वो कोई चौबीस–पच्चीस वर्ष की खूबसूरत सी लड़की दिखाई पड़ रही थी। तीखे नाक–नक्श और पथरायी हुई आँखें… जिनके कोरों से बहती अश्रुधारा उसके जीवित होने का प्रमाण दे रही थी।
वो घर के बाहर दरवाजे की चौखट से सटी खड़ी थी और अपलक उस आँगन को निहार रही थी, जहाँ उसके घर के किसी सदस्य की अंतिम यात्रा की तैयारी हो रही थी। पूरे घर में मातम पसरा हुआ था और हर ओर से जोर–जोर से रोने की आवाजें उठ रही थीं।
मेरे कदम यह दृश्य देखकर सहसा ठिठक गए। अनायास ही मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बनने चला गया। ठीक सामने वाली लाइन में एक परचून की दुकान थी, जहाँ जाकर मैं रुक गया।
मैंने दुकानदार से पूछा—“भाई साहब, सामने वाले घर में क्या हो गया है?
”दुकानदार ने गहरी साँस भरते हुए कहा—“वो घर सिंह साहब का है। उनका इकलौता बेटा आर्मी में था। बॉर्डर पर हुए हमले में शहीद हो गया है। अभी उसका शव सरकार और आर्मी के लोग लेकर आ रहे हैं। और देखो, जो लड़की दरवाजे की चौखट पर खड़ी है ना… वो उसी शहीद जवान की पत्नी है, नाम है ऋचा सिंह। सबसे बड़ा दुख उसी पर टूटा है। दो महीने पहले ही शादी हुई थी बेचारी की।
इनका परिवार सीहोर का है, भोपाल के पास। ऋचा यहाँ सरकारी स्कूल में अध्यापिका है।”यह सुनकर मैं सन्न रह गया। मेरे मन में बार–बार वही ख्याल उठ रहा था—इस छोटी सी उम्र में उस बेचारी महिला पर किन्तु मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है ।
मैं चूँकि इस मोहल्ले में नया था और किसी से अधिक पहचान नहीं थी, इसलिए थोड़ा हटकर खड़ा रहा।इसी बीच सेना की गाड़ी आ पहुँची। शहीद का पार्थिव शरीर उतारा जाने लगा।
अचानक वो लड़की दौड़कर पहुँची और ताबूत से लिपटकर फूट–फूटकर रोने लगी। तभी कुछ महिलाओं ने उसे संभाला और किनारे ले गईं।
कुछ ही देर में मंत्री जी का काफिला भी आ गया। मंत्री जी ने पार्थिव शरीर पर पुष्प चढ़ाए, फिर सिंह साहब को गले लगाकर बोले—“भाई साहब, हम भी आपके बेटे ही हैं। उसकी जगह तो हम नहीं ले सकते, पर आपको कभी भी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बस हमें एक बार याद कीजिएगा।”
अब अंतिम यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी। लगभग पूरा शहर उमड़ पड़ा था। शाम के लगभग चार बजे अंतिम संस्कार संपन्न हुआ। उसके बाद हम लोग फिर उसी घर के सामने लौटे।
अंतिम यात्रा में आए हुए लोग सिंह साहब को ढाँढस बँधाते और फिर धीरे–धीरे अपने–अपने घरों को लौटने लगे। मंत्री जी ने भी विदाई ली और चले गए।सुबह से जिस घर पर श्रद्धांजलि देने वालों का सैलाब उमड़ा हुआ था, वही घर शाम होते–होते इंसानों की परछाइयों को भी तरसने लगा।
सिंह साहब के घर से सारे लोग विदा ले चुके थे,मैं भी उनसे विदा लेकर अपने घर आ गया,जो उन्ही के सामने वाली लाइन में था।
घर आकर मैं अपने आप को मानसिक रूप से थका हुआ महसूस कर रहा था सो थकान मिटाने के लिए मैं किचन में चाय बनाने लगा और चाय लेकर बाहर आकर बरामदे में बैठ गया।
मेरे अवचेतन मन मे ये ख़्याल आ रहा था कि हम हिंदुओं के घर मे अंतिम संस्कार का कार्य कितना कठिन होता है और इस दाह संस्कार के बाद तेरहवीं तक मृतात्मा की शाँति के लिए कितने विधी विधान होते हैं और इस प्रक्रिया को सम्पूर्ण समाप्त करने में कितने लोगों की आवश्यकता होती है,लेकिन सिंह साहब के यहां कुल जमा 3 लोग ही हैं जिसमें सिंह साहब को अपने शहीद पुत्र को मुखाग्नि देने के चलते छुरी लोटा लेना पड़ता है जिस कारण से वो घर से बाहर कहीं आ जा नही सकते हैं। शेष बचे 2 लोग जो महिलाएं ही हैं,रिश्तेदार भी एक दो दिन के बाद ही आने चालू होंगे।
इन्हीं सब बातों विचार करते करते मुझे शाम हो गयी, फिर मैं शाम को अपने विकल मन के साथ टहलने निकल गया लेकिन मेरा मन कहीं नही लग रहा था। अब मेरे दिमाग मे एक बात और आने लगी भारत देश मे शहीदों को 2 दिनों तक नेता, मंत्री ,जनता और मीडिया याद करते नहीं थकते हैं, लेकिन उसके बाद उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं रहता।
इन सभी ख्यालों के साथ मैने अपने मन में एक फ़ैसला किया कि मैं ऐसा नहीं होने दूँगा और सिंह साहब और उनके परिवार की यथा संभव सहायता करूँगा, और इसी प्रण के साथ मैँ अपने घर आ गया।
दूसरे दिन की सुबह सुबह मैं सिंह साहब के घर पहुँचा और उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि जी मेरा नाम राहुल पाठक है और मैं यहीं आपके सामने वाली लाइन में रहता हुँ। मैं पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ और मैं सरकारी दफ्तरों के कंप्यूटरों का रख रखाव करता हूँ,आपके घर जो विपदा आन पड़ी है मैं उसे मिटा तो नही सकता लेकिन मेरे लायक कोई भी सेवा हो तो मुझे बताने का कष्ट करें। आपके वीर सपूत के जैसे लोगो के चलते ही हमारा भारत देश एवं हम जैसे यहाँ के निवासी सुरक्षित हैं। मैने अपने सारे काम अभी आगे के लिए टाल दिए हैं, और इतना कह कर मैं उनके सामने बैठ गया।
सिंह साहब ने मुझे बड़ी गौर से देखा,और कुछ देर तक सोचने वाली मुद्रा में बैठे रहे,फिर कुछ देर बाद सोचते हुए बड़े अनमने मन से बोले कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए। हम पर तरस खा कर कृप्या भगवान के लिए हमारा उपहास ना उड़ाइये।
उनकी बातों को सुनते हुए मैंने देखा कि उनकी पत्नी भी बाहर आकर खड़ी हो गयी हैं मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा कि मेरे मन मे किसी तरीके का कोई स्वार्थ नहीं है और मैं आपके पुत्र का कर्ज उतारने आया हूँ जो मेरी तरह के नौजवानो पर है और आप मुझे मेरा कर्ज उतारने से नहीं रोक सकते इतना कहते हुए मैं फिर से उसी स्थान पर बैठ गया जहाँ मैं पहले से बैठा हुआ था।
मुझे वहां बैठा देखकर सिंह साहब और उनकी पत्नी आपस मे कुछ चर्चा करने लगे और दोनों घर के अंदर चले गए,कुछ देर के बाद वो दोनों अपनी विधवा बहु के साथ बाहर निकले और मुझसे मुख़ातिब होकर बोले-------------
क्रमशः------------