Memoirs: Rajendra Yadav, a confluence of seriousness, playfulness and intimacy in Hindi Book Reviews by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | संस्मरण : गांभीर्य, खिलंदड़ापन और अपनेपन का संगम राजेंद्र यादव

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संस्मरण : गांभीर्य, खिलंदड़ापन और अपनेपन का संगम राजेंद्र यादव

संस्मरण : गांभीर्य, खिलंदड़ापन और अपनेपन का संगम;राजेंद्र यादव

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अनेक बार लगता है जब किताबों से दूर होता हूं। कहीं दूसरे शहर जहां पर परिचित नहीं होते और कुछ दिनो के लिए होता हूं। तो बचा वक्त, पता नही कैसे, प्रकृति से बातें करने में, मौसम के रंग देखने और अपने अंदर झांकने में निकल जाता है।

खामोश नदी बहती है और उसके साथ साथ मै भी बहता रहता हूं। आसपास देख रहा होता हूं। उनसे जुड़ता भी हूं पर नदी आगे बहा ले जाती है। सबके साथ रहना, घूमना बात करना चाहता हूं पर एक समय बाद आगे बहाव ले जाता है। सहज योग से जुड़ाव से जिंदगी कुछ मजबूत हुई है परंतु मेरी भावनाएं और कहा जाए संवेदनाएं, वैसी ही हैं जैसी किसी ग्रामीण परिवेश की।

बचपन से दादी, ताई, मां, डैडी, अऊआ, चाची चाचा के साथ रहते हुए होती हैं । अच्छा, स्वस्थ और अपनेपन का परिवेश और वातावरण आपको जिम्मेदार, संवेदनशील तो बनाता ही है पर उससे अधिक वह आपको जड़ों से जोड़े रखता है। जबकि समय के साथ जड़ें, पौधा उखड़ता है दूसरी जगह लगता है फिर नए नए लोग जुड़ते हैं और विस्तृत होता है साथ। यहां मेरा मानना है की यह सब पूर्वजन्म का तय होता है की आपको कब, किस मोड़ पर ईश्वर किससे मिलाएगा। दरअसल जब हम मुश्किल में, अकेले होते हैं तब वह हमारी सुनता है और जिंदगी में पिछले जन्मों के नजदीकी, अपने लोगों को भेज देता है।वह हमें मिलते हैं, जुड़ते हैं, खुशी, अपनापन देते हैं। कहा जाए जिंदगी की थम चुकी गाड़ी को आगे पुश करते हैं, साथ चलते हैं और फिर आपको एक मजबूत और समझदारी भरी राह पर ले जातें हैं।

इसी को शायद जिंदगी कहते हैं।

 

मैं, मेहनतकश लुहार टांका लगाता मोची

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कई वर्ष अजमेर में रहते हुए निकल गए और लेखन लगभग ठप्प था।क्योंकि कोई साधन ही नहीं। जो आयु में बुजुर्ग और वरिष्ट थे उन्हें अपना लिखा दिखाता तो वह रख लेते और बात आई गई हो जाती। मैं बचपन से सारी पत्रिकाएं और किशोरावस्था से धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, सारिका और फिर आगे इंद्रप्रस्थ भारती, मधुमती, पाखी, समकालीन भारतीय साहित्य पढ़ता हुआ आ रहा। थोड़ा बहुत परिचित था राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक परिदृश्य से। आलोचकों, बड़े लेखकों के नाम और सर्जन से परिचित था। तो ऐसे ही बरस गुजर रहे थे और पढ़ो, खूब मेहनत करो के आश्वासन के साथ अपनी कोचिंग क्लास को अच्छे से चला भी रहा था। बीच बीच में महर्षि दयानंद सरस्वती विश्विद्यालय बुलाया जाता तो कुछ डिप्लोमा कोर्स पढ़ा आता। पीएचडी और यूजीसी नेट पास करने का कुछ तो उपयोग हो रहा था। वरना कोचिंग क्लास की मैथ्स, रीजनिंग, जीके तो बीएससी मैथ्स के आधार पर ही पढ़ा रहा। तब कुछ रचनाएं मैंने मधुमति, राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका में भेजी।दो माह बाद स्वीकृति पत्र आया, बेहद खुशी हुई। फिर दिल्ली कुछ रचनाएं भेजी तो महीनों तक कोई खबर नहीं। पाखी, प्रेम भारद्वाज और अपूर्व जोशी के नेतृत्व में नई नई प्रारंभ हुई थी। उसमें कुछ कविताएं भेजी छपी, तो उत्साह जगा। फिर वागर्थ, एक मित्र ने बताई थी, तो सदस्यता ली थी, उसमें एक आलोचनात्मक लेख भेजा रेणु के ऊपर। अपने नए दृष्टिकोण के कारण वह तुरंत प्रकाशित हुआ। उसका सार यह था कि बड़े लेखक, साहित्यकार होने के बावजूद उन्होंने अपनी तीमारदारी कर रही नर्स से प्यार किया और झूठ बोलकर विवाह किया। यह बिल्कुल भी उचित नहीं और घोर अमानवीय है। खासकर तब जब उनकी एक बीवी गांव में भी थी।

मुझे याद है उस अंक में कई लेख थे पर सब अंधभक्ति और रेणु के ताप से तपे हुए।मेरा सवाल वाजिब था।एक महान लेखक परंतु वह अब तपेदिक से बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होता है और अपनी गांव की पत्नी की बात छुपाकर उनकी तीमारदारी कर रही युवा नर्स से प्यार करता है। बात आगे बढ़ जाती है, वह साथ रहते हैं और विवाह कर लेते हैं तब जाकर महान लेखक बताते हैं कि मैं विवाहित हूं, मेरी पत्नी गांव में मेरे घरवालों और बच्चों को पाल रही है।

यह आचरण किस आधार पर और कौनसे नैतिकता के मानदंड पर खरा उतरता है? मुझे आश्चर्य हुआ वागर्थ में जब मेरा यह लंबा पत्र छपा और बाकी देश भर के लोगों ने रेणु की शान में कसीदे पढ़े हुए थे। अधिकतर प्रगतिशील थे जिन्हें कभी भी स्त्री की अस्मिता, मर्जी और स्वाभिमान से कोई मतलब नहीं होता।

एक मेरी ही आलोचना सबसे हटकर परन्तु सटीक थी। एकांत श्रीवास्तव से तभी पहला परिचय हुआ लेखन के माध्यम से। फिर तो आगे कई बार पाखी और वागर्थ में प्रकाशित हुआ।

हालांकि यह मुझे स्पष्ट था कि बिना मेहनत, संघर्ष के कोई चीज, सफलता अपने को नहीं मिलनी। तो अपने तेवर भी समय के साथ कुछ अलग और मेहनतकश लुहार से हो गए।

 

आगे का रास्ता भी आसान कहां ?

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अब बात उन बड़े ईमानदार, दिग्गज और उतने ही विनम्र लेखकों, आलोचकों की जिनके साथ मुझे उठने बैठने का अवसर मिला। उनका आशीर्वाद मिला और बहुत कुछ सीखने को मिला। सबसे पहले चले आते हैं ...

 

बेबाक, बेलौस अंदाजे बयां वाले राजेंद्र यादव

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हंस पढ़ना पहले प्रारंभ हुआ या इनकी कहानियों से संपर्क यह मुश्किल है। पर उनके बेबाक विचार और गलत को गलत कहने का साहस मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। फिर हंस में कहानी भेजने की हिम्मत की वर्ष था दो हजार बारह। तब तक मेरी दो किताबें, एक काव्य संग्रह, वह स्त्री लिख रही है, दूसरा कथा संग्रह अभी उम्मीद बाकी है, आ चुके थे। राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमति, परिकथा, अखबारों में कहानियां चर्चित होने लगी थी। तो एक नई जमीन पर कहानी लिखी। वह हंस ने भेजी थी। एमफिल हिंदी से किया हुआ प्रोफेशनल हत्यारे की कहानी। जिसे अपने हुनर पर नाज है ।जो गीता के उपदेश पर चलता है कि आत्मा जन्मती है न मरती है। वह कहानी गई और मैं भूल गया कि नंबर आएगा भी। पर अचानक एक दिन फोन आया, की अगले अगस्त अंक में कहानी आर्टिस्ट ली जा रही है। अरे !!वह खुशी और रोमांच मुझे आज भी है। स्वयं राजेंद्र जी ने रचना चयन किया। मान सकता हूं कि कथाकार हो गया। फिर जुलाई में प्रेमचंद जयंती पर हंस का वार्षिक कार्यक्रम होता है।उसकी सूचना थी और यह पंक्ति मुझे आज भी याद है, ", कोई भी नया पुराना, दूर शहर, गांव का लेखक, पाठक आ सकता है।" मैंने फोन किया डरते डरते सीधे यादव जी को। " हंस के कार्यक्रम में आना चाहता हूं।अजमेर से हूं और दिल्ली में मेरे पास रुकने की जगह नहीं है।" यह उनसे मेरी पहली सीधी बात थी। उधर से उनकी करारी, कड़क पर शब्दों से बुनी हुई आवाज आई, " यह कार्यक्रम आप नए लेखकों के लिए ही है। हम आपको सुनना चाहते हैं। आप आएं ठहरने की व्यवस्था हो जाएगी।" मुझे ऐसे भरोसे के साथ, बिना परिचय, कोई गुट, संगठन नहीं, आज भी नहीं मेरा, फिर भी मुझे इतनी आत्मीयता से बुला लिया? ऊपर से और सुनें, " साथ ही आप किसी और को भी लाना चाहें उसका भी स्वागत है।" इतना अपनापन और विश्वास केवल हिंदी साहित्य और व्यक्ति को समझने और सम्मान देने वाला लेखक ही कर सकता है। यह थी नई कहानी की तिकड़ी के राजेंद्र यादव से मेरी पहली मुलाकात की पृष्ठभूमि। कमलेश्वर के परिक्रमा कार्यक्रम से मैं परिचित था।वह दिवंगत हो चुके थे।

इसके बाद मुलाकात हुई दरियागंज के उनके दफ्तर में। उस ऐतिहासिक दफ्तर जिसमें हिंदी साहित्य का हर दिग्गज गया, बैठा है।उसी सामने वाली कुर्सी पर मैं बैठा।वही काले चश्मे से झांकती आंखे, हाथ में ताजा सुलगे पाइप से बेहतरीन तंबाखू की खुशबू। पास में किसन और हा महमूद अंदर के कमरे में एक कोने में गैस पर चाय उबल रही। समय यही चार बजे का। मेरे सामने हिंदी साहित्य जगत के बेहद महत्वपूर्ण स्तंभ, मन्नू भंडारी के पति और अनेक स्त्रियों के मित्र, सखा, विमर्श को नई ऊंचाइयां देने वाले राजेंद्र यादव बैठे हुए हैं।

मेरी बचपन से आदत है अपन किसी प्रभाव या दबाब में नहीं आते।बिल्कुल नई जमीन और फ्रेशनेस से ही हर एक से सम्मान से मिलते हैं। आप बड़ी हस्ती हैं तो छोटी सी जगह अपनी भी बनी है साहित्य और जीवन में। आपके खंभे और औरा छाया है तो अपनी भी एक छोटी सी खटोली लायक जगह है। मुझे खुशी है यह दिग्गज, बड़े नाम बिल्कुल विनम्र, नई प्रतिभा को सम्मान देने वाले, उसे आगे बढ़ाने और तराशने वाले निकले। जितनी आत्मीयता से मेरी उनसे बातें हुई, वह तो मेरे बचकाने सवाल और उत्सुकता थी, पर वह प्रभाव आज भी मुझ पर है।नए लोगों की मदद और सबको साथ लेकर चलना।

वीना उनियाल ने अपनी चमकती आंखों और मुस्कान से मुझे हंस की दो वर्ष की सदस्यता प्रदान की। यादव जी ने जरूरी जानकारी दी कि प्रगतिशील लेखक संघ का वार्षिक अधिवेशन दिल्ली विश्विद्यालय के सभागार में हो रहा है। मैं वहां जाऊ। मैंने संकोच किया कि मुझे बुलाया नहीं।वह बोले, "अरे मैं कह रहा हूं न। तुम जरूर जाओ।" यह आत्मीयता आगे भी बरकरार रही।

लेकिन राजेंद्र यादव जी का भी वही हाल बल्कि उससे भी दस कदम आगे। वह मित्रता कहें या क्या ? उनमें स्त्रियों को भी एक खास आकर्षण नजर आता। वह अपनी रचनाओं और साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं को उड़ान भरने के लिए उनका इस्तेमाल करती। सब मर्जी और सहमति की माया।लेकिन वह आगे इतनी कमजोर होती कि खुद को पाक साफ, सती सावित्री बताती और राजेंद्र जी को पूर्ण दोषी। यह खेल एक दो बार यादव जी ने देखा फिर इस पर बोलना बंद कर दिया। यह बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण बात, कि रिश्तों या स्त्रियों को बदनाम नहीं किया।भले ही वह छुपे स्वर में उन्हें करती थीं। तो गया मैं दिल्ली विश्विद्यालय की लेन में।शांत, सर्वत्र विद्यार्थी या साहित्यकार। अच्छा लगा सभी हिन्दी जगत के नाम वहां थे। मंच पर मैनेजर पांडेय और संचालन युवा तुर्क विनीत तिवारी कर रहे। जरूरी बहसों के बाद कवि और गज़ल सम्मेलन अपराह्न चार बजे प्रारंभ हुआ। " जो भी कविता या गीत, गज़ल सुनाना चाहे मंच पर नीचे रखी पर्ची पर अपना नाम लिखकर दे दें। भरे सभागार में सौ कवि कवयित्री निकल आए। अपन ने भी नाम दे दिया।क्योंकि दिल्ली में बड़े मंच पर काव्य पाठ का अवसर, दुर्लभ था।

लेकिन गज़ल या कविता तैयार नहीं थी। लेकिन जब विनीत भाई ने कहा डेढ़ सौ हो गए नाम, अब नहीं।तो उम्मीद छोड़ दी कि रात के बारह बजे तक यह चलेगा अब तो। राजेंद्र यादव जी को धन्यवाद, की उन्होंने यहां भेजा पर यह अपने काम की दुनिया नहीं। तभी मंच से तिवारी ही बोले, "चूंकि नाम अधिक हैं और हम सभी को मौका देना चाहते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति को एक मिनिट ही मिलेगा।जो तैयार हो वह आ सकते हैं। मैं नाम पढ़ता हूं।"

भाई ने एक एक नाम पढ़ा और दस मिनट में दस और पांच आए ही नहीं।क्योंकि एक मिनिट में अपनी रचना को बोलना या खास हिस्से बोलना उन्हें नहीं आता।तो पंद्रह लोग निपट गए। आगे मंच पर संख्या बढ़ती गई और पर्चियों की गठरी कम होती गई l। कुछ बड़े दिग्गज भी थे नरेश सक्सेना, दिविक रमेश आदि। कुछ की रचनाओं पर वाह वाही हुई तो उन्होंने एक और खोली सुनाने के लिए।परंतु विनीत तिवारी का संचालन लाजवाब था।उसने उन्हें तुरंत इंकार कर अगले का नाम पढ़ा। उधर मेरे मन में संशय की जाऊं या नहीं जाऊं? और क्या पढूं? तो वहीं बैठकर मैंने चार शेर लिखे कि इन्हें सुनाना मौजू रहेगा। कॉपी, डायरी कुछ नहीं। एक पत्रिका का विज्ञापन पृष्ठ काम आया।

वर्ष दो हजार ग्यारह था, मेरा पहला काव्य पाठ, दिल्ली में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में।

वहां बड़े बड़े लोग स्त्री सशक्तिकरण, उनकी आजादी पर एक से बढ़कर एक कविताएं पढ़ रहे थे। मुझ जैसे छोटे शहर के सामान्य लेखक को कौन पूछता? तभी मेरा नाम पुकारा गया विनीत के द्वारा। धड़कते दिल से मंच पर गया और "सम्मानित मंच और दोस्तों" कहकर पहला शेर पढ़ा। कुछ आवाजें कम हुई। दूसरा शेर पढ़ा और उसकी धार से अचानक से हॉल में सन्नाटा छा गया। मैं समझ गया मर्म पर बात लगी।मैंने दुबारा नहीं पढ़ा और अगले दो भी पढ़ दिए। तालियों के मध्य लगभग पचास सेकंड में अपनी बात रखकर मैं मंच से नीचे मित्र के पास आ गया।

मुझे चारों शेर तो याद नहीं पर वह वाह वाही वाला याद है आज भी...

" यह लोग जो करते हैं बड़ी बड़ी बातें स्त्री आजादी, मुक्ति की

इनमें से कितने हैं जो अपनी पत्नी को अपने साथ यहां लाए हैं?"

कोई नहीं लाया था, क्यों लाते? अलग ही एजेंडा होता है न। उसके बाद कार्यक्रम समाप्त हुआ बाहर काव्य पोस्टर प्रदर्शनी में आलोक धनवा, केदारनाथ सिंह, अनामिका आदि थे।

**अगले दिन हंस के दफ्तर गया तो वहां पहुंचते ही राजेंद्र यादव जी ने पूछा, " क्यों गए वहां?" मेरे सिर हिलाने पर बोले, "कैसा लगा?" एक नया और बेहतरीन अनुभव रहा।क्योंकि वह अखबार में उस गोष्ठी की रिपोर्ट पढ़ रहे थे। डेढ़ सौ कवियों की भीड़ में विनीत तिवारी ने जो न्यूज में आठ दस नाम दिए थे उसमें संदीप अवस्थी का भी नाम था। मुझे संतोष हुआ कि देश भर से आए धुरंधर कवियों में नए विषय और मौलिकता से मेरी लेखनी ने अपनी जगह बनाई। वह भी एक मिनट से भी कम समय में। इससे यह धारणा और मजबूत हुई मुझमें की कंटेंट और कथ्य नया है तो आप एक मिनट में भी असर छोड़ सकते हो। आज भी करीब चौदह साल बीत गए मैं दर्जनों जगह गया हूं मुख्य अतिथि, वक्ता के रूप में और हर जगह निर्धारित समय में ही अपनी बात कही है। उसका असर भी हुआ श्रोताओं पर, दिखा भी।

उनसे हर बार मिलकर लगा कि यह अपनापन दुर्लभ है। हंस में मेरी कहानी "आर्टिस्ट " उन्होंने दो हजार तेरह अगस्त अंक में प्रकाशित की। वह एक युवा प्रोफेशनल किलर की कहानी थी जो एम फिल हिंदी दिल्ली से किया है। ऐसी बुनी गई, पता नहीं कैसे, की अंत में पाठकों की सहानभूति वह हत्यारा ले जाता है। उस कहानी पर बहुत बढ़िया नाटक बन सकता है।

 

यादव जी के यह धरती छोड़ने से छ माह पूर्व फोन पर लंबी बात हुई। हुआ यह एक परीक्षा के पाठ्यक्रम में उनकी कहानी, "जहां लक्ष्मी कैद है" लगी हुई थी। मैं लड़के लड़कियों को पढ़ा रहा था। पूछा, "क्या आप लोग इस कहानी के लेखक राजेंद्र जी से कहानी के बारे में जानना चाहेगे?"

सभी कुछ समझे फिर बड़े खुश हुए कि देश के इतने बड़े कथाकार, संपादक से सीधी बात होगी उनकी।

समय था बारह बजे के बाद का ।मैंने फोन लगाया। दो घंटी बाद ही देश के शीर्षस्थ रचनाकार और संपादक ने फोन उठाया। ( ऐसे लोग भी हैं जो दस दस बार फोन करने पर भी फोन नहीं उठाते?) मैने नाम बताया तो आत्मीयता से भरी, खरी, कड़क और गंभीर आवाज आई, " हां हां, तुम्हे जानता हूं। हर बार परिचय देने की जरूरत नहीं।" दुर्लभ है यह ईमानदारी। मैंने बताया कि इस कहानी को पढ़ा रहा हूं और युवा आपसे बात करना चाहते हैं। बात करवाएं?

"जरूर "

कहानी खूब पढ़ी थी उन लोगों ने।तो दो प्रश्न मैंने उन्हें दिए थे पूछने के लिए

यह कहानी आपने कब लिखी? और आज आप क्या परिवर्तन पाते हैं उस कहानी की विवाहित युवतम् नायिका लक्ष्मी के स्वरूप में?

सेल फोन का स्पीकर ऑन था।उनका जवाब और आवाज में हताश मुझे आज भी कानों में गूंजती है।

"यह कहानी मैंने पचास वर्ष पूर्व लिखी थी। परंतु आज भी कमोबेश स्थितियां वैसी ही हैं। स्त्री की दशा में देश में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। बड़े महानगरों तक की स्त्री स्वतंत्र और अपने फैसले नहीं ले सकती तो अस्सी फीसदी छोटे शहर या गांवों की स्त्री क्या लेगी फैसला?"

फिर पूछा गया, " हालात ठीक कैसे होंगे?"

उनका सटीक और ईमानदारी भरा जवाब था, " यह हालात खुद तुम्हे, स्त्री को, बदलने होंगे। कोई नहीं आएगा तुम्हे तुम्हारा हक या अधिकार देने। क्यों मांगना ? जो खुद तुम्हारा ही है और तुम्हारे पास। खुद आगे आना पड़ेगा ।"

क्लास में लड़के अलग सोच में गुम और लड़कियां अपने हालातों की इतनी सूक्ष्म और सच्ची व्याख्या सुन अपने अंदर झांकती हुई।

वह सच में विचारक, उत्प्रेरक और साथ देने वाले इंसान थे।उनके बारे में देश विदेश में बहुत कम चर्चाएं हुई हैं। बहुत होनी चाहिए और उस पर विश्लेषण भी होना चाहिए। हम माने या न माने लेकिन जो स्त्री स्वतंत्रता, फैसलों में भागीदारी और सशक्त नारी हम देख रहे हैं, उसकी नींव और विचार वह रख चुके थे।

नब्बे के दशक में वास्तविक स्त्री विमर्श की भारतीय सामाजिक और साहित्यिक जीवन में बहस प्रारंभ हो गई थी। सार्थक बहसें ही किसी नए विचार, नई नीति को जन्म देती हैं। परंतु जब तक खुद व्यक्ति न चाहे कुछ नहीं हो सकता। यही कमोबेश स्थिति हर जगह है कि लोग खुद कुछ नहीं करना चाहते। जो कुछ करना चाहता है उसे रोकते और उसी के खिलाफ हो जाते हैं।

यादव जी से मुलाकात कई मायनों में यादगार रही। बहुत कुछ वैचारिकी मैंने सीखी और सीखा बेहद विनम्र होना। नए से नया पढ़ना और उस पर काम भी करना।

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, कुछ किताबें और देश विदेश के पुरस्कार

804, विजय सरिता एनक्लेव, बी ब्लॉक, पंचशील, अजमेर, 305004

मो 7737407061, 8279272900)