about you.. in Hindi Short Stories by Firoze books and stories PDF | तुम्हारे बारे में..

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तुम्हारे बारे में..

(1)

कमरे में सब कुछ कितना बेतरतीब और बिखरा हुआ सा पड़ा है। ऐसा लगता है, जैसे कोई बहुत दिनों तक इस कमरे को देखने नहीं आया। पहले सोचा कि इसे एक तरतीब में सजा दूँ, मैंने हाथ बढ़ाया ही था की अचानक हाथ वहीँ थम गए याद आया की यह बिखराव, अपने भीतर कितनी सारी यादों का जमावड़ा लिए हुए है। इसलिए मैंने कुछ भी तरतीब में सजाने की कोशिश नहीं की और सीधे खिड़की के पास जाकर बैठ गया। बाहर बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। मैं भीगने के लिए खिड़की से बाहर हाथ बढ़ाने ही वाला था कि अचानक वो बात फिर से याद आयी — भीतर सब बिखरा पड़ा है।


(2)

आजकल मैं तुम्हें उड़ती गर्म चाय की भाप में महसूस करता हूँ। उस वक़्त, उस भाप में बनता तुम्हारा चेहरा मुझे बिल्कुल उदास नज़र आने लगता है। मैं उस भाप को एक लंबी साँस के साथ भीतर खींच लेता हूँ, जैसे मैं तुम्हारी सारी उदासी समेट लेता हूँ, और बाहर बचे धुएँ के मरगोलों को देखकर ज़ोर से हँस देता हूँ। तुम मेरे ही भीतर उदास-सी पड़ी रहती हो। बाहर छोड़ी गईं साँसे एक भाप से मेरा उदास चेहरा उकेरने लगती हैं। एक खोखली कल्पना जन्म लेती है, और भीतर की वास्तविकता बाहर का दृश्य खा जाती है।

फिर उसी वक़्त एक धुंधली-सी रोशनी मेरी आँखों पर पड़ती है, वह मेरी पलकों को चुपके से ढक देती है। उस वक़्त ऐसा लगता जैसे मैं तुम्हारी चुनरी की छाँव में पड़ा हूँ। जैसे तुम मेरे ऊपर आने वाली धूप को काली घटा बनकर समेट लेती हो। जैसे तुम मुझे मेरे भीतर देख लेती हो — अपने उदास, अलसाए चेहरे से...

पर मैं भीतर पड़ी उस छाँव को बहुत देर तक सँभाल नहीं पाता हूँ, जैसे मैं तुम्हारे आँचल को कभी बहुत देर तक सँभाल नहीं पाया था। 'ये भी स्थायी नहीं हैं' — इस डर से मैं उस धुंधली रोशनी से दूर भाग जाता हूँ, और बाहर पड़ रही धूप में छककर बैठ जाता हूँ। और समेट लाता हूँ अपनी कोरी वास्तविकता। भीतर की खोखली कल्पना को कमरे के भीतर ही टहलने देता हूँ।

और पा लेता हूँ — अपना एकाकी अस्तित्व।

(3)

अपने पैरों को बहुत धीमे से उसने आगे बढ़ाया और अचानक पीछे सिरक गया... 'घबराहट' — यह शब्द उसके कानों में गुंजने लगा। वह कांप रहा था। वह डरते हुए दो-तीन कदम आगे चलकर मेरे पास आ गया। मेरे कोरे पन्नों की सफेदी उसकी आँखों में चमकने लगी थी।

उसने मेरे हाथ से पेन लिया और खिड़की से बाहर फेंक दिया। कोरे पन्नों को उठाकर वह पढ़ने लगा। वह कमरे में दांय-बांय टहल रहा था। तीन-चार पन्नों पर थूक कर उसने उन्हें फाड़ दिया और खिड़की से बाहर फेंक दिया।

मेरी ज़ुबान पर पत्थर सा जम गया था, मैं कुछ बोल नहीं पाया। वह घबराता हुआ फिर से मेरे पास आ गया... और मेरे कानों में फुसफुसाने लगा... "घबराहट... घबराहट... घबराहट..." — वह मंत्र की तरह यह शब्द कहते हुए दो-तीन कदम पीछे सिरक गया, और मेरी तरफ गौर से देखने लगा।

"क्या?" मैंने कहा।

"घबराहट..."! उसने नहीं कहा, लेकिन उसके होंठ इसी शब्द पर अटके थे। वह बहुत कुछ कह देना चाहता था लेकिन चुप था।

"तीन पन्ने..." — मैंने उसकी तरफ तीन उँगलियाँ दिखा कर इशारा किया।

अचानक यह देखकर वह मेरे बिलकुल पास आ खड़ा हुआ और तीन पन्ने पलट दिए... मूझे घबराहट होने लगी थी .. मैंने वह किताब बंद कर दी। 

(4)

रौशनी' — मेरे यह कहते ही उसकी आँखें चमकने लगीं। मैं अँधेरे में खड़ा था। मैं उसके पास जाना चाहता था और बताना चाहता था कि "मैं अँधेरे में हूँ", लेकिन वह मुझसे बहुत दूर खड़ी मुझ पर हँस रही थी, जैसे उसे मेरा अंधेरा नज़र नहीं आया। वह दो क़दम मेरी ओर चलती और अचानक रुक जाती। मैंने उसे आवाज़ दी — "यहाँ अंधेरा है, मैं दिख जाऊँगा, मैं दिखने से डरता हूँ।" यह सुनकर वह दो क़दम पीछे हट गई। उसने अपनी आँखें बंद कर ली। यह देखकर मैं घबरा गया।

कुछ देर की ख़ामोशी के बाद अचानक उसने आँखें बंद करके फिर से मेरी ओर चलना शुरू किया। वह लड़खड़ाते हुए, रेंगते हुए मेरी ओर बढ़ने लगी। मैं सहम गया और पीछे हट गया। मेरे पीछे हटते ही उसने कहा — "अंधेरा", और मैं अचानक उसके बिल्कुल पास आ गया। उसने मुझे अपनी बाँहों में कसकर दबोच लिया — और अचानक अदृश्य हो गई।

(5)

कच्चे घर की सीढ़ियों पर एक लड़की बैठी हुई मिलती है।
"वह उदास है..." मैंने गली मैं चलते-चलते अपने पैरों से कहा और रुक गया I

वह लड़की अपने घुटनों पर सिर रखकर कुछ बुदबुदाती हुई अपनी बाहों से मुँह को छुपा लेती है और नीचे ज़मीन को देखने लगती है। फिर अचानक वह मेरी ओर देखती है। मैं डर जाता हूँ और फिर से चलना शुरू कर देता हूँ।

वह अपनी आँखों को क्षणभर के लिए बंद करके एकाएक पूरा खोल लेती है।
"उसकी आँखों में नमी है..." मैंने अपने दोनों पैरों से फिर से कहा और गली से थोड़ी दूर चलकर अहाते में ही बैठ गया।

वह आश्चर्य से मुझे घूरने लगती है।
कुछ देर तक घूरने के बाद वह अचानक खड़ी हो जाती है और मेरी ओर चलना शुरू कर देती है।

यह देखकर मैं चौंक जाता हूँ।
"लगता है उसे मुझ पर शक हो गया..." यह कहते हुए मैं खड़ा हो जाता हूँ और गली की ओर वापस जाने लगता हूँ।

वह लड़की किसी चमत्कार की तरह अदृश्य सी होकर अचानक मेरे बिलकुल बगल में आकर खड़ी हों जाती है।
"तुम उदास हो?" वह कहती है और मेरे माथे पर हाथ फेरती हुई मेरे बाल सहलाने लगती है।

वह अचानक पूरी झुककर, अपने दोनों हाथों से मेरे घुटनोँ को कसकर पकड़ लेती है और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है।
मैं छटपटाता सा उसे कहता हूँ — "मैं उदास नहीं हूँ... मैं नहीं जाऊँगा तुम्हें छोड़कर..." पता नहीं मैं यह क्यों कहता हूं....

यह सुनकर वह खड़ी हो जाती है और मेरी तरफ मुस्कुराकर मेरी आँखों में गौर से लगती है।
वह मेरे बालों पर फिर से हाथ फेर कर मेरे सर को अपनी और खिंच लेती है और कसकर मेरा माथा चूम लेती है।

मैं उससे कुछ कहना चाहता हूँ, लेकिन मेरी जीभ मेरे नियंत्रण से बाहर हो जाती है और किसी पत्थर की तरह ऊपरी तालु पर पसर जाती है।
मैं "हूँ... हाँ..." जैसे शब्द निकालता ही हूँ कि —

"चिं... चिं..."

...की ध्वनि मेरे कानों में पड़ती है।
और मैं जाग जाता हूँ।

मैं देखता हूँ कि खिड़की पर एक चिड़िया धागों में उलझकर घायल पड़ी हुई है..

(6)


आज अचानक मुझे अपना माथा सहलाते हुए तुम्हारा स्पर्श महसूस हुआ —
वो जादू सा, जब तुम मेरे सिरहाने के पास देर तक बैठकर
मेरा माथा सहलाया करती थी,
अपनी कोमल उंगलियों के सिरों को कसकर दबाते हुए।

"अब ठीक हो न?.. अब कोई तकलीफ़ तो नहीं है न?..
अब कुछ दर्द कम हुआ तुम्हारा "? तुम कहती...

मैं जानबूझकर — "ना" — मैं जवाब देता,
और तुम यह सुनकर हँसते हुए मेरा माथा चूम लेती, और बैठी रहतीं,
तब तक, जब तक मुझे नींद नहीं आ जाती थी। लेकिन आज अचानक मेरे माथे में बहुत दर्द उठ रहा है, लेकिन अब तुम पास नहीं हो। तुम बहुत दूर जा चुकी हो । वापसी की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं।

मेरे माथे का दर्द इतना बढ़ गया है कि वह हृदय तक आ पहुँचा है। शरीर के सारे अस्थिपंजर बिखर चुके हैं। मै थककर चूर हो चुका हूँ,
अपने ही बनाए घर को अपनी आँखों के सामने बनते-बिगड़ते देख रहा हूँ -जिसके मलबे से उठती धूल में मुझे तुम्हारा चेहरा उतना ही धुँधला नज़र आ रहा है, जितना तुम्हारा जाते वक़्त यह कहना —
"जल्द ही वापस आऊँगी... अपना ख़्याल रखना..."


(7)

आज शाम कुछ बहुत निरस घट रहा है,
जैसे पुरानी पड़ी चिट्ठियों से पीला पानी टपक रहा है।
ऐसी शामें अक्सर भीतर को खरोंच देती हैं — बेरहमी से,
और बाहरी दृश्य को ऐंठ देती हैं।

स्मृतियाँ धीरे-धीरे कोरे कागज़ की ओर बढ़ने लगती हैं।
गहरी साँस के साथ कुछ बूँदें बहुत धीमे से गालों से झड़ने लगती हैं,
और टपक... टपक कर तुम्हारा चित्र उन कोरे कागज़ों पर बना देती हैं।

"अब क्यों आई?"
मैं उस चित्र की ओर झिड़कते हुए कहता हूँ।

"तुम्हारे आँसू पोंछने..."
हवा से चलती बूँद की धार से यह हल्का सा उस कोरे कागज़ पर नज़र आता है।

उस वक़्त पन्ना झाड़ने के सिवा मेरे पास कोई उपाय शेष नहीं रहता...
मैं उस भीगे हुए पन्ने पर लिखने लगता हूँ —
"मुझे अब तुम्हारे आने न आने से फ़र्क़ नहीं पड़ता...
तुम मेरे भीतर तक समा गई हो — बहुत पहले।
ऐसा लगता है, मुझमें मैं नहीं,
सिर्फ़ तुम ही तुम हो..."

यह लिखते-लिखते अचानक शाम से रात हो जाती है।
घड़ी की सुई बहुत तेज़ी से उस घंटे की ओर बढ़ने लगती है जब हम मिला करते थे।
अचानक मेरे हाथ में पड़ा वो पन्ना गल जाता है —
जिसमें बहुत धुंधले अक्षरों में लिखा है...
...."अंत"

और मूझे अपनी कहानी को शुरुआत दिखने लगी I