वक़्त का खेल.
बरसात की रात थी। आसमान कड़क रही बिजली से गूँज रहा था, और मिट्टी की झोपड़ी की टूटी छत से पानी टपक रहा था। उसी छत के नीचे बैठी नेहा अपने पुराने कंबल में लिपटकर पढ़ाई कर रही थी। सामने जलती टिमटिमाती लालटेन उसकी किताब के पन्नों पर मुश्किल से रोशनी फैला रही थी। पास में बिस्तर पर लेटे उसके पिता रामलाल बार-बार खाँसते और दर्द से कराहते। एक हादसे ने उनकी कमर छीन ली थी, और अब वे घर के लिए कुछ नहीं कर सकते थे। रोज़ी-रोटी का सारा बोझ उसकी माँ सावित्री देवी के कंधों पर था, जो सुबह से शाम तक लोगों के घरों में बर्तन माँजतीं और कपड़े धोतीं।
नेहा की आँखों में आँसू भर आए थे, मगर उन आँसुओं के पीछे उम्मीद की आग जल रही थी। उसने माँ का हाथ पकड़कर कहा –
“माँ, एक दिन मैं सब बदल दूँगी। यह टूटा घर भी एक दिन पक्की हवेली बनेगा। आपको मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।”
सावित्री देवी ने उसकी आँखों को चूमा और धीरे से कहा –
“बेटी, गरीब का सपना भी अमीर होता है। बस हिम्मत मत हारना।”
उस रात नेहा देर तक पढ़ती रही। शायद उसकी किताबों में वही रोशनी छिपी थी, जो उसके अंधेरे घर को उजाला दे सकती थी।
इसी वक्त दिल्ली के साउथ एक्स इलाके में, संगमरमर से सजे एक बड़े से घर में पूजा मल्होत्रा बैठी थी। उसके कमरे की दीवारों पर महंगे पेंटिंग्स, टेबल पर डिज़ाइनर बैग्स और आभूषण बिखरे थे। उसके पिता विक्रम मल्होत्रा करोड़पति उद्योगपति और माँ सुषमा मल्होत्रा सोसायटी की चेयरपर्सन थीं। पूजा को कभी भूख या तंगी का मतलब समझ में नहीं आया था। उसके पास सबकुछ था – दौलत, शोहरत, आराम – मगर पढ़ाई में वह हमेशा कमजोर रही।
कभी-कभी वह आईने में खुद को देखती और सोचती –
“पढ़ाई में चाहे जितनी भी कमजोर हूँ, लेकिन मैं अमीर हूँ। दुनिया मेरी है।”
किस्मत का खेल देखिए, दिल्ली यूनिवर्सिटी ने इन दोनों अलग दुनियाओं की लड़कियों को मिला दिया। नेहा स्कॉलरशिप पर वहाँ पहुँची थी, और पूजा अपने पैसे की ताक़त पर। पहली बार जब पूजा ने नेहा को सादे कपड़ों में देखा, तो हँसते हुए बोली –
“ओह, तो यह है हमारी क्लास की स्कॉलरशिप वाली टॉपर? गरीब लोग बड़े सपने क्यों देखते हैं? यह दुनिया अमीरों की है।”
नेहा ने गहरी साँस लेकर शांति से जवाब दिया –
“सपने गरीब या अमीर के नहीं होते, पूजा। सपने तो मेहनती लोगों के होते हैं। वक्त बदलते देर नहीं लगती।”
उस दिन से दोनों की राहें बदल गईं। दोस्ती की जगह यहाँ से दुश्मनी शुरू हुई।
कॉलेज खत्म हुआ। पूजा को लगा कि पिता का बिज़नेस ही उसके लिए काफी है। मगर नेहा ने ठान लिया कि वह अपना कुछ बनाएगी। उसने एक नया आइडिया निकाला – “ईको ब्रिक्स” – जहाँ प्लास्टिक के कचरे को रिसाइकिल कर मज़बूत और सस्ती ईंटें बनाई जाती थीं। लोग हँसते, मजाक उड़ाते – “कचरे से ईंट बनेगी? कौन खरीदेगा?” – लेकिन नेहा हार मानने वालों में से नहीं थी।
पूजा ने भी एक लक्ज़री फैशन ब्रांड लॉन्च किया। उसकी दुनिया चमक-धमक से भरी थी – पार्टियाँ, शो-रूम, मीडिया इंटरव्यू। मगर उसके भीतर कहीं डर था –
“अगर नेहा सच में सफल हो गई तो…?”
वक्त गुज़रा। धीरे-धीरे नेहा की कंपनी बढ़ने लगी। पर्यावरण संगठनों ने उसकी तारीफ की। सरकार ने उसे बुलाकर सम्मानित किया। दूसरी तरफ पूजा ने लालच में नेहा से पार्टनरशिप की और बाद में उसे धोखा देकर कंपनी से बाहर निकाल दिया।
उस रात नेहा अकेली कमरे में बैठी थी। आँखों से आँसू गिर रहे थे। उसने आईने में खुद को देखा और कहा –
“नेहा, धोखा आज मिला है। लेकिन कल यही धोखा तेरी ताक़त बनेगा। तू हारने के लिए नहीं बनी।”
कुछ सालों बाद नेहा का सपना सच हो गया। उसकी कंपनी देशभर में फैल गई। सरकार ने उसे ग्रीन अवार्ड से नवाज़ा। अख़बारों में उसका नाम छपने लगा। वहीं, पूजा का ब्रांड कर्ज़ में डूब गया। नकली प्रोडक्ट्स और गलत कारोबार उजागर हुए। उसका साम्राज्य ढह गया। करोड़ों की कोठी बिक गई, गहने बिक गए, और कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले मल्होत्रा परिवार की हालत इतनी खराब हो गई कि सड़क पर आना पड़ा।
बरसाती शाम थी। नेहा बस स्टॉप पर खड़ी थी, हाथ में फाइल और आँखों में थकान लिए। तभी उसने देखा – पूजा और उसके माता-पिता, फटे पुराने कपड़ों में भीगते हुए, बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे।
पूजा की आँखों से आँसू बह निकले। उसने सिर झुका लिया और धीमी आवाज़ में कहा –
“नेहा… मुझसे गलती हो गई। मैंने तुम्हें धोखा दिया। घमंड ने मुझे अंधा कर दिया। आज वक्त ने सब छीन लिया।”
नेहा ने उसकी ओर देखा, आगे बढ़ी और उसका हाथ थाम लिया।
“पूजा, वक्त का यही खेल है। कभी कोई ऊपर, कभी कोई नीचे। लेकिन याद रखना – धोखा देकर कोई ऊपर नहीं उठता। ऊपर वाला सब देखता है।”
उस पल पूजा की आँखों में शर्म भी थी और सच्चाई का एहसास भी।
नेहा ने उसे अपनी कंपनी में काम दिया। धीरे-धीरे पूजा ने सीखा कि मेहनत और ईमानदारी ही असली ताक़त है। अब दोनों की ज़िंदगियाँ अलग थीं। एक ने मेहनत से अमीरी पाई थी, और दूसरी ने अहंकार से गरीबी। मगर इस बार नफरत नहीं, बल्कि एक सीख थी।
ज़िंदगी का सबसे बड़ा सबक यही है – वक्त हर किसी का बदलता है। दौलत और शोहरत वक्त के मेहमान हैं, लेकिन इंसानियत और मेहनत ही वो दौलत है जो कभी खत्म नहीं होती।
✍️ लेखक – Akash Singh.