Metro These Days - Movie Review in Hindi Film Reviews by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | मेट्रो इन दिनों - फ़िल्म रिव्यु

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मेट्रो इन दिनों - फ़िल्म रिव्यु

मेट्रो इन दिनों :_ फिल्म नहीं एक खूबसूरत कविता है यह

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सुलझे हुए निर्देशक हमारी फिल्म इंडस्ट्री में गिनती के ही हैं। सुजीत सरकार, पिंक, विनोद विधु चोपड़ा, बारहवीं फेल, सूरज बडजात्या, राजश्री फिल्म्स, नंदिता दास, विवेक अग्निहोत्री और अनुराग बसु, यह वह लोग है जो यथार्थ से जुड़ी और हमारे आसपास की दुनिया को दिखाते हैं। उसकी वास्तविक समस्याओं को रखते हैं।

करीब डेढ़ दशक पूर्व फिल्म आई थी लाइफ इन ए मेट्रो। उसमें चार कहानियों के माध्यम से बहुत दिलचस्प वितान बुना गया था घर, दफ्तर की राजनीति और विवाह को लेकर भ्रम का। फिल्म में कंगना रनौत, केके, इरफान, कोंकणा सेन, यह बड़ी अजीब और घरेलू अभिनय करती है, शर्मन जोशी, धर्मेंद्र आदि थे। संगीत अच्छा था, प्रीतम का।निर्देशन अनुराग बसु, फिल्म हिट थी। उसी का सिक्वल है यह फिल्म "मेट्रो इन दिनों" ।

 

कहानी और अभिनय

-------------------- इस बार निर्देशक ने काफी कुछ नए ढंग से कहने का साहस दिखाया है। कहानी मेट्रो यानि बड़े शहरों की उलझनों और जिम्मेदारियों के मध्य खत्म होते इमोशंस, प्यार और करियर को लेकर समस्याओं से जूझ रहे लाखों युवाओं की है। निर्देशक बहुत अच्छे ढंग से अपनी बात कहने में सफल हुआ है।

अच्छे अभिनेताओं का साथ है।

एक कहानी ऐसे कपल की है जिसमें लड़की अपने पति के संगीत के करियर के लिए अपनी दूसरे शहर की नौकरी छोड़कर उसके पास आ जाती है।अली फजल ने क्या खूब डूबकर काम किया है। संघर्ष, उससे उपजी निराशा, अवसाद और फिर वापस रिश्ते में लौटना यह सभी भाव बखूबी इस अभिनेता ने दिखाए हैं। इसकी पत्नी के रूप में दंगल गर्ल ने भी उस दर्द और पीड़ा, करियर के सपने टूटने और बच्चा करूं या न करूं इस आर्थिक अनिश्चितता के दौर को बखूबी जिया है।

 

इसी के समांतर दो कहानी और चल रही हैं। एक में युवतम सारा अली खान है, जो अपने वर्क पैलेस में बॉस की छेड़छाड़ से परेशान है पर कुछ कह नहीं पाती।उसका मंगेतर उसी के साथ जॉब कर रहा पर वह देखते हुए भी इसे प्रमोशन तक चुप रहने की राय देता है। कितना वास्तविक और हर एक के साथ घटित होने वाली कहानी ली है निर्देशक ने।

वहीं एक ट्रेवेलर, फ्लर्ट टाइप छिछोरा युवक है, आदित्य राय कपूर ने अभिनय नहीं किया है मानो खुद की जिंदगी जी रहा है। एक बड़े प्रोड्यूसर के सगे छोटे भाई का यही फायदा होता है कि कोई स्टेज प्ले, एनएसडी नहीं बस मिलती जा रहीं फिल्में। सबसे साधारण रोल इन्हीं का है पर उसमें यह आज की युवा पीढ़ी के लड़कों की सभी हाव भाव और सोच को दिखाता है। जिनके लिए कोई भी रिश्ता जरूरी नहीं। जो लड़कियों को यूज एन थ्रो समझते हैं।

इसी में अभी तीन कथाएं और प्रवाहित हो रहीं जो आपस में जुड़ी हुई हैं। एक विवाहित कपल, करीब पैंतालिस वर्षीय पंकज त्रिपाठी और उसी के जैसे अजीब अभिनय करने वाली चौंकने वाली कोंकणासेन की कहानी। इनकी जिंदगी में सब कुछ है घर, गाड़ी, नौकरी, टीन एज बेटी बस नहीं है तो प्यार, रोमांस जो महानगरों के जोड़ो के मध्य खत्म हो रहा है। फिर डेटिंग साइट पर पति अपनी दोस्ती तलाशता रहता है और पत्नी हाउस वाइफ, घर में बंद। किशोर बेटी अलग ऑनलाइन यूट्यूब आदि से " समलैंगिक तो नहीं मैं" के ट्रॉमा से जूझ रही। अपनी मासी सारा अली खान से घुमा फिराकर पूछती रहती की कैसे उसकी सहेली को मालूम पड़ेगा कि वह स्ट्रेट है या नहीं?

उधर इन दोनों सारा और कोंकणा की मम्मा कोलकाता रहती नीना गुप्ता की अलग एक कहानी। वहां सब ठीक है दोनों बेटियां बड़ी और परिपक्व हैं । पर पति पत्नी के संबंध में वही रूटीन बोरिंग, सब कुछ पहले जैसा। क्या हो इसका? तो वह अपने कॉलेज के तीस साल पुराने दोस्तों के रियूनियन में जाना चाहती है।

इन सभी पात्रों के साथ कथा आगे रोचक और संगीतमय ढंग से बढ़ती है।जिसमें प्रीतम अपने तीन साथियों के साथ गिटार पर गाते नजर आ जाते हैं। कभी फ्लाईओवर पर तो कभी चौराहे के पास खड़े और एक बार तो रेस्टोरेंट के बाहर भी। अच्छा प्रयोग है।

 

मुख्यत आज के समय में हम सभी दबाब में हैं।यह प्रैशर काम का, अच्छे भविष्य का, संबंधों में ध्यान नहीं दे पाने का और किसी एक साथी के द्वारा दूसरे के लिए जॉब छोड़ने का है।

अपने सपनों को यथार्थ के धरातल पर लहूलुहान होते देखने का दर्द और बार बार हिम्मत जुटाने की ताकत इस फिल्म के पात्र लाते हैं।

इंद्रधनुष से सात रंग इस फिल्म में निर्देशक अनुराग बसु और निर्माता भूषण कुमार समेटे हैं। आप अपने रंग को चुन सकते हैं। यह फिल्म हमारी ही तस्वीर को सामने रखती है कि रुको, 

भागमभाग बहुत हो गई अब तक की अपने यात्रा को देख लो। कहां क्या चूक हुई, क्या कुछ और बेहतर कर सकते हो? संबंधों को सहेज लो जिससे जीवन और मन दोनों मजबूती पाएं।

सच है बिना आत्मीयता, प्यार, भरोसे के जीवन बेकार है।

एक कहानी अनुपम खेर की विडो बेटी की है जो पापा की देखभाल के लिए दुबारा शादी नहीं करना चाहती। अपनी पुरानी दोस्त से तीस साल बाद मिलकर किस तरह रिवर्स व्यवहार से वह उसे विवाह के लिए तैयार करते हैं। फिर उसके जाने और मित्र नीना गुप्ता के अपनी जिंदगी में बेटियों और पति के पास लौट जाने के बाद का अकेलापन, सूना घर आंखे नम कर देता है। अकेलापन ही मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या, त्रासदी है। उपाय अपनाते हैं संगीत, किताबें, यात्रा पर कब तक? कितनी? जीते जगते मनुष्य के पास होने का अहसास, उसके और अपने तालमेल से जो जीवन राग, जल तरंग, शिव कुमार के संतूर, बिस्मिल्लाह खान की शहनाई सा बज उठता है, वह अलौकिक आनंद है। उसका कोई विकल्प नहीं।

फिल्म काव्यात्मक ढंग से बेहद प्यार से हमसे आपसे बाते करती हैं।उसके पात्र मानो कह रहे हो जिंदगी और अपने डियर और नियर को सम्भाल लो, नहीं है तो बना लो अपने साथी। जिंदगी सुगम, फूलों की सुगंध सी जीवंत हो जाएगी।

अभिनय में, मुझे उम्मीद नहीं थी, पर सबसे अधिक प्रभावित किया अली फजल ने। एक आईटी योग्य विवाहित युवा जो अपने संगीत के पैशन लिए जॉब छोड़ दो वर्ष खुद को देता है। संघर्ष, असफलता से टूटने और परिवार की तमाम मुश्किलों के साथ किस तरह वह छोटी सी खुशी के लिए तरस कर अपनी प्रेगनेंट बीवी तक पर शक करता है। यह सभी भाव, अनुभूतियां इस तरह पर्दे पर चित्रित करता है कि हम बंधे से रह जाते हैं। इनकी युवा पत्नी और दोस्त, प्रेमी, पति के लिए अपनी आईटी की जॉब छोड़ बैठी फातिमा शेख हैं। लाचारी, प्यार की उच्चतम सीमा त्याग को चुनने वाली, ऊहापोह, द्वंद और खाली बैठने की लाखों लड़कियों की पीड़ा और मायूसी को क्या खूब जिया है। सारा अली खान, आदित्य राय कपूर बेहद सामान्य रहें। नीना गुप्ता, थोड़ी सी नाटकीय हुई और मेलोड्रामा से अपनी छाप छोड़ती हैं। एक दो दृश्य में बहुत कम समय के लिए दीपक काजिर को देखकर अच्छा लगा। कर्मचंद, धारावाहिक के इंस्पेक्टर की याद ताजा हो गई।

निराश किया अपनी अजीब ओवर एक्टिंग से पंकज त्रिपाठी ने। लगा मानो वह अभिनय का यह गोल्डन रूल भूल गए हैं कि हर किरदार की डिमांड और अनुभूति अलग होती है। वह स्त्री फिल्म की बेहूदी, बकवास अभिनय से बाहर ही नहीं आए। कोई इन एनएसडी के बेहद सामान्य और छोटे शहरों से आए अभिनेताओं को यह भी कोर्स कराए की अभिनय की रेंज, अलग अलग भाव और सबसे बढ़कर बॉडी लेंग्वेज भी बदलनी होती है। ज़्यादातर अपने कॉलेज डेज के यूटोपिया में ही घूम रहे होते हैं।ऊपर से हम सबसे अधिक अभिनय क्लास पढ़े का झूठा घमंड लेकर। इन्हें क्या कहें जब मुंबई फिल्मों और ओटीटी के हीरो तक भी अपने को कभी अपडेट नहीं करते। अरे हीरो भाई, कुछ समय के लिए अभिनए और अन्य बातों से ब्रेक लेकर अमेरिका, फ्रांस, लंदन से अभिनय का दो तीन माह का कोर्स कर आना चाहिए। कब तक एक बार सीखी हुई अभिनय की तीन चार माह की मस्ती भरी ट्रेनिंग से आप इस विशाल समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश के करोड़ों लोगों को बोर और उनकी गालियां खाते रहेंगे? यह सब हीरो, बरसों से एक जैसे रोल करते आ रहे, चाहे सलमान, अक्षय, शाहरुख, अजय देवगन, रणवीर सिंह, कार्तिक आर्यन हो। कोई बदलाव नहीं। विदेश न जाओ तो साउथ के अभिनेताओं मोहनलाल, ममूटी, वेंकटेश, अल्लू अर्जुन को ही देखें। वह सीख गए कि फिल्म और ओटीटी पर बदलाव आते जा रहे हैं। और वह नहीं बदले, अभिनय की रेंज नहीं बढ़ाई तो कोई फिल्म देखने नहीं आएगा। वह प्रयोग पर प्रयोग कर रहे, सीख रहे और हमारे वाले पान मसाला, लॉटरी बेचने में व्यस्त। फिर फिल्म, फिर फिल्म वह भी एक जैसी।

कुछ अभिनेता हैं जो गैप लेकर शहर शहर नाटक कर रहे, बाहर शो के लिए नहीं बल्कि अभिनय सीखने जा रहे। आशुतोष राणा, परेश रावल, अनुपम खेर, कंगना रनौत चंद नाम हैं।

मेट्रो इन दिनों इसलिए भी जरूर देखनी चाहिए कि यह कहानी कहने का नया ढंग प्रस्तुत करती है। यह हमें सोचने, विचार करने और अपने जीवन को देख उसे सुधारने का, रिबूट करने का अवसर देती हैं।

अनुराग बसु ने बहुत संवेदनशीलता और समझदारी से फिल्म बनाई है।

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक

कथाकार, राजस्थान

7737407061)