अध्याय 3: सब्र का दरवाज़ा
(जहाँ इंतज़ार एक इबादत बन जाता है, और डर एक दुश्मन)
दरगाह-ए-नूर की तंग सुरंग से निकलते हुए जब रैयान और ज़ेहरा ऊपर आए,
तो आसमान में सुबह का उजाला फैल चुका था।
चिड़ियों की चहचहाहट और दरगाह की मीनार से आती अज़ान —
दोनों जैसे किसी नए आग़ाज़ की निशानी थीं।
रैयान ने किताब उठाई — “इल्म-ए-मौराबाद”।
उसके पहले सफ़े पर उर्दू में लिखा था:
“इल्म दरवाज़ा खोलता है,
मगर सब्र रास्ता दिखाता है।”
नीचे एक नक़्शा बना था —
इस बार लखनऊ से बहुत दूर, राजस्थान की रेत की ओर इशारा करता हुआ।
वहाँ एक निशान था — “दरवेश का मक़ाम।”
🕋 रेगिस्तान की रूह
तीन दिन बाद, रैयान और ज़ेहरा राजस्थान की तपती ज़मीन पर थे।
रेगिस्तान में सूरज जैसे आसमान में जलता हुआ चाँद बन गया था।
उनके पास एक जीप, कुछ पानी की बोतलें, और वही पुरानी किताब थी।
सड़क के किनारे एक टूटा हुआ पत्थर था, जिस पर उर्दू में लिखा था:
“मक़ाम-ए-दरवेश → 2 कोस”
ज़ेहरा ने धीरे से कहा,
“रैयान, क्या तुम्हें नहीं लगता ये रास्ता बहुत पुराना है?”
रैयान मुस्कुराया,
“पुराने रास्ते ही तो अक्सर नई मंज़िल तक ले जाते हैं।”
कुछ देर बाद, वो एक छोटे से मक़ाम पर पहुँचे —
रेगिस्तान के बीचोंबीच एक अकेला दरगाहनुमा ढाँचा,
चारों तरफ़ बस रेत और सन्नाटा।
वहाँ एक बूढ़ा आदमी बैठा था — सिर पर हरा रूमाल, और हाथ में एक पुरानी चाबुक जैसी तस्बीह।
उसकी आवाज़ रेगिस्तान की हवा जैसी थी — धीमी मगर गहरी।
“तुम्हारे दादा भी यहीं तक पहुँचे थे, रैयान मीर,”
उसने बिना देखे कहा।
रैयान सन्न रह गया।
“आप… आप उन्हें जानते थे?”
“जानता नहीं बेटा, उनका इंतज़ार करता रहा हूँ।”
“उन्होंने वादा किया था — उनके बाद जो आएगा, वो रूह का इल्म लेकर आएगा।”
🔑 सब्र का इम्तिहान
दरवेश ने रैयान को एक छोटा सा लकड़ी का बक्सा दिया।
“इसमें अगला सुराग़ है,” उसने कहा, “मगर इसे अभी मत खोलो।”
ज़ेहरा ने पूछा, “कब?”
दरवेश बोला,
“जब रेत खुद तुझसे बात करे।”
रैयान और ज़ेहरा ने रात वही गुज़ारी।
चारों ओर सन्नाटा था, बस हवा की सरसराहट और दूर किसी ऊँट की घंटी की आवाज़।
रात के तीसरे पहर, हवा थम गई।
रेत जैसे जिंदा हो गई — उसके ज़र्रे हल्के-हल्के घूमने लगे।
बक्से से हल्की नीली रोशनी निकलने लगी।
रैयान ने धीरे से उसे खोला —
अंदर एक पुराना सिक्का, और एक पर्ची थी जिस पर लिखा था:
“जो जल्दबाज़ी में चले, वो रास्ता खो देता है।
जो सब्र से रुके, उसे दरवाज़ा खुद बुलाता है।”
ज़ेहरा ने सिक्के को टॉर्च की रोशनी में देखा —
उस पर वही निशान उकेरा था — ☪︎ —
और नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था “क़िला मौराबाद”।
अचानक दूर से एक जीप की हेडलाइट चमकी।
धूल का गुबार उठा।
ज़ेहरा ने फुसफुसाकर कहा,
“रैयान… कोई हमारा पीछा कर रहा है।”
जीप पास आकर रुकी।
उससे उतरा एक आदमी — ऊँचा कद, तीखी निगाहें, और होंठों पर एक मुस्कान जो डर जैसी लगती थी।
उसने कहा,
“बहुत खूब, रैयान मीर… लगता है तुम अपने दादा का अधूरा काम पूरा करने निकले हो।”
“तुम कौन हो?” रैयान ने पूछा।
वो हँसा —
“इमरान शाही… वो नाम, जिससे तुम्हारे दादा भी बच नहीं पाए थे।”
हवा में तनाओ था।
रैयान ने किताब अपनी जैकेट में छिपाई।
ज़ेहरा ने धीमे से कहा,
“हमें यहाँ से निकलना होगा।”
इमरान ने कदम बढ़ाया —
“किताब दो, या जान दो।”
रैयान ने ज़ेहरा का हाथ पकड़ा और दोनों पीछे की तरफ़ दौड़े —
दरगाह के पीछे रेत की एक ढलान थी, जिसके नीचे किसी सुरंग का आभास था।
वो उसी में कूद गए।
रेत ने उन्हें निगल लिया…
और बाहर सिर्फ़ हवा रह गई —
मौन, मगर बेचैन।
(अध्याय 3 समाप्त)