेंगे तो बाकी लोग क्या करेंगे?

तुलसीदास जी शांत भाव से बोले—


“परहित सरिस धरम नहीं भाई, 
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई”


दूसरों का भला करने जैसा कोई धर्म नहीं और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने जैसा कोई अधर्म नहीं। आपने यह पानी मुझे दिया था, अब यह मेरी संपत्ति थी। उसे किसे दूँ, यह मेरा अधिकार है।

पुजारी ने कटु स्वर में कहा—
राम-राम! आपने तो जात-पात मानना ही छोड़ दिया। यह कैसा आचरण है? आपने यह भ्रष्टाचार कहाँ से सीखा?

तुलसीदास जी ने उत्तर दिया—
यह आचरण मैंने अपने प्रभु श्रीराम जी से सीखा है, जिन्होंने शबरी के झूठे बेर भी बड़े प्रेम से खाए थे।

फिर उन्होंने स्मरण कराया—

प्रभु अपने नीचहु आदरहीं।
अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥

मेरे प्रभु निम्न जाति वालों का भी आदर वैसे ही करते हैं जैसे अग्नि धुएँ को और पर्वत घास को अपने सिर पर रखता है। मैं भी उन्हीं का सेवक हूँ।”

इस प्रकार पुजारी को धर्म और अधर्म की सच्ची परिभाषा समझाकर तुलसीदास जी अपनी यात्रा पर आगे बढ़े। कुछ दिनों की यात्रा के बाद वे उस नगर पहुँचे जहाँ संत कबीर रहते थे। एक व्यक्ति से मार्ग पूछने पर उसने उन्हें कसाइयों की बस्ती के भीतर एक छोटी-सी कुटिया दिखलाई। चारों ओर मुर्गियों का कटना, मांस की दुकानें, खून से सनी ज़मीन और दुर्गंध फैली हुई थी। यह दृश्य तुलसीदास जी के लिए असहनीय था, फिर भी वे जैसे-तैसे अपनी नाक बंद करके कबीर जी की कुटिया में पहुँचे।

कबीर जी ने अपने हाथ से बनाए हुए कपड़े के आसान पर उन्हें बिठाया और आत्मीय बातें कीं। 

तुलसीदास जी ने पूछा—
कबीर जी, आप जैसे संत इन कसाइयों के बीच कैसे रह लेते हैं? यहाँ का वातावरण तो असहनीय है।

संत कबीर जी मुस्कराए और एक दोहा सुनाया—

कबीरा तेरी झोपड़ी, गलकटियन के पास।
जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यों भये उदास॥

उन्होंने समझाया—
मेरी झोपड़ी भले ही कसाइयों के बीच है, पर मेरा कर्म कसाई जैसा नहीं है। जो जैसा करेगा, उसे वैसा फल मिलेगा तो भला मैं क्यों उदास होऊँ!


कुछ समय तुलसीदास जी और कबीर जी ने साथ में सत्संग किया, फिर तुलसीदास जी अपने नगर लौट आए।

एक दिन की बात हैं। जब तुलसीदास जी अपनी कुटिया में बैठकर रामभजन लिख रहे थे, तभी उनके सेवक ने आकर कहा—

बाबा, आपके लिए मेवाड़ से एक पत्र आया है। यह पत्र चित्तौड़ के राजघराने से है। संदेश लाने वाला कह रहा है कि यह स्वर्गीय कुंवर भोजराज जी की पत्नी मीराबाईसा का पत्र है।

श्रीकृष्ण की दीवानी मीराबाई का नाम सुनते ही तुलसीदास जी प्रसन्न हो गए। उन्होंने सेवक से शीघ्र पत्र लाने को कहा और उत्सुकता से मीराबाई का पत्र पढ़ने लगे।

पत्र में लिखा था—
“परम रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी के चरणों में मीराबाई का कोटि-कोटि प्रणाम। आज आपके सामने एक प्रार्थना रख रही हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरी पीड़ा आप समझ सकते हैं और मुझे उचित मार्ग दिखा सकते हैं। मैंने अपना सबकुछ अपने गिरधर मुरारी पर अर्पण कर दिया है। उनके चरणों में मेरा अटूट प्रेम है। लेकिन मेरे ससुराल वाले मेरी भक्ति से प्रसन्न नहीं हैं। वे मुझे अपमानित करते हैं, अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाते हैं और मेरी भक्ति में बाधा डालते हैं। महल की स्त्रियों के साथ हँसना-बोलना उन्हें स्वीकार है, परंतु साधु-संतों के साथ सत्संग उन्हें बुरा लगता है। बचपन से ही मैंने श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व माना है, परंतु परिवार को छोड़ना मेरे संस्कारों के विरुद्ध है। मैं वर्षों से इन दो राहों पर खड़ी हूँ। कृपया मुझे मार्गदर्शन दें।”

पत्र पढ़कर तुलसीदास जी बोले—
यह उलझन तो हर सच्चे भक्त की परीक्षा है। यदि कृष्ण से सच्चा प्रेम है, तो मार्ग भी उन्हीं का चुनना होगा।

फिर उन्होंने उत्तर स्वरूप लिखा—

जाके प्रिय न राम-बैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम।
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी॥
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज बनितन्हि, भये मुद मंगलकारी॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य, प्रणते प्यारो।
जसों होय सनेह राम पद, एतो मोटो हमारो॥

अर्थात्—जो आपकी भक्ति में बाधा डाले, वह चाहे कितना ही प्रिय क्यों न हो, शत्रु के समान है। प्रह्लाद ने पिता को, विभीषण ने भाई को, भरत ने माता केकई को और बलि ने गुरु को त्यागकर भी भक्ति को सर्वोपरि रखा।

तुलसीदास जी का उत्तर पाकर मीराबाई की सभी शंकाएँ दूर हो गईं। उन्होंने परिवार की परवाह छोड़ दी और श्रीकृष्ण की भक्ति का वह मार्ग अपना लिया, जहाँ कोई उन्हें रोकने वाला न था। एक हाथ में गिरधर की मूर्ति और दूसरे हाथ में वीणा लेकर वे भक्ति की राह पर निरंतर बढ़ने निकल पड़ी।

तुलसीदास जी अब वृद्ध हो चले थे। नगर-नगर घूमकर कथा कहने की सामर्थ्य उनमें नहीं रही थी। उन्होंने श्रीरामचरितमानस और हनुमान चालीसा के अतिरिक्त अनेक रचनाएँ कीं—

हनुमान बाहुक : जब उन्हें बाहु में असह्य पीड़ा हुई और औषधियाँ काम न आईं, तब उन्होंने यह रचना की। नियमित पाठ से उनकी पीड़ा दूर हो गई।

बजरंग बाण, दोहावली, कवितावली, जानकी मंगल, पार्वती मंगल और कृष्ण गीतावली जैसी रचनाएँ भी उनके द्वारा रचित हैं।

वैराग्य संदीपनी में संन्यासियों के धर्म, कर्म और आचरण का वर्णन मिलता है।

अंत में उन्होंने विनय पत्रिका लिखी, जिसमें प्रभु श्रीराम के प्रति उनकी हृदय की विनम्र प्रार्थना प्रकट हुई।

संवत् 1680 (1623 ईस्वी) के श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन, काशी के अस्सी घाट पर तुलसीदास जी ने राम राम कहते हुए देह त्याग प्रभु श्रीराम के चरणों में लीन हो गए।

संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर। 
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर.


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गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्पूर्ण जीवन भक्ति, ज्ञान, और त्याग का अद्वितीय संगम है। उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में श्रीराम नाम की महिमा को जिया और उसी को जन-जन तक पहुँचाया। बचपन के दुःखों से लेकर युवावस्था की तपस्या तक, गृहस्थ जीवन के मोह से लेकर विरक्ति के वैराग्य तक हर अवस्था में तुलसीदास जी ने श्रीराम के प्रति अखंड निष्ठा दिखाई।

उनकी वाणी से निकले ‘रामचरितमानस’ ने न केवल साहित्य की दिशा बदली, बल्कि पूरे समाज को एक नई आध्यात्मिक दृष्टि दी। तुलसीदास जी ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चा ज्ञान वही है जो प्रेम से भरा हो, और सच्ची भक्ति वही है जिसमें सेवा, समर्पण और करुणा का भाव हो।

वाराणसी में अपने अंतिम समय तक वे केवल एक ही साधना में लीन रहे, राम नाम का जाप। अंततः श्रीराम के चरणों में लीन होकर उन्होंने इस नश्वर संसार को त्याग दिया, परंतु उनका रामभक्ति का संदेश आज भी युगों-युगों तक गूँज रहा है।

तुलसीदास जी भले ही देह रूप से इस संसार से विदा हो गए हों, पर उनके शब्द

“सीय राममय सब जग जानी”


आज भी मानवता को यह स्मरण कराते हैं कि हर जीव में ईश्वर का वास है।

तुलसीदास जी का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा है—
कि विपत्ति में धैर्य रखें, मोह में विवेक रखें और हर परिस्थिति में श्रीराम नाम का आधार न छोड़ें। 

उनकी कृतियाँ, उनकी भक्ति, और उनका प्रेम—हमेशा अमर रहेंगे।

जय श्रीराम! जय तुलसीदास जी महाराज की जय!

समाप्त