Jab Pahaad ro Pade - 2 in Hindi Magazine by DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR books and stories PDF | जब पहाड़ रो पड़े - 2

Featured Books
  • જીવન પથ - ભાગ 33

    જીવન પથ-રાકેશ ઠક્કરભાગ-૩૩        ‘જીતવાથી તમે સારી વ્યક્તિ ન...

  • MH 370 - 19

    19. કો પાયલોટની કાયમી ઉડાનહવે રાત પડી ચૂકી હતી. તેઓ ચાંદની ર...

  • સ્નેહ સંબંધ - 6

    આગળ ના ભાગ માં આપણે જોયુ કે...સાગર અને  વિરેન બંન્ને શ્રેયા,...

  • હું અને મારા અહસાસ - 129

    ઝાકળ મેં જીવનના વૃક્ષને આશાના ઝાકળથી શણગાર્યું છે. મેં મારા...

  • મારી કવિતા ની સફર - 3

    મારી કવિતા ની સફર 1. અમદાવાદ પ્લેન દુર્ઘટનામાં મૃત આત્માઓ મા...

Categories
Share

जब पहाड़ रो पड़े - 2

अध्याय 2: अतीत की मुस्कान

(जब गांव जिंदा थे)

पहाड़ों की असली ख़ूबसूरती वहां की वादियों में नहीं — वहां के लोगों की मुस्कान में बसती थी। वो मुस्कान जो अब बीते हुए कल में कैद हो चुकी है।

एक ज़माना था जब पहाड़ों के गांव जीवन से भरे होते थे। सुबह की पहली किरण खेतों पर पड़ती थी और घरों से धुएं के साथ उठती थी रोटियों की महक। बच्चों की चहचहाहट, और चौपाल पर बुज़ुर्गों की कहानियाँ — जैसे हर कोई अपने हिस्से की ज़िन्दगी वहां पूरी जी रहा था।


गांव की सुबह — एक त्योहार जैसा दिन

प्रत्येक गांव में सुबह किसी उत्सव से कम नहीं होती थी।

महिलाएँ पानी भरने जातीं — और वहीँ चलती हँसी की महफ़िल।पुरुष खेतों की ओर निकलते — कंधों पर हल, सिर पर उम्मीद।बच्चे स्कूल जाते — बस्ता हल्का, सपने भारी।दोपहर को चौपाल में कुछ आराम, और रात को फिर सब साथ।

गांव भले छोटा होता, पर उसमें दुनिया बसती थी।

लोकगीत और तीज-त्योहार:

उत्तराखंड के गांवों में त्योहारों का मतलब सिर्फ पूजा नहीं था, वह सामूहिक उत्सव होता था —

हिलजात्रा, फूलदेई, घुघुतिया, बिखौती जैसे लोक पर्वों में पूरी पीढ़ियाँ शामिल होती थीं।झोड़ा, चांचरी और मंडाण जैसे लोकनृत्य हर गांव की शान थे।लोकगायक मोहन pretty bisht ki awaaz दूर-दूर तक सुनाई देती थी।

अब वो गीत कैसे गूंजें जब सुनने वाला ही नहीं बचा?

परिवार — एक इकाई नहीं, एक परंपरा

एक ही घर में तीन पीढ़ियाँ रहती थीं।

दादी की कहानियों में नैतिकता की जड़ें थीं,पिता की मेहनत में भविष्य की नींव थी,और बच्चे सब कुछ सीखते खेलते-खेलते।

अब वो घर खंडहर हैं, और रिश्ते — व्हाट्सएप की चैट में सीमित हैं।

पानी, पेड़ और पहाड़ — सबमें जीवन था

पहले गांवों में पानी का स्रोत धार, नौला, और गूल होते थे — लोग इन्हें पूजते थे।

बगीचों में अमरूद, नाशपाती, माल्टा, काफल हर मौसम की मिठास बनाते थे।

लेकिन अब…

“पेड़ वही हैं, बस फल तोड़ने वाला नहीं बचा।”

— रामदेव जोशी, रानीखेत निवासी


गुरुकुल से सरकारी स्कूल तक:

पहले गांव के स्कूल में शिक्षक “गुरु” समान माने जाते थे।

बच्चों को सिर्फ शिक्षा नहीं, संस्कार भी मिलते थे।

पढ़ाई के बाद खेतों में काम करना, फिर घर की मदद — यही था उनका शेड्यूल।

आज शहरों में पढ़ते हुए बच्चे गांव का नाम तक नहीं जानते।


एक पुरानी याद:

“हमारे गांव में दशहरे पर पूरा गांव इकट्ठा होता था। रामलीला होती थी। आज 20 साल हो गए, गांव में न राम है, न लीला।”

— गोपाल सिंह अधिकारी, चमोली


अध्याय की अंतिम पंक्तियाँ:

अतीत की वो मुस्कान अब तस्वीरों में सजी है — दीवार पर टंगी किसी पुरानी फ्रेम में।

पर जो गांव कभी आत्मनिर्भर, जीवंत, और संस्कृति के केंद्र हुआ करते थे — वो आज स्मृति-शेष बन चुके हैं।

पहाड़ अब भी वहीं हैं — पर उनके भीतर का जीवन कहीं खो गया है।

यदि आपको यह अध्याय पसंद आया तो अपनी प्रतिक्रिया रिव्यू सेक्शन में दें । 

यदि आप पुस्तक प्रेमी हैं - मेरी अन्य और पुस्तकें जैसे काठगोदाम की गर्मियाँ, अग्निपथ, फोकतिया और मन हार ज़िदगी की जीत Amazon | Flipkart पर पेपर बैक व हार्डकवर उपलब्ध है । 


पुस्तक ढूँढने के लिए आप लेखक का नाम: Dhirendra Singh Bisht या पुस्तक के शीर्षक से सर्च कर सकते हैं । 

Happy reading!