दो रानियाँ, एक किस्मत
सन् 1533 की एक गर्मियों की सुबह इंग्लैंड के राजमहल में एक कन्या का जन्म हुआ। यह थी एलिज़ाबेथ, राजा हेनरी अष्टम और ऐन बोलिन की संतान। जन्म लेते ही उसके जीवन पर एक साया था—पिता की नज़र में पुत्र का जन्म न होना एक निराशा थी और माँ का राजनीतिक शत्रुओं से घिरा होना उसकी किस्मत को असुरक्षित बना गया।
कुछ ही साल बाद, 1542 में, स्कॉटलैंड की धरती पर एक और कन्या ने जन्म लिया। यह थी मैरी, स्कॉटलैंड की महारानी। उसका जन्म ही एक रानी के रूप में हुआ था। लेकिन रानी होना आशीर्वाद नहीं, बल्कि एक अभिशाप भी बन सकता है।
दोनों बच्चियाँ राजमहलों में पलीं, पर उनकी राहें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थीं। एलिज़ाबेथ, अपने अस्तित्व पर हमेशा प्रश्नचिह्न झेलती रही—वैध या अवैध? सुरक्षित या असुरक्षित? वहीं मैरी को बचपन से ही यह विश्वास दिलाया गया कि उसका भविष्य चमकदार है, उसका हक़ सिर्फ़ स्कॉटलैंड तक सीमित नहीं, बल्कि इंग्लैंड के सिंहासन पर भी है।
समय धीरे-धीरे बीता, लेकिन किस्मत ने दोनों को एक ही धागे में बाँध दिया—दोनों को एक ही ताज की छाया में जीना था।
एक बहन नहीं, पर खून से जुड़ी रिश्तेदार; एक दुश्मन नहीं, पर नियति से बनी प्रतिद्वंद्वी।
और इसी से शुरू होती है दो रानियों की वह कहानी, जिसमें सत्ता, धर्म, प्यार, विश्वासघात और मन की उलझनों का संग्राम था।
अध्याय 1 – बचपन और प्रतिद्वंद्विता के बीज
एलिज़ाबेथ का बचपन
लंदन के राजमहल की ऊँची दीवारों के भीतर छोटी एलिज़ाबेथ का बचपन एक खेल और डर के बीच बीता। वह राजकुमारी थी, लेकिन राजकुमारी होने का गर्व कभी उसे पूरी तरह महसूस नहीं हुआ। उसके जन्म ने राजा हेनरी अष्टम को खुश नहीं किया था। उन्हें चाहिए था एक पुत्र, जो वंश और साम्राज्य को आगे बढ़ाए।
जब एलिज़ाबेथ मात्र तीन वर्ष की थी, उसकी माँ ऐन बोलिन को देशद्रोह और व्यभिचार के आरोप में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। यह घटना उसकी नन्हीं स्मृतियों में गहरी छाप छोड़ गई। छोटी उम्र से ही उसने देख लिया था कि सत्ता की दुनिया में माँ का प्यार भी सुरक्षित नहीं होता।
लोग उसे अक्सर “नाजायज़” कहकर ताना देते। दरबार में उसका स्थान हमेशा संदिग्ध रहा। लेकिन एलिज़ाबेथ में एक अजीब जिद थी—वह पढ़ाई-लिखाई में डूब गई। लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, इटालियन—वह भाषाएँ सीखती चली गई। शायद वह अपने अकेलेपन को किताबों और ज्ञान में डुबो देना चाहती थी। धीरे-धीरे उसकी बुद्धिमत्ता सबकी नज़र में आने लगी।
फिर भी उसके भीतर हमेशा एक असुरक्षा रही: क्या मैं सच में रानी बन पाऊँगी? क्या मैं कभी सुरक्षित हो पाऊँगी?
मैरी का बचपन
इसी दौरान, दूर उत्तर में, स्कॉटलैंड की धरती पर मैरी का बचपन कुछ और ही रंगों में बीता। उसका जन्म ही रानी के रूप में हुआ। पिता, जेम्स पंचम, उसके जन्म के कुछ ही दिन बाद चल बसे। शिशु मैरी मात्र सात दिन की उम्र में स्कॉटलैंड की महारानी घोषित हो गई।
राजनीति ने उसके झूले को घेर लिया। स्कॉटलैंड के सरदार और इंग्लैंड की राजनीति, दोनों उसकी किस्मत तय करने लगे। उसके बचपन का अधिकांश समय फ्रांस में बीता, जहाँ उसे पढ़ाया-लिखाया गया, नृत्य और संगीत सिखाया गया, दरबार की शिष्टता का प्रशिक्षण दिया गया।
मैरी का जीवन बाहरी रूप से सुरक्षित था। वह सुंदर थी, आकर्षक थी, और आत्मविश्वास से भरी थी। उसे हमेशा बताया गया कि वह न केवल स्कॉटलैंड की, बल्कि शायद एक दिन इंग्लैंड की भी रानी बनेगी। यह विश्वास उसके व्यक्तित्व में गहराई से उतर गया।
फ्रांस में उसका विवाह राजकुमार फ्रांसिस से हुआ और कुछ समय के लिए वह फ्रांस की महारानी भी बनी। बचपन से ही उसे यह सिखाया गया था कि दुनिया उसके पैरों में झुकेगी।
पहली छाया
बचपन में दोनों ने एक-दूसरे को कभी प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा था, लेकिन दरबारों में उनके नाम बार-बार गूँजते थे। इंग्लैंड के दरबार में अक्सर कहा जाता, “अगर एलिज़ाबेथ को रानी बनने का हक़ नहीं है, तो इंग्लैंड का ताज मैरी का होना चाहिए।”
इसी बीच मैरी को भी सिखाया जाता, “तुम सिर्फ़ स्कॉटलैंड की नहीं, इंग्लैंड की असली वारिस हो।”
इस प्रकार बचपन से ही दोनों के मन में एक अदृश्य प्रतिद्वंद्विता का बीज बोया गया।
मनोवैज्ञानिक धरातल
एलिज़ाबेथ के भीतर भय, अकेलापन और असुरक्षा गहरी जड़ें जमा चुकी थीं। उसने बचपन से ही यह सीखा कि किसी पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता। यही कारण था कि आगे चलकर वह अपने दिल को हमेशा ताले में बंद रखेगी।
दूसरी ओर, मैरी का मन आत्मविश्वास और अधिकार से भरा हुआ था। वह सोचती थी कि उसे सब कुछ मिलना ही है। यही अति-आत्मविश्वास आगे जाकर उसकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित होगा।
दोनों की मानसिकता बचपन में ही अलग-अलग दिशा में ढल गई। एक ने सीखा “सावधानी और संदेह”, दूसरी ने सीखा “विश्वास और अधिकार”।
बचपन और प्रतिद्वंद्विता के बीज
युवावस्था की दहलीज़ पर एलिज़ाबेथ
समय बीता, और छोटी एलिज़ाबेथ धीरे-धीरे युवावस्था में कदम रखने लगी। उसके चारों ओर षड्यंत्रों का जाल फैला रहता। उसके सौतेले भाई एडवर्ड और फिर बहन मैरी (Mary Tudor) ने इंग्लैंड का ताज संभाला। मैरी के शासनकाल में एलिज़ाबेथ पर गहरी नज़र रखी गई।
कैथोलिक रानी मैरी को डर था कि प्रोटेस्टेंट इंग्लैंड एलिज़ाबेथ को अपना झंडाबरदार बना लेगा। एलिज़ाबेथ कई बार कैद हुई, उससे पूछताछ हुई, यहाँ तक कि एक बार उसे लंदन टॉवर की जेल में भी डाल दिया गया।
टॉवर की ठंडी दीवारों के बीच, एलिज़ाबेथ ने मौत को नज़दीक से देखा। हर सुबह जब फाँसी का ढोल बजता, तो उसे लगता कि शायद यह दिन उसका आख़िरी दिन है। लेकिन उसने सीखा कि जीने के लिए चेहरे पर धैर्य और मन में चुप्पी रखनी पड़ती है।
इस भयावह अनुभव ने एलिज़ाबेथ को और भी सतर्क और धैर्यवान बना दिया। उसने मन ही मन यह संकल्प ले लिया कि यदि कभी ताज उसके सिर पर आया, तो वह इसे किसी से छिनने नहीं देगी।
मैरी की वापसी
उधर, फ्रांस में जीवन बिताने के बाद मैरी अचानक अकेली पड़ गई। उसका पति, फ्रांसिस द्वितीय, अल्पायु में ही चल बसा। फ्रांस की गद्दी से उसका नाता टूट गया। अब उसे स्कॉटलैंड लौटना पड़ा, जहाँ सरदारों की गुटबाज़ी और धार्मिक संघर्ष उसका इंतज़ार कर रहे थे।
मैरी ने जब एडिनबर्ग की गलियों में कदम रखा, तो लोगों ने उसका स्वागत किया, लेकिन साथ ही उस पर उम्मीदों का बोझ भी डाल दिया। स्कॉटलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच खाई गहरी थी। मैरी, एक कट्टर कैथोलिक, खुद को संतुलन साधने वाली समझती थी, लेकिन उसकी नर्मदिल और भावुक प्रवृत्ति उसे जल्दी ही गलत फ़ैसले लेने पर मजबूर करती रही।
उसने जल्दी ही दूसरा विवाह किया, हेनरी लॉर्ड डार्नली से। लेकिन यह विवाह उसके लिए एक जाल साबित हुआ। डार्नली महत्वाकांक्षी, क्रूर और अविश्वसनीय निकला। उनके बीच का रिश्ता हिंसा और शक़ से भरा रहा। डार्नली की रहस्यमयी हत्या और फिर मैरी का बॉथवेल से विवाह, स्कॉटलैंड के सरदारों को उसके खिलाफ खड़ा कर गया।
लोग कहने लगे कि रानी ने ही पति की हत्या करवाई है। धीरे-धीरे मैरी का अपना साम्राज्य उससे छिनने लगा।
दोनों रानियों का पहला पत्राचार
इसी समय इंग्लैंड की गद्दी पर एलिज़ाबेथ बैठ चुकी थी। वह अब “गुड क्वीन बिस” कहलाने लगी। बुद्धिमान, सतर्क और अकेली।
मैरी, स्कॉटलैंड की रानी होते हुए भी, इंग्लैंड की गद्दी पर अपने हक़ का दावा कभी नहीं छोड़ती थी। इसी कारण दोनों रानियों के बीच पत्रों का सिलसिला शुरू हुआ।
एलिज़ाबेथ के पत्र लंबे, नपे-तुले और औपचारिक होते। उनमें हर शब्द सावधानी से लिखा जाता, जैसे कोई मोती चुन-चुनकर पिरो रहा हो।
मैरी के पत्र ज़्यादा भावुक, सीधे और आत्मविश्वास से भरे होते। वह बार-बार यह जताती कि दोनों चचेरी बहनों को एक-दूसरे पर भरोसा करना चाहिए।
लेकिन सच यह था कि इन पत्रों में लिखे शब्दों से ज़्यादा खामोशी बोलती थी।
एलिज़ाबेथ के दिल में डर था कि मैरी उसके खिलाफ साज़िश करेगी।
मैरी के दिल में विश्वास था कि इंग्लैंड का ताज एक दिन उसका होगा।
प्रतिद्वंद्विता की जड़ें और गहरी होती हैं
जब स्कॉटलैंड में सरदारों ने मैरी के खिलाफ विद्रोह किया और उसे ताज छोड़ना पड़ा, तो उसने सबसे पहले किसकी शरण ली? एलिज़ाबेथ की।
यहाँ से कहानी ने नया मोड़ लिया। अब दोनों रानियाँ आमने-सामने थीं, एक सिंहासन पर बैठी और दूसरी उसकी दहलीज़ पर शरण माँगती।
एलिज़ाबेथ के सामने सबसे कठिन सवाल खड़ा हुआ:
क्या वह अपनी चचेरी बहन को खुले दिल से अपनाए?
या
क्या वह उसे कैद कर दे, क्योंकि वही उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी है?
यहीं से शुरू हुआ वह लंबा संघर्ष, जो आने वाले सालों तक इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की राजनीति को हिलाता रहा।
अध्याय का मनोवैज्ञानिक सार
एलिज़ाबेथ और मैरी का बचपन उनकी मनोवैज्ञानिक नियति तय कर चुका था।
एलिज़ाबेथ, जिसने बचपन से असुरक्षा और कैद देखी, अपने मन को शक़ और धैर्य की दीवारों में बंद कर चुकी थी।
मैरी, जिसने बचपन से शक्ति और आत्मविश्वास पाया, हर हाल में जीत की उम्मीद करती रही, भले ही परिस्थितियाँ उसके खिलाफ क्यों न हों।
युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते दोनों एक-दूसरे की छाया बन चुकी थीं।
एलिज़ाबेथ को मैरी में अपना सबसे बड़ा ख़तरा दिखता था।
मैरी को एलिज़ाबेथ में अपना सबसे बड़ा अवरोधक।
और इसी टकराव ने आने वाले वर्षों में इतिहास की सबसे नाटकीय घटनाओं को जन्म दिया।
अध्याय 2 – ताज और परछाई
एलिज़ाबेथ का इंग्लैंड
1558 की सर्दियों में, जब एलिज़ाबेथ इंग्लैंड की रानी बनी, तो देश गहरे संकट में था। पिछले वर्षों में धार्मिक उथल-पुथल ने लोगों को थका दिया था। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच विभाजन इतना गहरा था कि हर नए शासक के साथ लोग अपनी आस्था बदलने को मजबूर हो जाते।
एलिज़ाबेथ ने सत्ता संभालते ही सबसे पहले यही समझा कि उसका अस्तित्व तभी सुरक्षित होगा जब वह इंग्लैंड को स्थिरता दे सके। उसने धर्म के मामले में बीच का रास्ता अपनाया—प्रोटेस्टेंट भी उससे पूरी तरह नाखुश न हों और कैथोलिक भी पूरी तरह विद्रोही न बनें। यह उसका पहला बड़ा राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक दाँव था।
उसने अपने दरबार को चुस्त-दुरुस्त बनाया। उसके सलाहकार, विशेषकर विलियम सेसिल, हर कदम पर उसकी मदद करते। लेकिन असली फ़ैसला हमेशा एलिज़ाबेथ का होता।
वह सावधान थी, धीमी थी, लेकिन जब कोई फ़ैसला लेती तो उस पर अडिग रहती।
एलिज़ाबेथ के मन में बचपन का डर अब भी ज़िंदा था। उसे हर समय साज़िशों का खतरा महसूस होता। लेकिन यही डर उसे सतर्क बनाए रखता। उसका शासन धीरे-धीरे इंग्लैंड को ताक़तवर बनाने लगा।
मैरी का स्कॉटलैंड
इसी समय स्कॉटलैंड में मैरी का राजकमल मुरझाने लगा।
डार्नली की हत्या के बाद, और बॉथवेल से विवाह करने के बाद, स्कॉटलैंड के कुलीनों का धैर्य टूट गया। लोग कहने लगे कि उनकी रानी अब उनके हित में नहीं, बल्कि अपने निजी स्वार्थ में डूबी है।
बगावत भड़क उठी। सरदारों ने मिलकर मैरी को कैद कर लिया और उसे गद्दी छोड़ने पर मजबूर किया। उसका छोटा बेटा, जेम्स छठा, स्कॉटलैंड का राजा घोषित कर दिया गया।
मैरी ने भागने की कोशिश की, पर हार गई।
आख़िरकार उसने सोचा कि उसकी एकमात्र उम्मीद इंग्लैंड है। उसने अपनी “चचेरी बहन” एलिज़ाबेथ को पत्र लिखा—
“प्रिय बहन, मैं तुम्हारे संरक्षण की आशा करती हूँ। हम एक ही खून से जुड़े हैं, हम एक-दूसरे की मदद करें।”
दो रानियाँ आमने-सामने
जब मैरी इंग्लैंड पहुँची, तो एलिज़ाबेथ के लिए यह सबसे कठिन क्षण था।
वह उसे अपनाती तो इंग्लैंड के कैथोलिक तुरंत मैरी को अपना झंडा बना लेते और एलिज़ाबेथ की गद्दी खतरे में पड़ जाती।
वह उसे ठुकराती तो यूरोप के कैथोलिक राजाओं को बहाना मिल जाता कि इंग्लैंड निर्दयी है।
आख़िरकार एलिज़ाबेथ ने वही रास्ता चुना जो उसकी आदत बन चुका था—सावधानी और दूरी।
उसने मैरी को स्वागत नहीं दिया, बल्कि नज़रबंद करवा दिया।
पहले मैरी को लगा कि यह अस्थायी है। वह सोचती रही कि एलिज़ाबेथ कुछ समय बाद उसे आज़ादी देगी। लेकिन धीरे-धीरे उसे समझ आया कि उसकी “बहन” उसे कभी खुली हवा नहीं देगी।
पत्र और मन की खामोशी
दोनों के बीच पत्राचार जारी रहा।
मैरी लिखती:
“मैं तुम्हारे विश्वास की आशा करती हूँ, बहन। हम दोनों औरतें हैं, पुरुषों की राजनीति ने हमें बार-बार मोहरा बनाया है। हमें एक-दूसरे का सहारा बनना चाहिए।”
एलिज़ाबेथ जवाब देती:
“तुम्हारे शब्द मुझे प्रिय हैं, लेकिन परिस्थिति कठिन है। मेरे राज्य की स्थिरता मेरी प्राथमिकता है। तुम्हारे मामले को हम धैर्य से देखेंगे।”
शब्दों के इस खेल में, एक का विश्वास और दूसरी का संदेह आमने-सामने खड़े थे।
मैरी हर पत्र में भावुक और आशावादी थी।
एलिज़ाबेथ हर पत्र में सतर्क और उलझी हुई।
मनोवैज्ञानिक परछाई
यहाँ से दोनों रानियों का रिश्ता और गहरा हो गया—लेकिन रिश्ते के रूप में नहीं, बल्कि परछाई की तरह।
मैरी की मौजूदगी ही एलिज़ाबेथ के शासन पर परछाई डालती थी।
एलिज़ाबेथ की शक्ति ही मैरी की आज़ादी की दीवार बन चुकी थी।
दोनों एक-दूसरे को देखे बिना भी हर पल एक-दूसरे के जीवन पर असर डाल रही थीं।
अध्याय का सार
इस दौर में:
एलिज़ाबेथ ने इंग्लैंड में स्थिरता की नींव रखी और सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की।
मैरी ने स्कॉटलैंड खो दिया और इंग्लैंड की कैदी बन गई।
दोनों के बीच “चचेरी बहन” का रिश्ता अब सिर्फ़ शब्दों तक सीमित रह गया।
अब उनके जीवन की कहानी “बहनों” की नहीं, बल्कि दो रानियों की लड़ाई बन चुकी थी।
अध्याय 3 – कैद की रानी
पहले दिन की उम्मीद
1568 की उस शाम को, जब मैरी ने इंग्लैंड की धरती पर कदम रखा था, उसके मन में उम्मीद की लौ जल रही थी। उसे विश्वास था कि एलिज़ाबेथ उसकी बहन की तरह उसे अपनाएगी, और शायद दोनों मिलकर इंग्लैंड और स्कॉटलैंड को जोड़ देंगी।
लेकिन यह उम्मीद जल्दी ही धुंधला गई।
एलिज़ाबेथ ने उसे खुले दरबार में स्वागत देने के बजाय कैद कर दिया। शुरुआत में यह कैद शाही थी—किलों में, आराम और नौकर-चाकरों के साथ। लेकिन कैद तो कैद होती है।
मैरी को लगा यह अस्थायी है। “कुछ महीनों में बहन मुझे समझ जाएगी।”
महीने साल में बदल गए। साल दशक में।
कैद का जीवन
मैरी के जीवन का अगला अध्याय कैदखाने की दीवारों के भीतर बीता। 19 साल लंबा इंतज़ार।
उसकी खिड़की से बाहर फैली इंग्लैंड की हरियाली उसे ताना देती।
वह अब भी रानी कहलाती थी, लेकिन उसकी रियासत सिर्फ़ एक कमरे और कुछ नौकरों तक सीमित रह गई थी।
समय-समय पर उसे अलग-अलग किलों में भेजा गया, ताकि कोई विद्रोह उस तक पहुँच न सके। हर जगह उसके चारों ओर पहरेदार होते, और उसके हर पत्र, हर बातचीत पर नज़र रखी जाती।
आशा और निराशा के बीच
कैद के बावजूद, मैरी का आत्मविश्वास जल्दी नहीं टूटा।
वह पत्र लिखती रही—यूरोप के कैथोलिक राजाओं को, पोप को, और यहाँ तक कि एलिज़ाबेथ को भी।
उसके पत्रों में कभी विनम्रता होती, कभी आक्रोश।
वह सोचती रही कि शायद कोई यूरोपीय राजा उसकी मदद करेगा।
शायद इंग्लैंड के कैथोलिक उसके लिए बगावत करेंगे।
शायद एलिज़ाबेथ का दिल बदल जाएगा।
लेकिन हर उम्मीद धुएँ की तरह गायब होती रही।
एलिज़ाबेथ का मनोवैज्ञानिक द्वंद्व
उधर एलिज़ाबेथ भी इस स्थिति से चैन में नहीं थी।
वह जानती थी कि मैरी का अस्तित्व ही उसके लिए खतरा है। इंग्लैंड के हर कैथोलिक विद्रोह का नारा था: “मैरी को रिहा करो, एलिज़ाबेथ को हटाओ।”
फिर भी एलिज़ाबेथ मैरी को मारने का फ़ैसला नहीं ले पा रही थी।
उसके भीतर अपराधबोध था—वह जानती थी कि दोनों खून से जुड़ी हैं।
वह जानती थी कि यदि उसने एक रानी को मार डाला, तो इतिहास हमेशा उसे दोषी ठहराएगा।
इसलिए उसने मैरी को जीवित रखा, लेकिन कैद में।
यह उसका संतुलन था—न पूरी स्वतंत्रता, न पूरी मौत।
कैद का मनोविज्ञान
साल दर साल बीतने लगे।
मैरी की जवानी धीरे-धीरे ढलने लगी।
उसकी सुंदरता, जो कभी फ्रांस के दरबार में चर्चा का विषय थी, अब कैद की नमी और अकेलेपन में मुरझाने लगी।
लेकिन उसके मन में अब भी एक लौ थी—उसका बेटा, जेम्स।
वह अक्सर सोचती, “यदि मैं मर भी जाऊँ, तो मेरा बेटा एक दिन इंग्लैंड और स्कॉटलैंड दोनों का राजा बनेगा।”
यही विचार उसे जीने की ताक़त देता रहा।
दूसरी ओर, एलिज़ाबेथ का अकेलापन और गहरा हो गया।
वह शादी से बचती रही, क्योंकि जानती थी कि पति आने पर उसका नियंत्रण कम हो जाएगा।
उसका पूरा जीवन एक रानी के रूप में बीता, लेकिन उसके निजी जीवन में खालीपन और अविश्वास की धुंध हमेशा रही।
दोनों रानियाँ – आईना और छाया
कैद के इन वर्षों में, दोनों रानियाँ कभी आमने-सामने नहीं आईं।
फिर भी वे हर दिन एक-दूसरे के बारे में सोचती थीं।
मैरी को लगता कि एलिज़ाबेथ उसकी सबसे बड़ी बाधा है।
एलिज़ाबेथ को लगता कि मैरी उसकी सबसे बड़ी छाया है।
वे दोनों एक-दूसरे के लिए आईना थीं—
एक ने सत्ता पाई लेकिन शांति खोई।
दूसरी ने सत्ता खोई लेकिन उम्मीद बनाए रखी।
अध्याय का सार
इस दौर में:
मैरी का जीवन कैद की दीवारों में सिमट गया, लेकिन उसके मन में ताज का सपना अब भी जिंदा था।
एलिज़ाबेथ ने इंग्लैंड की गद्दी को बचाए रखा, लेकिन उसका मन हमेशा भय और अपराधबोध में डूबा रहा।
दोनों के बीच रिश्ता अब सिर्फ़ *“कैद करने वाली” और “कैद की रानी” का रह गया।
इतिहास का यह सबसे लंबा इंतज़ार आगे जाकर सबसे नाटकीय मोड़ लाएगा—साज़िशें, विद्रोह और आखिरकार मौत का फैसला।
अध्याय 4 – साज़िशों का जाल
कैथोलिक उम्मीदें
मैरी को कैद में रखे हुए कई साल बीत चुके थे। यूरोप की राजनीति में वह अब भी एक महत्वपूर्ण नाम थी। पोप और स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय उसे इंग्लैंड का वैध उत्तराधिकारी मानते थे। उनके लिए एलिज़ाबेथ एक “ग़ैरक़ानूनी” रानी थी, क्योंकि पोप ने हेनरी अष्टम की दूसरी शादी (ऐन बोलिन से) को कभी स्वीकार नहीं किया।
इसलिए यूरोप की नज़रों में मैरी सिर्फ़ एक कैदी नहीं थी—वह इंग्लैंड की “आशा” थी, एक कैथोलिक इंग्लैंड की।
इंग्लैंड के भीतर भी कैथोलिक गुप्त रूप से उसका नाम लेते। वे सोचते, “एक दिन मैरी आज़ाद होगी और इंग्लैंड में फिर से कैथोलिक चर्च का राज होगा।”
पहली साज़िशें
इन्हीं उम्मीदों से जन्म लिया कई षड्यंत्रों ने।
नॉर्दर्न रिबेलियन (1569) में इंग्लैंड के कैथोलिक कुलीनों ने विद्रोह किया और चाहा कि मैरी को आज़ाद करके रानी बना दिया जाए। यह विद्रोह कुचल दिया गया, लेकिन एलिज़ाबेथ का डर और गहरा हो गया।
फिर पेरिस से लेकर रोम तक, हर जगह योजनाएँ बनने लगीं कि कैसे एलिज़ाबेथ को हटाकर मैरी को गद्दी पर बैठाया जाए।
हर नई योजना के साथ एलिज़ाबेथ के सलाहकारों की नज़रें और पैनी होती गईं।
बॅबिंगटन प्लॉट
1586 में वह साज़िश सामने आई जिसने इतिहास की दिशा बदल दी।
एंथनी बॅबिंगटन नाम का एक युवा कैथोलिक षड्यंत्रकारी गुप्त रूप से मैरी से संपर्क करने लगा। योजना थी:
एलिज़ाबेथ की हत्या,
मैरी की रिहाई,
और उसके बाद कैथोलिक इंग्लैंड का पुनर्निर्माण।
बॅबिंगटन और उसके साथी गुप्त पत्रों के ज़रिए मैरी तक पहुँचे।
इन पत्रों में उनसे उम्मीद की गई थी कि वह साज़िश को समर्थन देंगी।
मैरी ने जवाब में लिखा—
“यदि एलिज़ाबेथ हट जाए और मुझे आज़ाद किया जाए, तो मैं इंग्लैंड का ताज स्वीकार करने को तैयार हूँ।”
यही पंक्तियाँ उसके भाग्य पर ताले की तरह जड़ गईं।
एलिज़ाबेथ की दुविधा
एलिज़ाबेथ तक ये पत्र पहुँचे—लेकिन सीधे नहीं। उसके गुप्तचर प्रमुख सर फ्रांसिस वालसिंघम ने यह सब पहले ही जाल की तरह बिछाया था। उन्होंने मैरी के पत्र गुप्त रूप से पकड़े और सबूत तैयार किया।
जब पत्रों को एलिज़ाबेथ के सामने रखा गया, तो उसका चेहरा सफेद पड़ गया।
वह जानती थी कि यह सिर्फ़ साज़िश नहीं थी, बल्कि उसके जीवन और गद्दी पर सीधा वार था।
फिर भी, उसका मन काँप उठा।
“क्या मैं सचमुच अपनी ही चचेरी बहन को मौत की सज़ा दूँ? क्या मैं इतिहास में खून से लिखी जाऊँगी?”
लेकिन उसके सलाहकारों ने कहा—
“रानी, यदि आप अब भी संदेह करती रहीं, तो इंग्लैंड कभी सुरक्षित नहीं होगा।”
मनोवैज्ञानिक द्वंद्व
मैरी ने अपने जीवन में पहली बार महसूस किया कि उसके शब्द अब उसके लिए हथकड़ी बन चुके हैं।
वह जो उम्मीद से लिखती थी, वही उसके गले का फंदा बन गया।
कैद की दीवारों में वह बार-बार सोचती—
“क्या मैंने वाकई यह लिखा? या यह जाल था?
क्या मेरी उम्मीद ही मेरी मौत की वजह बनेगी?”
दूसरी ओर एलिज़ाबेथ हर रात बेचैन होकर करवट बदलती।
वह कहती—
“यदि मैं इस पर दस्तखत कर दूँगी, तो दुनिया कहेगी कि मैंने एक रानी की हत्या कराई। यदि मैं न करूँ, तो शायद वह एक दिन सचमुच मेरा अंत कर दे।”
अध्याय का सार
इस अध्याय में:
मैरी की उम्मीदें अब गुप्त षड्यंत्रों पर टिकी थीं।
बॅबिंगटन प्लॉट ने उसके भाग्य का फैसला तय कर दिया।
एलिज़ाबेथ मनोवैज्ञानिक तौर पर फँसी रही—बहन बनाम शत्रु, रिश्तेदारी बनाम सुरक्षा।
अब कहानी उस निर्णायक मोड़ की ओर बढ़ रही है जहाँ ताज और खून का संघर्ष एक अंतिम फैसला माँगेगा।
अध्याय 5 – अंतिम न्याय
मुक़दमे की शुरुआत
अक्टूबर 1586, फॉदरिंगे कैसल।
मैरी को लंबे इंतज़ार के बाद एक ऐसे कमरे में लाया गया जहाँ सख़्त चेहरों वाले अंग्रेज़ न्यायाधीश और दरबार के लोग बैठे थे।
उस पर आरोप था—इंग्लैंड की रानी एलिज़ाबेथ की हत्या की साज़िश में शामिल होना।
सबूत थे—बॅबिंगटन को भेजे गए उसके पत्र।
मैरी ने सबकी आँखों में आँखें डालकर कहा—
“मैं इंग्लैंड की प्रजा नहीं हूँ। मैं स्कॉटलैंड की रानी हूँ। मुझे आपके क़ानून से नहीं, बल्कि ईश्वर से न्याय चाहिए।”
उसके स्वर में डर नहीं था। वह जानती थी कि उसका जीवन अब धूपघड़ी की तरह आख़िरी रेत गिन रहा है।
मनोवैज्ञानिक प्रतिरोध
मुक़दमे के दौरान मैरी ने बार-बार अपनी गरिमा को ढाल बनाया।
“मैंने कभी एलिज़ाबेथ के ख़िलाफ़ हत्या का आदेश नहीं दिया। यदि किसी ने मेरे नाम पर कुछ किया है, तो वह मेरी जानकारी के बिना हुआ।”
लेकिन अंग्रेज़ न्यायालय के लिए ये तर्क पर्याप्त नहीं थे।
वे उसे दोषी साबित करना चाहते थे, क्योंकि एलिज़ाबेथ की सुरक्षा दाँव पर थी।
अंदर से, मैरी शायद जानती थी कि यह खेल पहले ही तय हो चुका है।
फिर भी उसने हार नहीं मानी। उसने खुद को एक “पीड़िता” के रूप में प्रस्तुत किया, ताकि उसका नाम भविष्य में एक शहीद की तरह लिया जाए।
एलिज़ाबेथ का अंतिम द्वंद्व
मुक़दमे के बाद जब दोष सिद्ध हो गया, तो सारे दस्तावेज़ एलिज़ाबेथ के सामने रखे गए।
सिर्फ़ उसके हस्ताक्षर बाकी थे।
वह दस्तावेज़ को देखती रही। कलम हाथ में थी, पर हाथ काँप रहा था।
“क्या मैं सचमुच अपनी ही चचेरी बहन के नाम पर यह आदेश लिख दूँ? क्या मैं इतिहास में वही कहलाऊँगी जिसने एक रानी को मारा?”
उसके सलाहकार वालसिंघम और सेसिल ने कहा—
“रानी, यदि मैरी जीवित रही तो षड्यंत्र कभी ख़त्म नहीं होंगे। इंग्लैंड की शांति आपकी कठोरता पर टिकी है।”
घंटों की चुप्पी के बाद, एलिज़ाबेथ ने दस्तख़त कर दिए।
लेकिन स्याही सूखते ही उसके मन पर बोझ और गहरा हो गया।
मैरी का आख़िरी दिन
8 फरवरी 1587 की सुबह।
फॉदरिंगे कैसल के भीतर एक बड़ा हॉल सजाया गया। बीच में एक काला मंच और उस पर लाल कपड़ा बिछा था।
मैरी को जब लाया गया तो वह शांति से चल रही थी। उसने लाल मखमली गाउन पहना था—क्योंकि लाल रंग कैथोलिक शहादत का प्रतीक था।
वह मंच पर पहुँची और कहा—
“मैं निर्दोष हूँ। मैं मरते दम तक कैथोलिक रहूँगी। ईश्वर एलिज़ाबेथ को माफ़ करे, क्योंकि वह नहीं जानती कि वह क्या कर रही है।”
फिर वह घुटनों पर बैठी, आँखें बंद कीं और प्रार्थना की।
एक झटके में तलवार चली।
इंग्लैंड की सबसे बड़ी कैदी अब इतिहास बन चुकी थी।
एलिज़ाबेथ की प्रतिक्रिया
जब समाचार एलिज़ाबेथ तक पहुँचा, तो उसने क्रोध से कहा—
“मैंने यह आदेश इतनी जल्दी लागू करने को नहीं कहा था।”
यह सच था या सिर्फ़ अपराधबोध की आड़—किसी को कभी पता नहीं चला।
पर यह निश्चित है कि उस दिन से एलिज़ाबेथ का चेहरा बदल गया।
वह पहले की तरह आत्मविश्वास से नहीं हँस पाती थी।
रातों में बेचैन होकर बिस्तर पर करवटें बदलती थी।
क्योंकि उसने ताज को तो बचा लिया, पर मन की शांति खो दी।
अध्याय का सार
मैरी ने मुक़दमे में बहादुरी दिखाई और खुद को “शहीद” के रूप में पेश किया।
एलिज़ाबेथ ने अंत तक संकोच किया, पर राज्य की सुरक्षा के लिए आदेश पर हस्ताक्षर किए।
मैरी की मौत ने उसे एक कैथोलिक शहीद बना दिया और एलिज़ाबेथ को एक एकाकी शासक।
अध्याय 6 – विरासत और मनोवैज्ञानिक अंत
मैरी की मौत के बाद का तूफ़ान
8 फरवरी 1587 को जब मैरी का सिर कटने की ख़बर यूरोप पहुँची, तो कैथोलिक दरबारों में गुस्से की लहर दौड़ गई।
फ्रांस, जहाँ मैरी ने बचपन बिताया था, ने इसे “कैथोलिक धर्म पर हमला” कहा।
स्पेन का राजा फ़िलिप ने तो एलिज़ाबेथ को गिराने के लिए स्पैनिश आर्मडा की तैयारी शुरू कर दी।
मैरी की मौत उसके शत्रुओं के लिए राजनीतिक मुद्दा बन गई, लेकिन उसके समर्थकों के लिए वह एक शहीद थी।
उसका नाम अब नफ़रत नहीं, बल्कि आस्था और बलिदान से जुड़ा हुआ था।
एलिज़ाबेथ का अकेलापन
एलिज़ाबेथ ने बाहरी दुनिया में खुद को मज़बूत दिखाया।
उसने इंग्लैंड को स्थिर किया, कला और साहित्य को बढ़ावा दिया, और अपने शासन को “स्वर्ण युग” कहा जाने लगा।
लेकिन भीतर से वह कभी भी मैरी की छवि से मुक्त नहीं हो सकी।
कभी-कभी देर रात दरबारियों ने देखा कि वह अकेली खिड़की से बाहर देख रही होती और बुदबुदाती—
“क्या सचमुच मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था?”
वह अपने जीवन भर अविवाहित रही। लोग उसे “कुँवारी रानी” कहते रहे, लेकिन असल में यह उसकी अकेलेपन की दीवार थी।
मैरी की मौत के बाद उसका मन और भी भारी हो गया।
मैरी की विरासत
मैरी मर चुकी थी, लेकिन उसकी विरासत ज़िंदा रही।
उसका बेटा, जेम्स षष्ठम (James VI of Scotland), आगे चलकर इंग्लैंड का राजा बना—
वही ताज, जिसके लिए उसकी माँ को कैदी बनना पड़ा और जान देनी पड़ी।
इस तरह, मौत के बाद भी मैरी ने अपनी जगह बनाई।
उसकी हारी हुई ज़िंदगी ने उसके बेटे की जीत सुनिश्चित की।
मनोवैज्ञानिक अंत
दोनों रानियाँ असल में एक-दूसरे की छाया थीं।
मैरी, भावनाओं और धर्म की शक्ति का प्रतीक थी।
एलिज़ाबेथ, तर्क और राजनीति की ठंडी मज़बूरी का।
वे दोनों बहनें नहीं थीं, लेकिन नियति ने उन्हें ऐसे रिश्ते में बाँधा जहाँ न तो वे पूरी तरह दोस्त हो सकीं, न पूरी तरह दुश्मन।
मैरी की मौत ने एलिज़ाबेथ को सत्ता तो दिलाई, पर मन को असुरक्षित कर दिया।
और एलिज़ाबेथ की संकोची क्रूरता ने मैरी को एक जीवित रानी से अधिक प्रभावशाली मृत शहीद बना दिया।
ताज बनाम मन
इतिहास ने एलिज़ाबेथ को “महान शासक” कहा और मैरी को “कैथोलिक शहीद।”
लेकिन अगर दोनों के दिल में झाँका जाए, तो यह कहानी ताज जीतने की नहीं, बल्कि मन हारने की है।
एलिज़ाबेथ ने ताज बचाया पर रात की नींद खो दी।
मैरी ने ताज खोया पर मौत में गरिमा पा ली।
इसलिए उनकी कहानी सिर्फ़ सत्ता की नहीं, बल्कि मानव मन की त्रासदी है।
समाप्त