अध्याय 6: “सीरत-ए-इल्म — यमन का आख़िरी दरवेश”
(जहाँ रूह की तलाश, ख़ज़ाने से बड़ी साबित होती है…)
🌍 यमन की ज़मीन, रूह की ख़ुशबू
छह दिन की यात्रा के बाद,
रैयान और ज़ेहरा यमन की पहाड़ियों में पहुँच चुके थे।
यहाँ की हवा में एक अजीब सी मिठास थी —
जैसे हर सांस में कोई पुरानी दुआ घुली हो।
उनके सामने था —
“दरगाह-ए-क़मर”,
एक ऐसी जगह जिसके बारे में कहा जाता था कि
यहाँ “इल्म की आख़िरी साँस” अब भी मौजूद है।
दरवाज़े पर वही शब्द लिखे थे जो रैयान पहले भी सुन चुका था —
“इल्म की राह तुझसे तेरे अंदर गुज़रेगी।”
ज़ेहरा ने धीमे से कहा,
“रैयान, मुझे डर लग रहा है।”
रैयान मुस्कुराया,
“डर वही महसूस करता है जो कुछ खोने वाला हो —
और हमारे पास तो अब सिर्फ़ सच्चाई बची है।”
🔱 दरवेश का इम्तिहान
दरगाह के अंदर सन्नाटा था।
बीच में एक सफ़ेद कपड़े में लिपटा हुआ मक़बरा था,
और उसके पास बैठा था —
एक बूढ़ा सूफ़ी दरवेश।
उसकी आँखें जैसे रौशनी से बनी थीं।
उसने सिर उठाया और कहा,
“तो तुम आ ही गए… मीर आरिफ़ के खून वाले।”
रैयान झुक गया,
“आप मेरे दादा को जानते थे?”
दरवेश मुस्कुराया,
“वो यहाँ तक पहुँचे थे,
मगर इल्म की आख़िरी सूरत देखने से पहले लौट गए।”
“क्यों?” ज़ेहरा ने पूछा।
“क्योंकि उन्होंने इल्म को अमानत समझा —
और अमानत कभी किसी एक की नहीं होती।”
दरवेश ने एक पुराना लिफ़ाफ़ा रैयान को दिया।
अंदर एक चांदी का टुकड़ा था,
जिस पर लिखा था — “सीरत-ए-इल्म — चार अक्षरों का रहस्य।”
🔐 चार अक्षरों का रहस्य
रैयान ने चारों ओर देखा —
दीवारों पर अनगिनत आयतें उकेरी थीं।
हर एक में कोई न कोई अक्षर झिलमिला रहा था —
س, ب, ر, ن
ज़ेहरा ने धीरे से कहा,
“ये तो ‘सब्र’ के अक्षर हैं!”
रैयान ने सिर हिलाया,
“हाँ… वही जो हमारी हर यात्रा में साथ रहा।”
जैसे ही उसने वो चांदी का टुकड़ा दीवार पर लगाया,
एक भारी गूंज उठी —
ज़मीन हिल गई,
और मक़बरे के नीचे का हिस्सा धीरे-धीरे खुलने लगा।
अंदर एक पत्थर की सीढ़ी थी —
जिसके आख़िरी छोर पर नीली रौशनी झिलमिला रही थी।
🕊️ रूह की रौशनी
नीचे पहुँचते ही हवा बदल गई।
वो जगह किसी क़ब्रगाह जैसी नहीं,
बल्कि किसी रूहानी आलम जैसी लग रही थी।
हवा में इत्र की महक,
और बीच में एक संगमरमर का गोल कक्ष —
जिसके बीच एक नीली लौ जल रही थी।
दरवेश की आवाज़ ऊपर से आई —
“यही है इल्म का असल चेहरा —
वो रौशनी जो जान देती है, मगर अंधेरे में दिखती है।”
रैयान ने धीरे से हाथ बढ़ाया।
नीली लौ उसकी उंगलियों को छू गई —
एक झटका सा लगा,
और उसके सामने सब कुछ बदल गया।
वो एक पुराने हॉल में था,
जहाँ उसके दादा मीर आरिफ़ बैठे थे।
चेहरे पर वही मुस्कान,
जो हर तस्वीर में थी।
“रैयान,” उन्होंने कहा,
“ख़ज़ाना कभी सोने का नहीं था।
वो तेरी रूह की पहचान थी।”
“इल्म सिर्फ़ पढ़ा नहीं जाता —
उसे जिया जाता है,
बाँटा जाता है,
और महसूस किया जाता है।”
रैयान की आँखों से आँसू बह निकले।
“दादा… अब मुझे समझ आया।”
🌌 अंत की शुरुआत
नीली रौशनी धीरे-धीरे मिटने लगी।
रैयान फिर उसी कक्ष में था।
ज़ेहरा उसके पास थी, और उसके हाथ में वही पांडुलिपि — किताब-ए-नूर।
उसने कहा,
“तो यही है इल्म का ख़ज़ाना?”
रैयान ने मुस्कुराकर कहा,
“हाँ… और अब ये सबका है।”
वो दोनों बाहर निकले —
सूरज की पहली किरण दरगाह की मीनार पर पड़ी।
आसमान में वही नीला उजाला फैला,
जो शायद सदियों से उनका इंतज़ार कर रहा था।
रैयान ने आख़िरी बार पीछे देखा —
दरवेश अब वहाँ नहीं थे।
सिर्फ़ हवा में एक आवाज़ तैर रही थी —
“जिसने इल्म को पाया,
उसने खुदा को छुआ…”
✨ (“सीरत-ए-इल्म” — समाप्त) ✨