अध्याय 4: “रेत के नीचे की रहस्यमयी सुरंग”
(जहाँ ख़ामोशी भी इशारे देने लगती है...)
रेत की लहरों में गिरते हुए रैयान और ज़ेहरा को ऐसा लगा जैसे ज़मीन ने उन्हें निगल लिया हो।
चारों तरफ़ अंधेरा था, हवा में धूल और पुराने पत्थरों की गंध।
कहीं दूर पानी टपकने की धीमी आवाज़ गूंज रही थी।
ज़ेहरा ने काँपते हाथों से टॉर्च जलाई —
सामने पत्थर की दीवारें थीं जिन पर उर्दू और अरबी लिपि में कुछ उकेरा गया था।
रैयान ने नज़दीक जाकर देखा —
“सब्र से पहले इल्म, और इल्म से पहले इरादा।”
नीचे एक निशान — वही पुराना ☪︎ चिन्ह।
🌑 रहस्यमयी रास्ता
सुरंग दो दिशाओं में बँटी हुई थी —
एक पर लिखा था “नूर का रास्ता”, दूसरी पर “साया का दरवाज़ा”।
ज़ेहरा ने पूछा,
“कौन सा रास्ता लें?”
रैयान ने गहरी साँस ली,
“नूर और साया दोनों एक ही सच्चाई के हिस्से हैं।
मगर जिस मंज़िल पर सच है… वहाँ डर नहीं होना चाहिए।”
उसने नूर वाले रास्ते की ओर कदम बढ़ाए।
दीवारों पर छोटे-छोटे छेद थे जिनसे ठंडी हवा आ रही थी।
हर कुछ कदम पर पत्थर में जड़े हुए लाल और नीले निशान टिमटिमा रहे थे,
जैसे किसी पुराने कोड का हिस्सा हों।
रैयान ने ध्यान से देखा —
हर रंग एक शब्द से जुड़ा था।
लाल = ख़तरा
नीला = दुआ
और दोनों के बीच एक खाली निशान — इम्तिहान।
🕯️ अतीत की परछाइयाँ
थोड़ी दूर जाकर दीवार पर एक पुरानी तस्वीर उभरी —
रैयान के दादा, वही जो इस रहस्य की शुरुआत थे।
उनके हाथ में वही किताब थी — इल्म-ए-मौराबाद।
नीचे लिखा था:
“जिसने दरवेश की अमानत ली, उसे अपने ख़ून का इम्तिहान देना होगा।”
ज़ेहरा की आँखों में डर था।
“क्या इसका मतलब है कि… तुम्हारे दादा यहाँ मारे गए थे?”
रैयान ने तस्वीर को छूते हुए कहा,
“नहीं, वो कहीं गए थे… मगर लौटे नहीं।
शायद ये सुरंग उनकी आख़िरी मंज़िल थी।”
अचानक पीछे से एक हल्की आवाज़ आई —
“कदम संभाल कर रखना…”
दोनों मुड़े —
इमरान शाही था।
उसके हाथ में पिस्तौल और चेहरे पर वो ही ठंडी मुस्कान।
“तुम सोचते हो, ये सुरंग तुम्हें इल्म देगी?”
“ये तो उन लोगों की कब्र है जो जवाब ढूंढने निकले थे।”
रैयान ने कहा,
“अगर इल्म कब्र में दफ़्न है, तो मैं उसे वहीं से ज़िंदा कर लूँगा।”
इमरान ने गोली चलाने के लिए ट्रिगर दबाया —
लेकिन तभी दीवार से हल्की सी गूंज उठी।
गोली चलने से पहले ही नीला निशान चमका और एक हवा का तूफ़ान उठा।
इमरान पीछे की ओर फेंका गया —
और ज़मीन में दरार पड़ गई।
🔱 नीले नूर का दरवाज़ा
दरार के नीचे से नीली रोशनी फूट रही थी।
ज़ेहरा ने कहा,
“रैयान, ये वही नूर है… जो दरवेश ने कहा था!”
रैयान ने किताब खोली —
उसके आख़िरी पन्ने पर लिखा था:
“जो नूर को छू ले, उसे अंधेरे से डर नहीं रहता।”
दोनों ने छलांग लगा दी।
रोशनी ने उन्हें घेर लिया।
एक पल के लिए सबकुछ शांत हो गया —
फिर अचानक वो एक विशाल भूमिगत हॉल में थे।
छत से लटकते झूमर, दीवारों पर आयतें,
और बीच में — एक संगमरमर का ताबूत।
उस पर लिखा था:
“मीर आरिफ़ — इल्म के आख़िरी दरवेश।”
रैयान घुटनों पर बैठ गया।
“दादा…”
ताबूत के पास वही सिक्के जैसा निशान उकेरा था।
उसने उसे जेब से निकालकर उस पर रखा —
तुरंत दीवार के पीछे का हिस्सा खुला —
और अंदर एक पुराना नक़्शा झिलमिलाया।
“मौराबाद का क़िला — जहाँ इल्म और ख़ज़ाना दोनों मिलते हैं।
मगर सिर्फ़ उसे, जो ‘सब्र’, ‘नूर’ और ‘इम्तिहान’ तीनों से गुज़रे।”
ज़ेहरा ने रैयान की तरफ़ देखा,
“हमारा सफ़र अब शुरू हुआ है…”
रैयान मुस्कुराया,
“और इमरान शाही… अब हमारी परछाई है।”
(अध्याय 4 समाप्त)