The Promise of a Thread (A Love Story Stuck in Memories) in Hindi Love Stories by NR Omprakash Saini books and stories PDF | धागे का वादा (स्मृतियों मे अटकी प्रेमकथा)

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धागे का वादा (स्मृतियों मे अटकी प्रेमकथा)

धागे का वादा
(स्मृतियों मे अटकी प्रेमकथा)

एन आर ओमप्रकाश। 


(1)

पीपाड़ का नाम जैसे रेत के साथ गूँथकर बोला जाता—वही रेत जो हर साँस में खरखरा उठती, वही रेत जो पसीने-सी ओस में चमकती, वही रेत जिस पर बुज़ुर्गों की कहानियाँ बैठी रहती थीं। सुबह की पहली लाली जब खेतों के ऊपर फैलती, तो गाँव की हर चीज़ मानो एक पुराना संगीत दोहराने लगती। नीम की शाखाओं पर बिखरी चिड़ियों की चहचहाहट दूर दूर तक सुनाई देती। रामपॉल के समाधि गृह से बाल संतों के मुखारबिंद से रामनाम की धुन पूरे वातावरण को एक आलौकिक ऊर्जा प्रदान करती है। पीपाड़ की गलियाँ न पत्थर की थीं न पक्की—पर उन मिट्टी की सोंधी खुशबू में जीवन की अस्पष्ट सौम्यता बसती थी।

इसी धरती की बेटी थी सिद्धिका। उसकी सुंदरता गाँव की पहचान थी। लंबा कद, गोरी आभा, बड़ी-बड़ी आँखें मानो नीले आकाश की झीलें हों। जब वह हँसती, तो पूरा आँगन रोशन हो उठता। उसकी हँसी में जीवन की ताजगी थी और उसकी चुप्पी में गहराई।

गाँव के दूसरे कोने में था हर्ष। गंभीर, लेकिन भीतर से बेहद कोमल। पढ़ाई में तेज, आँखों में सपनों की चमक।
गाँव वाले उसे उम्मीद की तरह देखते – “यह लड़का बड़ा होकर अफसर बनेगा, हमारे गाँव का नाम रौशन करेगा।” पर हर्ष की अपनी एक दुनिया थी। किताबों के पन्नों में खोया हुआ, सपनों में डूबा हुआ। उसके भीतर कहीं गहराई में एक मासूम एहसास धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा था। ऐसा एहसास जिसे वह खुद भी नाम नहीं दे पा रहा था।
वह एहसास था सिद्धिका का। गाँव की रेत में जैसे कोई बीज बिना कहे उग आता है, वैसे ही उसके दिल में प्रेम का बीज बो चुका था। दोनों 12वीं कक्षा में थे – विज्ञान की पढ़ाई, कठिन सूत्र, सवालों की गुत्थियाँ। पर असली गुत्थी तो उनके दिलों में उलझ रही थी।

गर्मियों की एक दोपहर थी। सूरज अपनी पूरी ताक़त से रेत को झुलसा रहा था। हवा इतनी गरम थी कि साँस लेना भी कठिन लग रहा था। लेकिन गाँव के बीचोंबीच फैली नीम की छाँव में जैसे एक अलग ही दुनिया बसी थी। वहीं मिट्टी पर उकेरी गईं लकीरें, कंचों की खनक और बच्चों की हँसी-ठिठोली गूँज रही थी।

सिद्धिका, जिसके गाल हमेशा हल्की-सी लाली से दमकते थे, अपने नन्हें हाथों से मिट्टी में आकृतियाँ बना रही थी। उसका ध्यान खेल में कम और सामने खड़े हर्ष पर ज्यादा था। हर्ष, लंबा और दुबला-पतला लड़का, आँखों में सपनों की चमक लिए हुए, नीम की जड़ों पर बैठा अपनी किताब में डूबा था। वह अक्सर पढ़ाई में इतना मग्न हो जाता कि उसके आसपास का शोर भी उसे सुनाई नहीं देता।

“हर्ष, सुनो न!” सिद्धिका ने अचानक आवाज़ दी।
हर्ष ने किताब से नजरें उठाईं, “क्या है?”
“तुम हमेशा पढ़ते ही रहते हो। चलो कंचे खेलते हैं।”
हर्ष मुस्कुराया, “कंचों से कुछ नहीं मिलेगा, लेकिन इस किताब से पूरी दुनिया मिल जाएगी।”
सिद्धिका ने होंठ सिकोड़ते हुए कहा, “दुनिया तो यहाँ भी है—नीम की छाँव में, मेरे साथ।”
उस पल दोनों खिलखिला कर हँस पड़े।

यह हँसी साधारण नहीं थी। यह वह मासूम हँसी थी जिसमें भविष्य की अनगिनत संभावनाएँ छिपी थीं। दोनों की आँखों में एक अनकहा वादा झलक रहा था—कि वे साथ रहेंगे, चाहे वक्त कुछ भी मोड़ क्यों न ले।

शाम ढलने लगी थी। गाँव के चरवाहे अपनी-अपनी बकरियों को लेकर लौट रहे थे, और हवा में धूल की हल्की परत तैर रही थी। सूरज की आख़िरी किरणें नीम की पत्तियों के बीच से छनकर दोनों के चेहरों पर पड़ रही थीं।

हर्ष ने किताब बंद की और गम्भीर स्वर में कहा, “एक दिन मैं गाँव छोड़कर शहर जाऊँगा। वहाँ बड़ी पढ़ाई करूँगा, और कुछ बनकर लौटूँगा।”
सिद्धिका ने एक पल को उसे देखा, फिर नीम की ऊपरी डाल की ओर इशारा करते हुए बोली, “ठीक है, लेकिन याद रखना—उस डाल पर मैंने तुम्हारे नाम से एक धागा बाँध दिया है। जब लौटकर आना तो सबसे पहले उसे देखना।”
हर्ष ने सिर हिलाया। उसकी आँखों में सपनों के साथ-साथ एक डर भी था—कहीं यह वादा अधूरा न रह जाए।
नीम की छाँव के नीचे वह दिन ऐसे बीता मानो रेत पर कोई गहरी लकीर खिंच गई हो—जो वक्त की आँधी से भी मिटने वाली नहीं थी।


(2)

शहर का प्लेटफ़ॉर्म शोर और भागदौड़ से भरा हुआ था। ट्रेन जैसे ही रुकी, भीड़ उमड़ पड़ी। हर्ष ने कंधे पर झोला टाँगा और भीड़ में रास्ता बनाता हुआ बाहर निकला। उसकी आँखों में उत्साह था, लेकिन भीतर कहीं गहरे भय भी छिपा हुआ था। गाँव से पहली बार इतना दूर आना, इतने बड़े शहर में कदम रखना, यह सब उसके लिए अनजान अनुभव था।

शहर की सड़कें उसके गाँव से बिल्कुल भिन्न थीं। जहाँ पिपाड़ की गलियों में गाय-भैंसें सुस्ताई खड़ी रहतीं और धूल उड़ती रहती, वहीं शहर की सड़कों पर गाड़ियों का शोर, बसों की भागमभाग और सिग्नल की लाल-हरी बत्तियाँ थीं। हर तरफ़ भीड़ और अजनबियत का अहसास।

पहली रात उसने किराए के छोटे से कमरे में बिताई। कमरे में एक पंखा था जो चरमराता हुआ चलता, एक खिड़की थी जिससे बाहर का धुंधला-सा दृश्य दिखता और एक लकड़ी की मेज़ जिस पर उसने अपनी किताबें रख दीं। यही उसका नया संसार था।

उसने मोबाइल निकाला और गाँव की तरफ़ देखा। नेटवर्क की कमजोर सी लाइन झिलमिलाई। उसने सिद्धिका को पहला ईमेल लिखने का निश्चय किया।

“सिद्धिका,
यहाँ रोशनी बहुत है। सड़कों पर इतने बल्ब जलते हैं कि लगता है रात भी दिन का रूप धर लेती है। पर इन रोशनियों में भी अँधेरा है—गाँव की मिट्टी की खुशबू, नीम की छाँव, और तुम्हारी हँसी का।

पढ़ाई कठिन है, पर मैं पीछे नहीं हटूँगा। लाइब्रेरी इतनी बड़ी है कि जैसे उसमें पूरी दुनिया समाई हो। आज पहली बार वहाँ बैठा तो तुम्हें याद किया। एक किरण खिड़की से भीतर आई और मेरी किताब पर पड़ी—वैसी ही जैसे नीम के नीचे हमारे खेलों पर पड़ती थी।
जब भी समय मिले, जवाब देना। तुम्हारी बातें मुझे इस भीड़-भाड़ में भी अपनेपन का सहारा देंगी।

—तुम्हारा हर्ष।”

ईमेल भेजते हुए हर्ष की उँगलियाँ काँप रही थीं। यह सिर्फ़ शब्द नहीं थे, बल्कि उसकी आत्मा का टुकड़ा था जो उसने स्क्रीन पर उकेरा था।

गाँव में उधर शाम ढल चुकी थी। सिद्धिका आँगन में बैठी थी, उसकी हथेलियों पर मेहँदी के धुँधले निशान अब भी बाकी थे। विवाह के प्रस्तावों की चर्चाएँ घर में गूँज रही थीं, पर उसका मन कहीं और अटका था। वह बार-बार अपने मोबाइल को देखती—जैसे उसमें कोई चमत्कार प्रकट होने वाला हो। अचानक स्क्रीन पर नोटिफिकेशन आया—“1 new mail”।

सिद्धिका का दिल ज़ोर से धड़क उठा। उसने काँपते हाथों से ईमेल खोला और हर्ष की लिखी पंक्तियाँ पढ़ने लगी। हर शब्द उसके मन के भीतर गहराई तक उतरता गया। नीम की छाँव, हँसी, किताब, किरण—ये सब वही यादें थीं जो उसने भी अपने दिल में सँजो रखी थीं।

उसकी आँखें भीग गईं। उसे लगा जैसे हर्ष उसके सामने बैठा है, और धीमी आवाज़ में वही बातें कर रहा है। उसने जवाब टाइप करना चाहा, लेकिन उँगलियाँ शब्दों को पकड़ नहीं पा रही थीं। वह बस मोबाइल को सीने से लगाकर देर तक चुपचाप बैठी रही।


अगले दिन उसने साहस जुटाया और पहला जवाब लिखा—

“हर्ष,
तुम्हारे ईमेल ने मुझे वही नीम की छाँव लौटा दी। यहाँ सब पहले जैसा है—गाँव की पगडंडियाँ, आँगन में हँसी, और बुज़ुर्गों की पुरानी बातें। पर इन सबके बीच एक खालीपन है—तुम्हारे न होने का।

कल तुम्हारे नाम से बाँधा हुआ धागा मैंने फिर देखा। हवा चलती है तो वह हल्के-हल्के हिलता है, जैसे तुम्हें याद कर रहा हो। अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना। तुम्हारा सपना मेरा सपना है।

सिद्धिका।”

यह पहला डिजिटल संवाद था, लेकिन भावनाओं की गहराई वैसी ही थी जैसे पुराने जमाने की चिट्ठियों में हुआ करती थी।


धीरे-धीरे यह संवाद जारी रहा। कभी हर्ष ईमेल लिखता, कभी व्हाट्सऐप पर वॉइस-नोट भेजता। कभी नेटवर्क नहीं मिलता तो संदेश घंटों, कभी-कभी दिनों तक अटका रहता। उस देरी में दोनों की बेचैनी बढ़ जाती।

एक बार हर्ष ने रात को रिकॉर्ड किया हुआ वॉइस-नोट भेजा। उसकी थकी हुई आवाज़ मोबाइल से गूँजी—

“सिद्धिका, आज लाइब्रेरी से लौटते-लौटते देर हो गई। बाहर बारिश हो रही थी। शहर की सड़कें पानी में डूब गईं थीं, लेकिन भीड़ फिर भी भाग रही थी। मैं भीगता रहा, पर मुझे लगा जैसे तुम्हारी हँसी उस बारिश में छिपी हुई है। काश तुम साथ होतीं…”

सिद्धिका ने यह वॉइस-नोट बार-बार सुना। उसके कानों में वही बारिश गूँजने लगी। उसे ऐसा लगा मानो दूरी मिट गई हो और हर्ष उसके पास बैठा बातें कर रहा हो।

परंतु हर संवाद के साथ एक पीड़ा भी जुड़ी थी। दूरी का अहसास और समाज का दबाव। गाँव में लोग अब उसकी उम्र की चर्चा करने लगे थे। उसकी माँ अक्सर कहती—“बिटिया, अब तेरा ब्याह कर देना चाहिए। ज्यादा देर ठीक नहीं।”

सिद्धिका मुस्कुराकर टाल देती, लेकिन भीतर उसका मन काँप जाता। वह जानती थी कि हर्ष के बिना उसका जीवन अधूरा है। पर क्या समाज इस बंधन को स्वीकार करेगा?


(3)

गाँव में सर्दियों की धूप अलग ही आनंद देती है। आँगनों में खाट बिछाकर औरतें बैठतीं, बच्चे खेलते, और चूल्हों से उठती रोटियों की महक हवा में घुली रहती। पर इस बार धूप के साथ एक और गंध थी—हल्दी और मेहँदी की। घर-घर में शादियों की चर्चा थी और हर गली मानो किसी उत्सव की तैयारी में डूबी हुई थी।

सिद्धिका का घर भी अब उन्हीं घरों में गिना जाने लगा। उसके विवाह की बात पक्की कर दी गई थी। वर का नाम था विक्रम– गाँव के चौपाल के पास वाले घर का लड़का जो एक शिक्षक हैं। पढ़ा-लिखा, सरल, सुसंस्कृत और समझदार माना जाने वाला युवक। समाज की नजर में वह आदर्श दामाद था। लेकिन सिद्धिका के मन में उत्सव की जगह धुआँ था। वह धुआँ जो चूल्हे से नहीं, बल्कि भीतर की उलझनों से उठ रहा था।

आँगन में औरतें बैठी हुईं थीं। कोई कढ़ाई कर रही थी, कोई मेहँदी का रंग दिखा रही थी, तो कोई गीत गा रही थी—
“पीले रँग डालो री सखी, आज साजन का घर सजना है…”
ढोलक की थाप, औरतों की तालियाँ और बच्चों की खिलखिलाहट से वातावरण भरा हुआ था। दीवारों पर नई चुनेई की गई थी, दरवाज़े पर रंगोली बनाई गई और घर के भीतर पीली परत चढ़ गई थी।

सिद्धिका की माँ बार-बार उसके कमरे में जाती—कभी कपड़ों की नाप लेतीं, कभी गहनों की थैली निकालकर गिनतीं। पिता बाहर मेहमानों की सूची बना रहे थे। हर तरफ़ हड़बड़ी थी, लेकिन उस हड़बड़ी में भी एक खुशी झलकती थी।
सिर्फ़ सिद्धिका का मन चुप था। वह चुपचाप अपनी खिड़की से नीम की ओर देखती। वही नीम जिसके नीचे उसने हर्ष से वादा किया था। लेकिन उसी नीम के दूसरी तरफ विक्रम का घर भी दिख रहा है। जिसकी रौशनी सिद्धिका के मन को बार बार विचलित कर रहा थी। 

रात को जब सब सो गए, सिद्धिका अकेली आँगन में आ बैठी। चाँदनी नीम की पत्तियों से छनकर उसके चेहरे पर गिर रही थी। उसकी आँखों में आँसू चमकने लगे।

“क्या सच में यही मेरा भाग्य है?” उसने खुद से सवाल किया। “क्या मेरे सारे सपने बस धागे की तरह हवा में उड़ जाएँगे?”

वह जानती थी कि हर्ष शहर में पढ़ाई कर रहा है, संघर्ष कर रहा है। उसने ही तो कहा था—“मैं लौटूँगा, और तुम्हारे लिए कुछ बनकर आऊँगा।” लेकिन समाज इतनी देर तक इंतज़ार नहीं करता। समाज को बस उम्र और अवसर की गिनती करनी आती है।
उस रात उसने मोबाइल उठाया और हर्ष को वॉइस-नोट भेजा। उसकी आवाज़ काँप रही थी—

“हर्ष, शायद यह आख़िरी बार है जब मैं यूँ तुमसे बात कर रही हूँ। घर में मेरी शादी की तैयारियाँ हो रही हैं। उन्होंने विक्रम नामक शिक्षक को चुना है। कहते हैं, वह अच्छा है, सुसंस्कृत है… लेकिन मेरा दिल? मेरा दिल तो कहीं और अटका है। क्या मैं गलत हूँ? क्या अपने सपनों के साथ जीना गुनाह है? तुमसे वादा किया था, नीम की डाल पर धागा बाँधा था… क्या वह वादा बस धागा ही रह जाएगा?” भेजते ही उसके आँसू और तेज़ी से बहने लगे।

शहर में जब हर्ष ने यह वॉइस-नोट सुना, तो वह देर तक मौन रहा। उसके हाथों से किताब गिर गई। उसकी आँखों के सामने नीम का पेड़, सिद्धिका की मुस्कुराहट और बाँधा हुआ धागा घूमने लगा।
उसने तुरंत ईमेल लिखा—

“सिद्धिका,
यह कैसा अन्याय है? मैंने वादा किया था कि लौटकर तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा। पर अभी तो मैं आधे रास्ते पर हूँ।
तुम्हारे विवाह की खबर सुनकर ऐसा लगा जैसे मेरी साँसें थम गई हों। पर तुम मत घबराओ। मैं जो भी कर सकूँगा, करूँगा।
—तुम्हारा हर्ष।”

लेकिन ईमेल कब पहुँचा, यह किसी को नहीं पता। नेटवर्क की दिक्कत और समय का फासला—दोनों ने मिलकर उसे देरी से पहुँचाया। और जब तक संदेश सिद्धिका के इनबॉक्स में पहुँचा, तब तक उसके हाथों पर हल्दी लग चुकी थी।


गाँव में विवाह किसी उत्सव से कम नहीं होता। हल्दी की रस्म में औरतें गीत गातीं और हँसी-ठिठोली करतीं। सिद्धिका पीली चूनर में बैठी थी, पर उसका चेहरा फीका पड़ गया था। बाहर से वह मुस्कुरा रही थी, लेकिन भीतर आँसू बह रहे थे।

मेहँदी की रात को उसकी सहेलियाँ हाथों पर डिजाइन बना रही थीं। उनमें से एक ने पूछा—“किसका नाम लिखवाओगी?” 
सिद्धिका चौंकी। उसके होंठ काँप गए। उसने हिम्मत जुटाकर कहा—“विक्रम…” लेकिन उसकी आँखों के भीतर अब भी “हर्ष” लिखा हुआ था।

शादी वाले दिन घर रंगीन झालरों और रोशनी से जगमगा उठा। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ से पूरा गाँव गूँज रहा था। बारात आई, आतिशबाज़ी हुई, और लोग नाचने लगे।

विक्रम घोड़ी पर सजे-धजे बैठे थे। उनका चेहरा गंभीर लेकिन शांत था। उन्होंने सिद्धिका को देखा तो हल्की मुस्कान दी। वह मुस्कान एक अच्छे इंसान की थी, पर उसमें वह गहराई नहीं थी जिसे सिद्धिका खोज रही थी।


विवाह के बाद जब बग्घी सिद्धिका को विदा कराने के लिए चली, तो वह नीम के पेड़ की ओर देखती रही। वह आभास कर रही थी मानों वहाँ छाँव में हर्ष खड़ा हैं। भीड़ में छिपा हुआ, लेकिन उसकी आँखें सिद्धिका की आँखों से टकरा गईं। उस पल दोनों ने बिना शब्दों के संवाद किया। सिद्धिका की आँखें कह रही थीं—“मैं मजबूर हूँ।” 
हर्ष की आँखें कह रही थीं—“मैंने वादा तोड़ा नहीं, बस वक्त ने मुझे हराया।”

बग्घी धीरे-धीरे दूर चली गई। धूल का गुबार उठा और नीम का पेड़ फिर अकेला खड़ा रह गया। उसकी डाल पर बँधा धागा हवा में हिल रहा था—मानो वह भी इस बिछोह पर शोक मना रहा हो।


(4)
 नई सुबह, नया बंधन

विवाह के बाद की सुबह सिद्धिका ने पहली बार पराए घर की चौखट पर कदम रखा। आँगन में दीपक जल रहा था, दरवाज़े पर कुमकुम और चावल की थाली रखी थी। सास ने उसके माथे पर तिलक लगाया और कहा,
“अब यह घर तुम्हारा है, बिटिया।”

परंतु सिद्धिका का दिल अब भी पीछे छूटे नीम की छाँव में अटका था। वह कदम तो आगे बढ़ा चुकी थी, लेकिन मन हर पल पीछे मुड़कर वही बाँधा हुआ धागा तलाशता।

विक्रम उसका पति था—सहज, शांत और पढ़ा-लिखा। वह उसे सम्मान देता, पर प्रेम की वह गहराई नहीं थी जो सिद्धिका के मन ने कभी हर्ष में महसूस की थी। विक्रम ने उसे किताबें लाकर दीं, बातें कीं, लेकिन सिद्धिका की आँखें हर शब्द के बीच कहीं खो जातीं।

रिश्ते की शुरुआत में ही एक मौन दूरी थी—ऐसी दूरी जिसे न तो परिवार समझ सकता था और न ही विक्रम खुद।


शादी के कुछ दिन बाद ही सिद्धिका ने पहली बार अपने मोबाइल को हाथ में लिया। घर में नया माहौल, नए रिश्ते, नए काम—सबके बीच वह जब अकेली होती तो मोबाइल स्क्रीन पर निगाहें टिक जातीं।

कई दिन बाद उसे हर्ष का ईमेल मिला—

“सिद्धिका,
मैं भीड़ में हूँ, पर अकेला हूँ। तुम्हारे विवाह की तस्वीरें मुझे दूसरों से मिलीं। विश्वास करो, जब देखीं तो दिल के भीतर कुछ टूटकर बिखर गया। पर तुम्हारी मुस्कान देखकर मैंने खुद को समझाया—शायद यही तुम्हारा सुख है।
मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा नया जीवन मेरे कारण किसी संकट में पड़े। पर मेरी दुनिया की हर किताब, हर पन्ना अब भी तुम्हारे नाम से भरा है।
—हर्ष।”

ईमेल पढ़ते ही सिद्धिका की आँखों से आँसू बह निकले। उसने सोचा—क्या सचमुच मैं मुस्कुराई थी उस तस्वीर में? या वह मुस्कान सिर्फ़ समाज के लिए थी?

उसने जवाब लिखा—

“हर्ष,
तस्वीरें छलावा होती हैं। वहाँ जो मुस्कान थी, वह भीतर से नहीं थी।
मेरा संसार बदल गया है, पर नीम की डाल अब भी तुम्हारे नाम से बँधी है।

—सिद्धिका।”

यह ईमेल देर से भेजा गया। नेटवर्क बार-बार गिरता और फिर से जुड़ता। जब तक संदेश पहुँचा, तब तक हर्ष की बेचैनी कई गुना बढ़ चुकी थी।


दिन हफ़्तों में, और हफ़्ते महीनों में बदल गए। सिद्धिका ने गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ सँभालनी शुरू कर दीं। वह सुबह जल्दी उठकर घर के काम करती, स्कूल जाती बच्चों को पढ़ाती और रात को देर से थकी हुई वापस लौटती।

पर हर रात जब सब सो जाते, वह मोबाइल उठाती। हर्ष के संदेश कभी-कभी आते, कभी खो जाते। कई बार उसने लिखा—“संदेश भेजा पर डिलीवर नहीं हुआ।” वह इंतज़ार करती रहती, और हर इंतज़ार उसकी बेचैनी को गहराई देता।

हर्ष भी संघर्ष में था। पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश कर रहा था। शहर की भीड़ में उसने कितनी ही बार अकेलेपन को महसूस किया। आसपास दोस्त थे, पर भीतर वह सिर्फ़ सिद्धिका की आवाज़ सुनना चाहता।


गाँव में अफवाहें भी चलने लगीं। अब व्हाट्सऐप ग्रुप और मोबाइल कैमरे हर जगह मौजूद थे। किसी ने कहा—“देखो, सिद्धिका अपने मोबाइल में घंटों लगी रहती है।” किसी ने चुटकी ली—“बहू है, पर मन कहीं और है।”

ये बातें धीरे-धीरे विक्रम तक भी पहुँचीं। एक शाम उसने सहज स्वर में पूछा— “सिद्धिका, क्या तुम किसी से बातें करती हो?”

सिद्धिका चौंक गई। उसके गले में शब्द अटक गए। उसने सिर झुका लिया और कहा, “मैं…नहीं…बस पुरानी सहेलियाँ।”
विक्रम ने उसकी आँखों में झाँकना चाहा, पर वह न झलक पढ़ पाया, न सच जान पाया।

उसी रात हर्ष ने वॉइस-नोट भेजा। उसकी आवाज़ टूटी हुई थी—

“सिद्धिका, क्या तुम खुश हो?
मैं जानता हूँ, मैं देर कर गया। मैं वादा निभा नहीं सका। पर विश्वास करो, तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है।
अगर तुम्हें कभी लगे कि मैं सिर्फ़ बोझ हूँ, तो मुझे भूल जाना। लेकिन अगर कहीं भी तुम्हें मेरी ज़रूरत हो, तो मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ।”

सिद्धिका ने यह संदेश बार-बार सुना। उसकी आँखें नम हो गईं। उसने धीरे से जवाब रिकॉर्ड किया—
 “हर्ष, खुश हूँ या नहीं—इसका जवाब मेरे पास भी नहीं है।
मेरी ज़िम्मेदारियाँ हैं, पर मेरा दिल अब भी उसी नीम की छाँव में है जहाँ हमने वादा किया था।
तुम भूल सकते हो तो भूल जाओ…पर मैं? मैं नहीं भूल पाऊँगी।”

यह संवाद दोनों के बीच एक अटूट डोर बन गया। दूरी कितनी भी थी, पर आवाज़ का यह पुल उन्हें जोड़ता रहा।

देर रात सिद्धिका ने सपना देखा। वह नीम की छाँव में बैठी थी, हर्ष उसके सामने खड़ा था। धूप छनकर आ रही थी और हवा पत्तों को हिला रही थी। हर्ष ने कहा, “देखो, धागा अब भी बंधा है।”

सिद्धिका ने हाथ बढ़ाकर उस धागे को छुआ और आँसुओं के साथ मुस्कुराई। पर तभी हवा का झोंका आया और सपना टूट गया। वह घबराकर जागी—और पाया कि उसके हाथ सचमुच काँप रहे थे।
थोड़ी देर, बेड पर बैठी रही फिर नींद आंखों में भर आई।

समय के साथ उनकी बातें और भी छिपने लगीं। अब वे खुलकर ईमेल या कॉल नहीं कर पाते। हर शब्द सोच-समझकर लिखना पड़ता। हर संदेश भेजने से पहले डर लगता—कहीं कोई देख न ले, कहीं कोई सुन न ले। पर जितना वे छिपाते, उतना ही उनका बंधन गहरा होता गया। यह दूरी उनके प्रेम की परीक्षा थी—एक ऐसी परीक्षा जिसे न समाज समझ पा रहा था, न परिवार, पर दोनों के दिल जानते थे कि यह डोर टूटने वाली नहीं।

(5)

गाँव में मौसम बदल रहा था। गर्मी की चिलचिलाती धूप अब धीरे-धीरे पीछे हट रही थी और ठंडी हवाएँ आने लगी थीं। खेतों में रबी की बुवाई शुरू हो चुकी थी। किसानों के चेहरों पर हल्की मुस्कान थी कि इस बार शायद फसल अच्छी होगी।

सिद्धिका सुबह उठकर आँगन में झाड़ू लगाती, फिर चूल्हे पर चाय चढ़ाती और आसमान की तरफ़ देखती। बदलते मौसम के साथ उसके भीतर भी कुछ बदल रहा था। बाहर ठंडी हवाएँ बह रही थीं, पर उसके दिल के भीतर बेचैनी की गर्मी बढ़ती जा रही थी।

विक्रम एक जिम्मेदार पति था। वह समय पर स्कूल जाता, बच्चों को पढ़ाता, और शाम को घर लौटकर शांतिपूर्वक बैठता। वह सिद्धिका की तारीफ़ भी करता—कभी उसके बनाए खाने की, कभी उसके धैर्य की।
लेकिन यह सब होते हुए भी, सिद्धिका को लगता कि उसकी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा खाली है।
कभी-कभी वह सोचती—“क्या हर विवाह ऐसा ही होता है? बाहर से सब कुछ संतुलित, और भीतर गहराई में सन्नाटा?”

रात को जब विक्रम सो जाता, सिद्धिका मोबाइल उठाती। कभी हर्ष का संदेश मिलता, कभी नहीं। जब मिलता, तो दिल भर आता। जब नहीं मिलता, तो बेचैनी और गहरी हो जाती।

शहर में हर्ष नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। इंटरव्यू देता, रिज़ल्ट का इंतज़ार करता, और हर असफलता उसके आत्मविश्वास को चोट पहुँचाती।
लेकिन हर बार वह सोचता—“मुझे टूटना नहीं है। मुझे सिद्धिका से किया वादा निभाना है।”
कभी देर रात वह लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर ईमेल लिखता।

“सिद्धिका,
यहाँ सब तेज़ी से बदल रहा है। हर कोई अपने-अपने लक्ष्य के पीछे भाग रहा है। पर मैं जब भी दौड़ता हूँ, मुझे लगता है कि मेरी मंज़िल तो कहीं और है—वहीं, तुम्हारे पास, नीम की छाँव में।
तुम्हारे बिना हर सफलता अधूरी है। पर मैं कोशिश कर रहा हूँ कि तुम्हें गर्व हो।”
उसकी ये बातें सिद्धिका को हिम्मत देतीं, पर साथ ही आँसू भी ला देतीं।

गाँव की औरतें अब भी फुसफुसातीं—“बहू का मन शांत नहीं लगता।”
कभी कोई कहता—“देखो, कितनी देर तक मोबाइल में झाँकती रहती है।”
ये बातें सास के कानों तक पहुँचतीं। सास कभी डाँटतीं, कभी समझातीं—“बहू, गृहस्थी में मन लगाना सीखो। औरत का सुख उसके घर-परिवार में है, पराए खयालों में नहीं।”

सिद्धिका चुप रहती। उसका मन जानता था कि वह सच छिपा रही है। लेकिन क्या करे? हर्ष को भूलना उसके लिए असंभव था।

धीरे-धीरे सिद्धिका को यह समझ आने लगा कि जीवन की राह दो हिस्सों में बँट चुकी है।
एक ओर उसका वर्तमान था—विक्रम का घर, उसकी जिम्मेदारियाँ, समाज की उम्मीदें।
दूसरी ओर उसका अतीत था — हर्ष की यादें, उसका संघर्ष, और नीम की छाँव में किया वादा।

इन दोनों के बीच उसका दिल रोज़ झूलता रहता। कभी उसे लगता कि उसने हर्ष के साथ विश्वासघात किया है। कभी उसे लगता कि उसने अपने दिल के साथ विश्वासघात किया है। यह द्वंद्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था।

तकनीक अब और आगे बढ़ चुकी थी। गाँव में नेटवर्क बेहतर हो गया था। स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप कॉल संभव हो गया।

एक शाम हर्ष ने साहस जुटाकर सिद्धिका को कॉल किया। लाइन बार-बार कट रही थी, आवाज़ टूट रही थी।
फिर भी दोनों ने पहली बार इतने सालों बाद सीधे आवाज़ में बात की।

“सिद्धिका…”
“हर्ष…”

बस इतना कहते ही दोनों चुप हो गए। आँखों से आँसू बहने लगे, पर आवाज़ में सिर्फ़ खामोशी थी।

फिर हर्ष बोला, “तुम कैसी हो?”
सिद्धिका ने धीमी आवाज़ में कहा, “जैसे बिना बारिश का बादल… ऊपर से भरा हुआ दिखता है, लेकिन भीतर खाली।”
हर्ष ने कहा, “मैं लौटूँगा, एक दिन ज़रूर लौटूँगा।”

यह वाक्य सिद्धिका के दिल में गहरे उतर गया। उसे लगा कि मौसम चाहे कितने भी बदलें, पर उसका इंतज़ार कभी खत्म नहीं होगा।

गाँव में अब सावन की बूंदें गिरने लगी थीं। नीम की पत्तियाँ भीग रही थीं और मिट्टी की खुशबू हवा में फैल गई थी। सिद्धिका आँगन में खड़ी होकर बारिश देख रही थी। विक्रम अंदर किताब पढ़ रहे थे। बारिश की हर बूँद उसे हर्ष की आवाज़ की याद दिला रही थी।
उसने मन ही मन कहा— “मौसम बदलते हैं, हालात बदलते हैं… पर मेरा दिल नहीं बदलता।”

निरंतर अगले अध्याय में.....