Junk mail in Hindi Biography by Sharovan books and stories PDF | ख़टखटिया मेल

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ख़टखटिया मेल

खट-खटिया मेल

कहानी/शरोवन

अचानक से, अपने पास ही बगल में किसी मोटर सायकिल के रुकने और तारकोल की काली सड़क पर ब्रेक लगने की आवाज़ सुनाई दी तो पीठ पर स्कूल बैग लटकाए हुए, पैदल चलते हुए चंद्रेश के कदम अपने ही स्थान पर ठिठक गये. उसने घबराते हुए, मोटर सायकिल वाले को देखा तो उसका सहपाठी रूद्रनाथ उसकी तरफ अचरज से देखता हुआ मुस्करा रहा था. चंद्रेश कुछ कहता, इससे पहले ही, रुद्रनाथ उससे बोला कि,

'अरे ! क्या हुआ? आज पैदल ही कॉलेज?'

'मैं तो रोज़ ही पैदल जाता हूँ.' चंद्रेश बोला.

'तेरा घर तो करीब चार किलोमीटर तक दूर होगा. इतनी दूर. . . और वह भी पैदल. . .? इस तरह से तो आना-जाना आठ किलोमीटर पड़ जाता होगा?' रुद्रनाथ ने कहा तो चंद्रेश केवल अपनी हल्की मुस्कराहट के साथ, विवशता दिखाकर ही रह गया.

'अच्छा चल आ और बैठ जल्दी से.'

       चंद्रेश तुरंत ही मोटर सायकिल पर बैठ गया तो फिर दोनों ही पांच मिनट में कॉलेज पहुँच गये. रुद्रनाथ समझ चुका था कि, शायद चंद्रेश के पिता की आर्थिक दशा उसे एक कम पैसों की सायकिल तक खरीदने की अनुमति नहीं देती है; इसलिए उसने आगे उससे कुछ भी नहीं पूछा और ना ही कुछ बात ही की. केवल चंद्रेश आगे से पैदल न जाए, इसलिए केवल उसकी सहायता करने के उद्देश्य से इतना ही बोला कि,

'मैं रेलवे स्टेशन के चौराहे से रोज़ ही करीब साढ़े सात बजे गुज़रता हूँ. तू, ठीक साढ़े सात बजे तक वहां तक आ जाया करना. तब मेरे साथ ही कॉलेज चला करना.'

       चंद्रेश के घर के बिलकुल पास ही एक अन्य डिग्री कॉलेज भी था- नरायन कॉलेज. इस कॉलेज तक जाने में चंद्रेश को केवल पांच मिनट ही लगते होंगे. चंद्रेश छटवीं कक्षा से नरायन कॉलेज में पढ़ता आ रहा था. हरेक साल छटवीं कक्षा से लेकर वह अगली कक्षा में तरक्की करता आ रहा था. कॉलेज का भी नियम था कि, यदि कोई बाकायदा एक कक्षा में पास हो जाता है तो स्वत: ही उसको अगले वर्ष में आगे की कक्षा में प्रवेश दिला दिया जाता था. इसमें छात्र को केवल जुलाई महीने की मासिक फीस, और वह भी पन्द्रह तारीख को भरनी पड़ती थी. कोई भी हरेक वर्ष अतिरिक्त प्रवेश आदि नहीं लेना पड़ता था. लेकिन, जब चंद्रेश ने ग्यारवीं की कक्षा पास कर ली तो बारहवीं में उसे प्रवेश स्वत: ही मिलना चाहिए था. मगर उस वर्ष वैसा नहीं हुआ था. कॉलेज का नियम बदल चुका था. अब हरेक विद्द्यार्थी को, वह चाहे अपनी कक्षा में फेल हो अथवा उत्तीर्ण; अपनी कक्षा में पढ़ने के लिए, प्रवेश फीस देकर, प्रवेश लेना अनिवार्य कर दिया गया था. मगर चंद्रेश को यह सब पता ही नहीं चल सका था. वह जब बारहवीं कक्षा में गया तो कक्षा के 'होम टीचर' ने बताया कि, उसका तो कक्षा में नाम ही नहीं है. साथ ही सारी बात भी विस्तार से समझा दी और उसे प्रवेश लेने के लिए कहा. लेकिन जब चंद्रेश प्रवेश लेने गया तो पता चला कि, अब तक सारी सीटें भर चुकी हैं और इस वर्ष प्रवेश मिलना कठिन भी है और सचमुच ही उसे प्रवेश नहीं मिला. उसने प्रधानाचार्य से बहुत मिन्नतें कीं, बहुत हाथ जोड़े, लेकिन सब कुछ बेकार ही रहा. प्रधानाचार्य ने उसी की गलती बताई और उसे प्रवेश नहीं दिया. यही कारण ऐसा था कि, तब विवश होकर चंद्रेश को दूसरे कॉलेज में, जो उसके घर से चार किलो मीटर दूर था, में पढ़ने जाना पड़ा था.

       बेचारा चंद्रेश क्या करता? कॉलेज दूर था. पढ़ने तो जाना ही था. उसके परिवार की माली हालत इतनी अच्छी भी नहीं थी कि वह हर दिन जाने के लिए किसी अतिरिक्त सवारी का भी इंतजाम कर लेता. उसके पिता, उसे एक सायकिल तक खरीदकर नहीं दे सकते थे. चंद्रेश क्या करता, वह पैदल ही दो घंटे पहले कॉलेज जाता और शाम ढले थका-हारा वापस आता था. तब इसी तरह एक दिन, उसकी कक्षा के सहपाठी रुद्रनाथ ने उसे पैदल जाते हुए देख लिया था. तब से चंद्रेश उसकी मोटर सायकिल पर कॉलेज जाने लगा था.

       चंद्रेश की रुद्रनाथ की सहायता से उसकी समस्या का समाधान तो किसी हद तक हल हो चुका था, लेकिन चंद्रेश के मस्तिष्क में जो चिंताओं के कीड़े दौड़ा करते थे, उससे वह यही सोचा करता था कि ऐसे कब तक चलेगा? कब तक रुद्रनाथ उसको कॉलेज लाता-ले जाता रहेगा? फिर जब उसकी सालाना परीक्षाएं होंगी, उन दिनों में वह क्या करेगा? यूँ, भी अभी भी, कभी रुद्रनाथ जब कभी कॉलेज नहीं आता था, तब भी उसे पैदल ही जाना पड़ता था. हांलाकि, रुद्रनाथ उसे एक दिन पूर्व अपने कॉलेज न आने के लिए बता भी देता था, परन्तु समस्या तो वहीं की वहीं थी. उसे पैदल ही जाना पड़ता था.

       एक दिन, चंद्रेश अपने माता-पिता और अन्य छोटे भाई-बहनों के साथ संध्या का खाना खा रहा था और इसी मध्य वह अपनी कॉलेज जाने की समस्या के बारे में भी विचारमग्न हो जाता था. तभी उसकी मां ने उसे निहारा तो उसके चेहरे की बदली हुई आभा को देखते ही बोली,

'तुझे क्या हो जाता है. खाते-खाते बीच में रुक कैसे जाता है. तबियत तो ठीक है तेरी?'

'?'- तब चंद्रेश ने एक बार अपनी मां को देखा और फिर सिर नीचा किये हुए ही शिकायत भरे स्वर में उनसे बोला,

'मैं, कॉलेज पैदल जा-जाकर थक गया हूँ. रोजाना, आठ किलोमीटर, आना-जाना? बुरी तरह थक जाता हूँ मैं. मैं इंसान हूँ, कोई मशीन नहीं. आप लोग कुछ सोचते ही नहीं हैं?'

'?'- मां उसकी बात सुनकर सन्न रह गईं. लड़का सौलह आना सच बोलता है. वह मशीन तो नहीं है. दुबला-पतला है, लम्बी-पतली टांगें हैं, इसकी. सचमुच थक जाता होगा. टांगें भी जरुर दुखती होंगी. . .? बहुत कुछ ऐसा सोचते हुए वे मन ही मन पसीज गईं. आखिर मां का दिल था, क्यों नहीं दुखता. वे प्रवेश से बोलीं,

'अब बेटा जो भी परिस्थिति है, वह भुगतना तो होगी ही. हम लोग गरीब लोग हैं. सारे- दिन-दोपहरी, गर्म लू में प्रभु-परमेश्वर का संदेश सुनाते हैं, तब जाकर पच्चासी रुपल्ली एक महीने में मिला करती हैं. उसमें भी जब खर्च चल नहीं पाता है तो महीने के आखिर तक पहुंचने से पहले ही 'अडवांस' लेना पड़ जाता है. सो खर्च चलाने में खींचा-तानी तो लगी ही रहती है. अब तीन महीने तो इस साल के बीत ही चुके हैं. चार-छः महीने और सब्र कर ले. मैं शाम को तेरे पैर दबा दिया करूंगी. थोड़ी सी हिम्मत और रख ले.'

'?'- मां ने कहा तो चंद्रेश चुप हो गया. साथ में उसके अन्य भाई-बहन भी चुप बने रहे. उसके पिता भी खामोश बने रहे. बाद में सब खा-पीकर उठ गये. थोड़ी देर के लिए सारे परिवार का माहोल बोझिल बना रहा. लेकिन जब सुबह सब सोकर उठे तो सबके ही चेहरों पर नये दिन के उदय की रंगत थी, इस प्रकार कि जैसे सभी कुछ न कुछ जीत कर लाये हों. फिर कुछ दिनों के लिए जैसे सब कुछ आया गया हो गया.

       एक दिन चंद्रेश के पिता किसी कबाड़ी की दूकान से एक पुरानी, जंक खाई हुई महिला सायकिल का फ्रेम खरीद कर ले आये. उसे उन्होंने घर पर ही बाज़ार से पेंट लाकर रंग दिया. बाद में कहीं से उन्होंने सायकिल सीट खरीदी,. इसी तरह से पुरानी सायकिलों के पुर्जे-पार्ट्स खरीदकर उन्होंने अपने घर पर ही प्रवेश के लिए, उसके कॉलेज जाने के लिए सायकिल तैयार कर दी. वह सायकिल ऐसी थी कि, उस पर कोई आगे-पीछे बैठ भी नहीं सकता था, क्योंकि महिला सायकिल का फ्रेम होने के कारण आगे ना तो डंडे पर बैठने का स्थान था और 'कैरियर' भी नदारद होने के कारण कोई भी पीछे नहीं बैठ सकता था. इससे एक फायदा चंद्रेश को यह होता था कि, कोई भी उससे सायकिल पर बैठकर उसके साथ कहीं भी जाने की बिनती नहीं कर पाता था. चंद्रेश इस सायकिल को पाकर अत्यंत प्रसन्न हो गया. वह कॉलेज जाने लायक तो हो ही गया. अब उसे पैदल भी परेड नहीं करनी होगी. फिर सायकिल का सौन्द्रयीकरण इस प्रकार का था कि, कहीं का फ्रेम, कहीं के पहिये, 'मडगार्ड' भी नदारद, चैन के ऊपर भी कोई कवर आदि नही, सीट किसी जापानी सायकिल की, लम्बी तलवार जैसी; जो भी देखता बस मुंह ही फेर लेता था. कहने का आशय है कि, अपने किसी भी आकर्षण से पूरी तरह से महरूम इस सायकिल का सबसे बड़ा लाभ यही था कि, अब चंद्रेश को पैदल नहीं चलना पड़ता था. उसे यह सायकिल चलाने में इतना आनन्द आने लगा था कि, वह अपनी मां से भी अक्सर पूछने लगा था कि, बाज़ार से कुछ मंगाना तो नहीं हैं.' जबकि, पहले बाज़ार सब्जी लाने तक के लिए वह कतराता था. एक अन्य लाभ इस सायकिल में और भी था कि, चंद्रेश  को इसमें कोई ताला आदि लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी क्योंकि, सायकिल की शक्ल ही ऐसी थी कि, वह उसे जहां चाहे वहीं बड़ी बे-फिक्री से खड़ा कर देता था. सायकिलों की चोरी करने वाला भी शायद उसे उठाने से पूर्व हजार बार सोचता तो जरुर होगा. चंद्रेश, अपनी इस सायकिल को जिस स्थान पर भी खड़ा कर देता था, वह उसे वहीं, अपने स्थान पर सही-सलामत मिलती थी. 

       दिन इसी प्रकार से व्यतीत हो रहे थे. प्रवेश की समस्या हल हो चुकी थी. उसके माता-पिता भी अब पूरी तरह से निश्चिन्त हो चुके थे. एक दिन प्रवेश से उसके मित्र ने पूछा कि,

'तू कॉलेज कैसे आ रहा है? मैं तेरा चौराहे पर इंतज़ार करता हूँ, तू मिलता ही नहीं है?'

'वह, पापा ने मुझे सायकिल लेकर दे दी है.'

'बहुत बढ़िया रहा. तूने बताया क्यों नहीं?' रुद्रनाथ ने जैसे शिकायत सी की.

'वह . . .वह, मुझे सायकिल पाने की खुशी इतनी हुई कि, मैं भूल ही गया था.'

'अच्छा ! कल को अगर तुझे कार मिल जायेगी, तो तू मुझे अपने पास भी नहीं बैठने देगा?'

'ऐसा मत बोल यार ! तू तो मेरी जान में बसता है. कैसे भूल जाऊंगा, तूने तो मेरी बहुत मदद की है. कितने महीने मेरा इंतज़ार किया और कॉलेज ले जाने और वापस लाने में मेरी सहायता की है. बस भूल ही गया था.' कहते हुए चंद्रेश  ने रुद्रनाथ को अपने गले से लगा लिया.

'अच्छा, तेरी सायकिल है कहाँ? खड़ी कहाँ करता है?' रुद्रनाथ ने पूछा.

'वहीं, अपनी होम क्लास के बाहर.'

'ताला है उसमें?'

'नही, जरूरत ही नहीं है.'

'कोई उठाकर चुरा ले गया तो'

'ऐसा हो ही नहीं सकता है.'

'क्यों?'

'क्योंकि, अब तक हुआ ही नहीं है.'

'बातें तुझे खूब मज़ेदार करनी आती हैं. चल अपनी सायकिल दिखा.'

       कह कर रुद्रनाथ चलने को हुआ तो चंद्रेश बोला कि,

'इंटरवल समाप्त होने की घंटी बजने दे, तब चलेंगें. कक्षा में जायेंगे, तभी देख लेना.'

'ठीक है. तो चल गोल-गप्पे खाते हैं. अभी पन्द्रह मिनट हैं.'

       गोल-खाते हुए इंटरवल समाप्त होने की घंटी बजी तो दोनों ही मित्र अपनी कक्षा में आये. कक्षा में जाने से पहले चंद्रेश ने अपनी सायकिल रुद्रनाथ को दिखाई. वह उसे देखकर पहले तो गम्भीर हुआ, फिर हलके से मुस्कराने लगा.

'तू, मेरी सायकिल देखकर मुस्करा रहा है?'

'नहीं.'

'तो फिर. . .?'

'सोच रहा हूँ.'

'क्या सोच रहा है?'

'यही कि, यह कौन सी नई कम्पनी खुली है, जहां से तूने सायकिल कसवाई है?'

'होम मेड कम्पनी- पापा ने कसी है.'

'?'- खामोशी.

'तुझे मेरी सायकिल पसंद है.'

'जब तू पसंद है तो तेरी हरेक पसंद, मुझे पसंद होती है.'

       इसके बाद दोनों मित्र कक्षा में चले गये. भौतिक विज्ञान के अध्यापक आये और विज्ञान के 'दोलन चुम्बकत्वमापी' के बारे में पढ़ाने लगे.

       ऐसा काफी दिनों तक चलता रहा. जाड़े की ऋतु समाप्त हुई और बसंत आ गया. आकाश में पतंगे, पक्षियों के साथ मिल-जुलकर कलाबाजियां मारने लगीं. फिर होली भी आकर, हर किसी को रंगों में डुबोकर चली गई. सालाना परीक्षाएं आईं तो विद्द्यार्थी अपनी-अपनी तैयारियों में व्यस्त हो गये. चंद्रेश ने अपनी परीक्षाओं के सारे पर्चे अपनी सायकिल से ही जाकर दिए. हांलाकि, रुद्रनाथ ने उससे कहा भी था कि, कहीं परीक्षाओं के पर्चे देने में देर न हो, इसलिए अगर वह चाहे तो वह उसको कॉलेज लाने-ले-जाने में सहायता कर देगा. मगर चंद्रेश  को इसकी जरूरत नहीं पड़ी. फिर एक दिन, सालाना परीक्षाओं के पर्चे भी समाप्त हो गये. पर्चे समाप्त हुए तो शहर के सारे स्कूल, कॉलेज, ग्रीष्मकालीन अवकाश के लिए बंद कर दिए गये. कॉलेज बंद हुए तो पढ़ने वाले विद्द्यार्थी, सबके सब अपने-अपने घर लौटकर, सारे देश में तितर-बितर हो गये. मगर रुद्रनाथ और चंद्रेश, दोनों एक ही शहर के रहनेवाले थे, इसलिए अक्सर ही, उन दोनों की मुलाक़ात, कभी शहर के बाज़ार आदि में हो ही जाती थी.

       तब ऐसे ही एक दिन रुद्रनाथ ने चंद्रेश को फिर से पैदल जाते हुए देख लिया. वह शहर के बाज़ार से अपने घर जा रहा था. रुद्रनाथ दूसरी तरफ से आ रहा था. चंद्रेश को पैदल जाते हुए देख कर उसने अपनी मोटर सायकिल उसके करीब ही रोक दी. पहले दोनों की नज़रें मिलीं. दोनों ही मुस्कराए. तब रुद्रनाथ चंद्रेश को आश्चर्य से देखते हुए बोला कि,

'आज फिर से पैदल. तेरी सायकिल को क्या हुआ?'

'?'- सुनकर चंद्रेश चुप हो गया.

'अच्छा, चल बैठ पीछे. कहीं बैठकर चाय पीते हैं और बात भी करते हैं.'

       चंद्रेश तुरंत ही बैठ गया तो रुद्रनाथ ने अपनी मोटरसायकिल बस-स्टेंड के अंदर बनी केन्टीन के सामने ले जाकर रोक दी और दो चाय और समोसे का ऑर्डर देकर दोनों ही अंदर बैठ गये. फिर जब चाय आ गई तो, रुद्रनाथ ने अपनी बात फिर से आरम्भ की. वह बोला कि,

'हां, अब बता कि, क्या हुआ तेरी सायकिल का?'

       तब चंद्रेश ने अपनी बात आरम्भ की. वह बड़े ही उदास स्वर में बोला कि,

'पापा ने कितने परिश्रम से मेरे लिए वह सायकिल बनाई थी. मुझे बहुत अच्छी लगती थी. तूने भी कहा था कि, उसमें ताला डलवा लेना, मगर मैंने परवा ही नहीं की थी. मेरा विश्वास था कि, उस टूटी-टाटी, कबाड़ा 'खट-खटिया मेल' को कोई पूछेगा ही नहीं,  लेकिन मुझे क्या मालुम था कि, . . .'

'हुआ क्या है? रुद्रनाथ उत्सुक हो गया.

'हुआ यह था कि, मेरी मामा ने एक दिन मुझे बाज़ार भेजा कि जाकर कुछ सब्जियां आदि लेकर आऊँ. सो सब्जी मंडी में कुछ भी खरीदने से पहले वहीं 'प्रकाश टॉकीज़' में आने वाली नईं फिल्म 'दोस्ती' के पोस्टर देखने मैं घुस गया था. सायकिल को मैंने वहीं, सामान्य तौर पर जैसे करता था, बड़े ही इत्मीनान से, निश्चिन्त होकर खड़ा कर दिया था. दिमाग में तो यही था कि, इस कबाड़ा, सायकिल को आजतक किसी ने पूछा नहीं है, इसे कौन चुराएगा? मगर जब पोस्टर देख कर मैं वापस आया तो पता चला कि, कोई उस खटारा, कबाड़िया सायकिल को भी उठाकर ले जा चुका था. मेरी छोडो, उस चोर को तो मेरी कबाड़िया सायकिल की गुरबत पर भी तरस नहीं आया?'

'?'- सुनकर रुद्रनाथ बड़ी देर तक ठहाका मारकर हंसता रहा.

       बाद में जब दोनों ने चाय, समोसे आदि समाप्त कर लिए, तो रुद्रनाथ, चंद्रेश को बैठाकर फिर से बाज़ार में ले जाने लगा. यह देखकर चंद्रेश ने उससे पूछा कि,

'अब कहाँ ले जा रहा है मुझे?'

'पहले, चल तो सही.' कहते हुए रुद्रनाथ ने अपनी मोटर सायकिल 'हीरो सायकिल भण्डार' की विशाल दुकान के सामने लाकर रोक दी. फिर अंदर जाकर उसने नई सायकिल का ऑर्डर दिया और फिर करीब आधे घंटे के अंदर एक नई सायकिल चंद्रेश के सामने खड़ी थी. उसे चंद्रेश को भेंट करते हुए रुद्रनाथ ने कहा कि,

'यह मेरी तरफ से अपनी मित्रता का एक उपहार है तेरे लिए.'

'?'- सुनकर चंद्रेश का मन अंदर ही अंदर गदगद हो गया. तुरंत ही उसकी आँखें भीग आईं.

       आज इस बात को चालीस वर्ष बीत चुके हैं. चंद्रेश के हालात बदल चुके हैं. वह एक सुप्रसिद्ध कम्पनी में चार्टर्ड अकाउंटैंट के पद पर कार्य कर रहा है. आज चंद्रेश हर तरह से सम्पन्न और सुखी है. उसके पास दो-दो कारें हैं, मगर फिर भी उसके घर के अंदर घुसते ही, 'लिविंग रूम' में रुद्रनाथ की दी हुई सायकिल एक यादगार के रूप में खड़ी हुई है. आज रुद्रनाथ इस दुनियां में नहीं है. उसकी मोटर सायकिल के एक हादसे में वह सदा के लिए इस संसार से कूच कर गया है. चंद्रेश अपनी कारों से अधिक रुद्रनाथ की इसी सायकिल से प्यार करता है क्योंकि, यह सायकिल उसकी गरीबी और एक गरीब व अमीर मित्र की यादों का वह सिलसिला है जो शायद किसी भी जन्म में समाप्त नहीं हो सकेगा.

-समाप्त.