स्थान: राजगढ़ गाँव की सीमा पर, वीरान हवेली
समय: रात 2:10 बजे
बिजली की तेज़ चमक ने आसमान को चीर दिया। हवेली की टूटी दीवारें, पुरानी खिड़कियाँ और जंग लगे गेट एक पल को रोशनी में नहाए। हवा की सिसकारी भीतर तक घुस आई। बांस के पेड़ टकरा रहे थे और उनकी टहनियों की खड़खड़ाहट से रात और डरावनी लग रही थी।
राजगढ़ गाँव की वो हवेली अब वीरान थी — या शायद ऐसा सिर्फ लोग मानते थे।
भीतर एक कमरा था, जहाँ एक धुंधली रौशनी जल रही थी। उस कमरे के बीचोंबीच खून के छींटे बिखरे हुए थे। पास में एक आदमी बैठा था, जिसके हाथ में भीगा हुआ कपड़ा था। वो धीरे-धीरे फर्श से खून पोंछ रहा था।
उसका चेहरा शांत था। डर या पछतावा जैसे उस चेहरे से कोसों दूर था। ऐसा लग रहा था जैसे ये कोई पहली बार नहीं कर रहा।
तभी पीछे से किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। आवाज़ धीरे-धीरे पास आ रही थी।
"तूने कहा था सिर्फ डराना है!"
एक औरत की कांपती हुई आवाज़ उभरी। वो दरवाज़े के पास खड़ी थी। चेहरे पर सफेद साड़ी, और आँखों में भय।
"मैंने कहा था... लेकिन हालात बदल गए," आदमी ने जवाब दिया। उसकी आवाज़ गहरी और ठंडी थी — जैसे उसमें कोई भाव ही न हो।
"तूने उसे मार डाला?"
"उसने देखा… और बोल भी सकता था।"
उसने झुककर पास पड़ी फाइल उठाई। उस पर खून के छींटे थे।
"अब ये सबूत नहीं बचने चाहिए।"
दीवार पर टंगी एक पुरानी तस्वीर हटा दी गई — उसके पीछे एक गुप्त लॉकर था। लॉकर खुला हुआ था। अंदर कुछ आधी जली फाइलें, कुछ पुराने दस्तावेज़ और एक नक्शा पड़ा था।
आदमी ने एक के बाद एक कागज़ उठाए और मिट्टी के चूल्हे में डालने लगा।
"किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि मामला नंबर 1387 में क्या था।"
"वो औरत... जिसने गवाही दी थी...?"
"वो अब शहर से बाहर जा चुकी है। और ये हवेली..."
उसने इधर-उधर देखा, जैसे यकीन दिला रहा हो —
"अब यहाँ कोई नहीं आएगा।"
फिर उन्होंने मिलकर लाश को एक प्लास्टिक शीट में लपेटा। धीरे-धीरे वो उसे घसीटते हुए हवेली के पीछे वाले पुराने कुएं की तरफ ले गए। रात की हवा भारी हो चुकी थी। हर चीज़ चुप थी — जैसे खुद रात ने भी साँस रोक ली हो।
“इस रात की बात यहीं दफन हो जाएगी…”
उस आदमी ने कहा, जैसे किसी पाप पर अंतिम शब्द पढ़ रहा हो।
🌅 साल 2024 – वर्तमान समय
राजगढ़ अब बदल चुका था।
जहाँ पहले कच्चे रास्ते थे, वहाँ अब सीमेंट की सड़कें थीं। हवेली अब भी वहीं थी — वैसी ही टूटी, वैसी ही खामोश।
लेकिन उस हवेली के आस-पास के माहौल में कुछ बदल चुका था। गाँव के कुछ लोग कहते थे, “रात के तीसरे पहर वहाँ से अजीब-सी आवाज़ें आती हैं।”
कुछ ने तो ये भी कहा — “वहाँ किसी की परछाई चलती है।”
पुलिस रिकॉर्ड में "मामला नंबर 1387" अब बंद केस माना जाता था — अज्ञात अपराधी, गवाह गायब, और सबूत अधूरे।
लेकिन...
एक नई आँखें अब उस पुराने सच को टटोलने जा रही हैं।
एक पत्रकार — प्रेरणा राठौड़, जो मानती है कि
“कोई भी रहस्य इतना गहरा नहीं कि सच्चाई उसकी तह तक न पहुँच सके…”
हवेली फिर से जी उठेगी।
कहानी फिर से बोलेगी।
और जो चेहरे अब तक अंधेरे में थे…,
अब सामने आने वाले हैं।