वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानीएक हफ्ते से ऐसी मूसलाधार बारिश, जैसे किसी ने आसमान पर सेंध लगा दी होए, पर अब लगा की ज़रा उसका आक्रोश कम हुआ तो कुछ बूंंदे ही गिर रही थीं। धुले कपड़े सूखे नहीं। फर्श अभी गीला-गीला। हर जगह कुकुरमुत्ते उग आए थे। सुधा ने खिड़की से बाहर झांका और झुंझला कर बुदबुदाई, "क्या बला है ये बारिश? बादल गुब्बरों की तरह फट रहे हैं।"मैं तो पक्के ईटों वाले घर में रहते- रहते इतनी ऊब गई तो झुग्गियों में बसे लोग इस त्रासदी को कैसे झेल रहे होंगे। अपने घर से बोरी ओढ़कर आई महरी अब बोली, "बैठने के लिए भी कोई जगह नहीं... फूस की छत टूट गई है और बारिश का पानी घर के अंदर गिरने लगा है... क्या करूं? मेरे बाल बच्चे तड़प रहे हैं।"तो सुधा उसकी कठिनाइयां समझ पाई। "घर में पानी हो तो एक काम कर। अपने बच्चों को लेकर हमारे कार शेड में आकर सो जा।" उसने कहा। "मेरी हालात तो फिर भी ठीक है, मां जी। नदी किनारे बसे लोगों की झोपड़ियों में तो पानी घर के अंदर बहने लगा है... कह रहे हैं बाढ़ आने वाली है... अब क्या करें? कहते-कहते अपने काम में व्यस्त वह हो गई। दो दिनों में नदी में किसी भी क्षण बाढ़ के भय से त्रस्त हैं लोग। कहते हैं इस सूचना का लाउडस्पीकर से ऐलान हो गया है। फिर भी सुना है कई गांव के लोग झुग्गियां ख़ाली नहीं कर रहे। "बाढ़ नहीं आने वाली... बेकार ही डरा रहे हैं।" कलेक्टर साहब ने लोगों को समझाने की कोशिश करी तो भी कहां मानने वाले यह लोग? अधिकतर ने उनकी बात अनसुनी कर दी... कह रहे हैं कुछ नहीं होगा। अगले दिन दोपहर सुधा के पति अविनाश लौटे। चेहरा उतरा हुआ था। राम गंगा में बाढ़ आ गई है। लोग चीख़ते- चिल्लाते बाहर भाग रहे हैं... दृश्य भयानक है," उन्होंने कहा। सुधा नदी से पांच मील दूर रहती थी। उसने बिना कुछ कहे तुरंत कार में अविनाश के साथ चलने की हामी भर दी।रामगंगा नदी के तटवर्ती इलाके में ज़्यादातर ग़रीब किसान या मज़दूर परिवार बसे थे। राजपथ से गुज़रते हुए सड़क किनारे एक अंतहीन भीड़ दिखी - जूट की चटाईयां, बोरे, मिट्टी के घड़े, बोरी की गठरिया और अपने बाल बच्चों सहित हज़ारों लोग - साइकिल पर अपने परिवार को ढोते हुए, यह काठ के ठेली पर गाय- बकरी, सामान, परिवार जैसे बिना किसी भेदभाव के आते हुए कुछ लोग दिखाई पड़े। - बच्चों की चीख़े, बुढ़ों की कराह, और औरतों का विलाप मानो बादलों को चीरता हुआ ऊपर जा रहा था। तभी सुधा ने देखा - एक टीन के बक्से के पास बैठी औरत, तीस, पैंतीस बरस की होगी। फटी साड़ी, बिखरे बाल, लाल-लाल आंखें। उसके पास एक छोटी बच्ची थी, और वह औरत सिर पटक-पटक कर रो रही थी। सुधा उसके पास गई, "क्या हुआ बहन?"मानो किसी सहानुभूति के शब्दों के इंतज़ार में थी वह, ज़ोर की रूलाहट से फूट पड़ी।उसने आंसुओं के बीच टूटी आवाज़ मैं कहा, 'मेरा राजा... मेरा बेटा... बह गया...!"नाम था उसका शीला। बताने लगी - "बाढ़ का शोर हुआ...'भागो- भागो' की चीख़ें। मैं बेटे को गोदी में उठाकर, बेटी का हाथ पकड़ कर निकल ही रही थी कि याद आया, मचान पर तीन सेर चावल रखे हैं। भूखे रहेंगे हम सब। सोचा जल्दी से ले लूं। बेटी को पड़ोसी के साथ भेजा, बेटे को बरामदे में बैठाया, और खुद चावल लेने गई। लौटकर आई तो देखा पानी बढ़ गया था... और मेरा राजा बह गया!"सुधा स्तब्ध रह गई। इतने से चावल के लिए उसने अपने बेटे को गंवा दिया?अविनाश ने गुस्से में पूछा, "क्या अकल नहीं थी? चावल के लिए बेटे को अकेला छोड़ दिया?"वह रोती रही, "क्या करती, बाबू जी? अगले पहर के लिए भोजन न हो तो क्या करें? यह वजह थी जी, खाने को कुछ न होता तो मरते भी हम ही...।"सुधा ने अविनाश से उसे सौ रुपए देने को कहा। उसने अनसुनी कर दी और बाढ़ का नज़ारा देखने लगा।घर लौट कर सुधा की आंखों में आंसू छलक आए। उसने रूंधे गले से अविनाश से कहा, "आप बद्दुआ लेते हैं, इसीलिए हमारा बच्चा कोख में मर गया, अब मैं कभी मां नहीं बनूंगी! क्या ज़रूरत थी उस मां के ज़ख्म पर नमक छिड़कने की, जिसने अपना बच्चा खोया है? उसे सौ रुपए दे देते तो आपका ख़ज़ाना ख़ाली हो जाता...?""तीन सेर चावल के लिए बेटा गंवा देने वाली मां की छवि अविनाश की आंखों में नाचने लगी। सुधा के कहे शब्द कानों में घंटियों की तरह बजने लगे।"तभी किसी ने गेट की बेल बजाई। अविनाश बाहर गए फिर अंदर जाकर बोले, "बाढ़ पीड़ितों को पास के स्कूल में शरण दी है। खाना जुटाने के लिए लोग मदद दे रहे हैं। हम आधी बोरी चावल दे दे...?" सुधा ने धीरे से सिर हिला दिया। तीसरे दिन सुबह, टीवी पर एक ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी - "रामगंगा नदी के पास बाढ़ में बहा एक साल का बच्चा चमत्कारिक रूप से बच गया। एक पेड़ की डाल में अटका मिला। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है। उसके गले में ताबीज़ और और मोती की डिब्बी देखकर लोगों ने उसकी पहचान की। उसकी मां का पता अब तक नहीं चल पाया है।"सुधा उछल पड़ी, "यह तो वही बच्चा हो सकता है!"अविनाश ने अस्पताल का पता किया और वे तुरंत वहां पहुंचे।शीला पहले ही वहां पहुंच चुकी थी। गोदी में उसका 'राजा था -कमज़ोर लेकिन ज़िंदा।वह फूट-फूट कर रो रही थी, पर आंसुओं में थोड़ी राहत थी। सुधा ने पास जाकर उसे गले लगा लिया। तभी डॉक्टर ने शीला से कहा, "बच्चे के फेफड़ों में पानी भर गया है। पानी नहीं निकाला गया तो यह मर जाएगा।""डॉक्टर साहब इलाज में कितना पैसा लगेगा?" शीला ने धीरे से पूछा। "वैसे तो सब मिलाकर दो लाख ख़र्च होगा। मैं गरीब समझकर तुम्हारी रियायत कर दूं, तो भी दवाइयों और ऑपरेशन का एक लाख तो देना ही होगा।"यह सुनकर शीला की रुलाई फूट पड़ी। "आप इलाज शुरू कीजिए, पैसा मिल जाएगा।" अविनाश ने डॉक्टर से कहा।अविनाश में यह बदलाव देखकर सुधा हैरान हो गई! वह ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठी शीला को दिलासा देने लगी। लंबे इंतज़ार के बाद नर्स ने बाहर आकर कहा, "ऑपरेशन कामयाब रहा, बच्चा बच गया। होश में आने पर आप उससे मिल सकते हैं।"। शीला ने सोचा, "जिस दंपति ने एक बे बाप के बच्चे को जिलाया है, वह निसंतान हैं। अगर वह इसके माता -पिता बन जाए, तो उन्हें संतान सुख मिल जाएगा। और बच्चे को पढ़- लिख कर अच्छा जीवन मिल जाएगा। फिर उसके मन में विचार आया, "बेटा तो विधवा की लाठी होती है, उसके बिना कैसे जिएगी? उसके दोनों और मीलो लंबी खाई थी पर निर्णय लेने के लिए समय कम था। उसने फैसला लिया -मुझे स्वार्थ को तिलांजलि देना होगी और अपने सीने पर पत्थर रखना होगा।" उसने दंपति से कहा, "मेरा राजा तो बाढ़ में बह गया। आपने इस बच्चे को जीवन दान दिया है, आप चाहे तो इसे गोद ले सकते हैं?"दंपति के चेहरे पर चमक आ गई, "आपने हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है। आप भी हमारे साथ रहने लगें तो हमें खुशी होगी।" शीला ने रूंधे गले से कहा, "आपके सुझाव कि मैं कद्र करती हूं, पर नहीं चाहती, बड़ा होकर राजा को पता चले, उसको जन्म देने वाली और पालने वाली मां अलग-अलग थीं।" अविनाश ने कृतार्थ होकर कहा, "मैंने तो आपके बच्चे का जीवन बचाने के लिए कुछ धन दिया और आपने हमें संपूर्ण जीवन की कमाई दे दी...। वह धीरे से बोली, "मैं चाहती हूं, मेरे बेटे को वह सुख मिले जो एक विधवा नहीं दे सकती" वह कुछ देर बेटे को टिकटिकी बांधकर देखती रही। फिर उसने अपने आंसुओं को फटी साड़ी के पल्लू से पोछा और बेटी की उंगली पकड़कर चली गई...। कार में राजा को गोद में लिए बैठी सुधा सोच रही थी, "मां हो तो ऐसी।" फिर उसने दार्शनिक के लहजे में अविनाश से कहा, "कभी-कभी जीवन में उपकार बड़े सुख ले आते हैं। पर यदि नियति में कोमलता हो, तो वही उपकार करिश्मे की राह भी बन सकते हैं।"348 ए, फाइक एंक्लेव, फेस 2, पीलीभीत बायपास, बरेली (उ प्र) 243006 मो : 9027982074 ई मेल wajidhusain963@gmail.com