'वैश्या'... जानती हूं ये शब्द सुनके कितने ही सिहर गए होंगे ना। कुछ पक्ष में हो सकते है और कुछ अधिक विपक्ष में..। क्यूं..?
क्यूंकि ये हमारे समाज का हिस्सा नहीं है.. है ना? लेकिन फिर हमारे की समाज के कर्मों की कृति कैसे हो गई ये..?
सच है ना... हर एक औरत कभी भी वैश्या नहीं होती है लेकिन हर एक वैश्या औरत होती है... हमेशा । ईश्वर ने इंसान नाम के तोहफ़े से नवाजा था हमे... बंदिशों से बांध किसी को एक लड़की बना दिया गया और एक दौर बाद वो बना दी गई बहुत ही मजबूत दीवारों के भीतर जहां से आवाज क्या चीखें भी बाहर नहीं आती उनकी बेबसी की... उसी बदनाम कहीं जाने वाली गली की एक और सदस्य..। जिसे जानते सब है लेकिन कोई सुनना नहीं चाहता।
कितनी ताजुब्ब की बात है ना... आज अकेले भारत में 13 मिलियन महिलाओं के जीवन का जरिया है ये और जीवन कैसा... वो जीवन जिसके लिए हर वक्त अपनी सांसे गिरवी रख चलना पड़ता है वो जीवन... जो एक चलते फिरते इंसान की बस एक मुठ्ठी भर ख्वाइशों को पीछे धकेल हर रोज उसे तार मरने को मजबूर करता है।
वो वही जीवन... जो 3-4 फिट ऊंची कोठरी में यातना से शुरू हो उसी कोठरी की शुरुआती दिनों की चीखों से बरसते अंधियारों को आज अपने उमंगों आसमां मान अपने नन्हे बच्चे के साथ चंद दूरी की जमीन पर ना जाने दिन में कितनी बार उसी यातना में हर दिन दम तोड़ती है।
ना जाने कितनी बार किसी के गुस्से का, किसी के शौक का सबक बना दिया जाता है उस औरत को और बरसों पहले मृत शरीर को पूर्णतः मार दिया जाता है, कितने ही हिस्से कर दफ़न कर दिया जाता है इतना गहरा की वहां से अफ़वाह भी बाहर नहीं आती। न्याय दिलाने के लिए कानून के हाथ भी बहुत छोटे पड़ जाते है या हो सकता है छोटे बना लिए जाते है।
किसी की वजह का शिकार बना दी जाती है वो जहां का दरवाजा तो न जाने कितने खटखटाते है लेकिन यकीन माने उतनी ही नफ़रत भी करते है बशर्ते कि बात अंधेरे और कर्मों की ना हो।
कभी सोचा है कितना भयावह होता होगा हर दिन खुद को तराजू में रखना। हर दिन उस सच्चाई से गुजरना जिसके बारे में बात करते भी हिचकिचाते है हम्म कैसा रहा होगा वो सफर जहां उसे एक गुड़िया + खेलती छोटी बच्ची से उठा धकेल दिया गया इतन गहरे
गर्त में जहां सीढ़ी भी नहीं जाती। एक परिवार की ज़िम्मेदारी निभाती किसी महिला को पैसों की तर्ज पर चढ़ा दी गई उसके जीवन की बलि ।
कहने को तो जीवित है वो... सांसे भी चलती है लेकिन जीवन तो उसी दिन छूट गया जिस दिन उसने खुद को उस गली के मकान में पाया जहां वो सबकी मर्जी से है, सबके लिए है लेकिन उसका कोई नहीं है... सिवाय आंसुओं की कहानी के वो कहानी जिसे कभी शब्द नहीं मिलते ।
वहां उसे सब मिलता है... खुद को सौंप देने के नाम पर... खाना मिलता है अपनी जिंदगी देने के नाम पर.... एक अंधेरा सीमित मकान मिलता है और परिवार के नाम पर.... बच्चे वो बच्चे... जो सिर्फ अपनी बेबस मां के सहारे कैद है उसी जगह पर जिनका घर भी उसी गली में अपनी मां के साथ है... जहां मकान होते है लेकिन घर नहीं होते सांसे रहती है... लेकिन जीवन नहीं होता जो सच्चाई है हमारे समाज की... लेकिन जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता उसी गली में अपनी बरसो से हारी मां के साथ पितृप्रधान समाज में बिना नाम रहते है वो बच्चे...
क्यूं... क्यूं कि उनका पिता भी नहीं होता
वो बस गली थी... हमने उसे उनके लिए नफ़रत का घर बना दिया।