that empty bench in Hindi Poems by Mahesh Kumar books and stories PDF | वो खाली बेंच

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वो खाली बेंच

शहर के बीचों-बीच बने पुराने पार्क में एक बेंच थी, जिस पर कोई ज़्यादा देर बैठना पसंद नहीं करता था। लकड़ी की पट्टियाँ घिस चुकी थीं और लोहे के पायों पर जंग लग चुका था। मगर अनिल के लिए वह बेंच किसी मंदिर से कम नहीं थी।

हर शाम ऑफिस से थककर लौटते समय अनिल वहीँ बैठता, अपनी डायरी खोलकर कुछ पंक्तियाँ लिखता और फिर चुपचाप चला जाता। लोग अक्सर सोचते, "इतनी भीड़-भाड़ वाले शहर में यह आदमी अकेला क्यों बैठा रहता है?" मगर किसी ने उससे पूछा नहीं।

असल में यह बेंच उसकी और सुषमा की यादों से भरी थी। पाँच साल पहले यही वह जगह थी जहाँ दोनों पहली बार मिले थे। कॉलेज के बाद लाइब्रेरी से लौटते हुए सुषमा को बारिश से बचाने के लिए अनिल ने छाता बढ़ाया था और दोनों इस बेंच पर बैठ गए थे। वहीँ से दोस्ती शुरू हुई थी, जो धीरे-धीरे प्यार में बदल गई।

लेकिन ज़िन्दगी हर बार इंसान की इच्छाओं के हिसाब से नहीं चलती। सुषमा के घरवालों ने उसकी शादी कहीं और तय कर दी। लाख समझाने के बाद भी अनिल उसे रोक नहीं पाया। जिस दिन सुषमा आख़िरी बार मिली, उसने यही कहा था—

"अनिल, अगर कभी मुझे याद करो, तो इस बेंच पर आकर बैठ जाना। मुझे लगेगा कि मैं यहीं कहीं पास हूँ।"

उसके बाद से अनिल ने शादी नहीं की। उसके दोस्त कहते, “ज़िन्दगी ऐसे नहीं कटती, कोई नया रिश्ता बना लो।” मगर अनिल हर बार मुस्कुराकर कह देता, “मैं ठीक हूँ।”

दिन गुजरते गए। कभी बारिश की बूँदें उस बेंच को भिगोतीं, कभी पतझड़ के पत्ते उस पर ढेर लगाते। मगर अनिल का आना-जाना नहीं बदला। वह अपनी डायरी में कविताएँ, अधूरी कहानियाँ और सुषमा के नाम खत लिखता रहता।

एक दिन पार्क में एक छोटा लड़का आया, जो पास के स्कूल से भागकर आया था। उसने अनिल से पूछा, “अंकल, आप रोज़ यहाँ क्यों बैठते हो? क्या यह आपकी बेंच है?”

अनिल मुस्कुरा पड़ा। उसने बच्चे को पास बिठाया और कहा, “हाँ, यह मेरी बेंच है। यहाँ मेरी सबसे प्यारी दोस्त रहती थी। अब वो दूर है, मगर मुझे लगता है कि जब मैं यहाँ बैठता हूँ तो वो मेरे पास होती है।”

बच्चे ने मासूमियत से पूछा, “क्या मैं भी आपकी दोस्त बन सकता हूँ?”

अनिल की आँखें भर आईं। उसने बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “क्यों नहीं, दोस्त कभी पुराने नहीं होते, बस नए जुड़ते जाते हैं।”

उस दिन के बाद से वह बच्चा रोज़ स्कूल से लौटते हुए कुछ देर अनिल के साथ बैठने लगा। वह अपनी कॉपी में चित्र बनाता और अनिल अपनी डायरी में लिखता। धीरे-धीरे पार्क की वही पुरानी बेंच फिर से ज़िन्दगी से भर उठी।

शहर के लोग अब कहते, “ये बेंच अब अकेली नहीं लगती। लगता है जैसे इसमें दो पीढ़ियों की दोस्ती बस गई है।”

अनिल जानता था कि सुषमा शायद अब कभी नहीं लौटेगी, मगर यह खाली बेंच अब सचमुच खाली नहीं रही। यह उसके अतीत की याद और भविष्य की उम्मीद दोनों बन चुकी थी।अनिल जानता था कि सुषमा शायद अब कभी नहीं लौटेगी, मगर यह खाली बेंच अब सचमुच खाली नहीं रही। यह उसके अतीत की याद और भविष्य की उम्मीद दोनों बन चुकी थी। अब हर शाम यह बेंच उसे हिम्मत, सुकून और एक नई रोशनी देती थी।