जानती हूं, जानती हूं, लिखाई मेरी सीधी नहीं और बात भी कुछ टेढ़ी ही है।
“आज क्या तारीख है?” घर आते ही पति बोले थे।
“9 जुलाई, 2025,” इन की मेज़ पर रखे कैलेंडर की तारीख मैं ही बदला करती हूं।
“आज की तारीख बहुत मंगल है। बहुत बड़ी है। आज मैं अपनी ज़िंदगी के सब से बड़े इंटरव्यू के लिए गया था। एक प्रिंसीपल के इंटरव्यू के लिए। और मैं चुन लिया गया हूं…..”
मैं ज़्यादातर तो खामोश ही रहती हूं और उस समय भी खामोश ही बनी रही थी।
“क्यों तुम्हें खुशी नहीं हुई? अपने चमके नसीब पर। हमारे पास वहां क्या नहीं होगा? बड़ा बंगला? सफ़ेेद गाड़ी ? चपरासियों की फ़ौज? चौकीदारों की कतार ?”
“और वही डांट- डपट? वही कोसना- काटना? वही धौंस- धकेला?” मेरी खामोशी चटक- चिटक गई थी।
“चुुप, बावली,” आगे बढ़ कर उन्हों ने मेरे दांए कान पर एक चपत ला जमाई थी, “ बावली न होती तो घर- आई बरकत को गले लगाती…..”
मैं ने चीखना चाहा था, ‘बरकत’ में बच्चे नहीं होते क्या? मगर बज रहे अपने कान को हाथ से ढांप कर मैं इधर रसोई के स्टोर में आन खड़ी हुई थी।
थोड़ी देर बाद इन की गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज़ आई थी। मतलब, यह बाहर जा रहे थे।
तभी,अपनी कलम ले कर मैं यहां बैठ गई हूं।
सोचती हूं, आज उस भांय- भांय को ज़रूर दर्ज कर लूं जो हुहुयाती हुई मेरे अंदर की सांय- सांय से मिलकर एक अजीब कानाबाती मेरे समीप खिसका लाती है। जिस में मुझे उन सलोने बच्चों का बिलखना सुनाई दिया करता है जिन्हें मैं अपनी गोदी में खिलाना- खेलाना चाहती रही हूं। लेकिन कभी खिला- खेला नहीं पाई हूं।
कहां से शुरू करूं?
उस साल से? जब एक सड़क दुर्घटना में मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी?
या फिर उस आगामी साल से? जब मेरे तीन भाइयों ने ज़िद कर के मुझे मेरी ग्यारहवीं कक्षा से उठा कर इन से ब्याह दिया था?
या फिर अपने ब्याह के उस तीसरे साल से ? जब मेरे पति ने अपनी पहली कुदान भरी थी और मुझे मेरे भाइयों से मुझे बेगााना बना दिया था क्योंकि अपनी उस सीढ़ी से वे सब उन्हें ‘नीचे’ नज़र आने लगे थे?
सोचती हूं, हां, उसी साल के उस दिन से शुरू करूं जब अपने उस इंटरव्यू में सफल हो जाने पर वह घर आते ही बोले थे, “देखो,तुम्हें मेरे कपड़ों और जूतों पर अब ज़्यादा ध्यान देना होगा। मुझे अब कड़ी ‘करीज़’ और उम्दा ‘शाइन’ चाहिए।”
“मुकुंद लाल ने नौकरी पक्की करवा दी?” मैं ने पूछा था।
मुकुंद लाल उन के कालेज का उस समय से प्रिंसीपल था जब मेरे पति के इंटरमीडिएट करते ही उस ने अपने दफ़्तर में उन्हें क्लर्क की नौकरी दे दी थी।
कारण,उसे अपने को कवि कहलाने का शौक था और मेरे पति को लिखने का।
कालेज मैग्जीन में छपी मेरे पति की कविताओं को उन के विद्यार्थी जीवन ही में मुकुंद लाल ने अपना निशाना बना डाला था और उन की छाप उठा कर थोड़ी हेरफेर करवाने के बाद उन्हें अपने नाम से छपवाना शुरू कर दिया था।
परिणाम, मेरे पति अब अपनी कविताओं पर अपना नाम देने की बजाय सीधे-सीधे मुकुंद लाल ही का नाम देने लगे थे। अपनी सीढ़ी की टेक मज़बूत करने के वास्ते।
मेरे पति को मालूम था इतिहास के अध्यापक दो वर्ष बाद रिटायर होने वाले थे और उन्हों ने उस साल के आते- आते फिर इतिहास में एम.ए.में 58 प्रतिशत अंक पा लेने के साथ यू.जी.सी. का ‘नेट’ भी पास कर लिया था और मुकुंद लाल की मेहरबानी से नए ‘सेशन’ के शुरू होते ही उस विषय के विद्यार्थियों को एक ‘कच्चे’, अंशकालिक लेक्चरर के तौर पर पढ़ाने भी लगे थे।
उधर मुकुंद लाल ने सरकार के शिक्षा विभाग से अपने कालेज के खाली हुए इस पद को भरने की मंज़ूरी पाने में भी जल्दी दिखाई थी ताकि इस ‘कच्ची’ लेक्चररशिप को ‘पक्की’ में बदला जाए।
कालेज के अल्पसंख्यक होने की वजह से उसे एक्सपर्ट पैनल तय करने की पूरी छूट रही थी और अखबार में उस पद की पूर्ति के लिए दिए गए इश्तिहार के जवाब में इंटरव्यू देने आए दूसरे प्रत्याशियों को नजरअंदाज़ कर के उन्हें कमतर सिद्ध करना उस के बांए हाथ का खेल रहा था । इसी बीच मुकुंद लाल के नाम दो कविता- संग्रह भी इन्हों ने तैयार कर डाले थे और उन के प्रकाशित होने पर विभिन्न छोटे- बड़े अखबारों व पत्रिकाओं के लिए उन संग्रहों की प्रशंसात्मक समीक्षाएं स्वंंय लिख डाली थीं।
कालेज जाते समय मेरे पति अब रिक्शे से निकलने लगे। अपनी साइकल की सवारी उन्हों ने बिल्कुल छोड़ दी। फिर ‘लोन’ की इजाज़त मिलते ही उन्हों ने एक नया स्कूटर खरीद लिया। उस की संभाल और सफ़ाई मेरे सुपुर्द करते हुए।
उधर लेक्चररशिप के पक्की होने पर जैसे ही उन की तनख्वाह तिगुनी हुई वह अपने चेहरे- मोहरे और दिखाव-बनाव के साथ-साथ अपने खानपान पर भी ज़ोर देने लगे।
खाने में पहले जहां वह एक ही चीज़ से काम चला लिया करते अब उन्हें हर बार दो- दो पकवान चाहिए होते। एक तरल और एक सूखा। साथ में भांत- भांत के सलाद और चटनियां और अचार। कई बार फिर तो वह अपने साथ मेहमान भी लाने लगे। दावत के लिए।
परिणाम, घर की सज्जा- सफ़ाई और कपड़ों की धुलाई- प्रैस ही मुझे इतना थका दिया करती कि रसोई में मसाला घिसते समय मुझे लगता मैं घिस रही हूं।
सब्ज़ी छीलती तो लगता है मैं छीली जा रही हूं।
फल की छुरी फल को नहीं, मुझे काट रही है।
बल्कि कभी-कभी जब मैं इन्हें खिला- पिला रही होती तो मुझे लगता मुझे चिथड़ा- चबाया जा रहा है।
क्योंकि इधर उन का आधा समय पढ़ने- पढ़ाने में बीता करता रहा था और आधा मुकुंद लाल के लिए और कविताएं सोचने और लिखने में।
इन की कुदान जो अभी बाकी रही।
उस के लिए पी.एच.डी. की डिग्री ज़रूरी थी और मुकुंद लाल की कृपा- दृष्टि भी।
और पी.एच.डी. पा लेने के साथ- साथ इधर उन की पक्की नौकरी के पांच साल पूरे हुए और वह सीनियर ग्रेड पाए तो वह मकान खरीद लिए। ऊंची किश्तों पर।
दबी ज़ुबान में मैं ने इन्हें जब स्कूटर की बाकी किश्तों की याद दिलाई तो उन्हों ने मुझे धमका दिया, “चुपचाप अपने कोने में पड़ी रह, वरना तुझे अभी निकाल बाहर करूंगा।”
मेरी ज़ुबान उसी दिन मेरे तालू से आ जमी।
मेरी मां कहा करती थी,अपने दांत तभी दिखाने चाहिए जब आप उन से काट सको।
और मेरे पास इस घर के बाहर कोई ठिकाना न तब रहा और न आज ही है।
नए मकान में आकर तो मेरे हाथ- पैर चौबीसों घंटे आराम के लिए बिलबिलाने लगे हैं। और दिलो-दिमाग छिन- छिन भनभनाने।
यहां काम का बोझ चौगुना बढ़ गया है।उधर किराए का हमारा वह मकान छोटा था जब कि यहां कमरे ज़्यादा भी हैं और बड़े भी। असल में इस भांय-भांय की शुरुआत यहीं हुई रही।
घर में बच्चों की कमी भी यहां ज़्यादा खलती है।
एक डरावना अकेलापन अब दुगुने वेग से काट खाने को दौड़ता है।
और तो और, नया ग्रेड पाते- पाते मकान की किश्तें क्या चुकीं, इन्हों ने अपना स्कूटर त्याग दिया और अपने लिए एक मोटर कार खरीद ली।
मोटर आई तो यह पिकनिक पर जाने लगे। दूसरे शहरों की सैर पर निकलने लगे।
बिना मुझे शामिल किए।
बोलते हैं, सवालिया निशान जैसी तेरी बावली सूरत घर के बाहर भी अपनी मनहूसियत फैलाए, यह मुझे मंज़ूर नहीं….
ऐसे में कौन जाने प्रिंसीपल बन जाने पर मैं भी इन्हें मंज़ूर रहूं न रहूं?