14 साल का अक्षय जाड़े के दिनों में अपनी मौसी के साथ मंदिर गया था। मंदिर में पूजा करने के बाद जब वे लौट रहे थे, तब अक्षय ने एक लड़के और लड़की को फेरे लेते देखा। बालमन में सवाल जागा—“ये कौन-सा खेल खेल रहे हैं?”
अक्षय (जिज्ञासा से): मासी, ये भैया और दीदी कौन-सा खेल खेल रहे हैं?
मासी (हँसते हुए): बेटा, ये शादी का खेल खेल रहे हैं।
अक्षय (उत्सुकता से): इसे कैसे खेलते हैं? मैं भी खेलूंगा।
मासी (सहज भाव से): नहीं बेटा, इस खेल में एक लड़का और लड़की साथ रहकर एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ निभाते हैं और जीवन बिताते हैं।
अक्षय को मासी की सारी बातें तो समझ नहीं आईं, पर उसे इतना समझ आ गया कि इसमें लड़का-लड़की साथ में खेलते हैं और ये खेल काफी मज़ेदार होता है।
अक्षय (मुस्कुराते हुए): मासी, आप खेलोगी मेरे साथ शादी?
आसपास के लोग ये सुनकर हँसने लगे।
मासी (हँसते हुए): चुप शैतान! इसके लिए तुझे अभी बड़ा होने की ज़रूरत है। और मैं तो ये खेल पहले ही खेल चुकी हूँ।
अक्षय (थोड़ा मायूस होकर): ठीक है मासी…
कहते हैं बच्चों में वो ऊर्जा होती है जो कभी थमती नहीं, हर वक्त कुछ नया करने की चाहत होती है। अक्षय के मन में ये बैठ गया कि शादी का खेल खेलने के लिए लड़की चाहिए।
अक्षय को बचपन से मीठी के साथ खेलना बहुत पसंद था। मोहल्ले में सब उसे मीठी बुलाते थे। दोनों हर रोज़ मिलते और कई खेल खेलते।
एक दिन दोनों खेल रहे थे—
अक्षय (चिल्लाते हुए): मीठी — चिड़िया!
मीठी (हँसते हुए): मैना!
अक्षय: कबूतर!
मीठी: उड़ गया!
अक्षय: छिपकली!
मीठी (हँसते हुए): नहीं उड़ी… हार गए, फिर से?
अब तक अक्षय मीठी से 6 बार हार चुका था।
अक्षय (थोड़ा गुस्से में): कब तक ये बच्चों वाले खेल खेलेंगे? अब हम बड़े हो गए हैं।
मीठी (हैरान होकर): तो फिर क्या खेलेंगे?
अक्षय (मुस्कुराते हुए): अब हम शादी का खेल खेलेंगे।
मीठी (आश्चर्य से): शादी का?
अक्षय (जोश में): हाँ शादी का! इसमें हम एक-दूसरे को अपनी परेशानियाँ बताएँगे और साथ मिलकर हल निकालेंगे। जैसे राजा-रानी वाला खेल!
मीठी (हँसते हुए): ये तो बड़ा मजेदार खेल लगता है!
अक्षय (खुश होकर): हाँ, लेकिन पहले आग के चार चक्कर लगाने होते हैं।
ये बातें पास ही खड़ा मोहल्ले का एक व्यक्ति — हसमुख जी सुन रहे थे। इसके पहले कि दोनों खेल शुरू करें, मोहल्ले वालों ने आवाज़ लगाई—
मोहल्ले वाले: अरे बच्चों! शाम हो गई है, चलो घर जाओ!
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दृश्य बदलता है।
अक्षय के पिता मदनलाल जी के पास हसमुख जी जाते हैं।
हसमुख: अरे मदनलाल जी, नमस्ते।
मदनलाल: नमस्ते भाई हसमुख, आज कैसे आना हुआ?
हसमुख (हँसते हुए): कुछ ख़ास नहीं… बस ज़माना कितना तेज़ बदल रहा है, यही बताने आया था।
मदनलाल (हँसते हुए): समय तो अपने हिसाब से ही चलता है भाई, इंसान को ही तेज़ या धीमा लगता है।
हसमुख: सही कहा। वैसे एक बात कहनी थी, अब बच्चे बड़े हो रहे हैं… अक्षय और मीठी की जोड़ी तो बचपन से है। क्या सोचा है?
मदनलाल (हैरानी से): अरे अभी तो बच्चे हैं।
हसमुख: सही है, लेकिन हम भी तो छोटी उम्र में शादी कर चुके हैं। सोच लीजिए, दोनों अच्छे दोस्त हैं, साथ में ही पले-बढ़े हैं। मैं तो सुझाव देने आया था, बाकी आपकी मर्ज़ी।
मदनलाल: आपकी बात में वज़न है, लेकिन मीठी के घर वालों से कौन बात करेगा?
हसमुख (हँसते हुए): चिंता मत कीजिए, वो लोग जमीन से जुड़े लोग हैं… बातचीत सही तरह होगी।
तभी रसोई से आवाज़ आई—
पत्नी (रसोई से): एजी, दूध लेते आना, नहीं तो दिक्कत हो जाएगी।
मदनलाल दूध लेने चले जाते हैं और हसमुख अपने घर।
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अगली सुबह —
पंछियों की चहचहाहट के बीच मदनलाल उठते हैं और आवाज़ लगाते हैं—
मदनलाल: अरे सुनती हो! चाय लाओ।
मुंह धोकर लौटते हैं तो पत्नी चाय लेकर आती हैं। मदनलाल उन्हें रोकते हैं।
मदनलाल: सुनो, एक ज़रूरी बात करनी है।
पत्नी: कौन सी बात?
मदनलाल ने सारा किस्सा विस्तार से बताया।
पत्नी (मुस्कुराकर): सही कहते हो, हमारी शादी भी तो छोटी उम्र में हुई थी। मीठी समझदार भी है। मुझे तो ये रिश्ता अच्छा लग रहा है।
मदनलाल (सोचते हुए): बात तो सही है… पर मीठी के परिवार से कैसे शुरुआत करें?
पत्नी: आज छुट्टी है, मिठाई का डिब्बा लेकर चलते हैं!
मदनलाल (हँसते हुए): सही है, चलो तैयार हो जाओ।
परिवार वालों को बता दिया गया। सब तैयार होकर मीठी के घर पहुँचे।
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मीठी के घर पर दस्तक…
पूरा परिवार मन में सोच रहा था — मीठी के घर वाले मानेंगे या नहीं… माहौल में हल्की घबराहट थी।
(पहला भाग समाप्त)