multiplied deposit in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | गुणा होती जमा

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गुणा होती जमा

                   तुम आज भी मेरे साथ जमा हो, लतिका…..

                   पिछले छप्पन वर्षों से…..

                   निरंतर गुणा होती हुई ……

                   खूब धुंधुयाती आग में अपनी गंध देती हुई…..

                   या फिर घने धुंए से निकल भागी…..

                   मेरे निकट बहुत निकट, अपने पूर्ण,पूर्व आकार में…..

 

                    “वाॅल्टर बेंजामिन?” तुम मेरे पिता के नये इंटरनेशनल बिज़नेस मशींज़ कॉर्पोरेशन के टाइपराइटर से निकले एक कागज़ से खेल रही हो…..

                    “मैं नहीं जानता” तुम्हारे पिता को यह कहते हुए मैं आज भी साफ़ सुन सकता हूं, “न ही कभी जान पाऊंगा इस काग़ज़ पर मेरी लतिका ने यह कैसे टाइप कर दिया…..”

                    मैं उन्हें कभी बता नहीं पाया कि वह तुम ने नहीं, मेरे पिता ने टाइप किया था…..

                   10  जनवरी, 1969 की रात में, नौ बजे…..

 

                   “लतिका जल गई है,” अपने पी.जी.आई. के आई.सी.यू. में तुम्हें दाखिला दिला कर मैं सीधे अपने परिसर में बने अपने पिता के बंगले जा पहुंचा हूं, “पचानवे प्रतिशत…..”

                   “कैसे?” टाइपराइटर पर चल रहे मेरे पिता के हाथ रुक लिए हैं…..

                   “कैसे?” मेरे पिता मुझ से दोबारा पूछते हैं। हकबकाए।

                   “कैसे?” उन की बगल में मफ़लर बुन रही मां ने अपनी सिलाईयों से उठ रहे जोड़ बीच ही में खुले छोड़ दिए हैं।

                   तुम्हें मालुम है,लतिका,मां को बुनने का कितना शौक था। स्वैटर और बंडी से ले कर दस्ताने, मोज़े और मफ़लर तक वह घर ही पर बुना करतीं। तुम्हारे बाद भी,अपने आखिरी दम तक मानती रहीं : मशीनी,ऊनी सामान में कारीगरी हो तो हो, लेकिन बुनने वाली की गर्माहट कहां?

                   गुरुदत्त की फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ याद करो, लतिका। जो हम ने शुरु की अपनी इश्कबाज़ी के दिनों में साथ-साथ देखी थी।

                   “अपने जल रहे नए स्टोव से,” मैं कहता हूं।

                   “कैसे?” मेरे पिता अपनी कुर्सी से उठ खड़े होते हैं। कांपते हुए। 

                   “उस स्टोव को मैं ने उस पर फेंका था,” मैं चीख उठता हूं।

                   मेरे पुराने भय अब आड़ से निकल चुके हैं।

                   सिद्धांत बघारने वाले पिता का ठाठ ढह चुका है। 

                   बढ़ रही उन की कंपकंपी मेरे अंदर उसी क्रोध को लौटा लाई है जिस की आग में उसी शाम मैं पहले भी जल चुका हूं।

                  तुम्हारे फ़्लैट में।

                  जहां मुझे तुम्हारी मेज़ पर रखे अपने नाना के टाइपराइटर ने हैरानी से भर दिया  था। जिस रैमिंगटन माॅडल टू के बारे में मां मेरे पिता से कई बार पूछ चुकी थीं--- मेरे नाना की स्मृति के सम्मान में वह इसे भी उन के दूसरे सामान के साथ सहेज कर रखना चाहती थीं—और हर बार मेरे पिता यह कह कर उन्हें टालते रहे थे, उस रेमिंगटन माॅडल के की-बोर्ड की एक शिफ़्ट की मरम्मत हो रही है।

                  मेरी हैरानी भांप कर तुम ज़ोर से हंस पड़ी थी, “अभी तो एक और बड़ी हैरानी तुम्हारी घात में बैठी है। मैं तुम्हारी सौतेली मां बनने जा रही हूं…..”

 

                  “ईडियट,” मेरे पिता मेरी गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड़ लगा देते हैं।

                  “होश में आइए,” तत्क्षण मां अपने सोफ़े से उठ कर उन का हाथ थाम लेती हैं, “जवान बेटा है और फिर मुश्किल में है। इस समय उस की मदद करने के इलावा आप को किसी भी दूसरी बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए…..” 

                  क्या मां जानती रहीं थीं कि तुम संग विवाह रचाने की मेरी लालसा तुम्हारे प्रति अपने पिता का उत्साह देख कर ही मिटी थी? 

                 “क्या करूं?” मेरे पिता नरम पड़ जाते हैं। 

                  वह मां से डरते हैं। मेरे नाना के कारण। जिन की पूरी प्रैक्टिस उन्हें दहेज में मिली थी।

                 “आप अपने चंडोक से बात कर के देखिए,” मां को अपने संपर्क- सूत्र प्रयोग करने खूब आते हैं, “आखिर प्रदेश की पुलिस का मुखिया है, डी.जी.पी. है…..”

                  यह संयोग ही रहा,लतिका, जो चंडोक की पत्नी का कोलोन उन दिनों पौलिप- पीड़ित था और उस के उपचार के लिए मेेरे पिता के पास उन का आना- जाना बराबर बना रहता था।

                  “मगर पहले मैं तो समझ लूं, लड़के ने किया क्या? किया क्यों?” मेरे पिता के चेहरे पर हवाइयां छूट रही हैं। 

                 “हम सब खड़े क्यों हैं?” मेरा कंधा थाम कर मां मुझे अपने साथ बिठला लेती हैं और मेरे पिता को भी सामने वाला सोफ़ा ग्रहण करने का संकेत दे कर मुझ से पूछती हैं, “बताओ, मेरे  लाड़ले, यह सब हुआ कैसे?”

                  “वह लड़की मेरी थीसिस को कच्ची हालत में छोड़ कर अपनी थीसिस जा पकड़ी थी,” मैं हांकता हूं। मां का दिल दुखाना मेरे लिए सदैव असंभव रहा।

                  “थीसिस लिखने वालों की यहां कोई कमी है क्या?” दुलार से मां मेरा कंधा थपथपाती हैं, “तेरे पिता विभागाध्यक्ष हैं। किसी से भी कह सकते थे। कह सकते हैं…..”

                   “पहले यह केस तो निपट लें,”  सोफ़े पर बैठने की बजाए मेरे पिता अपनी मेज़ पर जा लौटते हैं, “सोचता हूं इसे आत्महत्या वाला कोण दे देते हैं। लड़की की तरफ़ से एक सुसाइड नोट तैयार करते हैं और चंडोक को इधर बुला कर उसे बोलते हैं, यह टाइपड नोट सुरेश को लड़की के कमरे से मिला था…..”

                  “मगर चंडोक यह नहीं पूछेगा उस गरीब लड़की ने हाथ से क्यों नहीं लिखा? टाइप क्यों किया? टाइप कहां किया?” मां शंका जताती हैं।

                   “चंडोक तुम्हारे शर्लक होम्ज़ या हरक्यूल पौएरेत की हैसियत से यहां नहीं आएगा,” मेरे पिता खीझ गए हैं।

                    तुम जानती हो, लतिका, मां जासूसी साहित्य की कितनी शौकीन थीं। और आर्थर काॅनन डाॅयल के शर्लक होम्ज़ की और अगाथा क्रिस्टी के हरक्यूल पौएरेत की तो कुछ ज़्यादा ही। और उन की सुरागरसानी के तौर- तरीकों को अपना कर मां जब- जब जिरह करने की या परिणाम निकालने की कोशिश किया करतीं, मेरे पिता खीझ से भर जाया करते।

                   “ठीक है,” मां उठ खड़ी होती हैं और दरवाज़े का रुख करती हैं, “मैं बाप- बेटे के लिए शोरबा गर्म करवाती हूं। जब तक आप अपना सुसाइड नोट तैयार कर लीजिए…..”

                    मां के दरवाज़ा पार करते ही मैं अपने पिता के निकट जा खड़ा होता हूं।

                   अपने कोटेशन की किताब से वह सुसाइड के कोटेशन देख रहे हैं।

                   तुम जानती हो, लतिका, चिकित्सकीय पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले उनके लगभग सभी शोध- निबंध तुम्हारे और अन्य शोध- विद्यार्थियों द्वारा एकत्रित की गई शोध- सामग्री के अतिरिक्त इस कोटेशन- बुक के कथन भी रखा करते। फ़लां ने कहा यह, ढिमके ने कहा वह। 

                  “कोई नहीं मानेगा वह आत्महत्या का उद्देश्य रखती थी जब अगले ही वर्ष आप उसे अपने विभाग में लेक्चरर नियुक्त करने वाले थे,” मैं कहता हूं।

                  “चंडोक सब मानेगा और जब वह मानेगा तो पुलिस का महकमा भी सब मानेगा…..”

                   मेरे पिता अपने टाइपराइटर के प्लेटन,मुद्रपट्टिका पर पहले से रखा अपना कागज़ रिलीज़ करते हैं और एक नया कागज़ उस में बिठला देते हैं।

                  टाइपराइटर के बोर्ड पर उन की उंगलियां घूमती हैं और इंक्ड रिबन की स्याही से भरी पट्टी आगे बढ़ लेती है।

                  काग़ज़ पर टाइप हो रहा है : सुसाइड इज़ द अचीवमेंट ऑव मॉडर्निटी इन द फ़ील्ड ऑव पैशंज़ (भावातिरेक की रणभूमि में आत्महत्या आधुनिकता- बोध की निष्पत्ति है।)

                 वाॅल्टर बेंजामिन 

 

                 “आप ज़रूर सोचते होंगे कि चंडोक इस लिए भी यह सुसाइड नोट सच मान लेगा,” मैं कटाक्ष करता हूं, “क्योंकि जलने वाली लड़की की मेज़ पर भी एक टाइपराइटर रखा हुआ है, नाना का रेमिंगटन माॅडल टू…..”

                “हमारे सौभाग्य से,” मेरे पिता मेरी ओर देख कर मुस्कराते हैं, “लेकिन यह बात अपनी मां से दूर ही रखना…..”

                 “आप को कोई पश्चात्ताप नहीं?” मेरी अप्रसन्नता फूट पड़ती है।

                 “तुम जानना चाहते हो?” मेरे पिता गंभीर हो रहे हैं, “पश्चात्ताप से ज़्यादा मुझे दुख है। लतिका को खो देने का। उसे देख कर मेरे वे साल मेरे सामने आन खड़े होते थे जब मैं भी उस की तरह पूरी क्लास में हिंदी- मीडियम वाले एक कस्बाई स्कूल से आने वाला एकल, अकेला विद्यार्थी था। उस की तरह रुपए- पैसे से लाचार था। केवल अपने परिश्रम और अपने दिमाग के ज़ोर से आगे बढ़ रहा था। अपने विभागाध्यक्ष, तुम्हारे नाना, की निगाह में ऊपर चढ़ रहा था…..”

                 “लेकिन यह कारण मेरा बलिदान चढ़ाने के लिए काफ़ी था?” मैं उद्विग्न हो उठा हूं।

                  जानती हो क्या तुम, लतिका, जब से मेरे पिता ने तुम्हारी छात्रवृति के अन्तर्गत तुम्हें स्वतंत्र रूप से अपने इस रेजिडेंट फ़्लैट में निवास करते हुए पाया था,तुम्हें घेरे रखने के उद्देश्य ही से वह ऊपरी तौर पर मुुझे तुम्हारे संग मिलने-जुलने के लिए बढ़ावा दिया करते थे ?

                 “उस का बदला तुम ने ले तो लिया?” मेरे पिता मुझ पर वार करते हैं।

                 “आप उसे अपनी पत्नी जो बनाने जा रहे थे?”

                 “उसे पत्नी बनाने की मैं ने कब सोची? मूर्ख हूं मैं क्या?”

                “उस ने मुझे कुछ ऐसा ही बताया था…..”

                “हैरान होने के सिवा मैं अब कुछ नहीं कह सकता, कुछ नहीं कर सकता…..”

 

                 अपने पिता के निष्कपट और सच्चरित्र होने पर मेरे संदेह की पुष्टि सातवें दिन होती है ……

                 जब तुम्हारी देह की शव-परीक्षा तुम्हें गर्भवती घोषित करती है…..

                 और कस्बापुर से तुम्हारी टहल हेतु आए तुम्हारे माता- पिता के कानों में मेरे पिता फुसफुसाते हैं, “मेरा बेटा और आपकी बेटी विवाह- सूत्र में बंधने जा रहे थे…..”

                 तुम्हारे पिता उन की फुसफुसाहट को उसी संयम से ग्रहण कर लेते हैं जिस संयम के अंतर्गत उन्हों ने तुम्हारे द्वारा कथित आत्महत्या के प्रमाण- स्वरूप वह सुसाइड नोट स्वीकार कर लिया है…..

                 या फिर तुम्हारे अस्पताल वाले कमरे के शीशे के बाहर पिछले पूरे छः दिन अपने पैरों पर खड़े- खड़े बिताए हैं…..

                  पूर्णतया स्थिर भाव से…..

                  तुम्हारी ओर टकटकी बांधे…..

                  तुम्हारी मां के आग्रह पर केवल चाय और बिस्कुट के सहारे…..

                  इस बीच मेरे पिता ने उन्हें आराम और सुविधा देने के विचार से अपने बंगले पर टिकने का निमंत्रण भी दिया है किंतु उन्हों ने उस पर तनिक ध्यान नहीं दिया है…..

                  तुम्हारे दाह- संस्कार का प्रबंध भी मेरे पिता ने मेरे हवाले से अपने ऊपर ले लेना चाहा है…..

                  बल्कि मां को उन्हों ने तुम्हें दुल्हन- रूप में सजाने के लिए लगभग तैयार भी कर लिया है…..

                 और मां ने तुम्हारे लिए नई, बनारसी लाल साड़ी और नकली सोने का एक सेट भी खरीद डाला है…..

                  लेकिन तुम्हारे पिता फिर टाल गए हैं, “नहीं, कन्यादान से पहले कन्या केवल माता- पिता की ज़िम्मेदारी है,केवल माता- पिता की धरोहर….”

 

                 तुम अपने पिता सरीखी क्यों नहीं रही, लतिका?

                 क्यों इतनी जल्दी रही तुम्हें?

                 मेरे पिता का सामान और संसर्ग अगर ठुकरा दिए होती तो आज तुम्हारे पास मेरे फ़्लैट से बढ़िया फ़्लैट होता…..

                 मेरी मोटर से बड़ी मोटर…..

                 अपने बेटों के विवाह- निमंत्रण ले कर तुम और तुम्हारे पति मेरे इस फ़्लैट में आते…..

                  मेरी पत्नी के स्वागत- सत्कार पर रीझते…..

                  मेरी बहुओं की सुरुचि-संपन्नता का रसास्वादन लेते …..

                  और यह लेखा मेरा लेखा न होता…..

                   जिस का बाढ़-द्वार सीधे,आगे चढ़ रहे समय को पीछे,तिरछा उतार लाता है…..

                   कभी मेरी नींद में, तो कभी मेरे जागने में…..

                   कभी तुम्हारे सपने में,तो कभी तुम्हारे होने के मायिक भ्रम में…..

                  तब तुम मेरे पास जमा नहीं होतीं, लतिका…..

                  गुणा होती जमा…..