जो हमारी उपस्थिति अनुभव हो रही हैं, वहीं तो सर्वशक्तिमान के प्रभाव की उपस्थिति का अनुभव हैं, उसकी उपस्थिति, हम उसके प्रभाव की उपस्थिति से ही महसूस कर सकते हैं अन्यथा उसका ओर छोर जानना तो संभव हैं पर पहचानना असंभव, हाँ हममें जितना सामर्थ्य बढ़ते जाता हैं हम उसकी उपस्थिति, उसके प्रभाव की उपस्थिति मतलब कि गुणवत्ता और मात्रा नाप सकते हैं मगर जिस अहम के आकार से उसे नापेंगे, जिस अहम के आकार में उसे नापेंगे, जितना अधिक नापना होगा, उतना ही बड़ा या स्पष्ट हमारे अहम का आकार होगा, बाहरी और आंतरिक इंद्रियों यानी ज्ञान के द्वारों के आधार पे, हाँ जितनी कम हमारी एकाग्रता और स्थिरता में गुणवत्ता होगी और मात्रा अधिक जिससे जितना कम नियंत्रण होगा उतना हम अहम के अधीन होंगे और जितना ज्यादा वह होगा उतना हमारे अधीन अहम होगा इसकी हमको पहचान होगी और यह केवल विवेक पूर्वक किए अभ्यास से ही संभव हैं, अभ्यास की आवश्यकता उतनी कम होगी जितनी अधिक गुणवत्ता होगी, किसकी हमारे ध्यान की यानी हमारी एकाग्रता और स्थिरता की, स्थिरता के लिए भावना सहायक हो सकती हैं यदि बात आकारों के अंदर की हैं, जहाँ तक हैं और एकाग्रता के लिए तो जिस दिशा में संस्कारों यानी आदतों का झुकाव हैं वहां पर, उस दिशा में होगी, रुक जाना और अस्पष्टता का जॉच में आना अनियंत्रितता की ओर जाने का संकेत हैं अतएव जिज्ञासा तथा जिज्ञासा का निराकरण करने वाली जिज्ञासा ऐसे संतुष्टि जनक ध्येय की उपस्थिति तक का, आस यानी सास का साथ, किसकी ज्ञान की, उपस्थिति के अहसास की जागरूकता की, जरूरी हैं और बार बार भटकने का कारण हैं संस्कार में मतलब आदत में अभ्यास की कमी और सिद्ध संस्कारों में आधारशिला के लिए कड़ी नहीं जोड़ सकना, कुल मिला कर नियंत्रण और उसका व्यावहारिकता में उससे समिष्टी यानी पूरे अस्तित्व की जरूरतो की पूर्ति को व्यावहारिकता में लाने की मान्यता हेतु योग्य की मान्यता का बल जरूरी हैं, यह सच्ची शाश्वत कमाई हैं जो कि तब ही आती हैं जब सभी जरूरतों की मूल जरूरत, वो मूल सूत्र जो हर तरह की गणितीय दिक्कतों के निराकरण की प्राप्ति में लागू हो रहा हैं, उस पर ध्यान की स्थिरता और एकाग्रता का न केवल संस्कार यानी आदत बल्कि उस आदत के साथ साथ हाँ उसकी बढोतरी होती रहनी चाहिए यानी एकाग्रता और स्थिरता की मूल जगह से जब ध्यान की गुणवत्ता और मात्रा, उसकी एकाग्रता और स्थिरता की जब इसको हम मान्यता देने लगते हैं, देते जाते हैं और वो भी ऐसे कि फिर पीछे मुड़ना यानी लापरवाही अब संभव नहीं ऐसी जिम्मेदारी के हो जाने और न केवल होने बल्कि नियंत्रण के साथ होने की व्यवस्था हो जाती हैं तो हम सही दिशा में हैं बाकी हमारे अनुभव में इस व्यस्था को किया हुआ हैं जिसकी हम कड़ी हैं, बेशक उस सर्वसमर्थ का उस पर पूरा नियंत्रण जितना पर्याप्तता से हो सकता हैं उतना हैं मगर अस्तित्व में स्थिति की संभावना, चाहें उसके मूल पहलू यानी आकार रिक्तता हो या आकार की सहितता वाली कड़ी, संभावनाएं क्योंकि सारी संभव हैं तो कुछ असंभव संभावनाएं भी हो सकती हैं और यदि किस्मत के भरोसे बैठे तो उनका ज्ञान महत्वपूर्ण और संयोग वश ही हो सकता हैं जैसे वर्षा का जरूरत पड़ने पर पूरी तरह नियंत्रण के आभाव में होना, बहुत हद तक सटीकता प्राप्त की जा सकती हैं, पानी जैसे पानी के मौसम में निश्चित समय इकाई पर आएगा क्योंकि पहले आया या वातावरण अनुकूल हैं, तैयारी स्पष्ट महसूस हो रहीं हैं, बादल तैयार हैं अंधेरी हो रही हैं, जिधर स्पष्टता हो इसका आश्वासन नहीं हैं ऐसे ही सर्वसमर्थ की भी स्थिति होती हैं क्योंकि वो भी अधिक समर्थ हैं, असमर्थ नहीं हैं ये बात सही हैं पर पर्याप्तता को पूर्णता जानें न पीछे जाएंगे तो आरम्भ दिखेगा और आगे भी अंत दिखना असंभव ही हैं।
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