पहला मोड़"
एक साल कैसे निकल गया हमे पता ही नहीं चला। शुरुआत एक दोस्ती से हुई थी... और अब वो दोस्ती एक इम्तिहान से गुजरने वाली थी। पहले साल तक हम घर से अप-डाउन करते रहे।
पर दूसरे साल में प्रैक्टिकल्स, अर्ली मॉर्निंग लेक्चर्स और असाइनमेंट्स ने मजबूर कर दिया कि हम कॉलेज के पास कोई पीजी ढूँढें।
गाँव के कोने में एक पुराना, दो कमरों का मकान मिला — जिसे अब पेइंग गेस्ट बना दिया गया था।
पेड़ों की छाँव, उसकी पुरानी दीवारें, और सन्नाटा — वो मकान देखते ही मेरे दिल में अजीब सी घबराहट हुई। लेकिन दिव्या, हमेशा की तरह, एक्साइटेड थी।
मकान के मालिक — एक वृद्ध दम्पति — थोड़े चुप रहते, उन्होंने हमसे बस एक बात कही थी,“संभल के रहना बच्चों…” और चाबी मेरे हाथ में दे दी।
दिव्या ने बैग अंदर रखे और हँसी में बोल पड़ी —“बस अब थोड़ा सजाना है फिर ये हॉरर हाउस हमारा स्वीट होम बन जाएगा!” मैं बस मुस्कुरा दी थी — पर वो दरवाज़ा... जो लगभग जंग से भरा था... उस पर एक छोटी सी लकीर बनी थी — जैसे किसी ने उँगली घुमाई हो धूल में।
अंदर ही अंदर जाने मुझे क्या डर था... जो मुझे छोड़ ही नहीं रहा था। जो डर था, वो सिर्फ सोच का नहीं था... जैसे वो हवा में था जैसे वो मेरे अंदर साँस ले रहा था। शाम होते-होते हमने कमरा सेट कर लिया।
दीवार के कोने में जालियाँ, पुरानी अलमारियों से वर्निश और सीलन की मिली-जुली महक थी — मुझे सब कुछ अजीब लग रहा था, पर दिव्या की हँसी ने सब संभाल लिया। रात के 10 बज गए। हम बेड पर थे, मोबाइल स्क्रॉल हो रहा था।
तभी — दरवाजे पर दस्तक हुई
KNOCK... KNOCK...
दरवाज़ा खोला तो एक 13-14 साल की लड़की और एक महिला खड़ी थी।
उस लड़की ने मेरे तरफ देखते हुए कहा—“दीदी, मैं नेहा... और ये मेरी मम्मी, सरला…”
सरला आंटी ने खाना देते हुए कहा, " बच्चों काफी रात हो चुकी है, मैने सोचा तुम लोगों के लिए खाना ले आती हु ।"
वो थोड़ा चुप रहे और फिर बोले, "मुझे तुम्हारे घर के ऑनर ने बताया कि तुम लोग आज यह शिफ्ट होने वाले हो, तो किसी चीज की जरूरत पड़े तो मैं मदद कर देना। "
मुझे थोड़ा अजीब लगा। पर दिव्य ने टिफिन ले लिया और बोली, " थैंक्यू सो मच आंटी।"
नेहा चुप खड़ी थी। फिर धीरे से बोली —“रात में अगर आधी रात को कोई दरवाज़ा खटखटाए… तो कभी मत खोलना…”
नेहा की आँखों में कुछ था… कोई अनकही बात। जैसे वो किसी पुराने पल को याद कर रही थी। जैसे उसने कभी दरवाज़ा खोला… और कुछ देखा हो।
पर सरला आंटी ने उसका कहा हँसी में टाल दिया और बोली —“गाँव है बेटा, चोरी-चकारी होती रहती है, बस सतर्क रहना।”
उनके जाने के बाद हमने खाना खाया। दिव्या सब इग्नोर करके हँसते हुए बोली — “सो जा, नहीं तो कल मिश्रा सर अटेंडेंस पे फिर दिमाग खाएँगे!” पर मेरी आँखों से नींद दूर थी। नेहा की बात गूँजती रही —
“कभी मत खोलना…”
मैं बस छत की ओर देख रही थी — पीपल के पत्तों की सरसर आवाज़ें आ रही थीं… और फिर नींद ने मुझे खींच लिया।
अगली सुबह, सब नॉर्मल था।
कॉलेज का रूटीन, पीजी लाइफ का मस्ती भरा सर्कल — दिव्या के हमेशा की तरह जोक्स, गप्पे और उसका ये बोलना —
“दृष्टि, चाय बना!” — सब usual।
बाहर से सब परफेक्ट लग रहा था। पर हर रात कुछ न कुछ अजीब होता — कभी खुली खिड़की दिखती… जिससे कोई अंदर झाँक रहा हो… कभी गिरता ग्लास… और कभी अँधेरे में परछाई… हम ये सोच कर टाल देते — “नई जगह है, डर लगना नॉर्मल है…”
पर दिल के किसी कोने में मुझे पता था… कुछ तो था… जो उस पुराने घर की दीवारों में अभी भी ज़िंदा था… और जिससे हम उस वक्त अंजान थे। जब तक समझ आता… हम उस घर में जा चुके थे।