Nishant Blogger - 1 in Hindi Horror Stories by Raj Phulware books and stories PDF | निशांत ब्लॉगर - भाग 1

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निशांत ब्लॉगर - भाग 1


📘 निशांत ब्लॉगर — भाग 1

अध्याय 1 : शोहरत की सीढ़ियाँ

सुबह की धूप खिड़की से छनकर कमरे में गिर रही थी। दीवार पर टंगे पोस्टरों में कैमरे, लाइटें और एडिटिंग के नोट्स लगे हुए थे।
कमरे के बीच में एक लड़का अपनी लैपटॉप स्क्रीन के सामने बैठा एडिटिंग कर रहा था — वही था निशांत, जो अब इंटरनेट की दुनिया में एक जाना-माना नाम बन चुका था।

लाइटिंग, साउंड और बैकग्राउंड म्यूज़िक के बीच वो पूरी तन्मयता से अपने वीडियो को एडिट कर रहा था।
कई घंटे से वही काम कर रहा था, लेकिन चेहरे पर थकान नहीं थी — बस एक अजीब-सी संतुष्टि थी।

लैपटॉप की स्क्रीन पर “निशांत व्लॉग्स – एपिसोड 142: पहाड़ों का जादू” टाइटल चमक रहा था।
कुछ देर बाद उसने अपलोड बटन दबाया और कुर्सी पर पीछे टिकते हुए गहरी सांस ली।

> “अपलोड हो गया...” — उसने खुद से कहा।
“अब देखते हैं, कितने मिनट में हज़ार व्यू आते हैं।”



उसके मोबाइल पर पहले से ही नोटिफिकेशन की झड़ी लग चुकी थी —
“🔥Superb video!”
“भाई, आपकी एडिटिंग लाजवाब है!”
“भाई, एक दिन आप इंडिया के नंबर वन ब्लॉगर बनोगे।”

वो मुस्कुरा दिया।


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🌇 घर का माहौल

घर के दूसरे कमरे में उसकी माँ पूजा की थाली लिए खड़ी थीं।
रसोई में चाय की खुशबू फैल रही थी।
पिता अख़बार पढ़ रहे थे, और छोटी बहन रिया मोबाइल पर उसका नया वीडियो देख रही थी।

> रिया (उत्साहित होकर): “माँ! देखो-देखो, भाई का नया वीडियो फिर से ट्रेंडिंग पर जा रहा है!”
माँ (मुस्कुराते हुए): “भगवान उसकी मेहनत रंग लाए बेटा। बस ये काम करते हुए खुद का भी ध्यान रखे।”
पिता (हल्के गर्व भरे स्वर में): “हमारा बेटा अब नाम कमा रहा है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि ये अपनी जड़ों को ना भूले।”



इतने में निशांत कमरे से बाहर आया — हाथ में मोबाइल, चेहरा मुस्कुराता हुआ।

> निशांत: “माँ! इस बार का वीडियो शायद रिकॉर्ड तोड़ देगा।”
रिया: “भाई, तू तो स्टार बन गया है अब!”
पिता (हँसते हुए): “स्टार तो है ही, बस आसमान से नीचे ना गिर जाना।”
निशांत (हँसते हुए): “पापा, मैं पैर ज़मीन पर ही रखता हूँ… लेकिन कैमरा आसमान तक पहुँचाता हूँ।”



सब हँस पड़े।
घर में उस पल एक सुकून था —
एक बेटे की सफलता पर परिवार की ख़ुशी।


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🌆 शाम का समय — नया ऑफ़र

उस शाम निशांत अपनी डेस्क पर बैठा था, तभी उसका फोन बजा।
कॉलर आईडी पर लिखा था — “Mr. Prithviraj (Estate Owner)”।

वो कुछ पल को चौंका —
“कौन पृथ्वीराज? शायद किसी कंपनी से नया प्रोजेक्ट होगा।”

उसने कॉल उठाई।

> पृथ्वीराज (गहरी, भारी आवाज़ में): “निशांत जी, नमस्कार। मैं पृथ्वीराज बोल रहा हूँ। शहर के बाहर जो मेरा बंगला है — ‘राजविलास हाउस’ — उसके प्रमोशनल शूट के लिए एक टॉप ब्लॉगर की तलाश थी। आपके वीडियो देखे… शानदार हैं।”
निशांत (विनम्रता से): “धन्यवाद सर, बहुत-बहुत शुक्रिया।”
पृथ्वीराज: “हम चाहते हैं कि आप उस बंगले का वीडियो ब्लॉग बनाएं। पूरा इंटरनल और एक्सटर्नल टूर, ताकि जब लोग देखें, तो वो जगह चर्चाओं में आ जाए।”
निशांत: “ज़रूर सर। पर अगर आप बता दें कि प्रोजेक्ट का बजट और टाइमलाइन क्या है…”
पृथ्वीराज (मुस्कुराकर): “हम आपको डेढ़ लाख रुपये देंगे — बस एक ब्लॉग के लिए।”



निशांत के चेहरे पर अविश्वास और उत्साह दोनों झलक गए।

> निशांत: “डेढ़ लाख?! सर, यह तो बहुत बड़ी रकम है। मैं तैयार हूँ।”
पृथ्वीराज: “बहुत बढ़िया। तो कल सुबह 10 बजे बंगले पर आइए। पता मैं भेज दूँगा।”



कॉल कटते ही निशांत ने अपनी कुर्सी से छलांग लगा दी।

> निशांत (खुशी में चिल्लाते हुए): “माँ! पापा! सुनो, मुझे एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला है!”
माँ (रसोई से दौड़कर): “क्या हुआ बेटा?”
निशांत: “डेढ़ लाख रुपए का काम है! एक बंगले का ब्लॉग बनाना है!”
पिता (थोड़ा गंभीर लेकिन गर्व से): “बढ़िया है बेटा। पर संभलकर काम करना। बड़ी रकम बड़े लोगों से आती है — और बड़े लोग हमेशा आसान नहीं होते।”
रिया (शरारत से): “भाई, बंगले में जाकर डर मत जाना।”
निशांत (हँसकर): “डर और मैं? मैं तो कैमरे से अंधेरा भी रोशन कर दूँगा!”




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🌙 रात का सन्नाटा

रात को सब सो गए, लेकिन निशांत अब भी अपने कैमरा बैग को तैयार कर रहा था —
ट्राइपॉड, लाइट, वायरलेस माइक, ड्रोन कैमरा, एक्स्ट्रा बैटरी… सब कुछ बड़े ध्यान से रखा।

लेकिन उसकी आँखों में एक उत्सुकता थी —
“आख़िर ऐसा कौन-सा बंगला है जिसके लिए डेढ़ लाख रुपये मिल रहे हैं?”

उसने इंटरनेट पर “Rajvilas Bungalow” सर्च किया।
थोड़ी देर में कुछ पुरानी तस्वीरें सामने आईं —
एक बड़ा, सफेद रंग का बंगला, चारों तरफ़ घना पेड़-पौधों का इलाका, और सामने एक विशाल गार्डन।

लेकिन कमेंट सेक्शन में कुछ अजीब बातें थीं —

> “कहा जाता है रात में इस बंगले में अजीब आवाज़ें आती हैं…”
“वहाँ कोई नहीं रहता फिर भी खिड़कियों में रोशनी दिखती है…”
“वीडियोग्राफर एक बार गया था, फिर कभी लौटा नहीं…”



निशांत ने यह सब पढ़कर मुस्कुराया।

> “लोगों की बातें हैं... मुझे डर नहीं लगता।”



उसने लैपटॉप बंद किया, कैमरे को तकिये के पास रखा, और धीरे से बत्ती बुझाकर सो गया।


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🌅 अगली सुबह

सुबह की धूप जब खिड़की से आई, तो निशांत पहले से तैयार था —
ब्लैक टी-शर्ट, जींस, और गले में कैमरा।

> माँ (नाश्ता परोसते हुए): “बेटा, रास्ते में कुछ खा लेना, और बंगले में अकेले मत घूमना।”
निशांत: “माँ, मेरे साथ मेरा कैमरा है — वो कभी अकेला नहीं छोड़ता।”
पिता (गंभीर स्वर में): “सावधान रहना। और उस आदमी को ध्यान से समझना — पैसा हमेशा भरोसे से नहीं आता।”
रिया (मुस्कुराते हुए): “भाई, वहाँ भूत मिल जाए तो व्लॉग बना देना — खूब वायरल होगा!”
निशांत (हँसते हुए): “तू भी न! ठीक है, अब चलता हूँ।”



उसने सबके पैर छुए, गाड़ी स्टार्ट की, और बंगले की दिशा में निकल पड़ा।


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🛣️ रास्ते का दृश्य

शहर के शोर से निकलकर जब वह बाहरी इलाके में पहुँचा, तो सड़कें सुनसान होने लगीं।
पेड़ों की लंबी कतारें, हवा में ठंडक, और दूर-दूर तक फैली हरियाली।
मोबाइल नेटवर्क भी कमजोर पड़ने लगा।

करीब एक घंटे के सफर के बाद, उसे एक पुराना साइनबोर्ड दिखा —
“राजविलास हाउस – 2 किमी आगे”

उसने गाड़ी मोड़ी।
सड़क अब पक्की नहीं थी, बल्कि कच्ची और उबड़-खाबड़।
हर झटका जैसे उसे एक अनजान सफर की ओर धकेल रहा था।

आख़िरकार, वो पहुँच गया।


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🏡 राजविलास बंगला

बंगला विशाल था —
ऊँची दीवारों के भीतर हरे पेड़-पौधे, एक फव्वारा जो सूखा हुआ था, और सामने एक बड़ी सी आयरन गेट।

गेट पर खड़ा एक आदमी उसे आते देख चुपचाप खड़ा रहा।
काले कपड़े, गंभीर चेहरा, और तीखी निगाहें।

> निशांत (नम्रता से): “नमस्ते, मैं निशांत… शूट के लिए आया हूँ।”
चौकीदार (धीरे से): “अंदर जाइए… साहब आपका इंतज़ार कर रहे हैं।”



निशांत ने सिर हिलाया और अंदर बढ़ गया।
जैसे ही उसने बंगले की चौखट पार की —
एक ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया।

बाहर सूरज था, लेकिन अंदर जैसे धूप को भी डर लग रहा था।

बंगले की बालकनी पर पृथ्वीराज खड़े थे — लंबे, प्रभावशाली कद, सफ़ेद कुर्ता, और आँखों में एक रहस्यमयी चमक।

> पृथ्वीराज (मुस्कुराकर): “स्वागत है निशांत जी। उम्मीद है रास्ता मुश्किल नहीं रहा होगा?”
निशांत (थोड़ा हिचकते हुए): “थोड़ा ऊबड़-खाबड़ था, पर आ गया हूँ।”
पृथ्वीराज: “अच्छा है। ये बंगला... अलग है। इसकी आत्मा अब भी यहाँ बसी है।”
निशांत (हँसते हुए): “आत्मा? मतलब यहाँ कोई रहता है?”
पृथ्वीराज (धीरे से मुस्कुराकर): “रहते तो थे... अब बस दीवारें हैं और यादें।”



पृथ्वीराज की नज़र कुछ पल के लिए बाईं ओर के गार्डन पर ठहर गई —
जहाँ एक पुरानी कुर्सी पड़ी थी।

> पृथ्वीराज: “कल से काम शुरू करिए… या आज से ही करना चाहेंगे?”
निशांत (उत्साह से): “आज से ही। जितनी जल्दी शुरू करूँगा, उतनी जल्दी एडिट कर पाऊँगा।”
पृथ्वीराज (मुस्कुराकर): “ठीक है। अगर कुछ चाहिए हो, तो रघु (चौकीदार) से कह दीजिए। मैं भीतर ही हूँ।”



निशांत ने कैमरा बैग खोला, गार्डन में ट्राइपॉड लगाया, और रिकॉर्ड बटन दबाया।

> निशांत (कैमरे की तरफ़): “हेलो दोस्तों, मैं हूँ निशांत, और आज मैं आया हूँ एक ऐसे बंगले में… जो जितना खूबसूरत है, उतना ही रहस्यमयी भी।”



वो बोलता रहा…
लेकिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि उसके पीछे बैठी वो कुर्सी आने वाले वक्त में उसकी ज़िंदगी का सबसे डरावना फ्रेम बनने वाली है।

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To be continued in Chapter 2 — “रहस्यमयी बंगला”