Samiksha - Jab Se Aankh Khuli Hai in Hindi Book Reviews by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | समीक्षा - जब से आंख खुली है - लीलाधर मंडलोई - जीवंत स्मृतियों का शिलालेख

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समीक्षा - जब से आंख खुली है - लीलाधर मंडलोई - जीवंत स्मृतियों का शिलालेख

                 एक कहावत है कि एक असफल लेख़क एक अच्छा समालोचक होता है । मैं भी अपने आप को इसी कोटि में रखकर पुस्तकों की समीक्षाएं लिखता रहता हूं। अभी मैने आकाश वाणी के महानिदेशक पद से सेवा निवृत्त श्री लीला धर मंडलोई की लिखी आत्मकथा "जब से आँख खुली है " पढ़ी |उन की लेखन शैली से बहुत प्रभावित हुआ हूँ |इस उम्र में उन की स्मृतियों की भी सराहना करता हूँ जिन्हें उन्होंने इस पुस्तक में जीवंतता दी हैं | लेकिन जो बात प्राय:खटक  रही है वह  है लेखक द्वारा भूख, अभाव  का अनवरत वृत्तान्त  |इन्होंने अपने बचपन में भूख से दो दो हाथ नहीं बल्कि चार चार हाथ किये हैं यह पुस्तक पढ़ते हुए प्रतीत हुआ |लेखक चाहते तो इस दीनता हीनता को भूल भी सकते थे लेकिन यह उन का बड़प्पन है कि इन्होंने उन्हें यथावत मूर्तमान होने दिया |यह उन के औदार्य व्यक्तित्व का भी प्रतीक है | मित्रों, मैंने इस पुस्तक की समीक्षा लिखने की कोशिश की है, पढ़ कर बताइएगा यह समीक्षा कैसी लगी?

             अपनी  दो खंडों की आत्मकथा “आमी से गोमती तक “ और “गोमती तुम बहती रहना “ लिखने के दौरान मैंने आकाशवाणी से जुड़े ढेर सारे लोगो की आत्मकथा पढ़ी  है।ऐसे मे मंडलोई जी की आत्मकथा “जब से आँख खुली है “ को  भी पढ़ना  मेरे लिए आवश्यक  था । इस पुस्तक के प्रति आकर्षण का एक और कारण था | मंडलोई जी जैसा  बहुचर्चित शख्स , जिनका बचपन कोइलरी खदान के इर्द-गिर्द मे बीता हुआ  हो , उनका उन संघर्षों से जूझते हुए आकाशवाणी  के  सर्वोच्च महानिदेशक पद तक पहुंचना और सकुशल सेवानिवृत्त हो जाना और उसके बाद लेखन, पठन - पाठन मे तत्पर रहना मेरे लिए सुखद आश्चर्य से कम नहीं  रहा । मै भी आकाशवाणी  की सेवा में 36 वर्षों तक  रहा हू , पद पाने ,काम करने और पदोन्नति पाने तथा काजल की  कोठारी में बिना  दाग  निकाल आने के कठिन तम दौर से गुजरा हूँ |महानिदेशक के  उनके कार्यकाल के दौरान  और उसके बाद भी ।लेकिन मेरा उनसे कोई वास्ता नही रहा। महानिदेशालय जाना भी हुआ तो उनसे कनिष्ठ अधिकारियों के लेवल से मन्तव्य पूरा हो गया |वैसे अपना वास्ता होना भी नही था। कहां एक अदनी सी पोस्ट (कार्यक्रम अधिकारी) पर मै और कहा  आकाशवाणी के शिखर पर बैठे वे ! लेकिन मन ही मन प्रसन्न अवश्य था कि अर्से बाद विभाग से और वह भी लिखने पढ़ने वाला व्यक्ति आकाशवाणी का मुखिया बना । प्रसार भारती बनने के उस दौर में (अब भी) इन रचनात्मक प्रवृत्ति के पदों पर आई. ए . एस . किंवा नौकरशाह को बैठाने का सिलसिला चल पड़ा था और वर्षों कार्यक्रम निर्माण से जुड़े गुणी और अनुभवी लोगों को अवसर नहीं मिल पाता था |इसी संदर्भ में एक और रोचक बात |श्री लीलाधर  का तो नहीं किन्तु  अपनी कार्य शैली से आकाशवाणी के छोटे से बड़े पद तक कार्यरत दर्जनों  लोगों की धड़कन बढ़ाते रहने वाले  श्री गंगाधर (मधुकर) का सानिध्य मुझे अपनी सेवाकाल में  इलाहाबाद (अब प्रयाग राज )  में कुछ महीनों का अवश्य मिला है |वे भी लिखने पढ़ने वाले थे और उन्होंने विभाग के सबसे छोटे पद प्रसारण अधिकारी पर कार्यरत स्व. बजरंगी तिवारी और सबसे बड़े पद महानिदेशक पद पर कार्यरत (स्व. अमृत राव शिंदे ) जैसे व्यक्तियों से  भी दो दो हाथ करने में कोई  शील- संकोच नहीं किया  था | अब पुस्तक के बारे में | मंडलोई जी मुख्यत: कवि हैं |मध्यप्रदेश के छिंद वाड़ा के गुढी  नामक गाँव में 1954 में जन्मे ,बी.ए. ,एम.ए., बी.एड ,पत्रकारिता की पढ़ाई और लंदन से प्रसारण विधा में उच्च शिक्षा सी.आर. टी. की डिग्री ली |कविता संग्रह में घर घर घूमा,रात बिरात ,मगर एक आवाज,देखा अदेखा,ये बदमस्ती तो होगी ही , देखा पहली दफा देखा, उपस्थित है समुद्र प्रमुख हैं तो अंडमान निकोबार की लोक कथाएं,पहाड़ और पारी का सपना,चाँद का धब्बा,पेड़ भी चलते हैं,बुन्देली लोक रागिनी आदि गद्य साहित्य की  कृतियों के बाद यह आत्मकथा आई है |उनके काव्य पर शोध भी हुआ है और अंडमान निकोबार द्वीप समूह की एक लोक कथा ततारा वामीरों दसवीं कक्षा की एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में भी शामिल है |उनके हिस्से दर्जन भर पुरस्कार आए |कविताएं  तो उनकी इस आत्मकथा में भी झाँकती  नजर आती है |

                        सतपुड़ा के जंगलों में विस्थापित होकर पहुंचे कोयला खान के मजदूरों के परिवार के इर्द गिर्द घूमती इस आत्मकथा में वह सब कुछ है जो पाठक अधीर होकर पढ़ना चाहेंगे |हो सकता है आने वाली पीढ़ियाँ इन बातों पर विश्वास न कर सकें कि उन दिनों की ज़िंदगी हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद कितनी असहाय हो सकती है | लेखक के आत्मकथा की यह पहली पुस्तक है जिसमें उन दिनों के संघर्ष के ये अमर शब्द साक्षी बन कर उपस्थित हैं |आमुख में लेखक ने लिखा है कि” कथक की भाषा में कहूँ तो स्मृतियों का यह आख्यान ‘ततकार’ का तरह है|मेरे पाँवों में बचपन के अनेक घुँघरू बंधे हैं |मैं उनकी लय  और ताल में होना चाहता हूँ |यहाँ संभवत: लेखक का मन्तव्य लय  और ताल में निबद्ध होने से है |लेखक के कालेज पहुँचने और छोड़ने तक यानि 74-75 तक का रोचक वृत्तान्त इस पुस्तक में  पैसठ अध्याय में वर्णित है |

               लेखक अपने माँ  और पिता से ही नहीं अपने भाई बहनों से भी बेइंतेहा प्यार  करता है | उसके लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती थी क्योंकि वह बचपन से देश,काल और पात्र के प्रति बहुत ही  संवेदन शील रहा | छिंदवाड़ा और दमुआ की कोइलरी उन सभी परिवारों की आजीविका थी |ना कायदे का आवास , न भरपेट भोजन और स्वास्थ्य की सुविधाएं  |निजी मालिकान की शोषणवादी मानसिकता और मजदूर यूनियनों का नाकारा पन |

             अध्याय पाँच में लेखक ने हिरेया दादा को याद करते हुए घर चलाने के लिए अपने श्रम को  मिट्टी के गुटके बनाने के लिए समर्पित करने का मजेदार प्रसंग लिखा है |खासतौर से मजदूरन लीला के लिए  आकर्षण का प्रसंग |लिखते हैं “उसके उठने और झुकने में जैसे धनुष की सी मुद्रा बनती | झुकते समय उसके गोल मटोल स्तनों के ऊपरी हिस्सों पर पसीने की  उभर आई बूंदें चिलकतीं |.. पिंडलियाँ अलग से चमकतीं |”

             आगे वन्य जीवन के सजीव स्मरणीय चित्रों  को शब्द दिया गया है |सतपुड़ा के सिवनी जिले के पृष्ठभूमि मे लिखी गई “द जंगल बुक “ने इनकी उत्सुकता बढ़ा दी  और प्रकृति के इन अनुपम उपहारों को ये आत्मसात करने लगे |जैसा दादा भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा  था कि “सतपुड़ा को जियो,सतपुड़ा को पढ़ो और लिखो “ वैसा ही लेखक ने किया  भी |पंद्रहवें अध्याय में लेखक ने उन दिनों के सामाजिक भेदभाव की ओर इशारा किया है जिसके चलते उन्हें सवर्ण जाति  के एक लड़के का क्रोधभाजन भी होना पड़ा था और उस घटना का असर यह हुआ कि वे आज भी कहते हैं कि “देश में बहुत कुछ बदला ,यह गर्राना कभी कम न हुआ |” आज के परिदृश्य में शायद लेखक की इस बात पर सवर्णों की सहमति न बन सके |                                                     अध्याय सत्रह में हम उम्र रज्जो की चर्चा है जो अपनी भूख मिटाने के लिए पिसान के चने  या दाने बेपरवाह ढंग से तो खाती ही थी ताजा पिसा  हुआ आन्टा भी खा  लेती थी| यह दृष्टांत उन दिनों उस वर्ग के लोगों की बर्बर भूख का है,पेट की ज्वाला शांत करने का अकल्पनीय उदाहरण भी  | अध्याय बाईस में माँ द्वारा ज्वार की रोटियों के साथ गुड़  परोसे जाने का रोचक वर्णन  और उसका दूरगामी प्रभाव है जिसमें लेखक ने लिखा है-“एक ढेला या टुकड़ा हाथ पर अब भी पड़ने पर स्वादेइंद्रियाँ   इस तरह जागती हैं जैसे चंद्रमा हंस पड़ा हो आसमान पर |तारे छिटक पड़े हों |हवाएं बहने लगी हों और दूर बैठी माँ की लोरी आत्मा में  गूंज उठी हो दिग्दिगंत में |स्वाद की इस स्मृति से आज भी हर मिठाई हमेशा हार जाती है |”अध्याय तेईस में पीर घनेरी मजदूर बस्ती का रोचक चित्र है तो पच्चीस में दोस्ती के बंद दरवाजों पर दस्तक देने का भावुक प्रसंग |इसका अंतिम पैरा तो बहुत ही मर्मस्पर्शी है जिसमें यह पीड़ा व्यक्त करते लिखा गया है कि” मेरे भीतर का एक कोना मर चुका है |और उसके कारण जाने और कितने कोने |” अध्याय उनतीस आज नई पीढ़ी की माताओं के समक्ष कुछ आग उगलते प्रश्न उछाल रहा है जिसमें मातृत्व सुख और शिशु के अमृत आहार की चर्चा है |अध्याय सैंतीस  में गोरखपुरिया मजदूरों का नाम आया है ,गोरखपुर जो मेरा जन्म स्थान है |अध्याय छियालीस में एक राम प्रसाद उर्फ़  एक्टर चाचा का जिक्र है जिनके जीवन में रेडियो सब कुछ था |लेखक निसंकोच यह स्वीकारते हैं  और लिखते हैं कि “चाचा के फिल्मी ज्ञान का ट्रांसफर मेरे भीतर हुआ पता नहीं ,लेकिन भीतरी सतहों पर वह इतना प्रभावी था कि मैं रेडियो में नौकरी के बारे में सपने देखने लगा |”

        अध्याय सत्तावन में मिशन स्कूल की सहपाठी किरन के साथ कैशोर्य उम्र के प्यार का वृत्तान्त है जिसकी परिणति लेखक के अनुसार “उन दिनों इतना ही मिलने और लौट जाने के लिए होता था |हमारी तब कोई मंजिल न होती थी |उम्र बीतते समझ में आया कि उसका कोई ‘आसावरी’ सपना होता  था |”अध्याय उनसठ में लेखक ने पानी ढोती बुन्देली गीत गाती  स्त्रियों और इंजीनियर श्रीकिसन कक्का की  मजेदार  जीवंत यादें हैं लेकिन क्रेच में कुछ बिताए गए दिनों और उसकी    आया की मार खाने की घटना को  लेखक द्वारा झटपट निपटा दिया गया है |अध्याय साठ बहुत छोटा लेकिन बहुत ही  सार्थक है जिसमें लेखक ने वाइल्ड लाइफ प्रेम का संदर्भ दिया है |अध्याय इकसठ में लेखक के पारिवारिक जीवन के सुख दुख के मिले जुले कई प्रसंग  हैं तो बासठ में परदा , गरदा और ज़र्दा के लिए मशहूर शहर भोपाल की यादें हैं |अंतिम अध्याय पैसठ में लेखक की काव्यमय अभिव्यक्ति ने मन को छुआ |

“ ज़िंदगी का अर्थ इम्तहान है

इम्तहान के कई रूप कई मानी हैं

यह हमने कालेज से निकलते ही

जीवन की पहली लड़ाई में जान लिया था          

ज़िंदगी ने इम्तहान  लेना नहीं छोड़ा

हम अब भी  उसके कालेज के इम्तहान में हैं !”

           राजकमल पेपर बैक्स से छपी  246 पृष्ठों की इस पुस्तक का आवरण  स्वयं लेखक ने तैयार किया है और इसका मूल्य रुपये तीन सौ पचास है |लेखक ने आंचलिक शब्दों का भरपूर उपयोग किया है जैसे – बनत-बुनत , उछरते , खीसे,आधी शीशी ,मूत अटोनी ,मोड़ा ,भुगतमान,तिर्यक, सेताब,बिलमाके आदि । लेकिन जगह जगह “बहुत” की जगह “बहोत”  शब्द का प्रयोग खटक रहा है |इसके अलावे कुछ वाक्य तो दिल को छू छू गए-“चूड़ियों के भीतर से संगीत की कोई नदी बहती थी जो बारामासी थी,” “भूख ने कमसिन अंगड़ाई ली” , “इस धुआँ  धुआँ  शाम के हुस्न के किसी एक लम्हे को पकड़ कर रोशन करने वाले अल्फ़ाज़ कहाँ,” मसरूफ़ जमाने की मारामारी .. “, “इस जीवित स्मृति में कितना कुछ जीवित और सुगंधित है ,मैं जानता हूँ “,”बचा रहे उनके आँचल में दूध.. “,ये पंख भर नहीं इनमें चित्रकारी के सुंदर पाठ हैं”,”आग का सो जाना एक तरह से भाग्य का सो जाना था “,”सेमल का पेंड एक ऐसी उजली स्मृति है जिसके कारण बसंत है ,तकिया हैं,नींद और सपने !”,माँ  धरती हो जाती “,और भोपाल जागता था तो सरोकार भी “ आदि | लेकिन  अध्याय 19 के पृष्ठ 83 पर एक जगह उपयोग में लाया गया एक शब्द ( कबाड़न ) मुझे खटक रहा है जो शायद कमाने की जगह प्रयुक्त  हुआ है |

           पुस्तक पढ़ते हुए लेखक के आगे के दिनों (विशेषकर आकाशवाणी में व्यतीत) को जानने की उत्सुकता बनी हुई है क्योंकि मैं स्वयं आकाशवाणी में रहा हूँ और तमाम तरह के दबाबों के बीच विभाग के मुखिया के रुप में लेखक की ज़िंदगी किन  मोड़ों से गुजरी इस बारे में उत्सुकता बनी हुई  है |

        अंत में एक वाक्य में मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा कि मैं अब तक पढ़ी गई कुछ सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक मैं इसे मान  रहा हूँ |