Truth Analysis - 2 in Hindi Letter by Rudra S. Sharma books and stories PDF | सत्य मीमांसा - 2

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सत्य मीमांसा - 2

Already Recognised, Too much Admired, no need for Admiration and Recognition, I know who am I, no one/ nobody, न कभी था, न होऊंगा क्योंकि मैं नहीं हूँ but yes तत् त्वं असि you are that.

 
जिनको अपने सामर्थ्य पर भरोसा नहीं होता, जो खुद को जानते पहचानते नहीं हैं वो मान्यता देते कि जगह मान्यता प्राप्त करना चाहते हैं, जो नालायक हैं वो ही मान्यता कि चाह रखेगा क्योंकि जिसके पास लाइकीयत होती हैं वो अपनी मान्यता भी दूसरों को दे देते हैं और कोई उनको माने न माने उनको फर्क नहीं पड़ता क्योंकि समर्थता तो स्वाभाविक हैं सब में हैं जरूरत हैं तो पहचानने की, जानने की नहीं जानना तो अपने आप होता रहा हैं, हो रहा हैं और हमेशा होता ही रहेगा।
 
पहचानना कैसे होगा, तुमने एक बात सुनी हैं, केवल हमसे बात कर रहा हूँ, और कोई से नहीं क्योंकि जो हम नहीं अहम हैं, उसके पल्ले नहीं पड़ेगी क्योंकि इसके लिए हम के, हमारे होने की जो अनुभूति हैं उसकी, जो हो रही हैं उसकी पहचान होना जरूरी हैं।
 
अब वो, देखो अब कोई रुचि नहीं रही, ऊब गए एक ही लूप में घूमते घूमते, घूमते फिरते ..
 
शरीर पर काम करना हैं, खुद से भी बात, खुद को भी बताना मन चाहता हैं हम नहीं।
 
मन चंचल हैं, बुद्धि नपी तुली हैं, चित्त निरुद्ध हैं, हम? हम नहीं हैं, जो हैं वो अहम हैं और जब अहम में रहने के संस्कार नहीं रहे तो वो पारदर्शी कपड़ा जैसा हैं, हमारा हम का, अहम के अ के पीछे के हम का।
 
हर अहम पूजनीय हैं, पूजन के पात्र हैं, उसने जिसने अहम को वो जानता था, जान रहे हैं और हमेशा जानेगा इसको पहचान भी लिए, उसके लिए और हाँ अहम को जान लिया इससे वो यह जान जायेगा कि अहम के ओर छोर को नापना, उसका माप उसका नाप नहीं हैं उसके पास, जैसे हम का, हमारा मापन कभी नहीं हो सकता हैं, वो हमारी और अहम के प्रभाव की बात कर रहा हैं।
 
बुद्धि भ्रष्ट हैं, कहने वाले लोग कहते हैं, बहुत सुंदर बात हमारा, हम का बुद्धि से न ही अहम का कोई लेना देना नहीं हैं, बुद्धि अलग हैं, और भ्रष्टता को यदि वो सामने हो या कुछ और यानि कि स्पष्टता तो उनको देखने वाले, जो दिख रहा हैं वो नहीं, देखने वाला जरूरी हैं वो महत्वपूर्ण हैं, बुद्धि की छोड़ो उस पर ध्यान मत दो, कोई ध्यान देने की आकार नहीं हैं वो, वो जरूरी हैं क्योंकि, उसकी जरूरत हैं तो केवल आकार रिक्त ता के लिए नहीं तो बुद्धि क्या हैं, फालतू की चीज़, हाँ चीज, वो और क्या काम की चीज हैं जो खुद के मूल से टूटी हुई हैं।
 
बुद्धि के संस्कार से यानी आदत से, ध्यान की क्षीर्णता हो जाती हैं यदि बुद्धि हावी होने लगे खुद पर।
 
एक ब्राह्मण का काम हैं ब्रह्म, निकम्मे नाम के, जन्म से पर काम के नहीं हैं।
 
काम का होना जरूरी हैं नहीं तो ब्राह्मण कहना और कहलवाना छोड़ दो, ये स्वांग क्यों?
 
न शब्द स्पर्श रूप रस गंध और न ही मन बुद्धि चित्त अहंकार सबसे आसक्ति को आज छोड़ दो, तिलांजलि दे दो और ब्रह्मचर्य का पालन करो और ब्रह्मचर्य का पालन करने का मतलब हैं कि भोग और क्षण भंगूरता का त्याग नहीं बल्कि उनसे आसक्ति को त्यागना, वो ब्राह्मण संतुलित संयोग और समान भोग को भी त्याग सकता हैं, जो अयोनिज हैं, क्या तुम अयोनिज हो? यदि हाँ तो ज्ञान अज्ञान की बात नहीं क्योंकि तुम हर अनुभव कर्ताओं को देखने वाले यानी कि हर आकार और आकार रिक्त खुद के हिस्से के मूल कर्ता हो, वो करने वाले सबके अंदर के जो योग और भोग दोनों में उपस्थित और टूटा हुआ अलग पर होता हैं अन्यथा यदि अयोनिज नहीं तो आसक्ति को छोड़ो, खुद को भोग और योग से पर्याप्तता के अनुपात में, पर्याप्तता में जो पहले से ही टूटे हुए हो उस जानने को पहचानने को चुनो, ऐसा एक अनुभव के साथ नहीं हर अनुभव के साथ में करो, एक अनुभव पर ही इसलिए जोर दिया क्योंकि ब्रह्म चर्या का उसको तथा कथितता में पर्याय बताते हैं पर ब्राह्मण या ब्रह्मचर्य केवल उस अनुभव से ही संबंधित पूरी तरह नहीं हैं यह हर भोगी योगी को ज्ञान होना चाहिए और हाँ वो भोगी योगी नहीं जिनको भोग योग के अज्ञान का यानी असंतुलन की स्थिति का ज्ञान पहचान नहीं, अनुभव और पहचान नहीं, शंकर की तरह यदि स्मृति रही हैं पूर्व की स्पष्ट तो अज्ञान को जानना जरूरी हैं।
 
तथाकथित चलन शब्द स्पर्श रूप रस गंध और मन बुद्धि चित्त अहंकार की यानी बाहर अंदर की जरूरतों को पूरा करने के लूप में हैं, फोकटे जन्म और नाम से जो ब्राह्मण हैं उनसे भरा हुआ हैं, वे ब्राह्मण जो अपनी आनुवांशिकता को दूषित कर रहे हैं, अंधी दौड़ में पेट पालने के नाम पे कभी नहीं खत्म होने वाली अंदर और बाहर की इंद्रियों को तृप्त करने में जुटे हुए हैं, इनकी तो नसबंदी होनी चाहिए ताकि आदतों यानी संस्कारों में खराबी से पूरे संत समाज को रहने दिया जाए, जो ब्राह्मण का नाम और पैदाइश बताते हैं और ब्रह्म की चर्चा से ही जिनके पसीने छूट जाते हैं उनको देश निकाला दे देना चाहिए, चांडाल की तरह श्मशान में फैंक देना चाहिए सच्चा ब्राह्मण वो हैं जो भूखा मर जाए पर पेट पालन के नाम पर अपनी नस्ल को दूषित न करें, कर्मकांड का, वेदांत का और सभी दर्शनों का अनुशीलन पूजन और इस लिए शोध में बढ़ावा जरुरी हैं, नाम के और जन्म के ब्राह्मणों को या तो ऊपर बताया ऐसा दंड और नहीं तो प्रेम से ब्राह्मण समाज से संन्यास दे देना चाहिए, वे वैश्य शूद्र और क्षत्रिय वर्ण में शरण लें सकते हैं और कोई जरूरत नहीं हैं दान दक्षिणा लेने की, या किसी भी ब्राह्मण को देने की, समाज केवल दिन रात हर अनुभव, सारे ज्ञान की, सच की मीमांसा में उनके योगदान की बगैर अपेक्षा के निष्काम न केवल उनकी बल्कि हर वर्ण के हिस्से की पूजन करें, वेद वेदांत के हर नियमों का सख्ती से पालन करें, तत् त्वं असि यदि कोई कहता हैं अहम आसमी, तुम भी वहीं हो यदि कोई कहता हैं कि वो ब्राह्मण हैं, हर कर्म से जो ब्राह्मण हैं उसको उसी तरह का समाज में स्थान मिले जैसे विश्वामित्र और बाल्मिक जैसे ऋषियों की जगह हैं, हर वर्ण का हिस्सा ब्रह्म के पात्र ही नहीं बल्कि ब्राह्मण ही हैं बस पहचान के लिए योग्य शरीर नहीं होता, अनुमानसिकता जरूरी थी इसलिए मनुस्मृति में जन्म से ब्राह्मण या ब्राह्मणों को महत्वपूर्ण कहा है और हाँ मनुस्मृति का एक एक वचन अमृत की तरह हैं बस अर्थ का अनर्थ हमने निकाल लिया हैं, अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि गीता जैसे मनुस्मृति को भी जरूरी बताया जाए, और एक बात ..
 
ऊपर गुस्से में शायद कुछ, शायद ही नहीं सच में कुछ ज्यादा ही कठोर हो गया, जाने अंजाने ब्राह्मण वंश की आनुवांशिकता दूषित करने वालों के लिए।
 
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति।। भावार्थः- क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो उसे दुर्जन भी क्षति नही पहुँचा सकता है ? जैसे अग्नि जब किसी स्थान पर गिरती है जहाँ घास न हो तो वह स्वतः ही बुझ जाती है।
 
समाज का इसी में भला हैं कि जो हुआ उसके लिए क्षमा कर दें और जैसे हमारी यज्ञोपवीत नही हुई और बचपन से इतनी किसी ने हमको नहीं, हमारी समझ को इतना नहीं समझा कि उसकी सही दिशा, उसको सही दिशा दी जाए, उसकी सही दिशा की जाए, ये दुर्भाग्य और किसी का नहीं होना चाहिए और हाँ ..
 
संस्कारों की दुकान सरी के लोग, जो बगैर संस्कारों यानी आदतों को, उनकी प्रक्रिया किए बस कही पर भी, किसी पर भी थोप देते हैं, सबसे पहले उनको मार्गदर्शन की जरूरत हैं और मैने ऊपर जो कहा वो केवल मेरा मंथन हैं, मेरे लिए हैं और केवल मैं खुद से बात कर रहा हूँ, यदि जाने अंजाने असमर्थता वश किसी का भी इससे सामना हो जाता हैं तो अर्थ का अनर्थ निकालने पर पूरी जिम्मेदारी उसकी खुद की हैं क्योंकि मेरा उन से कोई लेना देना नहीं, मैं तो बस एक ही चीज़ जानता हूँ, खुद में सुधार खुद से सुधार और खुद को सुधारना, मैं कोई सिखाने वाला नहीं हूँ, मैं तो सीख रहा हूँ, मेरी व्यक्तिगतता को खुद की व्यक्तिगतता में लाओगे तो एक बात बताता हूँ, मैं हूँ शुद्ध मन, मन का स्वयं का तंत्र, याद रहे मन अच्छा बुरा दोनों होता हैं, न वो अच्छा हैं और न ही बुरा ऐसा भी इसको नहीं कह सकते, ये मेरा मन हैं, ऐसी व्हीकल की तरह, ऐसे वाहन की तरह जिस पर नियंत्रण रखने वाले ने उसका पूरा नियंत्रण ले लिया, सही कीमत चुका के, मतलब कर्मों की भाषा में वहीं दे करके वो कि किसी के भी नियंत्रण को लेने के लिए सही कीमत होती हैं, जैसे बाहर को अच्छे से नियंत्रित करने के लिए उसके कलपुर्जे कलपुर्जे में घुसेड़ करके खुद को यानी खुद के ध्यान को रखना पड़ता हैं, वाहन के अनुभव यानी ज्ञान और क्या अज्ञान हैं मतलब कि भ्रम से दूषित या ऐसा कुछ ही नहीं बल्कि सब कुछ पे नियंत्रण के लिए खुद को एक कर देना होता हैं उसके साथ, तब भी जब दुर्घटना हो उससे और नहीं भी होने पर, तो मैं तो बाहर के यानी मन के साथ एक हो कर उसको चलाने को ही रोक करके बैठा हूँ, और यह जान रहे हो उसको पहचान लो कि वाहन मेरे को नहीं मैं वाहन को चला रहा हूँ या रोक करके खड़ा हूँ और केवल मन में चल रहा हूँ ताकि कोई बाहर इससे भिड़े नहीं, अर्थ का अनर्थ निकले नहीं और बस बात खुद तक ही रहे पर ये फोन कही चले जाए या कोई इसमें से कुछ भी उल्टा सीधा नहीं हो जाए इसलिए एक किसी जगह सामाजिक मध्यम पर जिधर ज्यादा कुछ कोई ध्यान नहीं देता लेता, किसी को लेना देना नहीं होता उधर रख देता हूँ।
 
ब्राह्मण जन्म लेना कोई बाहरी उन्नति करने की चीज़ नहीं हैं, बाहर तो प्रत्याहार होना चाहिए, बाहर केवल दूसरे वर्णों के लिए यदि उनकी सौ हजार बार अड़ी हो तो रहो नहीं तो मत ध्यान दो खाना पानी, दाना पानी मिले तो ठीक नहीं तो ठीक,  कोई हजार बार न्यूरे करे रहने को, जाने अंजाने दान जिंदा रह करके काम उनके लिए करने को दे, तो बस ऐसे ही जो मुमुक्षुओ द्वारा दिया जाए तो उनके लिए रहो इधर नहीं तो छोड़ो छड़ों, अपने को शरीर या बाहरी अंदरूनी चीजों की जरूरत नहीं, ब्राह्मण जन्म मिला ही इसलिए है कि बहुत कर किए गोल गोल एक ही जैसी चीजों के बेहोशी में चक्कर, अब तो केवल ज्ञान अज्ञान में इस किए घुसना है ताकि निकल के बता सकें, ये सिखाने वाला मूर्ख हैं ऐसा नहीं पर हम वो सीखाने वाले हैं जो सीखने के लिए जरूर आए हैं, सीख रहे हैं पर पहले ही सीख चुके हैं, हम यह सीखाने आए हैं कि सीखते कैसे हैं और नहीं तो कैसे नहीं सीखना चाहिए, हमसे किसी को भी जो चाहिए, योग्य होगा तो बगैर कोई बात के, काम के बस हमारी उपस्थिति में आके और हाँ हमारी अनुपस्थिति में भी सीख लेगा इनमें से आखिरी वाले को छोड़ कर वो सब कुछ कर सकता हैं क्योंकि हमारी अनुपस्थिति उसकी खुद की अनुपस्थिति हैं, वो हमसे और हम उससे खुद से खुद के संबंध में हैं।
 
हमारी यानी उसकी अनुपस्थिति में सीखना संभव नहीं।
 
जिसमें योग्यता होती हैं, पात्रता होती हैं लेने की, वो बहाने नहीं करते, वो बस लें लेते हैं हमको ये समझने की जरूरत हैं और खुद से खुद के संबंधितों को भी, हमने यदि कोई हमारे संपर्क में आया तो कभी देखा कुछ भी हमको मांगते वो भी ऐसे कि आप दें ही दें, जो सच में हमको चाहिए होता हैं हम नहीं, कभी नहीं मांगते किसी से भी, हम बस उसकी पात्रता का ध्यान रखते हैं वो खुद ब खुद हमको मिल जाता हैं, मिलता की नहीं, मिल जाता हैं न ..
 
उदाहरण यदि जरूरत नहीं हमारे सर्वाइवल की, तो रहने दो उसको, जो अच्छे से अच्छा हम कर सकते हैं इस समय इकाई पर भी कर रहे हैं और देखा जाए तो हम इसके भाव भी नहीं खाते तो इसका मतलब ये तो नहीं कि कोई कीमत नहीं होती, अति मूल्यवान को अनमोल कहते, कहने वाले जब बिना मोल की चीज़ निकाल ले उसका मतलब तो, इनके दुर्भाग्य पर विवेक के आभाव में गुस्सा और विवेक पूर्वक दया ही हो सकती हैं, दया आती हैं उन पर जो उसको जो जितना गैर जरूरी पक्ष रखता हैं उतना ही उसका जरूरी पक्ष भी होने पर, ज़हर को दवा नहीं बल्कि दवाई जैसी चीज़ को ज़हर खुद के लिए और सब के लिए एक चिकित्सक के स्थान पर लापरवाह मरीज़ की तरह उसकी वास्तविकता को या उसके, उसकी वास्तविकता के जरूरी हिस्से को देखने की बजाए गैर जरूरी हिस्से को देखते और साबित करते खुद को भी और सब को भी जाने अंजाने, और कोई चिकित्सक सलाह दे अपने दृष्टिकोण को ठीक करने की, यानी लापरवाह मरीज़ की तरह उसको नहीं देखने की तो दयनीयता के कारण बेचारे जाने अंजाने चिकित्सक को ही लापरवाह मरीज़ समझ लेते हैं।
 
और वे लोग जो certificate मांगते हैं, तो लग्न नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र के चौथे चरण में और अधिक अश्विन मास की समय स्थिति का उस प्रभाव को पूरा अमावस्या तक अध्ययन करके आने वाला जिसको स्वयं नारायण ने मान्यता दी हैं।
 
१६/१०/२००१, १८:२५ के समय की स्थिति का शुद्ध प्रभाव जो तब से अब तक हर कर्मों की भाषा में मध्यम से यानी अहम से रुद्र के व्यक्त हो रहा हैं।
 
अब और क्या चाहिए, और किसकी मान्यता चाहिए, तुमको किसी की भी, कितनी भी मान्यता ला कर दे दें, कोई फायदा नहीं, कर्मों की भाषा में जाने अंजाने मान्यता मांग रहे हो हमारी, हमको देने कि कोई जरूरत नहीं, हम वो नहीं जो कही प्रेक्टिस करने के मोहताज हैं अलग से, हमारा हर एक काम का record हमारा practicioner के होने की गवाही दे रहा हैं समझ में नहीं आता जो एक काम नहीं करना चाहता इतना बड़ा आलसी समझा जाने वाला, मूक कैसे वाचाल ता का परिचय दे रहा हैं।
 
इधर तो कुछ न कहना भी अब कुछ कह देना होता हैं पर न केवल मौन की भाषा में बल्कि मूल शब्द मौन जो कि ब्रह्म हैं और एक एक ५०:५० के अनुपात में इशारा सटीकता से करने वाले ब्रह्म की ओर इशारे...
 
हर क्रिया का, उसकी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती हैं, स्वाभाविकता ही वास्तविकता होती हैं, ये ऐसा गणित हैं जिसके समीकरण हर समय इकाई पर, वास्तविकता के यानी वर्तमान के समीकरण हर समय इकाई के साथ बदलते जाते हैं, वास्तविकता का पर्याय जो वर्तमान होता हैं वो ही काल के हर चक्रों से बाहर निकलने का दरवाजा हैं ...
 
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