ज़िंदगी कभी-कभी इतनी उलझ जाती है कि इंसान को खुद पर ही भरोसा नहीं रहता। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। नौकरी में संतोष नहीं था, घर की हालत भी अच्छी नहीं थी, और हर दिन एक नया बोझ सा लगता था। माँ की तबीयत लंबे समय से खराब थी, उनकी दवा और इलाज में जितना भी पैसा था, सब खर्च हो चुका था। ऐसे में मैं खुद को बिल्कुल टूटा हुआ महसूस करता था। कई बार तो लगता कि जीने की कोई वजह ही नहीं बची है।
ऐसे दिनों में मेरा सहारा था मेरा दोस्त—रितोन। हर शनिवार शाम को हम दोनों शहर से थोड़ी दूर, जंगल के पास जाकर बैठते थे। वहाँ कोई शोर-शराबा नहीं होता, सिर्फ़ हल्की ठंडी हवा और पेड़ों की सरसराहट। हम दोनों अपनी-अपनी परेशानियाँ आपस में बाँटते, कभी चुप रहते, कभी हँस भी लेते। वो जगह हमारे लिए एक छोटी-सी दुनिया थी, जहाँ कुछ देर के लिए सारे दुख हल्के लगने लगते थे।
एक शनिवार को अचानक मेरे दिल में ख्याल आया—क्यों न महाकाल के दर्शन किए जाएँ? मैंने सोचा, शायद ये यात्रा मेरी ज़िंदगी में कोई बदलाव ला सके। मन को लगा जैसे कोई भीतर से पुकार रहा हो। अगले हफ़्ते जब हम दोनों फिर मिले, तो मैंने रितोन से कहा—“चलो, महाकाल चलते हैं।”
वो कुछ पल चुप रहा। फिर बोला—“अरे यार, ये इतना आसान नहीं है। खर्चा भी लगेगा, टाइम भी लगेगा, और रास्ता भी तो आसान नहीं है।”
मैंने कहा—“हाँ, आसान नहीं है, लेकिन कोशिश करेंगे। सब मिलकर प्लान बनाते हैं।”
हमने वहीं बैठकर खर्चे का हिसाब लगाया, कितने दिन चाहिए होंगे, किस रास्ते से जाना बेहतर रहेगा। थोड़ी देर बाद रितोन ने धीरे से हाँ कर दी। उसकी हाँ सुनते ही मेरे मन में एक अजीब-सी खुशी हुई, जैसे आधा रास्ता पार हो गया हो।
अब असली तैयारी शुरू हुई। मैंने इंटरनेट पर ट्रेन की जानकारी ढूँढनी शुरू की। कई घंटों की खोज के बाद सबसे सही समय वाली ट्रेन मिली। लेकिन दिक्कत ये थी कि हमारे शहर बलांगीर से भोपाल के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। इसलिए मैंने टिटिलागढ़ से भोपाल का टिकट बुक कर लिया।
यात्रा की प्लानिंग तो हो गई, लेकिन रितोन के सामने बड़ी समस्या थी। वह एक इलेक्ट्रॉनिक्स शो-रूम में काम करता था, और दशहरा के समय छुट्टी मिलना लगभग नामुमकिन था। पहले तो उसने साफ़ कह दिया कि वो नहीं जा पाएगा। उसने तो टिकट कैंसिल करने की भी बात कर दी।
मामला इतना बढ़ गया कि उसके ऑफिस में बात इस्तीफ़े तक पहुँच गई। वह बहुत परेशान हो गया था। उधर मैं भी अपनी मुश्किलों में फँसा था। माँ की दवाइयों में सारा पैसा खत्म हो चुका था। ऊपर से मैंने भी छुट्टी पहले ही माँग ली थी, अब पीछे हटना मुश्किल था।
इतनी समस्याओं के बावजूद मेरे भीतर एक विश्वास था कि हमें जाना ही है। मैंने रितोन से कहा—“अगर तू नहीं जा पा रहा तो कैंसिल कर देते हैं। फिर कभी देखेंगे।”
लेकिन तभी उसने गहरी साँस लेकर कहा—“नहीं, जो भी होगा देखा जाएगा। हम ज़रूर चलेंगे।”
उसके ये शब्द मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं थे। अचानक मुझे लगा कि महाकाल खुद हमें बुला रहे हैं। उसके बाद हम दोनों ने तय कर लिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, हम यात्रा की तैयारी करेंगे।
अब हमारी बातों का रूप बदल चुका था। पहले जहाँ हम जंगल में बैठकर अपनी परेशानियों की बातें करते थे, वहीं अब महाकाल की यात्रा को लेकर चर्चा करते थे। कहाँ ठहरेंगे, कितना सामान ले जाना होगा, कितना खर्च आएगा—सब कुछ प्लान करने लगे। डर भी था, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा भरोसा था कि महाकाल का आशीर्वाद हमारे साथ है।
इस तरह हज़ारों दिक़्क़तों के बावजूद हमारी यात्रा की शुरुआत हो गई। मन में अनगिनत सवाल थे, रास्ते में कौन-सी मुश्किलें आएँगी, खर्च कैसे मैनेज होगा, नौकरी बच पाएगी या नहीं। लेकिन इन सब सवालों से ऊपर एक ही बात थी—महाकाल का आशीर्वाद। हमें विश्वास था कि जब तक उनका बुलावा है, तब तक सब ठीक होगा।